Wednesday, August 19, 2020

मैंने तुमसे ये तो न कहा था!

मैं उसे जानती थी और वो मुझे
मैं उसे चाहती थी और वो मुझे
मैंने उसे खु़द को सौंपा था और उसने मुझे
मैंने उस पर भरोसा किया था और उसने.........
मैंने उससे ये तो न कहा था कि तुम.........
मुझे यूँ तार-तार करना,
इस क़दर मुझे लाचार करना,
इतना बेजार करना,
बिन सोचे, बिन विचार करना।

तुम ही तो कहते थे ना कि मैं
तुम्हारी जिंदगी हूँ,
प्रीत हूँ, जीवन का संगीत हूँ।
मैंने भी तुमसे कहा था कि
तुम मेरी साँस हो, 
जीने की आस हो,
एक सुखद अहसास हो।
पर मैंने तुमसे ये तो न कहा था कि तुम......
सरे राह मेरे कपड़े उतार देना,
अपने दोस्तों को मेरे जिस्म पर विस्तार देना,
मेरे नाजुक अंगों पर घातक वार देना,
मेरी पीड़ा से अपने आनन्द को निखार देना।

मैंने तो माना था कि मैं तुम्हारी थी,
तुम पर हर तरह से वारी थी।
पर मेरा अंतर्मन रो उठा ये जान कर,
कि तुम्हें दया तक नही आती, 
किसी नन्हीं सी जान पर।
न कोई उम्र है, न कोई पहनावा
तुमने तो बस किया, 
सबसे अपनेपन का दिखावा
पर उनमें से किसी ने तुम्हें ये तो न कहा था कि तुम....
उस अबोध को किसी अंधेरी गली मेें ले जाना,
और फिर निष्ठुरता से उसके कोमल अंगों को दबाना,
तोड़ना उसके जिस्म के एक-एक जोड़ को,
फंेक देना गला दबाकर कि चलती रोड़ को,
या खिला देना बोटी उसकी जंगली कुत्तों को,
और लगा देना आग बचे हुए टुकड़ों को।
उसने तो तुम्हारी दिखाई, 
मामूली टाॅफी का ही तो लालच किया था।
और तुमने उसको इसका ऐसा सिला दिया था।
गलती थी उसकी, लालची थी वो
प्यार समझती थी, तो भरोसा कर गई वो
पा गई सज़ा और दे गई तुम्हें मज़ा।
पर उसने ये तो न कहा कि तुम..........
उसकी कोमलता को रक्तरंजित कर
उसे मृत्यु का दान देना,
उसके विश्वास का ये इनाम देना।


एक और अबोध पूछती है तुमसे
चलना नही आता, अक्सर लेटी रहती है वो
उसके चंचल नेत्र बहुत लुभाते हैं सबको,
उठती बांहों को देख, सब उठाते हैं उसको,
सबकी चहेती और सबकी लाड़ली है वो,
अभी ज़्यादा उम्र नही, थोड़ी बावली है वो।

पर तुम्हें तो उसका अपूर्ण यौवन नज़र आता है,
उसका हंसना भी तुम्हें बहुत ही भाता है,
उसकी नासमझ-सी अंगड़ाई तुम्हें बुलाती है,
और तुम्हारे परिपक्व अंगों को उकसाती है।
तुम निकल पड़ते हो, लेकर उसे अपनी गोद में
तुम बन जाते हो उसके अपने, उसके अज्ञान बोध में
उसकी नाजुक उंगलियाँ छूती हैं तुम्हारे होठों से,
और तुम दबा देते हो उसे अपने कुटिल दाँतों से,
वो चीखती है, ज़ोर से होकर बेबस
क्यों रखा तुमने हाथ उसके मुँह पर,
नही समझती इसका सबब।
भीगे नयनों से निहार है, और पूछती है तुमसे
कि मैं तुमसे ये तो न कहा था कि तुम...........
यूँ चुरा लाना मुझे,
यूँ बेदर्दी से दबाना मुझे,
यँू इतना रूलाना मुझे,
और जीवन मुक्त कर जाना मुझे,
और जीवन मुक्त कर जाना मुझे।

मैं भी जा रही थी अपनी राह,
तुमने ही तो था मुझे चाहा,
मेरा तुम्हारा तो परिचय भी न था,
तुमने मुझे देखा कभी,
मेरी तो यह रूचि में भी न था।
फिर तुम्हें क्या लगा?
कि तुम भर लाए उस ज़हर का प्याला,
जिसने मेरा सारा जिस्म जला डाला,
मैं कैसे कहूँ कि मैंने तुम्हें ये तो न कहा था कि तुम....
जब मैं हूँ तुमसे पूर्णतः गुम।
तुमने छीन लिया मुझसे मेरे वजूद को,
मेरे पहचान को, मेरे जुनून को,
अब मैं बाहर नही जाती हूँ,
खुद को ही नही जान पाती हूँ,
पर तुमसे मिलना चाहती हूँ,
और पूछना चाहती हूँ कि
क्या तुम अब भी मुझे चाहोगे?
क्या अब भी मुझे अपनाओगे?
जैसी थी, वैसी तो तुम्हें न मिल पाई मैं
पर जैसी तुमने बनाई, 
क्या इसे आजमाओगे?
क्या अब तुम मेरी जिंदगी में आओगे?
क्या अब तुम मेरी जिंदगी में आओगे?
यदि नहीं,
तो मुझे बताओ!
मैंने तो तुमसे न कहा था कि तुम........
मुझे ये रूप देना,
ये तड़पाती धूप देना,
लोगों का उपहास देना,
जिंदगी की प्यास देना,
और मौत का अहसास देना।

