Tuesday, October 25, 2011

मंहगाई में मनायें खुशियों की दिवाली


चहुँ ओर की हाहाकार में त्यौहारों का उल्लास दम तोड़ रहा है। मंहगाई का कुचक्र त्यौहारांे की खुशियों को सिसकियों में परिवर्तित कर रहा है। अमीर-गरीब का स्तरीय विभेदीकरण एक कॉमन (उभयनिष्ठ) सीमा पर आकर बेबस हो गया है। मंहगाई- आर्थिक रूप से विभिन्नता लिए कोई भी जीवन स्तर हो, सभी इसी शब्द से त्रस्त हैं। आखिर कैसे आनन्दित हो त्यौहारों के आगमन पर? यह विचार प्रत्येक उस व्यक्ति को कचोटता होगा जिसके लिए त्यौहार के आगमन की प्रसन्नता का आधार ‘‘पैसा’’ है। पटाखे जलाना, मिठाई खरीदना, घर सजाना, खरीददारी करना, क्या यही एक माध्यम है त्यौहार मनाने का? नहीं! यदि त्यौहार मनाने के वास्तविक स्वरूप को स्वीकार किया जाये तो निःसन्देह इस वर्ष की दिवाली आपको सर्वाधिक आत्मिक प्रसन्नता देगी। मात्र् आवश्यकता है बाहरी आडम्बर व दिखावे-छलावे की दुनिया के स्वयं को विरक्त करने की। आर्थिक प्रतिस्पर्धा को त्यागकर सादगी को अपनाते हुए दीये जलाइये उन घरों में जहाँ त्यौहार पर चूल्हे की ठंडी राख बेबस माँ के आँसूओं और भूख से तड़पते बच्चों की सिसकियों को छुपाती है। पटाखों की गूँज से तीव्र कीजिए उन बच्चों की हँसी की गूँज को जिनकी प्यासी आँखें अपनों के न होने के अहसास से सिहर उठती हैं। दीजिए सहारा उन काँपते हाथों को जिनके कटु अनुभव उनके जीवन की मिठास को कहीं लील गये हैं। अगर इस दिवाली को मनाने को इस ढ़ंग को आप अपनायेंगे तो कभी मंहगाई की मार आपकी दिवाली फीकी नहीं कर सकेगी।

Tuesday, October 4, 2011

बनिये रोजगारदाता

i-next में प्रकाशित रिपोर्ट ‘जॉब के लिए जाएं कहाँ?’, यह प्रश्नचिन्ह स्वयं में एक प्रतिप्रश्न समाहित किये हुए है कि ‘जॉब के लिए जायें क्यों?’ स्कूल से कॉलिज तक के सफर की आवश्यकता, उद्देश्य एवं अन्तिम लक्ष्य जीविकोपार्जन हेतु रोजगार प्राप्त करना है। परन्तु वर्तमान परिस्थितियाँ इसी बिन्दु पर निराशा व अंधकारमय भविष्य के दर्शन कराती है। परिणाम स्वरूप बेराजगारों के बढ़ते आपराधिक रिकार्ड, कुण्ठा एवं आत्महत्याओं के ग्राफ में वृद्धि। किसी भी देश की ताकत एवं गुरूर उस देश की युवाशक्ति होता है परन्तु भारतवर्ष की युवाशक्ति को यह कैसी दिशा प्राप्त हो रही है? इस समस्या का समाधान क्या है? वास्तव में नासूर बनती जा रही, इस समस्या का समाधान नितांत आवश्यक भी है। ऐसा नही है कि यह अविनाशी समस्या है। गांधी जी की शिक्षा नीतियाँ इस संदर्भ में पुनः हमारा ध्यानाकर्षित करती हैं। जी हाँ, गांधी जी की ‘बेसिक शिक्षा’ जो आधुनिक परिस्थितियों में भी अपनी सार्थकता प्रमाणित करती है। मात्र आवश्यकता है समकालीन परिस्थितियों के अनुरूप सामंजस्य स्थापित करते हुए उसका अनुसरण करने की। यह शिक्षा ‘स्वः रोजगार’ की अवधारणा पर आधारित है। भारतीय युवा पीढ़ी में चमत्कृत प्रतिभा एवं गुण है जिनसे वह स्वयं भी अनभिज्ञ है। माता-पिता एवं गुरूजनों को युवाओं के भीतर स्थिति इस स्पार्क को पॉजीटिव दिशा प्रदान करते हुए, उन्हें स्वः रोजगार के लिए प्रेरित करना चाहिये। परजीवी एवं पराश्रित बनाने वाले मानसिकता को तिलांजलि देते हुए उनमें विश्वास उत्पन्न करना चाहिये कि वे न केवल अपने लिए अपितु दूसरों के लिए भी रोजगार उत्पादित करें। यह वक्तव्य कुछ लोगों को यह कहने का अवसर अवश्य प्रदान करता है कि ‘कहना आसान है और करना मुश्किल’। परन्तु एक सत्य यह भी है कि आत्मविश्वास के धरातल पर सफलता की इमारत खड़ी करना कठिन भी नहीं है। बढ़ते कदमों को साथ अवश्य प्राप्त होता है परन्तु यह निर्णय उन कदमों का होता है कि वह किस मंजिल की ओर अग्रसर है। दृढ़ संकल्प एवं एकाग्रता आपके एवं मंजिल के मध्य की दूरी को कम कर देते हैं। आत्मनिर्भरता की यह लौ न केवल बेरोजगारी की समस्या का निवारण करेगी वरन् देश की उन्नति में भी सहायक सिद्ध होगी।

