Monday, January 30, 2012

पचपन और बचपन


पचपन की उम्र का सेहरा पहने मिश्रा जी बगीचे में अकेले बैठे उबासी ले रहे थे। तभी उनका पाँच वर्ष का पौता, करन कुछ टूटे हुए खिलौने लिए भागा-भागा उनके पास आया और चिल्लाते हुए बोला, ‘‘ दादा जी बचाओ-बचाओ दादा जी। मम्मी मेरे खिलौने कबाड़ी वाले को दे रही हैं। ये मेरे खिलौने हैं, मैं नही दूँगा इन्हें।’’ रूआँ सा करन दादा जी के पीछे खुद को छिपाने का असफल प्रयास कर रहा था और खिलौने वाले हाथों को अपनी कमर के पीछे छिपा रहा था।
‘‘क्या हुआ बहू? क्यों ले रही हो इसके खिलौने?’’, दादा जी ने पूछा।
‘‘पिताजी! ये सारे टूटे हुए खिलौने हैं। मैं कह रही हूँ कि इन्हें छोड़ दे, हम इससे भी अच्छे नये खिलौने इसे दिला देंगे। पर ये है कि मानता ही नही। पुराने-टूटे खिलौनों से घर भर रखा है।
करन, बेटा नये खिलौने ले लेना........इन्हंे मम्मी हो दे दो। मैं तुम्हें बिलकुल ऐसे ही नये खिलौने दिला दूँगा।
नहीं दादा जी, मुझे इन्हीं से खेलना है। मैं नहीं दूँगा।
अच्छा बहू, रहने दो। मत दो इसके खिलौने। खेलने दो इन्ही से इसे।
परेशान मम्मी वापस लौट जाती हैं।
अच्छा करन! ज़रा दिखा तो क्या खिलौने हैं तेरे पास, जिनके लिए तू मम्मी से इतना लड़ रहा था।
दिखाऊँ? मासूमियत से पूछते हुए करन ने एक टूटा ट्रक, कुछ तिल्लीनुमा लकड़ी, एक कपड़ा और पतंग का मंज्ज़ा आगे बढ़ा दिया।
दादा जी भी उस सामान को देखकर हैरान थे। परन्तु खिलौनों के प्रति करन का अनुराग देखकर उनकी उन खिलौनों में उत्सुकता बढ़ गई।
करन, इनसे खेलोगे कैसे?
आप खेलोगे दादा जी मेरे साथ?
हाँ-हाँ, क्यों नही! बताओ कैसे खेलना है?
मैं बताता हूँ। पहले तो आप ये स्टिक पकड़ो। अब इन्हें है ना इस ट्रक के चारों कोना पर लगाओ। इन छेदों में इन्हें लगा देते हैं। अब उस मंज्ज़ा से है ना इन स्टिक्स् को बाँधो, नी तो ये गिर जायेंगी। अब ये कपड़ा इन स्टिक्स् पर ऐसे लगा दो। ये बन गया हमारा घर। देखो दादा जी अच्छा है ना? और पता है ये चल भी सकता है।
दादा जी हैरान, करन को देख रहे थे। बच्चों के जो खिलौने हमारे लिए व्यर्थ का सामान होते हैं उन्हें लेकर कितनी कल्पनाएँ उनके संवेदनशील संसार में होती हैं। कैसा अद्भुत सान्निध्य उन सड़क पर ठोकर खाने वाले पत्थरों के प्रति, जो इनकी दुनिया में आकर सुंदर इमारत का रूप धर लेते हैं। ये बच्चें ही तो हैं जो पुरानी निर्जीव चीजों में से भी व्यर्थ का विशेषण हटा, उनके महत्व को बढ़ा देते हैं अन्यथा आज तो जीवित प्राणी भी का अस्तित्व भी अर्थहीन हो चला है। तभी तो पचपन का बचपन को किया गया प्यार लौटाने का समय आता है तो बचपन पचपन से उकता जाता है।
दादा जी के एकाग्रता के तार को करन की आवाज ने झनकारा और ‘चलो दादा जी खेलते हैं’ का सुर उत्पन्न हुआ। और एक बार फिर बचपन-पचपन का खेल प्रारम्भ हो गया।

Thursday, December 8, 2011

Why this slavery?