मैं भी पूछना चाहती हूँ तुमसे कि....
तुम जानते थे ना, मेरा दिमागी दिवालियपन?
बात ये, कि क्यों हूँ मैं अधनंग?
ज्ञान नही मुझे मेरे होने का,
तो क्या समझूँगी भला लड़की का होना?
छीः! तुम मुझसे भी न घिन कर सके,
क्या आदमी हो, जो मुझ पर भी मुँह गड़ा पाए।
हवस की इंतिहा क्या है ए-मालिक!
कोख में लिए घूम रही हूँ एक कालिख।
मुझे तो ना मेरी सुध, ना मेरा होश
कैसे आता है मुझे देख इन वहशियों को जोश?
क्या हो रहा, क्या होगा?
कुछ न पता, कुछ न ख़बर
बस एक ही आस और एक ही डगर,
कोई तो पूछो इन शैतानों से,
कि हमने कब कहा था इन्हें कि तुम...........
हमें यूँ............

नीरज तोमर
मेरठ।




Thursday, July 23, 2020

पढ़ाई ऑनलाइन



अब सो जाओ। सुबह बात करते हैं।

सुबह होने में अभी कई घंटे बाकी हैं। सारी रात ही तो बाकी है। इस बेचैनी के साथ भला कैसे होगी सुबह? रात को नींद ही कहाँ आएगी!

तुम इतनी परेशान मत होओ। सुबह इसका हल निकालेंगे। अभी सो जाओ।

प्रयास तो बहुत किया सोने का, परन्तु नींद को तो मानो मुझसे शत्रुता हो गई थी। या कहो उसे मेरी फ़िक्र बहुत थी। आधी रात तो बस करवटें बदलने में भी चली गई और शेष बुरे स्वपनों से चैंकने में।
सुबह उठी तो ऐसा लगा ही नही कि रात भर सोई भी थी। सिर और मन दोनों ही बोझिल थे।

कुछ सोचा तुमने कि क्या करना है?

हम्म्म....... मन है कि पहले तुमसे लड़ लूँ।

मुझसे? वो क्यों भला? मैंने क्या किया?

तुम ही तो इतने दिनों से हमें नाकारा सिद्ध कर रहे थे। जब तुम ही हमारी समस्या या परेशानी नही समझोगे, तो भला बाहर वालों से क्या आशा रखें? तुम तो सब अपनी आँखों से देखते हो, समझते हो। तब इतने आरोप हम पर......। और जो इस विभाग से परिचित भी नही हैं, वे तो मानो अपराधी साबित करने के अवसर ही तलाशते रहते हैं।

मैंने तो तुमसे ऐसा कुछ भी नही कहा, जो तुम इतनी क्रोधित हो रही हो।

क्यों भूल गए? तुम ही ने तो कहा था ना कि जब सब स्कूलों में ऑनलाइन पढ़ाई हो रही है, तो तुम्हारे सरकारी स्कूल में भी ऑनलाइन पढ़ाई होनी चाहिए। मैं तुम्हें समझा रही थी कि यह सब यकायक आरंभ नही हो सकता। जिन प्राइवेट स्कूलों में यह सब हो रहा है, वे लोग कहीं न कहीं आॅन लाइन प्रक्रियाओं से पहले से ही जुड़े हुए हैं। और जिन सरकारी स्कूल के बच्चों के साथ आप यह सब आरंभ करने के लिए कह रहे हैं, ये वे बच्चे हैं, जो आर्थिक रूप से अत्यधिक कमजोर हैं। जिनके घर खाना तक खाने के लिए नही होता, इसीलिए स्कूलों में मिड डे मील बनता है। तो भला ये बच्चे व्हाट्स अप या अन्य किसी एप पर आॅन लाइन क्लास कैसे कर सकते हैं?
पर आपने मेरी बात न समझकर, यह कहा कि हम सरकारी शिक्षक काम न करने के बहाने तलाशते हैं। कुछ समस्याओं की यर्थाथता को भी समझना चाहिए। अब बताइये..... हो गई न समस्या खड़ी।

मेरे कहने का यह अर्थ नही था। मैं तो बस उन बच्चों की भलाई के लिए कह रहा था। मुझे इस प्रकार की समस्या का अनुमान तक न था।

आपसे अधिक विभागीय परिस्थितियों को तो हम ही समझ सकते हैं ना? और सौ में से यदि नौ-दस बच्चों के व्हाट्स अप नम्बर मिल भी गए तो बाकी के नब्बे बच्चों को कैसे पढ़ाएंगे? आपके सामने ही उन्हें फ़ोन किया है। वे किस प्रकार भद्दी भाषा का प्रयोग करते हैं। अभिभावक साफ़-साफ़ मना कर रहे हैं कि यह समय गेहूँ की कटाई का है। गेहूँ काटें या बच्चों को पढ़ाई पर बैठाएं? और तो और टीचर का नम्बर क्या मिल गया, दिन-रात कितने फ़ोन करने शुरू कर दिए! न कोई समय देखता है और न कोई मर्यादा है। कोई उल्टी-सीधी बात शुरू कर देता है। कोई सिर्फ़ इसलिए फ़ोन कर रहा कि आपसे बात करने का मन है। क्या हमारी कोई व्यक्तिगत् जिंदगी या परिवार नही है? क्या हमारी सुरक्षा सुनिश्चित नही की जानी चाहिए? क्या अध्यापक होने के नाते हमें शिक्षक-सम्मान का अधिकार नही है?