Wednesday, September 14, 2011

आत्मसम्मान से समझौता क्यों?


कहते हैं कि अति हर चीज की बुरी होती है। ‘अति का भला न बोलना, अति का भला न चुप’। जिस प्रकार वाचालता अर्थ का अनर्थ करने के लिए पर्याप्त है, उसी प्रकार चुप रहने की अतिवादिता विपक्ष को दुष्टता का साहस प्रदान करती है और आमन्त्रित करती है विपत्तियों को। शायद यह दुस्साहस इसी अति का परिणाम है। आप सोच रहे होंगे कि आखिर यह किस ‘अति’ की भूमिका बाँधी जा रही है। दरअसल पिछले कुछ दिनों में इंटरनेट पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व सोनिया गाँधी के चित्रों का भद्दा प्रदर्शन अब चरम सीमा पर पहुँच गया है। और न केवल मनमोहन सिंह के साथ अपितु बाबा रामदेव, लालकृष्ण आडवानी, दिग्विजय सिंह इत्यादि नेताओं के साथ श्रीमती गाँधी के चित्रों के अतिक्रमण ने कई प्रश्न खड़े कर दिये हैं- (1) सम्पूर्ण भारत में किसी भी अन्य महिला राजनेता के चित्रों का ऐसा घर्णित प्रदर्शन नहीं किया जाता। तो सोनिया गाँधी ही क्यों? (2) क्या इसका कारण उनका विदेशी मूल का होना है? (3) इस प्रकार का कुत्सित कृत्य यदि आम लड़की के चित्र के साथ किये जाने पर दंड का प्रावधान है तो सोनिया गाँधी के चित्र के साथ इस प्रकार का भर्त्सनीय अभ्यास करने वाला सजा का हकदार क्यों नहीं है? (4) और सर्वाधिक महत्वपूर्ण, किसी विधवा महिला का इस प्रकार किया जा रहा अपमान महिला समाज की संवेदनशीलता को क्यों व्यथित नहीं कर रहा है? कहाँ है महिला आयोग?
ये मात्र प्रश्न नहीं हैं। वस्तुतः वे गम्भीर विषय हैं जो एक महिला के मान-सम्मान की उड़ती धज्जियों पर बुद्धिजीवी वर्ग की गम्भीरता, सुझाव व समाधान की अपेक्षा करते हैं। महिलाओं के अधिकारों की रक्षा की बात बड़े जोरो-शोरो से की जाती है, उसके आत्मसम्मान को संरक्षण दिये जाने पर बड़ी-बड़ी बहस होती हैं। कभी कानून की पोथियाँ पढ़ी जाती है तो कभी आन्दोलन चलाये जाते हैं। वहीं दूसरी ओर देश की सर्वाधिक सशक्त महिला के चरित्र को चाय की चुस्कियों के बीच पल भर में दागदार कर दिया जाता है। किसी भी महिला के लिए उसके चरित्र को कलंकित करना, उसके जीवित अस्तित्व को अग्नि समाधि देने के तुल्य है। उसकी ईमानदारी, उसकी निष्ठा व उसकी प्रतिष्ठा पर प्रश्नचिन्ह आरोपित करने जैसा है। ऐसे में चिन्तनीय विषय यह है कि जब दुनिया की इतनी प्रभावशाली महिला की प्रतिष्ठा असुरक्षित है तो आम महिलाओं की सुरक्षा की आशा तो अर्थहीन है। समाचार-पत्रों व टीवी चैनलों पर प्रतिदिन प्रकाशित व प्रसारित होने वाले समाचार महिलाओं पर होते अत्याचारों व अपराधों की कहानी कहते हैं। 21वीं सदी की महिला ‘अबला’ शब्द की उपमा से स्वयं को मुक्त नहीं कर सकी है। घरेलू हिंसा से बाह्य समाज तक खिंचती चोटियाँ, नील पड़े बदन, चीर हरण, कैरोसिन की जलन और सांसों की घुटन, पर कोई नहीं हल। पिता से भाई तक का छिछला होता भरोसा औरत को अन्ततः निर्बलता को स्वीकार करने के लिए बाध्य करता है।
एक अन्य प्रश्न जो मेरे मन को कचोटता है कि क्यों नहीं स्वयं सोनिया गाँधी इस प्रकार के चित्रों में होती वृद्धि पर विराम लगाने हेतु कोई कदम उठाती? उन्हें इसकी सूचना नहीं है, यह मानना तो असंभव है। क्या उनके लिए यह कोई गम्भीर समस्या नहीं है? यदि नही तो होनी चाहिए क्योंकि उनका एक सजग कदम प्रत्येक भारतीय महिला के आत्मसम्मान की रक्षा हेतु बुलंद होती आवाज के लिए प्रेरणा स्रोत होगा। हर लड़की अपने साथ हुए दुर्व्यवहार के विरूद्ध दृढ़तापूर्वक विरोध कर न्याय प्राप्त करने का हौसला प्राप्त कर सकेगी। और इस प्रकार की  प्रत्येक दूषित मानसिकता का मनोबल क्षीण हो सकेगा।
यह दुर्भाग्य है कि भारत में महत्तम महिलाएँ अपने साथ हुए दुर्व्यवहार व अत्याचार का रोना घर की चार दीवारी के भीतर कर, आसूँओं को पी जाती हैं। इस लाचारगी को वे अपनी नियति मानती हैं। परन्तु सोनिया गाँधी इस भाग्यवादिता का प्रतीक कैसे हो सकती हैं? और अगर वे इस व्यवहार को अपनी नियति स्वीकारती हैं अथवा इस विषय की उपेक्षा करती हैं तो उनका यह कृत्य भारतवर्ष की महिलाओं को निराश कर यह अवधारणा विकसित करने हेतु पर्याप्त है कि ‘‘अगर सोनिया गाँधी सरीखी सशक्त हस्ती अपने वजूद की लड़ाई लड़ने में असमर्थ है तो हम गरीब, असहाय व आम महिलाओं की क्या बिसात?’’ और साथ ही इस प्रकार की विकृत गतिविधियों को निरंकुशता का सानिध्य प्राप्त हो जायेगा। अतः सोनिया गाँधी की यह नैतिक जिम्मेदारी भी है कि वे इस प्रकार की दूषित सर्जनात्मकता पर अंकुश लगाये। और एक ठोस व कठोर कदम उठाते हुए आधी आबादी के लिए प्रतिमान स्थापित करें।

