Sunday, October 31, 2010

त्यौहारों का होता बाजारीकरण



त्यौहारों का होता बाजारीकरण

आज कल त्यौहारों की धूम है। विजयदशमी, करवा चैथ व आगामी दीपावली आदि सेे प्रत्येक घर में हर्ष व उल्लास का माहौल है। आधुनिक व्यस्तताओं के मध्य ये त्यौहार ही तो है जो कोल्हू के बैल की भाँति जुटे मानसों को परिवार के लिए कुछ समय प्रदान करते है।
आज त्यौहारों का स्वरूप व उन्हें मनाने का ढंग बहुत ही आश्चर्यजनक रूप से परिवर्तित हो गया है। पिछले कुछ वर्षों की बात करें तो व्यक्ति त्यौहार स्वयं के लिए या परिवार के लिए ना मनाकर बाजार के लिए मना रहा है। अर्थात् त्यौहारों का बाजारीकरण हो रहा है। कोई भी त्यौहार आये बाजार सर्वप्रथम गर्म व सक्रिय हो जाता है। मानवीय व धार्मिक भावनाओं को भुनाना आज का बाजार भली-भाँति सीख गया है।
पहले त्यौहार घर-परिवार-पड़ौस के सभी जन मिलकर मनाते थे। एक दूसरे के यहाँ प्रेम भाव से गृह-निर्मित सामग्री दिया करते थे। परन्तु आज त्यौहार क्बस में मनाये जाने लगे है। घर की बनायी मिठाईयों के स्वाद की हत्या बाजार की मिठाईयों ने कर दी है। दीयों का अस्तित्व इलैक्ट्रिक बल्बों ने खतरे मंे डाल दिया है। उपहासनीय है कि त्यौहार टैक्निकल हो गये है।
त्यौहारों के मनाये जाने का कारण आज यदि बच्चों से पूछा जाता है तो उनका उत्तर स्तब्ध कर देता है। वे नही जानते कि कोई त्यौहार क्यों मनाया जा रहा है। परन्तु वे ये जानते है कि दीपावली पटाखों व मिठाईयों का त्यौहार है। पूर्वजों की सीख से उन्हें कोई सरोकार न होकर मौज मस्ती का त्यौहार प्यारा है।
इस स्थिति में आखिर कब तक पूर्वजों की स्मृति व सीख को बचाया जा सकता है? इस प्रकार तो भारतीय संस्कृति विलुप्त हो जायेगी। कौन जानेगा कि राम कौन? और भगवान कौन? सोचिए..........................