उन दस बच्चों के साथ बनाए व्हाट्स अप ग्रुप में जिस भद्दी गाली से हमें सम्बोधित किया गया है, उसने तो मेरी आत्मा को ही लज्जित कर दिया। उन शब्दों का स्वयं के लिए प्रयोग मेरे आत्मसम्मान के लिए असहनीय है। हो सकता है कि किसी में गाली सहने की शक्ति हो, परन्तु मेरे लिए अत्यधिक कष्टदायी है। मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है, मानो किसी ने मेरा गला दबा रखा हो। मैं ग्रुप में बच्चों को पढ़ा रही थी। मैं क्या पढ़ा रही हूँ एक शिक्षिका होने के नाते मैं अच्छी तरह से जानती हूँ। वे जो पढ़े भी नही और इस प्रकार की अभद्र भाषा का प्रयोग कर रहे हैं, वे मुझे ‘ज्ञान’ बाँट रहे हैं कि मैंने क्या काम दे दिया?

अलबत्ता तो वे समझ ही नही पाए कि यह ग्रुप बच्चों की पढ़ाई के लिए बनाया गया है। एक भी दिन उस बच्चे ने मेरे द्वारा दिया गया कोई भी कार्य कर ग्रुप में नही भेजा। पर हाँ, उसके घर में से जिसका वह व्हाट्स अप नम्बर था, उसने इतनी गंदी गाली अवश्य भेजी। क्या अब भी आप हमें नकारा कहेंगे? सिर्फ़ इसलिए कि हम पर ‘सरकारी’ होने का टैग है।

ऐसा नही है। तुम ग़लत समझ रही हो। मैं जानता हूँ कि सरकारी संस्थाएँ भले ही बहुत गालियाँ खाती हैं, परन्तु देश की व्यवस्था की रीढ भी ये ही हैं। इन संस्थाओं की जवाबदेही होती है। कोई भी जिम्मेदारी वाला कार्य इन्हीं संस्थाओं को भरोसे के साथ दिया जाता है। ये सरकारी संस्थाएं ही हैं, जो किसी भी कार्य को मना करने के अधिकार से वंचित होती हैं। यदि इन्हें चाँद तोड़ने के लिए कहा जाए, तो भी एक सरकारी कर्मचारी तोड़ने के लिए निकल पड़ता है। क्योंकि न कहने का अधिकार तो उसके पास है ही नही। देश के सभी ‘बड़े’ कार्य चुनाव, जनगणना, बालगणना इत्यादि और गालियाँ खाना सभी तो सरकारी कर्मचारी को ही करने होते हैं। यदि देश में कोई महामारी फैल जाए तो प्राइवेट डाॅक्टर्स दुबक कर बैठ जाते हंै, सभी तो नही परन्तु अधिकतर। लेकिन सरकारी डाॅक्टर फ्रंट पर खड़ा होता है। इसी प्रकार सभी विभागों में यही हाल है। तो तुम भी परेशान मत होओ। तुम सरकारी हो। काम भी करो, और गालियाँ भी खाओ। आदत डाल लो।

आप मज़ाक बना रहे हैं मेरा।

नही, समझा रहा हूँ तुम्हें। मात्र एक बच्चे के अभिभावक द्वारा किया गया अभद्र व्यवहार तुम्हारा आत्मविश्वास नही तोड़ सकता। इस बच्चे के अभिभावक की विभाग में शिकायत करो। और बाकी बच्चों के प्रति अपने दायित्वों का निर्वहन करो। न घबराओ, न परेशान होओ। बस अपना कर्म करो।

थैंक्यू। मैं आपकी बात समझ गई। आप सही कह रहे हैं। मैं ज़रा बच्चों को आज का काम दे दूँ।



Saturday, June 13, 2020

हर्ड इम्युनिटीः सामूहिक नरसंहार


कोविड-19 के कारण हुए लंबे लाॅकडाउन के उपरान्त जून 2020 से केन्द्र सरकार ने अनलाॅक-1 की घोषणा कर दी। सभी राज्य परिस्थितियों के अनुसार अपने-अपने निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र हैं। तदनुसार राज्य सरकारों ने अपने-अपने राज्यों को अनलाॅक करना आरंभ भी कर दिया है। कुछ तर्क इसके समर्थन में इस प्रकार हैं कि लंबे समय तक लाॅकडाउन देश की अर्थव्यवस्था के लिए घातक सिद्ध हो सकता है। देश की अपनी बाध्यता है कि मरीजों का आंकड़ा पाँच सौ से दो लाख से अधिक होने के बावजूद अब देश अनलाॅक हो रहा है।

सरकार का यह निर्णय अर्थव्यवस्था और देशवासियों में से किसे बचा पाएगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा परन्तु जो निर्णय कोरोनाकाल में लिए गए, उनकी विवेचना करना अति आवश्यक है। कदाचित इस समस्या का कोई उचित हल ही निकल आये।