Friday, August 26, 2011

‘‘बंद दरवाजे’’


आज मॉर्निग वॉक करते हुए राव साहब कुछ चिन्तित लग रहे थे। उनकी चिन्ता को देखकर शर्मा जी ने पूछा, ‘‘क्या बात है राव साहब आज बड़े परेशान दिखाई दे रहे हैं? सब कुशल मंगल तो है ना?’’
राव साहब ने कहा, ‘‘ क्या बतायें शर्मा जी बेटा विलायत से पढ़कर आया है और अब इतनी अच्छी सरकारी नौकरी भी है। धन-धान्य की कोई कमी नहीं है। न ही कोई लालच ही है। फिर भी एक योग्य बहु नहीं मिल रही है।’’
‘‘बस इतनी सी बात। रूकिये जरा।’’ पास ही व्यायाम करते चौधरी साहब को बुलाते हुए, ‘‘और चौधरी जी सब ठीक-ठाक?’’
‘‘हाँ जी सब बढ़िया। आप सुनाईये शर्मा जी।’’
‘‘चौधरी जी ये राव साहब हैं, हमारे परिचित और रिटायर्ड इंजीनियर। आपकी बेटियाँ क्या कर रही हैं आजकल?’’
‘‘बस पढ़ाई पूरी हो गई और सरकारी नौकरी भी लग गई।’’
‘‘तो क्या कोई लड़का-वड़का देखा बिटिया के लिए?’’
‘‘क्या बतायें शर्मा जी कोई योग्य लड़का मिलता ही नहीं।’’
‘‘हा-हा-हा। यह तो वही बात हो गई कि बगल में छोरा शहर में ढ़िंढ़ोरा। राव साहब का बेटा विलायत से पढ़ाई करके आया है और अब पिता के ही नक्शो कदम पर सरकारी इंजीनियर है। आप लोग आपस में बात कर लीजिए मैं जरा आगे तक हो आऊँ।’’
15 मिनट बाद वापस लौटे शर्मा जी को राव साहब अकेले बैठे दिखाई दिये। ‘‘क्या हुआ राव साहब? कुछ बात जमी?’’
‘‘आप भी कमाल करते हैं शर्माजी। कहाँ फँसा कर चले गये थे हमें? निःसन्देह चौधरी साहब की बेटियाँ बहुत योग्य व सुशील हैं, पर है तो तीन बेटियाँ ही। मैं ऐसे घर में अपने बेटे की शादी कैसे कर दूँ जहाँ आगे कोई परिवार नहीं? इन बंद दरवाजों पर मैं ही क्यों सर पटकूँ।’’ यह कहकर नाराज राव जी आगे बढ़ गये।
आवाक् खड़े शर्मा जी पर जैसे घड़ों पानी पड़ गया हो। इस सोच के परे भला कैसे किसी को समझाया जा सकता है? आज भी स्वतंत्र होते मस्तिष्क की जड़ें दकियानूसित की बेड़ियों से जकड़ी हैं जिसमें योग्यता घुटनों के बल तरसाई आँखों से अपने लिए इंसाफ की फरियाद कर रही है।

