दीदी आप कल नहीं आई, तो यहाँ का माहौल काफी गमगीन था। इस पार्क के मुरझाये फूलों की ओझिल होती नमी और हरियाली के पीलेपन में रूपांतरण के माहौल में आपकी कमी की ख़लिश आपके घर का पता ढूँढ रही थी।
हे प्रभु! इतना रूमानी अंदाज़। सब ख़ैरियत तो है?
दरअसल सभी आपको बहुत शिद्दत से याद कर रहे थे। किसी का दिल नही लग रहा था यहाँ। आप तो रोज़ ही आया करो। अन्यथा बहुत लोगों की निगाहें आपकी ही तलाश में ‘पुलिस’ हुई रहती हैं। आपके इंतज़ार में पार्क के मुख्य द्वार पर पत्थर-सी हुई आँखों से मानो सैलाब आ गया होता कल यहाँ।
हा-हा-हा! कुछ ज़्यादा नही हो रहा ऊषा? आज तुम किसी और ही मूड में हो। शब्दों का ऐसा अंदाज़-ए-ब्यां मुझे किसी दूसरी ओर धकेल रहा है। तुम्हारे भीतर के किसी तूूफान ने तुम्हें उद्वलित किया हुआ है। सीधे तौर से बताओ तुम आज किस बात से विचलित हो?
हम्म्म......... आप बहुत अच्छे से समझती हो दीदी मुझे। आप सही पकड़े हैं। मैं कल इस पार्क के लोगों के व्यवहार से थोड़ी परेशान हो गई थी।
क्यों क्या हुआ कल यहाँ? कोई विशेष बात?
हाँ दीदी। अब तक हम दोनों जिस व्यवहार पर संदेह कर मजाक में लिया करते थे, कल उसकी वास्तविकता जान पड़ी। आपके लिए एक के बाद एक लगी सवालों की झड़ी के उत्तर देते-देते मैं कल उक्ता गई थी।
ऐसा क्या-क्या पूछ लिया तुमसे? (मजाकिया लहजे़ में)
यही कि आप क्यों नही आईं आज? आप कहाँ से आती हो? आप क्या करती हो? आप कौन हो? ब्ला-ब्ला-ब्ला!
तब तो कल मेरी सारी जन्म-कुंडली का व्याख्यान तुमने बड़े चटकारे लेते हुए किया होगा! और इस ब्ला-ब्ला में कौन-कौन से प्रश्न थे?
छोड़ो ना दीदी। क्या करोगी जानकर? आप आज आ गईं, सबको बहुत अच्छा लग रहा है। काफी सुकून है आज पार्क में। हरियाली लौट आई है और फूलों पर मुस्कराहट छाई है।
तुम मजे ले रही हो मेरे। पहले तो सच बताओ कि तुम मेरे मजे ले रही हो या इन लोगों के?
हा-हा-हा! सच कहूँ तो कल बहुत आश्चर्य हुआ मुझे कि लोगों की सोच इस क़द्र बहक सकती हैं! क्या इनमें से किसी को बिलकुल ख़्याल नहीं आया कि ये......
तुम कुछ ज़्यादा ही सोच रही हो ऊषा।
आप कुछ ज़्यादा ही नज़र अंदाज़ कर रही हो दीदी। आप इस बात को इतना हल्के में कैसे ले सकती हो?
ले सकती हूँ ऊषा। जानती हो क्यों? क्योंकि दिल तो बच्चा है जी।
आप हर बात मज़ाक में टालने का हुनर जानती हो दीदी। पर क्या कभी इन सब से आपको क़ोफ्त नही होती? अक्सर लड़कियों को इस असभ्य आचरण से दो-चार होना पड़ता है। आपको नही लगता कि इन लोगों को अपने नयनों के तीखे कोरों की सफे़दी से झांकने के प्रयास से पहले अपने-अपने परिवारों के विषय में भी सोचना चाहिए!
तुम तो ज़्यादा ही संज़ीदा हो गई ऊषा। तुम किस बात से अधिक विचलित हो? इनके घूरने से या ‘किसी लड़की’ के विषय में प्रश्न करने से?
मैं समझ नहीं पा रही कि ये लोग चाहते क्या हैं?