जनवरी माह में कोरोना ने भारत में सर्वप्रथम दस्तक दी थी। उस समय शायद इसकी इस विकरालता का किसी को भी अनुमान न था। एक आशा, भारतीय वातावरण एवं तापमान से भी थी कि तेज़ धूप एवं असहनीय गर्मी भारत में इसे शीघ्र ही नष्ट कर देगी। परन्तु ‘अनुमान’ से मिले धोखे ने भारतीय नक्शे को रंक्तरंजित कर दिया। 24 मार्च से आरंभ हुए 21 दिन के लाॅकडाउन के परिणाम सुखद न थे और फिर शुरू हुआ लाॅकडाउन बढ़ाने का सिलसिला। लाॅकडाउन अर्थात् सबकुछ थम जाना। देश, व्यवस्था, व्यापार सबकुछ और इसी से आरंभ होती हैं चुनौतियाँ। सर्वप्रमुख कोराना के प्रसार को रोकना। दूसरी, थमे देश की अर्थव्यवस्था संभालना और तीसरी देशवासियों के भय को कम करते हुए उनका विश्वास जीतना। उन्हें भरोसा दिलाना कि ‘वे’ जिन्हें देश की जनता ने इस विश्वास के साथ चुना है कि ‘वे’ उनकी मुसीबत में उनका सहारा बनेंगे, ‘वे’ उनके भरोसे को कायम रखते हुए उनकी व्यवस्था अवश्य करेंगे।

भारत में दो अन्य समस्याएं भी है- एक जागरूकता का अभाव, दूसरी अनुशासनहीनता। ये दो वे समस्याएं है जिन्हें मजबूत सरकारी तंत्र एवं योजनाएं उन्मूलित कर सकती हैं। और यदि ये समाप्त हो जाएं तो निश्चित रूप से बहुत सारी समस्याएं स्वतः ही अदृश्य हो जाएंगी। तबलीगी जमात एवं सड़कों पर दौड़ती मजदूरों की भीड़ भी, इन्हीं दो समस्याओं को प्राथमिकता देते हुए नियंत्रित की जा सकती थी। अनुशासन मात्र जनता पर लागू नही होता। यह सर्वविदित है कि जनता से अनुशासन की अपेक्षा कर, योजनाओं को ढुलमुल तरीकों से लागू करके, किसी सकारात्मक परिणाम की अपेक्षा करना मूर्खता है। सरकारी योजनाओं को लागू करने के लिए पहले सरकारी तंत्र को स्वतः पूर्ण रूप से अनुशासित एवं ईमानदार होना होगा। यदि इस स्तर पर कोई चूक रहती है, तो निश्चित रूप से सभी प्रयास असफल हो ही जाएंगे। प्रथम लाॅकडाउन की असफलता इसी अनुशासनहीनता का परिणाम है।

सरकार के अनुसार, लाॅकडाउन के कारण भारत में मृत्यु दर अन्य देशों की अपेक्षा कम है। क्या मृत्यु को तुलनात्मक रूप से देखना निंदनीय नही है? यदि प्रथम लाॅकडाउन को अत्यधिक कड़ाई से लागू किया जाता तो क्या यह आंकड़ा और अधिक कम नही हो सकता था? मजदूरों का इस प्रकार पलायन रोक, उनकी उचित व्यवस्था उसी स्थान पर की जाती, जहाँ वे रह रहे थे। संभवतः इसमें सरकार का खर्च भी अपेक्षाकृत कम होता और कोरोना के विस्तार को भी रोका जा सकता था। साथ ही विदेशों से आने वाले लोगों को भी पूर्णतः लाॅक करते हुए, देश की सीमाओं को बंद कर दिया जाना चाहिए था। इसी प्रकार राज्य स्तर पर राज्य की सीमाओं को और फिर जिला स्तर पर जिलों की सीमाओं को पूर्ण रूप से प्रतिबंधित किया जाना चाहिए था। यह लाॅकडाउन कफ़्र्यू की भांति होना चाहिए था। तत्पश्चात् कोरोना निरीक्षण/जांच आरंभ की जाती एवं अन्य मेडिकल आवश्यकताओं की आपूर्ति की जाती। दैनिक आवश्यकताओं की आपूर्ति भी निश्चित योजनाएं बनाकर की जानी चाहिए थी, जिससे अफरा-तफरी न मचे। परन्तु मजदूरों का इतना निर्मम पलायन और उस पर सरकारी मलहम, ‘सहायता की राजनीति’ अधिक प्रतीत हो रही थी। साथ ही ऐसा लग रहा था कि एक के बाद एक लाॅकडाउन, मानो सरकार बस कोरोना से ही अपेक्षा कर रही हो कि वह स्वतः ही चला जाए। इसी बीच चलता रहा राहत पैकेजों का बंदरबाँट सिलसिला। सरकारी विभागों के निजीकरण की ओर बढ़ते कदम। आखिरकार लोग ‘कोरोना के प्रकोप’ में व्यस्त जो थे।

निश्चित रूप से कुछ चुनौतियाँ अप्रत्याशित भी थी। परन्तु मुसीबत से निपटने के लिए अनपेक्षित परिस्थितियों की तैयारी पहले की जाती है। इसीलिए ही तो कोई देश नेता चुनता है। किसी परिवार का मुखिया अपनी इस भूमिका को जितनी कुशलता से निभाता है, वह परिवार उतना ही अधिक प्रगति करता है। देश के मुखिया से भी यही अपेक्षा की जाती है। अपनी इसी कुशलता के कारण ही तो वह विशिष्ट होता है। परन्तु यदि वह विपरीत परिस्थितियों को संभालने की योग्यता नहीं रखता, तो वह मुखिया होने का भी हक़दार नहीं है। जनहित में उसे त्यागपत्र दे देना चाहिए।