Friday, August 12, 2011

उच्च शिक्षा और दो टके की नौकरी


काफी दिनों से ये चर्चे सुन रही थी। परन्तु विश्वास अत्यंत कठिन था कि ऐसा कैसे हो सकता है? फिर सोचा कि हथकंगन को आरसी क्या और पढ़े लिखे को फारसी क्या? इसी तर्ज पर मैं निकल पड़ी वास्तविक अनुभव की चाह में। सोचा कि किसी की पीड़ा का अहसास तभी हो सकता है, जब स्वयं उस पीड़ा से दो-चार हुआ जाये। और यही सोचते हुए मैंने अपनी तैयारियाँ आरम्भ कर दी।
इस सफर का आगाज हुआ मेरठ शहर के एक प्रतिष्ठित विद्यालयों से। एक समाचार-पत्र के माध्यम से ज्ञात हुआ कि उस स्कूल में शिक्षकों की रिक्तियाँ हैं। मैंने अपने मिशन के तहत अपना प्रोफाइल और रिज्यूम तैयार किया। स्कूल में प्रवेश करते ही, रिज्यूम जमा करने और इंटरव्यू कराने का कोई विशेष प्रबंध दिखाई नहीं दिया। एडमिशन कार्य के मध्य ही इंटरव्यू होगा, यह जानकारी वहाँ बैठे किसी सज्जन से प्राप्त हुई। मैं प्रातः 9ः30 से 12ः55 तक इंटरव्यू प्रारम्भ होने की प्रतीक्षा करती रही। इस बीच बच्चों के एडमिशन के लिए तड़पते-बिलखते-झगड़ते लाचार अभिभावक देखे। मासूम बच्चे जो पिता का पायजामा मुठ्ठी में भींचे उनके साथ-साथ खिंचे जा रहे थे। उन्हें शायद इस बात का इल्म तक न था कि इन बड़ी-बड़ी बातों व संघर्ष से एक छोटा सा परिणाम निकलकर आयेगा कि उनको दाखिला मिल गया। और फिर शुरू होगा बच्चों का असली संघर्ष। कुछ दुर्भाग्यशाली ऐसे बच्चे भी थे जिनके अभिभावक निराश लौटने के लिए मजबूर थे। उनके उड़ते-उड़ते संवाद सुनने को मिले, ‘‘यहाँ तो पैसा या एप्रोच चल रही है। कोई है क्या आपके जानने वाला?’’
खैर! बात इंटरव्यू की चल रही थी। 12ः55 बजे सभी आवेदकों को प्रधानाचार्य कक्ष के बाहर एकत्रित होने का आदेश प्राप्त हुआ। इंतजार के बीच चर्चाएँ शुरू हुई। ‘‘फलाँ स्कूल की स्थिति तो बहुत खराब है। कुछ भी नहीं देते वे लोग। हर जगह रिश्वत का बोलबाला है। सरकारी शिक्षक बनना है तो 15 लाख तैयार रखो भई।’’ वगैराह-वगैराह।
मुझे इंटरव्यू के लिए बुलाया गया। ‘‘तू तो बहुत पढ़ ली बेटी। तीन बार एम. ए., नेट, और थ्रो आउट फर्स्ट। तेरा तो हो ही जाना है। पर बेटी तू लेगी क्या?’’, प्रिंसिपल ने पूछा।
सर मेरा अकैडमिक प्रोफाइल आप देख ही चुके हैं और मैं जानती हूँ कि आप लोग ज्यादा सैलरी भी नहीं देते। फिर भी कम से कम 5000 रू की तो मैं आशा करती ही हूँ। मैंने कहा।
बेटी मैं मैनेजमेंट से बात करूँगा, पर हमारे यहाँ इतना देते नहीं है। यह कहते हुए प्रिंसिपल ने मेरा रिज्यूम लौटा दिया।
यही अनुभव दो-तीन अन्य स्कूलों के साथ भी रहा। कहीं से पुनः बुलावा नहीं आया। आज यह लेख लिखने से पूर्व आखिरी स्कूल में आवेदन करते हुए मैंने अपना अनुसंधान समाप्त किया। शायद इससे अधिक अपमान सहन करने की मेरी क्षमता ने घुटने टेक दिये।
प्रातः 10 बजे से अपने नम्बर की प्रतीक्षा करते-करते 12ः30 बजे मुझे इंटरव्यू कक्ष में बुलाया गया। मुझसे शिक्षण का अनुभव पूछा गया। उनके प्रत्येक प्रश्न पर मैं खरी उतरी। बताना चाहूँगी कि यह इंटरव्यू मैंने खड़े-खडे़ दिया। अन्तिम संवाद इस प्रकार थे-
‘‘मैडम आपको पहले ही बता देना चाहंेगे कि हम 2000 रू से ज्यादा नहीं देंगे।’, इंटरव्यूअर ने कहा।
‘‘सर मैं ऐपॉइन्टमैन्ट नहीं चाहती परन्तु एक सुझाव अवश्य देना चाहूँगी। हालांकि आप मुझसे पद व उम्र दोनो में बड़े हैं और मेरा इस प्रकार आपको सुझाव देना शायद गलत................’’
‘‘नहीं-नहीं, कोई बात नहीं आप बताइये’’, इटंरव्यूअर ने कहा।
सर हमारे माता-पिता ने अपनी जीवन की गाढ़ी कमाई को हमारी शिक्षा पर पानी की भांति बहा दिया और हमें अपने पैरों पर खड़े होने योग्य बनाया। प्लीज आप इतनी सैलरी पर ऐपॉइन्ट करके हमारे माता-पिता और हमारी शिक्षा को अपमानित मत कीजिए। सैलरी का स्तर इतना मत गिराइये कि हमें अपने माता-पिता को 2000 रू देते हुए शर्मिंदगी महसूस हो। हमारी आँखें झुक जायें कि आपने हमारी शिक्षा पर व्यर्थ ही खर्च किया क्योंकि उसके बदले हम आपको 2000 रू से अधिक नहीं दे सकते। एक अनपढ़ मजदूर भी महीने के अंत में 2000 रूपये से ज्यादा अपने परिवार की हथेली पर रखता है। इस प्रकार 2000 रू में रखे गये शिक्षक, शिक्षा को क्या स्तर प्रदान करेंगें? क्या वे अपने कार्य के प्रति समर्पित रह सकेंगें?
यह कहकर मैं वापस आ गई और अपनी डिग्रियों के पुलिंदें को निहारते हुए सोच में डूब गई, ‘‘हम बेरोजगार है या लाचार हैं? अगर 2000 रू की सैलरी स्वीकार करते हैं तो बेरोजगारी का तगमा तो हट जायेगा परन्तु क्या वास्तव में हमें रोजगार प्राप्त हुआ? यह हमारी शिक्षा की कमी है या...........................
विषय बहुत गम्भीर है। मात्र एक लेख लिखने के लिये किये गये इस अनुभव ने मुझे झंकझोर दिया। जरा सोचिये उन परेशान चेहरों के विषय में जिन्हें इन नौकरियों की सख्त आवश्यकता है, जिनके घरों में भूख से बिलखते बच्चे रोज दरवाजे पर इस आस में ताकते रहते हैं कि शायद आज उनके पिता उनकी भूख का कोई प्रबंध कर पायें हो। दिन भर की मेहनत के उपरांत महीने के अंत में उनकी हथेली निहारती होगी उन 2000 रूपयों को.................