यदि मैं तुमसे कहूँ कि सिर्फ़ मुझसे ‘दोस्ती’ करना चाहते हैं। बात करना चाहते हैं। तो क्या तुम इस बात को स्वीकार करोगी?
मतलब? ऐसा कैसे हो सकता है? आप एक लड़की हो...........
और ये पुरूष हैं। कुछ विवाहित भी हो सकते हैं और उम्रदराज़ भी। इनकी आपकी मित्रता कैसे हो सकती है? क्यों करनी है इन्हें आपसे दोस्ती या बात? इनकी नीयत सही नही होगी। आपका परिवार और समाज क्या सोचेगा? और सबसे बड़ा सवालः ऐसा कैसे हो सकता है? यही सब सोच रही हो ना तुम?
हाँ दीदी। पर आपको कैसे पता?
यही मानवीय प्रवृत्ति है। जैसे तुम सोच रही हो, अधिकतर लोग ऐसे ही सोचते हैं। पर तुम्हें नही लगता कि अब इस सोच के दायरे से बाहर निकल जाना आवश्यक है! साथ ही दोस्ती की परिभाषा को भी विस्तृत किया जाना चाहिए। दोस्ती किसी भी उम्र में और किसी के भी साथ हो सकती है। यह एक स्वार्थहीन और निश्छल रिश्ता होता है। बहुत गहरा भी, जिसमें दो व्यक्ति अपने भेद, दिल की बात, क्रोध, स्नेह, प्यार सब साँझा करते हैं, एक विश्वास के साथ। यह विश्वास इस बंधन को बहुत मजबूती भी देता है। ‘बातें’ जो कदाचित् आप किसी और रिश्ते के साथ खुलकर न कर सको, वे सब इस रिश्ते में निःसंकोच भाव से की जाती हैं। समस्त सघन रिश्तों मसलन माता-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नी से इतर इस रिश्ते की अपनी अलग भूमिका है। इस रिश्ते में जो ‘प्यार’ है उसे शब्दों में नही बाँधा जा सकता।
यह तुम्हारी और हमारी दोस्ती ही तो है जो इस विषय पर हम बिना किसी संकोच बात कर रहे हैं। तुम शायद ये बातें और किसी ‘रिश्ते’ से न करना चाहोगी।
मैं सहमत हूँ आपसे दीदी।
यह बात तो हुई दोस्ती के विषय में। अब समस्या यह है कि यह दोस्ती किन दो व्यक्तियों के बीच है! हम दोनों लड़कियाँ है और साथ रह सकती हैं और इस विषय पर बात कर सकती हैं। और एक-दूसरे से बहुत प्यार भी करती हैं। परन्तु यदि तुम्हारे या मेरे स्थान पर कोई लड़का हो तो...........
तो दीदी फिर वही समस्या कि ‘ऐसा कैसे हो सकता है’? ऐसी बातें एक लड़के के साथ कैसे की जा सकती हैं और ये दोस्ती का प्यार क्या होता है?
ये दोस्ती वाला प्यार मेरे शब्दों में ‘‘तीसरा प्यार’’ है।
तीसरा प्यार? पहला और दूसरा प्यार कौन-से हैं दीदी?
ऊषा! हम अक्सर दो ही प्रकार के प्रेम के विषय में बात करते हैं। पहला, जिसमें दो लोग एक-दूसरे के प्रति निष्ठापूर्वक समर्पित होते हैं। और दूसरा, जिसमें प्यार एक तरफ़ा होता है। परन्तु इन दोनों के अतिरिक्त एक तीसरे प्रकार का प्यार भी होता है।
दीदी आप थोड़ा और विस्तार से समझाओगी?
समझाती हूँ। तुमने कुछ फिल्मों में देखा होगा कि हीरो-हीरोइन को एक-दूसरे के साथ रहना व बातचीत करना बहुत अच्छा लगता है। वे एक-दूसरे की परवाह करते हैं, दुःख-सुख का बहुत ध्यान भी रखते हैं। परन्तु वे एक-दूसरे के साथ जीवन-व्यतीत नही करना चाहते। शादी नही करना चाहते।
हाँ दीदी। उसे इंफेचुएशन या आसक्ति कहते हैं।
हम्म्म......... आसक्ति में एक-दूसरे के प्रति परवाह नही होती। यह क्षणिक भी होती है। आज आसक्ति ‘अमुक’ के प्रति है, तो हो सकता है कि कल किसी ‘अन्य’ के प्रति हो।
तो फिर यह कैसा सम्बन्ध है दीदी?