जून से आरंभ हुआ ‘अनलाॅक’ इस असफलता के दोषी को अपनी अयोग्यता स्वीकार करने एवं जनहित में फै़सला लेने के लिए आमंत्रित कर रहा है। इस विकट स्थिति में लिया गया अनलाॅक का निर्णय ‘सामूहिक नरसंहार’ की ओर संकेत कर रहा है। देश के पालनहार कहते हैं कि देश को कोरोना के साथ जीने की आदत डाल लेनी चाहिए, परन्तु सच्चाई यह है कि अपर्याप्त मेडिकल सुविधा एवं डूबती अर्थव्यवस्था की नैया में, अब देशवासियों को कोरोना के साथ मरने की आदत डालनी होगी। उच्च स्तरीय मेडिकल सुविधाएं, उच्च स्तरीय लोगों के लिए संरक्षित है। अतः आम आदमी का उनकी ओर ललचाई नज़रों से देखना व्यर्थ है। हर्ड इम्युनिटी के नाम पर लोगों की बलि चढ़ाकर, सरकार अपनी पूजा सम्पन्न कर, कोरोना से मुक्ति अवश्य पा जाएगी। वैसे भी कोई आपदा या विपदा ही तो सरकार को पौ-बारह करने के अवसर प्रदान करती है।

बहरहाल, सभी देशवासी आत्मनिर्भर हो, अपने जीवन की रक्षा करें। सजग रहें, सुरक्षित रहें।

Friday, May 8, 2020

लाॅकडाउन


ऐसा भी समय होता है क्या? ये तो कभी सोचा भी न था। हम तो हम, हमसे पहली पीढ़ी ने भी ये सब कभी नही देखा होगा। पर हाँ, हमारे बच्चे आगे आने वाली पीढ़ियों को ये किस्से अवश्य सुनाएंगे। कुछ मजे़दार बनाकर, कुछ भयभीत कर, कुछ करूणामय अंदाज़ में। भावी पीढ़ी के लिए एक मज़ेदार मसालायुक्त, रात के लिए नानी-दादी की कहानियाँ बनेंगी। और यूँ शुरू हो जाएगा इक नया युग और परिवर्तित हो जाएंगी ये कहानियाँ। पहले किस्से राजा महाराजाओं के हुआ करते थे। और फिर चली आज़ादी की कहानियाँ। कम्प्यूटर युग में यह स्वरूप और बदला और फिर आया लाॅकडाउन...........। एक भयंकर महामारी, कोरोना जिसने सम्पूर्ण विश्व में हाहाकार मचा दिया, के उपचार हेतु लोगों का स्वतः एवं शासनादेशानुसार घरों में रहना है लाॅकडाउन।
कहा जाता है कि लगभग सौ वर्षों में कोई न कोई महामारी अवश्य फैलती है। 13वीं शताब्दी में ब्लैक डैथ, 15वीं शताब्दी में कोकोलिज़ली, 16वी शताब्दी में प्लेग, 17वीं शताब्दी में पुनः प्लेग, 18वीं शताब्दी में फ्लू, 19वीं शताब्दी में पोलियो, स्पेनिश फ्लू एवं एशियन फ्लू, 20वीं शताब्दी में स्वाइन फ्लू, इबोला, जीका और अब कोरोना। कदाचित यह इसलिए क्योंकि इसके माध्यम से प्रकृति पृथ्वी की रक्षा करती है। उसे स्वच्छ करती है। संतुलन स्थापित करती है। मानव की अतिमहत्त्वकांक्षाओं को आइना दिखा नियंत्रित करती है। सफलता, कामयाबी, मुनाफ़ा, ऊँचाई, लालच सबके खेल में मानो प्रकृति ने ‘स्टैच्यु’ बोल दिया हो।

परन्तु इस खेल में आनन्द आ रहा है। हालांकि कुछ लोगों को खेल खेलना नही भाता है, परन्तु इस खेल को खेलने के लिए कई परिवार वास्तव में तड़प गए थे। ‘ज़िदगी में सबकुछ है पर सुकून नहीं’, ‘पैसा है, पर परिवार नही’ ऐसे अनेक वाक्य हमारे जीवन में निराशा भरने लगे थेे। चाह कर भी कोई इस भंवर से बाहर नही आ पा रहा था। पर देखो ना! यह पृथ्वी हमारी माँ है और माँ बच्चों की अनकही पीड़ा को सुन लेती है। हमारी इसी पुकार को सुन, दे दिया इसने हमें ज़िंदगी का सुकुन। सुकुन परिवार के साथ घंटों टीवी देखने का, लूडो, कैरम, ताश, शतरंज, अंताक्षरी खेलने का, दुःख-सुख की बात करने का, यूँ ही बेवजह लड़ने का झगड़ने का, घंटों सोने का, विभिन्न व्यंजनों का, फ़ोन पर एक-दूसरे की ख़ैरियत पूछने का, हँसी-मजाक और खिलखिलाहट का। इसी सुकून चाह थी ना?