Tuesday, July 19, 2011

‘‘एक फूल दो माली’’


‘भ्रष्टाचार’ की पल-पल खुलती पोल ने न केवल बड़ी-बड़ी सियासी ताकतों को बेनकाब किया अपितु लोकतंत्र की जड़ों को भी हिलाया दिया। वास्तविकता सामने आना और इस अशुद्ध चरित्र के विरूद्ध कोई कार्रवाई होना, दोनों अलग-अलग बातंे हैं। यथा इस फेर में न पड़ते हुए भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता के सशक्तिकरण व उसके द्वारा उठाये गये कदमों की बात करते हैं।
भ्रष्टाचार के विरूद्ध छेड़ी गई दो मुहिमों ने संप्रग सरकार की रातों की नींद व दिनों के चैन का हरण कर लिया। अन्ना हजारे का अध्याय अभी समाप्त भी नहीं हुआ था कि बाबा रामदेव ने जो सियासी भूचाल लाया उसने कई प्रश्नों को स्थायित्व दिया। अन्ना हजारे व बाबा रामदेव दोनों एक ही मंजिल के लिए सफर कर रहे हैं परन्तु दोनों के मूलभाव भिन्न-भिन्न हैं । एक (अन्ना हजारे) का मार्ग निष्पक्ष, निस्वार्थ व लोकहितकारी प्रतीत होता है। साधु न होते हुए भी साधुत्व के सभी गुण अन्ना हजारे स्वयं में समाहित किये हुए है। वहीं दूसरी ओर राजनीति की दहलीज पर अपनी चाबी का ताला टंागने की चाह रखने वाले बाबा के इस संघर्ष से निजी स्वार्थ की बू आती है। निश्चित रूप से किसी पर किसी भी प्रकार की उंगली उठाने से पूर्व प्रमाणिक साक्ष्य का होना आवश्यक है। अतः इस प्रकरण को भी इस प्रकार समझा जा सकता है-
इस संघर्ष का आरम्भ भ्रष्टाचार की लपटों से पीड़ित जनता पर लोकपाल विधेयक की मलहम से हुआ। अन्ना हजारे ने देश की सम्पूर्ण जनता का नेतृत्व करते हुए संप्रग सरकार से लोकपाल विधेयक पारित करने की मांग की। यह मुद्दा गर्म जोशी से चल ही रहा था कि अचानक बाबा रामदेव को भ्रष्टाचार रूपी दैत्य से युद्ध करने का जोश आया और वे विशेष सुविधाओं के साथ अपने योग-कम-अनशन पर बैठ गये रामलीला मैदान में। निश्चित रूप से बाबा ने सटीक व आवश्यक मुद्दों को सरकार के सम्मुख प्रस्तुत किया। परन्तु तुरत-फुरत लिये गये उनके इस निर्णय ने हजारों लोगों के प्राणों को संकट में डाल दिया। बाबा की भक्ति में लीन भक्त बाबा के शब्दों का अनुसरण करते हुए रामलीला मैदान पहुँच गये। प्रायः देखा गया है कि इस प्रकार के किसी भी एकत्रीकरण पर तत्कालीन सरकार किसी न किसी बहाने से गिरफ्तारी का वारंट निकलती ही है। उत्तर प्रदेश में भट्टा पारसौल मामले में राहुल गाँधी, सचिन पायलट आदि की गिरफ्तारी राजनीति में चूहा-बिल्ली के इस खेल का प्रमाण है। बाबा की गिरफ्तारी या बाबा के विरूद्ध किसी भी प्रकार की कार्रवाही निश्चित थी। यूपी सरकार हो या कोई अन्य सभी का प्रायः कदम यही होता है। बाबा जानते थे इस प्रकार की गतिविधि पर उन्हें प्राप्त जनसमर्थन का परिणाम हंगामा होगा और उस हंगामे को नियन्त्रित करने के लिए लाठी चार्ज और...........
परिणामतः बाबा के प्रति बढ़ी श्रृद्धा एवं सहानुभूति। पूर्व नियोजित यह सम्पूर्ण प्रकरण बिल्कुल उसी तर्ज पर चला जिसकी कल्पना बाबा ने की थी। इसका शिकार हुई निर्दोष व भोली जनता। बाबा जनता के विश्वास पर राजनीति की रोटियाँ सेंकने की कला भली-भांति जानते हैं और वे सफल भी हुए।
