Wednesday, August 19, 2020

मैंने तुमसे ये तो न कहा था!

मैं उसे जानती थी और वो मुझे
मैं उसे चाहती थी और वो मुझे
मैंने उसे खु़द को सौंपा था और उसने मुझे
मैंने उस पर भरोसा किया था और उसने.........
मैंने उससे ये तो न कहा था कि तुम.........
मुझे यूँ तार-तार करना,
इस क़दर मुझे लाचार करना,
इतना बेजार करना,
बिन सोचे, बिन विचार करना।

तुम ही तो कहते थे ना कि मैं
तुम्हारी जिंदगी हूँ,
प्रीत हूँ, जीवन का संगीत हूँ।
मैंने भी तुमसे कहा था कि
तुम मेरी साँस हो, 
जीने की आस हो,
एक सुखद अहसास हो।
पर मैंने तुमसे ये तो न कहा था कि तुम......
सरे राह मेरे कपड़े उतार देना,
अपने दोस्तों को मेरे जिस्म पर विस्तार देना,
मेरे नाजुक अंगों पर घातक वार देना,
मेरी पीड़ा से अपने आनन्द को निखार देना।

मैंने तो माना था कि मैं तुम्हारी थी,
तुम पर हर तरह से वारी थी।
पर मेरा अंतर्मन रो उठा ये जान कर,
कि तुम्हें दया तक नही आती, 
किसी नन्हीं सी जान पर।
न कोई उम्र है, न कोई पहनावा
तुमने तो बस किया, 
सबसे अपनेपन का दिखावा
पर उनमें से किसी ने तुम्हें ये तो न कहा था कि तुम....
उस अबोध को किसी अंधेरी गली मेें ले जाना,
और फिर निष्ठुरता से उसके कोमल अंगों को दबाना,
तोड़ना उसके जिस्म के एक-एक जोड़ को,
फंेक देना गला दबाकर कि चलती रोड़ को,
या खिला देना बोटी उसकी जंगली कुत्तों को,
और लगा देना आग बचे हुए टुकड़ों को।
उसने तो तुम्हारी दिखाई, 
मामूली टाॅफी का ही तो लालच किया था।
और तुमने उसको इसका ऐसा सिला दिया था।
गलती थी उसकी, लालची थी वो
प्यार समझती थी, तो भरोसा कर गई वो
पा गई सज़ा और दे गई तुम्हें मज़ा।
पर उसने ये तो न कहा कि तुम..........
उसकी कोमलता को रक्तरंजित कर
उसे मृत्यु का दान देना,
उसके विश्वास का ये इनाम देना।


एक और अबोध पूछती है तुमसे
चलना नही आता, अक्सर लेटी रहती है वो
उसके चंचल नेत्र बहुत लुभाते हैं सबको,
उठती बांहों को देख, सब उठाते हैं उसको,
सबकी चहेती और सबकी लाड़ली है वो,
अभी ज़्यादा उम्र नही, थोड़ी बावली है वो।

पर तुम्हें तो उसका अपूर्ण यौवन नज़र आता है,
उसका हंसना भी तुम्हें बहुत ही भाता है,
उसकी नासमझ-सी अंगड़ाई तुम्हें बुलाती है,
और तुम्हारे परिपक्व अंगों को उकसाती है।
तुम निकल पड़ते हो, लेकर उसे अपनी गोद में
तुम बन जाते हो उसके अपने, उसके अज्ञान बोध में
उसकी नाजुक उंगलियाँ छूती हैं तुम्हारे होठों से,
और तुम दबा देते हो उसे अपने कुटिल दाँतों से,
वो चीखती है, ज़ोर से होकर बेबस
क्यों रखा तुमने हाथ उसके मुँह पर,
नही समझती इसका सबब।
भीगे नयनों से निहार है, और पूछती है तुमसे
कि मैं तुमसे ये तो न कहा था कि तुम...........
यूँ चुरा लाना मुझे,
यूँ बेदर्दी से दबाना मुझे,
यँू इतना रूलाना मुझे,
और जीवन मुक्त कर जाना मुझे,
और जीवन मुक्त कर जाना मुझे।

मैं भी जा रही थी अपनी राह,
तुमने ही तो था मुझे चाहा,
मेरा तुम्हारा तो परिचय भी न था,
तुमने मुझे देखा कभी,
मेरी तो यह रूचि में भी न था।
फिर तुम्हें क्या लगा?
कि तुम भर लाए उस ज़हर का प्याला,
जिसने मेरा सारा जिस्म जला डाला,
मैं कैसे कहूँ कि मैंने तुम्हें ये तो न कहा था कि तुम....
जब मैं हूँ तुमसे पूर्णतः गुम।
तुमने छीन लिया मुझसे मेरे वजूद को,
मेरे पहचान को, मेरे जुनून को,
अब मैं बाहर नही जाती हूँ,
खुद को ही नही जान पाती हूँ,
पर तुमसे मिलना चाहती हूँ,
और पूछना चाहती हूँ कि
क्या तुम अब भी मुझे चाहोगे?
क्या अब भी मुझे अपनाओगे?
जैसी थी, वैसी तो तुम्हें न मिल पाई मैं
पर जैसी तुमने बनाई, 
क्या इसे आजमाओगे?
क्या अब तुम मेरी जिंदगी में आओगे?
क्या अब तुम मेरी जिंदगी में आओगे?
यदि नहीं,
तो मुझे बताओ!
मैंने तो तुमसे न कहा था कि तुम........
मुझे ये रूप देना,
ये तड़पाती धूप देना,
लोगों का उपहास देना,
जिंदगी की प्यास देना,
और मौत का अहसास देना।

मैं भी पूछना चाहती हूँ तुमसे कि....
तुम जानते थे ना, मेरा दिमागी दिवालियपन?
बात ये, कि क्यों हूँ मैं अधनंग?
ज्ञान नही मुझे मेरे होने का,
तो क्या समझूँगी भला लड़की का होना?
छीः! तुम मुझसे भी न घिन कर सके,
क्या आदमी हो, जो मुझ पर भी मुँह गड़ा पाए।
हवस की इंतिहा क्या है ए-मालिक!
कोख में लिए घूम रही हूँ एक कालिख।
मुझे तो ना मेरी सुध, ना मेरा होश
कैसे आता है मुझे देख इन वहशियों को जोश?
क्या हो रहा, क्या होगा?
कुछ न पता, कुछ न ख़बर
बस एक ही आस और एक ही डगर,
कोई तो पूछो इन शैतानों से,
कि हमने कब कहा था इन्हें कि तुम...........
हमें यूँ............

नीरज तोमर
मेरठ।