अब आप कहेंगे व्यापार में हानि, भूख और पानी, दैनिक ज़रूरतें और होती मौतें कहाँ वह सुकून देती हैं। वास्तव में दुःखद एवं कष्टदायी है यह सब। परन्तु जिस प्रकार हर सिक्के के दो पहलू होते हैं, उसी प्रकार जो परिस्थितियाँ हमारे हाथ में नही हैं, तो क्यों न इसी में सुख की अनुभूति की जाए। आशावादी हो, जो बुरा नही हुआ उसके लिए ईश्वर का धन्यवाद किया जाए। व्यक्ति की वर्षाें से चल रही दिनचार्य से इतर जब कुछ होता है, तो वह कष्टदायी तो लगता ही है। परिणामस्वरूप दुःख एवं अवसाद की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। दुःख स्वभाविक है। मानवीय प्रकृति एवं अनुभूति है। परन्तु अवसाद विशेष अवस्था है। दुःख की चरम सीमा है। दुःख कष्ट का अहसास कराता है एवं उसका हल तलाशने की प्रेरणा देता है। अवसाद नकारात्मकता सृजित करता है। समस्याओं को गहराता है और अनजाने भंवर में फँसाता है। दुःख, सुख के महत्त्व को समझाता है और अवसाद विचार शून्य कर देता है। अतः दुःख को अनुभूत अवश्य करना चाहिए। यह त्रुटियों को सुधारने के अवसर प्रदान करता है। यह अभिप्ररित करता है, यह विचारने के लिए कि जो घटना अथवा अवस्था व्यक्ति के नियंत्रण से बाहर है, जिन्हें वह परिवर्तित करने में असमर्थ है, उनके लिए दुःख को अत्यधिक आत्मसात् न कर किसी अन्य मार्ग की ओर अग्रसरित होना चाहिए। और यदि उन समस्याओं के हल उपलब्ध हैं, तो दुःख का वजूद बेमानी है। अतः हल होने और न होने दोनों ही स्थितियों में व्यक्ति को कष्टानुसार दुःख को अनुभव तो अवश्य करना चाहिए, परन्तु उन परिथितियों को हावी होने का अवसर प्रदान कर अवसादग्रस्त नही होना चाहिए।

कोरोना की समस्या ने बहुत से घरों में अवसाद की स्थिति उत्पन्न कर दी है। लोग कुंठित हो हिंसा के लिए प्रेरित एवं बाध्य हो रहे हैं। विचित्र समस्या है। कभी व्यक्ति समय की कमी एवं परिवार का सान्निध्य न मिल पाने के कारण खिन्न रहता है, तो कभी प्रचूर समय भारी लगने लगता है और परिवार का साथ अप्रिय। दरअसल कारण समय और परिवार न होकर, यकायक हुए परिवर्तन की अस्वीकृति है। अभिलाषी एवं महत्त्वकांक्षी मस्तिष्क में अनपेक्षित परिस्थितियों ने ‘केमिकल लोचा’ कर दिया। ऐसा समय अकल्पिनीय था। इसकी तो कोई योजना ही नहीं बनाई गई थी। वरन् इसने अनेक योजनाओं की गति ही बाधित कर दी। इन समस्त परिवर्तनों को मानव मस्तिष्क अचानक से सुचारू रूप से प्रबन्धित नही कर पा रहा है। परिणामतः हिंसा एवं अवसाद।

इन परिस्थितियों का सामना करने वाले मनुष्य को समस्त चिंताओं को विस्मृत कर नवीन परिस्थितियों के लिए छोटी-छोटी योजनाएं तैयार करनी चाहिए। छोटी एवं निश्चित समयान्तराल की योजनाएं। चाहे-अनचाहे अभी घर परिवार के साथ ही रहना है, तो क्यों न वह समय हँसी-खुशी, प्रसन्नता के साथ बिताया जाए। लाॅकडाउन के प्रत्येक सुखद दिन की एक छोटी-सी योजना। साथ ही लाॅकडाउन समाप्त होने पर परिवर्तित हुई समस्त परिस्थितियों के लिए तैयार रहने की छोटी-सी योजना। हालांकि यह सभी कुछ अपूर्वानुमेय है, इसीलिए योजना का लघु होना आवश्यक है। अन्यथा फिर कोई अप्रत्याशित घटना अवसाद का सबब बन सकती है। बहुत अधिक सोचना सही नही है। जीवन के प्रत्येक क्षण को जी भरकर जिया जाए।

यह सब उन लोगों के लिए फिर भी बहुत सरल है, जो घर बैठे सुविधा सम्पन्न होते हुए भी अकारण ही कुंठित हो रहे हैं। विचार विशेषतः उन लोगों के लिए करना आवश्यक है, जो विकट परिस्थितियों से गुजर रहे हैं। जो भूख-बीमारी एवं मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित हो संघर्षरत् है। जिनके लिए खुश रहने का सुझाव, उनका उपहास करने जैसा है। उनकी सहायता के यथासंभव प्रयास सरकार भी कर रही है एवं आमजन से भी अपेक्षित हैं। परन्तु हमारे देश में यह संख्या अत्यधिक विशाल है। वस्तुतः भारत के लिए यह एक चुनौतीस्वरूप है। न केवल सरकार के लिए एक चुनौती वरन् प्रत्येक भारतीय के लिए मानवतावादी होना सिद्ध करने की चुनौती। और भारतीय परम्पराओं एवं संस्कृति में इस प्रकार का मानवतावादी व्यवहार सदैव प्रशंसनीय रहा है।

इसी के साथ सभी को कृतज्ञ होना चाहिए समस्त कोरोना प्रहरियों एवं योद्धाओं का, जो अपना जीवन संकट में डाल देशभक्ति को इस रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। सेना के वीर जवानों की भांति ही ये सभी लोग भी सलाम के पात्र हैं। वंदनीय हैं। साथ ही वे महिलाएं जो कभी न समाप्त होने वाली ड्यूटी और अधिक निष्ठा से घर के समस्त व्यक्तियों को प्रसन्न रखने के लिए कर रही हैं, उनका अभिवादन एवं सहयोग किया जाना भी आवश्यक है।

कोरोना एक जंग है, जिसे सभी को साथ में मिलकर जीतना है। साथ ही यह एक नये युग का जनक भी है। इस जंग के उपरान्त जीवन जीने के सलीके बदल जाएंगे। जीवन के प्रति नज़रिया बदल जाएगा। लोभ-लालच, रूपया-पैसा सभी की परिभाषाएं एवं प्राथमिकताएं बदल जाएंगे। हम सभी को उन परिवर्तनों के लिए मानसिक रूप से तैयार रहना चाहिए, जिससे फिर किसी यकायक परिवर्तन से अवसादग्रस्त होने से बचा जा सके।