बाबा ने इतने विशाल आयोजन में जनता के लिए किसी रक्षात्मतक रणनीति की योजना क्यांे नहीं बनाई? विशाल भीड़ को बाबा ने अपनी जिम्मेदारी पर एकत्रित किया था जिसे निभाने में वे पूर्णतः असफल रहे। इस प्रकरण में एक प्रश्न बार-बार उठाया गया कि मासूम जनता पर लाठीचार्ज क्यूँ किया गया? इसका उत्तर प्रमाण के साथ बहुत सरल है- किसी न किसी को तो पिटना था- या तो पुलिस पिटती या जनता। हाल ही में मेरठ बिजली बम्बा पर हुए दंगों में जनता ने पुलिस को दौड़ा-दौड़ाकर पीटा। सर्वविदित है जिसका लाठी उसी की भैंस। जनता यदि साधन सम्पन्न स्थिति में होती तो निश्चित रूप से पुलिस को पीटती। पर क्या पुलिस वाले किसी के पिता किसी के भाई नहीं हैं? बाबा की अंध भक्ति ने लोगों की विचारणीय क्षमता को सम्मोहित किया हुआ है। वह दूरदर्शी हुए बिना वर्तमान के मोह को जीना चाहते हैं और बाबा का अंधानुसरण कर रहे हैं। विचारणीय है कि अन्ना हजारे के समर्थन में उतरा बॉलीवुड व अन्य बुद्धिजीवी वर्ग बाबा की राजनीतिक भूख को पहले ही भांप गये। यही कारण रहा कि इनमें से किसी ने भी बाबा के अनशन का समर्थन नहीं किया। स्मरणीय है कि कुछ वर्षों पूर्व बाबा ने राजनीति में आने की अपनी इच्छा व्यक्त की थी और तभी से बाबा किसी न किसी राजनीतिक बयानबाजी के लिए सुर्खियों में रहे हैं। आखिर साधु को राजनीति के इस चस्के का क्या अर्थ है? साधु तो निःस्वार्थ भाव से जनकल्याण के लिए समर्पित होते हैं। यह कैसा समर्पण है?
दिग्विजय सिंह द्वारा बाबा रामदेव के योग का नामकरण ‘योग उद्योग’ काफी सार्थक प्रतीत होता है। यह योग उद्योग नहीं तो और क्या है? बाबा से योग सीखाने के लिए अग्रिम पंक्तियों में बैठने का टिकट रू 25000 और पीछे बैठे लाचार गरीब जनता। योग को बढ़ावा देने वाले बाबा का यह पक्षपाती व्यवहार समझ से परे है। इस उद्योग ने बाबा को अरबपति साधु बना दिया। साधु को सम्पत्ति संग्रह की शिक्षा किस धर्मशास्त्र में दी जाती है, यह शोध का विषय है। व्यक्तिगत हैलीकॉप्टर, एसी युक्त भवन- ये कैसे साधु?
भ्रष्टाचार के विरूद्ध या कहें संप्रग सरकार के विरूद्ध आरम्भ की गई इस मुहिम में बाबा की राजनीतिक मंशा को उनके एक और कृत्य ने प्रमाणित किया। अनशन आरम्भ करते ही उन्होंने अन्ना हजारे की उपेक्षा की। जब दोनांे की लक्ष्य एक ही था और मार्ग भी समानान्तर थे तो क्यों नहीं बाबा ने अन्ना हजारे की जंग का समर्थन कर इस संघर्ष को मजबूती प्रदान की। अतिआत्मविश्वास के वशीभूत रामदेव ने इस संघर्ष को दिशाहीन कर दिया। एक ही उद्देश्य की पूर्ति की जिजीविषा के बावजूद देश की जनता अन्ना हजारे और रामदेव, दो धाराओं में बँट गई। फेसबुक पर आते अपडेट के अध्ययन से ज्ञात हुआ बहुत से लोग दिग्भ्रमित हो भ्रष्टचार को भूल अन्ना समर्थन और बाबा की आलोचना के चक्रव्यूह में उलझ कर रह गये हैं। और मुख्य मकसद से भटक गये। बाबा ने इस मुहिम को कमजोर कर दिया।
इस प्रकरण में नाटकीय मोड़ तब आया जब बाबा को स्त्रीवेश में देखा गया। बाबा ने अनशन गाँधीवादी नीतियों का अनुसरण करते हुए प्रारम्भ किया था। परन्तु सच कहें तो बाबा ने गाँधी जी की नीतियों का घोर अपमान किया। सभी देशभक्तों ने आजादी की जंग में लाठियाँ खाई। लाला लाजपत राय अंग्रेजों की लाठी की चोट के कारण वीरगति को प्राप्त हुए। उन सार्थक व अचूक नीतियों के अनुसरण का ढ़िढ़ोंरा पीटने वाले साधु बाबा जान बचाकर भागे स्त्रीवेश में? कितना शर्मनाक व अपमानजनक है यह सब। निश्चित रूप से उस दिन स्वतंत्रता सेनानियों व वीर देश भक्तों की आत्मा रोई होगी। बाबा ने जान बचाने के लिए महिलाओं का संरक्षण प्राप्त किया। यह कैसी वीरता थी? कैसे दृढ़ संकल्प था? क्या इन महिलाओं के भरोसे बाबा ने अनशन आरम्भ किया था?