तुम्हारे और मेरे जैसा। दोस्ती का। बस अन्तर है ‘जेंडर’ का। यही है तृतीय प्रकार का प्रेम।
ऊषा! किसी का अच्छा लगना या न लगना इसका सम्बन्ध उस ‘हृदय’ से है जो मात्र रक्त ही पम्प नही करता है, बल्कि संवेदनाओं एवं भावनाओं से सराबोर भी है। जिसे ईश्वर प्रदत्त वे जिम्मेदारियाँ भी दी गई हैं जिनका निर्वहन करते इसे कई बार अनेक पीड़ाओं से गुजरना पड़ता है। अक्सर इसकी पैरवी चक्षुओं द्वारा की जाती है। परन्तु इसे समझने की मेधा कई बार विद्वानों में भी नही होती। यह अतार्किक है। तार्किक बुद्धिधारियों के लिए यह विचार अपराध है। परन्तु ये भावनाएँ सभी सजीवों में निहित होती है। यह तृतीय प्रेम आवश्यक नही किसी फलाँ व्यक्ति के ही प्रति हो। यह प्रेम कई लोगों में किसी वस्तु विशेष के प्रति होता है, तो किसी में किसी सामाजिक कार्य के प्रति भी होता है। यह आभासी होते हुए भी यर्थाथ है, जिसके अस्तित्व को नकारा नही जा सकता।
किसी सामाजिक भावना के प्रति पे्रम को उच्च काटि का मानते हुए उसे विभिन्न पुरस्कारों से नवाजा जाता है। ‘समाज सेवा’ का भी नाम दिया जाता है। किसी वस्तु के प्रति इस भावना को ‘वस्तु-प्रेम’ कहा जाता है। किसी संबंधी से इस प्रकार की भावना को रिश्तों के बंधन के रूप में परिभाषित किया जाता है। मात्र ‘विपरीत लिंग’ से ‘दोस्ती’ में इस भावना को प्रदूषित किया जाता हैं। विभिन्न प्रकार की निकृष्ट शब्दावली से इस बंधन की डोर को जबरन जोड़ा जाता है। पवित्र होते हुए भी सामाजिक कलंकों के दाग आज भी हमारे समाज में इस रिश्ते को बदरंग करते हैं। सीधे शब्दों में कहा जाए तो बदले हुए इस आधुनिक समाज में ‘एक लड़के और एक लड़की की पाक दोस्ती’ स्वीकार करने का साहस अभी भी नही आ सका। इस तीसरे प्यार की उचित परिभाषा अभी भी अनुचित का जामा पहने हुए है। पता नही कब इस ‘तीसरे प्यार’ को सामाजिक स्वीकारोक्ति का न्याय मिलेगा?
मैं आपकी बातों से सहमत हूँ दीदी। और आपके इस तीसरे प्यार की इतनी भिन्न अवधारणा का बहुत सम्मान करती हूँ। अभी हमारे समाज को इस अवधारणा के प्रति अपनी सोच विस्तृत करने में बहुत अधिक समय लगेगा। यहाँ रिश्ते निश्चित परिभाषा के दायरे में बंधे सम्बन्ध में तो स्वीकार्य हैं परन्तु उन दायरों के बाहर अन्य सभी अपराधी हैं। प्रत्येक परिवर्तन में समय लगता है। इसमें भी लगेगा। जो स्थिति पूर्ववत् थी, वह अभी नही है। और आगे आने वाले समय में और अधिक परिवर्तन निश्चित रूप से होंगे।
सही कहा तुमने। लेकिन ये बताओ इन पार्क वालों से दोस्ती पर अब तुम्हेें कोई आपत्ति तो नहीं? तुम्हारी ही तरह क्या ये मेरे दोस्त बन सकते हैं?
हा-हा-हा! नही, कोई आपत्ति नही। चलिए, अब घर चलते हैं।
नीरज तोमर
मेरठ।