मैं हूँ कोरोना

मैं कोरोना हूँ उफऱ् कोविड-19। आजकल सुबह उठने से रात को सोने तक बस मेरा ही जिक्र और मेरी ही चर्चा है। ऐसा लग रहा है कि लोग कुछ ज़्यादा ही मुझसे प्यार करने लगे हैं। मैं विदेशी हूँ, यह तो सभी जानते हैं और विदेश्िायों के प्रति आकर्षण भी स्वभाविक है। वस्तुतः इसीलिए इतना प्रेम और स्नेह मुझे मिल रहा है। हालांकि कुछ लोग मुझे पसंद नही कर रहे और धीरे-धीरे उनकी तादाद भी बढ़ती जा रही है। पर मैं दूसरों की पसंद की परवाह नही करता।

मैं चीन से आया हूँ। यद्यपि चाइनीज माल की कोर्इ गारंटी नही है, किन्तु मेरी गारंटी पूरी-पूरी है कि यदि आप थोड़े से भी कमजोर मेरे सामने रहे, तो बस लोगों की यादों में ही रह जाएंगे। मैं प्रभावशाली हूँ, उच्छृंखल हूँ। इसका प्रमाण मैं कर्इ देशों में दे चुका हूँ। इसके बावजूद कर्इ लोग मेरा उपहास उड़ा रहे हैं। मुझ पर लतीफ़े बना रहे हैं। बिल्कुल भी गम्भीरता ही नही है।

अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मेरे वजूद की चुनौती को स्वीकारा गया है। मेरा नाम इतने उच्च स्तर पर भी प्रख्यात (कुख्यात) हो गया है। फिर भी कुछ लोग मेरे अस्ितत्व से घबरा नही रहे हैं। बस यही तो कोफ़्त है मुझे। यही तो नही भा रहा। जिन कारणों एवं उद्देश्यों से मेरा जन्म हुआ है, ऐसे लोग मुझे उन्हें पूर्ण करने का अवसर प्रदान कर रहे हैं। इनके इस सहयोग का बहुत आभारी हूँ मैं। इनकी यह निभ्र्ाीकता मुझे उकसाती है। मुझे प्रेरित करती है अपना प्रभुत्व, अपना खौफ़ कायम रखने के लिए।

अब देखो! ये इनकी नादानी कहूँ या अपनी खु़शकिस्मती कि मेरे संदेह होने मात्र् से ये लोग अस्पतालों से भाग रहे हैं। विचित्र मूर्खता है। बीमार होने पर इलाज कराया जाता है या अस्पतालों से भाग दूसरों को भी संक्रमित किया जाता है! इसमें कौन-सी बुद्धिमानी है, मेरी समझ से परे है। इन इंसानों को समझना मुझे समझने से भी अध्िाक जटिल है। मुझे दोष देते हैं कि मैं अनियंत्रित हो सबको परेशान कर रहा हूँ और स्वयं ‘मूविंग बम’ बने घूम रहे हैं। मैंने तो मौका दिया है मुझसे पीछा छुड़ाने का। बैठो घर पर। बचे रहो मुझसे। पर ये तो इंसान है ना! लोभी, आरामप्रस्त, स्वाथ्र्ाी....... घर बैठने का अवसर दिया, तो चल दिए पिकनिक मनाने। अब यदि मैं तुम्हारा आलिंगन करता हूँ, तो दोषी तो तुम स्वयं हो।

तुम इंसानों को तो मुझे धन्यवाद देना चाहिए कि विश्वपटल पर मैंने सबको संगठित कर दिया है। विभ्िान्न प्रकार की लड़ाइयाँ, खींचातानी, अध्िाकार-कर्तव्य सब बेमानी हो गए। ‘जान है तो जहान है’, बस यही बात सबको समझाने में मेरा महत्त्वपूर्ण योगदान है। एक बात तो पूर्णतः स्पष्ट हो गर्इ है कि सभी प्रलोभन ‘जीवन’ के रहते ही औचित्यपूर्ण है। जीवन ही नही तो क्या मायने इन ‘ख़्वाहिशों’ के?

पर इस पर भी कुछ लोग हैं जिनका जीवन-दर्शन बहुत अद्भुत है। उन्हें अपने व्यापार में हानि की बहुत चिंता है। वे निरंतर प्रयासर्त है, इस संकट की घड़ी में अपने व्यापार को बचाने एवं बढ़ाने के लिए। इसके लिए वे अपने प्राणों की आहुति देने एवं दूसरों के प्राणों की भी आहुति देने से संकुचाते नही हैं। ऐसे कर्मठ लोग मुझेे बहुत पि्रय हैं। उनकी अज्ञानता मेरी वाहक है। मेरी चहेती ‘टूरिस्ट गाइड’। मुझे सर्वव्यापी करने में सहायक।