इसके पश्चात् बाबा ने पुनः जनता के कंधों पर बंदूक चलाने की रणनीति बनाई। 11000 लोगों की फौज जो भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़ने के लिए तैयार की जायेगी। समझ में नहीं आता कि बाबा यह सब ना समझी में कर रहे हैं या जानबूझकर देश की जनता को ‘देसी आतंकवाद’ का पाठ पढ़ा रहे हैं। क्या इस प्रकार की भड़काऊ रणनीति देश में कानून व्यवस्था को चरमराने के लिये पर्याप्त नहीं है? निश्चित रूप से है। वास्तव में बाबा स्वार्थपूर्ति के जनून में आत्मनियत्रण व विवेक को खो चुके हैं। गाँधी-नेहरू के देश में हिंसा के उपदेश, सम्पूर्ण विश्व में भारत के वीरों की किरकिरी करा रहे हैं। भोली कहे जाने वाली जनता यदि ऐसे उपदेशों का अनुसरण करती है तो कड़े शब्दों में कहा जाये, तो निश्चित रूप से वह भोली नहीं बेवकूफ है।
कुछ सीमाएँ बाबा ने लाँघी और कुछ पोल बाबा की स्वतः खुल गई। योग द्वारा 200 वर्षों तक जीने का दावा करने वाले बाबा 6 दिन अनशन करने में सफल न हो सके। फिर कर दिया बाबा ने योग का अपमान। विश्व भर में योग सेंटर चला रूपया कमाने वाले बाबा ने योग पर प्रश्नचिन्ह आरोपित कर दिया। विश्व में भारतीय योग का प्रचार-प्रसार कर सम्मान दिलाने वाले ने ही भारतीय योग को शर्मिंदा कर दिया।
वर्तमान परिस्थितियाँ यह है कि बाबा ने मौन धारण कर लिया। यह एक सरल माध्यम है। बाबा जानते है कि जब भी वे मुँह खोलेंगे उनसे कुछ न कुछ अंटशंट बोला जायेगा। वे पहले ही अपनी बहुत सी पोल खोल चुके है। कहा भी जाता है ‘जो मुँह खोले सो राज बोले’। बाकि रहस्य उद्घटित न हो इसके लिए बाबा का मौन रहना ही उचित है।
इस सम्पूर्ण घटनाक्रम में विपक्ष व मीडिया दोनों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। विपक्ष ने राजनीतिक दाँवपेंचों की सभी पोथियाँ खोल दी। आरोप-प्रत्यारोप राजनीति की पुरानी परम्परा है। परन्तु क्या इसकी कोई सीमा निधारित नहीं होनी चाहिए? इस परम्परा का पालन करना कोई विवशता नहीं, मात्र राजनीतिक लाभ के लिए देश को बाँटना कहाँ तक उचित है? क्या निजस्वार्थ देशहित से बड़ा हो चला है?
मीडिया का रामदेव कवरेज इसके दायित्वबोध को संदिग्ध करता है। बड़ौत में जैन मुनि प्रभसागर के साथ हुए अत्याचार का मीडिया कवरेज नाममात्र के लिए था। एक मुनि की वर्षों की तपस्या भंग कर दी गई। उनकी आस्था, उनके सम्मान को खण्डित किया गया और मीडिया चुप। क्यों मीडिया ने इस प्रकरण पर विशेषांक नहीं निकाले? क्या मीडिया वास्तव में बाबा की व्यक्तिगत सम्पत्ति हो गया है? किंकर्तव्यविमुढ़ता की इस चरमावस्था ने यह सोचने के लिए बाध्य कर दिया है कि आखिर हमारे लिए देश कितना महत्वपूर्ण है? इस पीढ़ी को उपहारस्वरूप मिली आजादी को क्या चंद लोगों के सुपूर्द कर देना समझदारी है? इस वैचारिक गुलामी से आजादी पाना बहुत जटिल है। देश की जनता को विवेक को जाग्रत करने की आवश्यकता है। सोचिये, समझिये और विचारिये अन्यथा आपके मस्तिष्क पर किसी और का राज होगा।