इसे दास्ता की फितरत कहें या अज्ञानता। भौतिक रूप से स्वतंत्रता की प्रसन्नता भी हमें मानसिक गुलामी के भँवर से बाहर निकालने में असमर्थ है। जी हाँ, अँग्रेजों की गुलामी से वर्तमान मीडिया की गुलामी तक के सफ़र के विभेदीकरण में आज भी हम असमर्थ हैं। वैयक्तिक वैचारिक क्षमता, विश्लेषण-संश्लेषण की बौद्धिकता विलुप्त होती जा रही है। तभी तो आज हम मीडिया के नेत्रों से देखे दृश्यों तथा श्रवणेन्द्रियों से सुने शब्दों के दास हो गये हैं। व्यक्तिगत निर्णय लेने की क्षमता जैसी शब्दावली हमारे शब्दकोश में स्थान पाने में असफल होती जा रही है। हाल ही में धूम मचा रहे गीत ‘कोलावेरी डी’ की विवेचना करें तो यह गीत पहली बार सुनने पर कर्णप्रिय होने का विश्वास भी नहीं जीत पाता परन्तु मीडिया में इसकी चर्चा सुनते ही यह हमारा ‘प्रिय गीत’ बन जाता है। इसी प्रकार छोटे-छोटे बच्चों में भी ‘डर्टी पिक्चर’ की चर्चा मात्र ही रसानुभूति का संचार कर रही है। वही दूसरी ओर ‘बोल’ सरीखी गंभीर एवं अर्थयुक्त फिल्में योग्य स्थान पाने तक में भी लाचार रही। कितनी विचित्र पसंद हो गई है ना हमारी! चूँकि मीडिया ने इन्हें हाइप दी है तो यह हमें अवश्य पसंद करनी चाहिए अन्यथा लोग हमें ‘बैकवर्ड’ समझेंगे। इसी मानसिकता के दायरे में सीमित हो गये हैं आज हम। पर ज़रा सोचिये- अपनी पसंद-नापसंद न पहचानने व उसे सामाजिक रूप से स्वीकार न कर पाने की विवशता क्या हमारी व्यक्तिगत कमजोरी नहीं है? शिक्षित होते हुए भी इस अशिक्षित स्थिति में प्रवेश करना कितना शर्मनाक है??