वैसे लोगों को मेरा शुक्रगुज़ार होना चाहिए कि मैं उन्हें विभ्िान्न प्रकार के नवीन ‘आइडियाज़’ दे रहा हूँ। कभी सोचा होगा किसी ने कि ‘वर्क फ्राॅम होम’ जैसा भी कुछ हो सकता है। हालांकि बहुत लोग पहले से ही इसे करते आ रहे हैं, पर क्या इतने बड़े स्तर पर यह सब! कितना अच्छा है ना! क्या तुम इसके फ़ायदे जानते हो? इससे सड़क पर रोज़ सुबह होती परेड एवं भागमभाग से निजात मिली है। जिसके कारण वाहनों का आवागमन कम हुआ है और प्रदूषण का स्तर भी घटा है। और तो और जाने-आने का अनावश्यक खर्च भी बच गया है। आॅफि़स में बिजली-पानी जैसे अनेक व्यय जो कर्मचारियों पर होते हैं, सब कम हो गए हैं। और काम तो हो ही रहे हैं। कर्मचारियों का भी जो समय आने-जाने में बर्बाद होता था, उस समय का सदुपयोग किसी अन्य कार्य को सम्पन्न करने में किया जा सकता है। शारीरिक कष्टों से भी मुक्ित मिल रही है। एक स्वस्थ शरीर में की स्वस्थ मस्ितष्क का निवास होता है। इससे कार्य की गुणवत्ता भी बढ़ती है। कहने का तात्पर्य यह है कि जिन कार्यों को सरलतापूर्वक घर से ही करते हुए इतनी बचत की जा सकती है, तो क्यों न मेरे बाद भी उन कायर्ोें को आगे भी इसी प्रकार किया जाए, जिससे उन बचतों का उपयोग कर और अध्िाक उत्पादन बढ़ाया जा सके।

इंसान को अब अपना नजरिया बदलने का समय आ गया है। इलेक्ट्राॅनिक होती इस दुनिया को बर्बाद होने से बचाने का समय। अब गम्भीर होकर सबको सोचना होगा कि मेरा जन्म क्यों हुआ है? मैं किसी देश की खु़राफ़ात नही हूँ। मैं ‘बदला’ हूँ प्रकृति का। उस प्रकृति का जिसने तुम्हें माँ जैसा दुलार दिया, जिसने तुम्हें आसरा दिया, जीवन दिया, सौन्दर्य दिया, नैसगर्िकता दी। और तुमने क्या किया? बदले में तुमने उसे छलनी कर दिया। अपने स्वार्थ में उसका अंधाधुंध दोहन किया। उसके बनाए जीवों की हत्या की। उस पर जनसंख्या रूपी वजन को बढ़ाया। प्रदूषण से उसका दम घोट दिया। उसे असहनीय कष्ट दिए। पर तुम्हें कभी उसके कष्टों का अहसास तक न हुआ। अति हर चीज की बुरी होती है। मेरे जैसी विभ्िान्न व्याध्िायाँ, उसी अति का परिणाम हैं। मैं प्रकृति के बदले का माध्यम हूँ। प्रकृति अपना बदला विभ्िान्न रूपों में लेती है। कभी बाढ़, कभी भूकंप, कभी सूखा तो कभी अतिवष्र्ाा। ये प्राकृतिक आपदाएं नहीं हैं। यह प्राकृतिक प्रतिशोध है। इंसान को इस प्रतिशोध से डरना चाहिए क्योंकि प्रकृति ने उसे बनाया है, उसने प्रकृति को नही। प्रकृति जब चाहे उसके वजूद को समाप्त कर सकती है। इसलिए इंसान को कभी अपना दायरा नही भूलना चाहिए। यदि वह ऐसा करता है, चाहे किसी भी रूप में ‘अनियंत्रित जनसंख्या हो या प्रदूषण या प्राकृतिक संसाधनांे का दोहन, तब प्रतिशोध के द्योतक के रूप में मेरा जन्म होगा, या मेरे जैसों का जन्म होगा। इन बातों को समझने एवं इनसे सबक लेने का यही उचित समय है। यही समय है अपनी प्रकृति के प्रति अनुगृहीत होने का।

इस कठिन समय पर प्रकृति के महत्त्व को समझते हुए सुरक्ष्िात रहने का प्रयास करें। मुझसे बचना है, तो मेरी इन बातों पर गहनता से विचार करना होगा। कुछ समय बाद, मैं तो चला जाऊँगा, पर जो हृदयविदारक छाप देकर जाऊँगा, उसे याद रखना। यदि मेरी दी गर्इ सीखों की दिशा में उचित प्रयास नही किए गए, तो याद रखना, मैं फिर किसी दूसरे रूप में वापस आऊँगा। भूलना नहीं ‘मैं हूँ कोरोना’।

Sunday, March 29, 2020

ए-हिंदी



स्वपन के संसार में,

शब्दों के व्यापार में,

तुम्हारा वजूद तुम्हारा अहसास कराता है

अन्यथा तो तुम्हें अब अक्सर ढूँढा ही जाता है।

तुम्हारे दिन का उत्सव,

मानो तुम ही तो हमारे दिल की मल्लिका हो।

पर बाकी दिन..........

कौन हो तुम? क्यों हो यहाँ?

शर्मिंदा न करो, चली जाओ।

पड़ोसन मौसी से तो हमारी शान है,

वही तो अब सर्वमान, सर्वशक्तिमान हैं।

तुम्हारा ध्यान ही हमें टीस की गालियों में आता है

जब किसी को हृदय से कौसा जाता है।

तुम्हारा प्रयोग अब दुरुपयोग हो गया है

क्योंकि मौसी का जलवा तुमसे कहीं बड़ा है।

पर कुछ बात फिर भी है तुममें मेरी प्यारी हिंदी माँ

सपने आज भी मुझे तुझमें ही आते हैं,

आँसू भी तुझमें ही गाल भिगो जाते हैं

प्यार मुझे तुझमें जाहिर करते भाता है

क्योंकि ए हिंदी तुझमें अपनापन आता है।

तुझमें अपनापन आता है।