Tuesday, July 12, 2011

डेल्ही बेली


लगान, तारे जमीं पर, रंग दे बसंती, 3-इडिएटस जैसी फिल्मों का निर्माण कर आमिर खान ने फिल्म विषयों को एक विस्तृत आयाम प्रदान किया। इन विषयों की पृष्ठभूमि वे समस्याएँ थी जिनसे हम अक्सर दो-चार होते है परन्तु निजी जीवन की व्यस्तताओं एवं आवश्यकतापूर्ति की जद्दोजहद में इनकी अवहेलना कर जाते हैं। आमिर खान ने न केवल इन विषयों की प्रस्तति से जनसाधारण को सामाजिक दायित्वों के प्रति सजग किया अपितु इसी प्रकार की बहुतेरी विद्रूपताओं हेतु शान्तिपूर्ण ढं़ग से समाधान प्राप्ति का मार्गदर्शन भी किया। गाँधीवादी सत्याग्रह को जीवंत करता कैंडल मार्च रूपी समाधान आज सम्पूर्ण भारत में विरोध प्रदर्शन का अचूक यंत्र बन गया है। निःसन्देह आमिर खान की यह प्रयोगधर्मिता समाजोपयोगी निर्देशन के अपने उद्देश्य को प्राप्त कर पाई है।
इसी क्रम में अपेक्षित डेल्ही बेली का निर्माण समझ से परे रहा। यह फिल्म क्या संदेश देना चाहती थी? या इसमें प्रयुक्त भाषा को आमिर खान समाज के किस वर्ग को दिनचर्या के अनिवार्य अंग के रूप में भेंट करना चाहते थे? इन प्रश्नों के उत्तर-प्राप्ति में मैं असमर्थ रही। यदि मान भी लिया जाये कि यह मनोरंजन आधारित फिल्म थी, तो मनोरंजन का क्षेत्र इतना संकीर्ण व स्तर इतना निम्न कैसे हो गया? मनोरंजन चार्ली चैपलन द्वारा भी किया जाता था और यह कहने में कोई कंजूसी नही की जानी चाहिए कि वह ‘बेमिसाल’ था।
फिल्म निर्देशन एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है। यह समाज का पथ प्रदर्शन करती है। समाज की जड़ांे में ऐसे विषयों का अकूत भण्डार है जिन्हें समाज स्वीकार करने में भयभीत होता है परन्तु उनका समाधान चाहता है। इसका मुख्य कारण नेतृत्व क्षमता का अभाव है। फिल्म निर्माता, लेखक, पत्रकार इत्यादि वे अघोषित नेता हैं जो समाज को दिशा प्रदान करते हैं। यह दिशा प्रभावोत्पादक व सकारात्मक परिणाम प्रस्तुत करने में समर्थ हो, यह संकल्प लिया जाना आवश्यक है।