Sunday, November 27, 2011

परतंत्र शिक्षातंत्र


नवजात शिशु असहाय अवस्था में होता है। उसका पालन-पोषण तो परिवार में माता-पिता के संरक्षकत्व में होता है किन्तु उसकी बौद्धिक चेतना का दीप शिक्षा के द्वारा ही प्रज्वलित होता है। शिक्षा के द्वारा ही बालक की शारीरिक, मानसिक, भावात्मक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक शक्तियों का विकास होता है। इस प्रकार व्यंिक्तत्व के पूर्ण विकास के लिए शिक्षा अनिवार्य है। यह प्रगति का आधार है। जिस देश और समाज में अधिकांश जनसंख्या अशिक्षित होती है, वह देश और समाज संसार में पिछड़ा हुआ कहलाया जाता है। अतः शिक्षा न केवल व्यक्ति के व्यंिक्तत्व विकास के लिए वरन् समाज व देश की पूर्ण उन्नति के लिए भी उत्तरदायी है।
शिक्षा का उपर्युक्त लिखा महत्व सर्वविदित है और सर्वस्वीकार्य भी। तथापि आज वर्तमान शिक्षा प्रणाली जर्जर होती जा रही है। विभिन्न आयोगों का गठन इसकी स्थिति सुदृढ़ करने हेतु किया जाता रहा है, परन्तु परिणाम ‘सिफर’ ही है। यह कथन पाठकों को निःसन्देह विचित्र प्रतीत हो रहा होगा, क्योंकि आाधुनिक पाठ्यक्रम व ऊँची-ऊँची स्कूल इमारतें व उत्कृष्ट परिणाम इत्यादि का तिलिस्म शिक्षा के मूल उद्देश्य को अदृश्य कर चुका है और अस्थायी उन्नति की चकाचौंध भावी परिणामों को दृष्टिगत होने नहीं दे रही है। इस भ्रमित भंवर से बाहर निकलने के लिए अग्रलिखित तथ्यों का विश्लेषण आवश्यक है-
‘‘हमारा शिक्षा-तंत्र तीन स्तरों में विभाजित है- प्राथमिक, माध्यमिक व उच्च शिक्षा। वर्तमान में प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षण हेतु भर्ती के लिए मुख्यतः दो द्वार प्रचलित हैं- विशिष्ट बीटीसी एवं बीटीसी। दोनों ही द्वार कई महाद्वारों पर ‘माया भंेट’ के पश्चात् ही खुलते हैं। बी. एड. की ही भाँति बीटीसी का भी बाजार सज चुका है। और नौकरी की आस में बोली लगाने वाले अपने-अपने स्थान पर विराजमान हैं। आशा वही पुरानी है- ‘बीटीसी के उपरान्त सुरक्षित भविष्य की गारण्टी’ अर्थात् ‘सरकारी नौकरी’।
मगर अफसोस! टीइटी व सीटीइटी सरीखे द्वारपाल कटोरा लिए इन द्वारों पर क्रूर रूप धारण किये सुशोभित हैं। प्रतिवर्ष नौकरी की दरकार करने वाले बेरोजगारों को इन परीक्षाओं हेतु माया की भंेट तो चढ़ानी ही होगी। और यदि किसी का कोटा एक वर्ष में ही पूरा हो गया अर्थात् यह परीक्षा उत्तीर्ण हो गई तो प्रसन्नचित मुद्रा पर विराम लगाइये और पाँच वर्षों के पश्चात् पुनः उस कटोरे में भेंट चढ़ाइये। यहाँ से आप साँप-सीढ़ी की प्रथम पंक्ति से प्रोन्नत हो द्वितीय पंक्ति पर आ गये। यहाँ आपको मिलेंगे ‘मेरिट’ रूपी ‘नाग देवता’, जो कब आपको डस लें, यह आपका भाग्य। इस पंक्ति में आगे बढ़ने की आपकी चाल घोर प्रतिक्षा के उपरान्त ‘रिक्तियों’ की सूचना के पश्चात ही आयेगी। और फिर आरम्भ होगा पुनः सरकारी कटोरे में भंेट चढ़ाने का सिलसिला। फॉर्म भरने से मेरिट लगने तक खूब धन-धान्य की वृष्टि विभिन्न विभागों पर आपके द्वारा की जायेगी। भाग्यवश आप मेरिट में आ जाते हैं तो तैयार हो जाइये दुर्गम स्थानों की सैर के लिए। ये वे गाँव व बस्तियाँ होंगी जिनकी कल्पना आपने अपने स्वपन में भी नहीं की होगी। स्थिति इतनी असहनीय हो जायेगी कि आप भागेंगे एक नये जुगाड़ के लिए जहाँ आप घर बैठकर इन कोर्सों व नौकरियों का आनन्द ले सकें। लेकिन यहाँ कुछ भी मुफ्त में नहीं मिलता जनाब! याद है ना माया की भेंट। चलिए, अब थोड़ी सी प्रसन्नता आपको नौकरी पाने की अवश्य होगी परन्तु साथ ही चिन्तनीय है कि उस अपरिचित व घर से इतनी दूर कैसे रहा जाये? विशेषतः लड़कियों के लिए तो यह अत्यन्त विकट समस्या है। यहाँ आवश्यकता है आपकी याददाशत के पुर्नाभ्यास की और चढ़ाइये भेंट माया की। यहाँ विभिन्न समस्याओं का एकमात्र समाधान माया ही है।’’
विचारणीय है कि इस प्रकार की परिस्थितियों से उपजित शिक्षक क्या अपने दायित्वबोध से परिचित रह पायेंगे? प्राथमिक विद्यालयों में अवनत शिक्षा स्तर इसी के परिणाम का प्रदर्शन कर रहा है। मिड डे मील में कीड़े, अनुपस्थित शिक्षक और ज्ञानविहीन कोरे बालक, ऐसा प्रतीत होता है मानो शिक्षक आपबीती का प्रतिशोध ले रहे हों।
अधिकांशतः इन प्राथमिक विद्यालयों में अभावग्रस्त बच्चे ही प्रवेश लेते हैं। भाग्य को प्रतिपल चुनौती देना इनकी दिनचर्या में सम्मिलित है। संघर्ष इनकी नियति है। तो क्या इन बच्चों को अच्छी शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नहीं है? क्या गरीबी से आइएएस, पीसीएस की कल्पना व्यर्थ है? वस्तुतः निर्धनों के सुनहरे सपनों को तोड़ने का यह पाप अप्रत्यक्ष रूप से शिक्षा-तंत्र द्वारा ही किया जा रहा है।
शिक्षा का कोई भी स्तर हो प्राथमिक, माध्यमिक अथवा उच्च, एक समस्या सर्वव्यापी है- ‘अध्यापको द्वारा ट्यूशन के लिए बाध्य किया जाना’। ट्यूशन के लोभ में शिक्षकों के गिरते स्तर की पराकाष्ठा इनके द्वारा विद्यार्थियों का मानसिक, शारीरिक व आर्थिक शोषण है। प्रायः समाचार-पत्र शिक्षकों द्वारा विद्यार्थियों के प्रति किये गये दुर्व्यवहार की घटनाओं से लबालब रहते हैं। शिक्षकों द्वारा अपने पेशे की गरिमा के परे छात्राओं का किया जाने वाला शारीरिक शोषण, शिक्षकों की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह आरोपित करता है। कैसे निश्चिन्त हो जायें अभिभावक अपने बच्चों को शिक्षा के मंदिर में भेजकर?
विद्यालयों को शिक्षा का मंदिर कहना अब उचित न होगा। विद्यालय-कॉलेज अब एक ऐसा व्यापार हो गये हैं जिसमें मुनाफा निश्चित है, घाटे का तो कोई प्रश्न ही नहीं है। विद्यालय में बच्चे का दाखिला मानो शेयर मार्केट में पैसा लगाने जैसा है। जितना बड़ा निवेश उतना मोटा फायदा। तथापि सुरक्षा, अनिश्चित। डोनेशन से लेकर छोटे-बड़े कार्यक्रमों के नाम पर लूट, स्कूल यूनिफॉर्म से किताबों तक पर लुटाई, कभी टूर पर जाने के लिए विवश किया जाना तो कभी किसी कार्यक्रम में भाग लेने के लिए इत्यादि। आखिर माता-पिता बच्चों को पढ़ायें तो पढ़ायें कैसे? प्राथमिक स्तर से उच्च स्तर तक शिक्षा प्राप्ति का आधार योग्यता न रहकर पैसा हो गया है। जो जितना निवेश करेगा, उतना ही अधिक लाभान्वित होगा।
वर्तमान शिक्षा नीतियों ने शिक्षा की गुणवत्ता को भी संदिग्ध किया है। उदाहरण स्वरूप आठवीं कक्षा व दसवीं कक्षा में अब कोई भी विद्यार्थी अनुत्तीर्ण नहीं होगा। बेसिक स्तर पर ही यदि विद्यार्थी के फेल न होने के डर को संरक्षण मिल जायेगा तो भला विद्यार्थी के लिए परिश्रम का क्या महत्व रह जायेगा? दसवीं कक्षा में प्रत्येक विद्यार्थी को पास करने का परिणाम हम देख ही चुके हैं। ग्यारहवीं कक्षा में प्रवेश के लिए होती मारामारी ने भ्रष्टाचार को उड़ान हेतु विस्तृत आकाश प्रदान कर दिया। अधिकतम अंक प्राप्तकर्ताओं को प्रवेश प्राप्त हो गया परन्तु कम अंक वाले विद्यार्थियों को अंधकारमय भविष्य ने भोग लगाया। यदि वे विद्यार्थी दसवीं मंे ही अनुत्तीर्ण हो जाते तो कम से कम उनके पास पुनः परिश्रम कर अच्छे अंक प्राप्त करने का अवसर सुरक्षित रहता । यद्यपि यह निर्णय विद्यार्थियों द्वारा आत्महत्या की घटनाओं को कम करने हेतु लिया गया था परन्तु इसके पश्चात् भी स्थिति यथावत् रही। कहीं प्रवेश न मिल पाने की कुण्ठा, अवसाद व हीनभावना ने उन्हें पुनः एक ही मार्ग की ओर प्रेरित किया। पलायनवादी प्रवृत्ति के विद्यार्थियों ने आत्महत्या के मार्ग का ही चयन किया। बहरहाल स्थिति अधिक विकट अवश्य हो गई। प्रवेश न मिल पाने के कारण घर खाली बैठने, छोटे-मोटे रोजगार में लगने व वैकल्पिक कोर्स करने वाले विद्यार्थियों की संख्या में वृद्धि हो गई। इस शिक्षा नीति ने बहुत से विद्यार्थियों को उच्च शिक्षा से वंचित तो किया ही, साथ ही निराशा ने उन्हें अपराध की ओर प्रवृत भी किया।
इन चाणक्य नीतियों की भला और क्या तारीफ की जाये। इन्होंने बेरोजगारी की परिभाषा का स्वरूप ही परिवर्तित कर दिया है। ‘‘शिक्षित वर्ग जो रोजगार प्राप्त नही कर पाता है, बेराजगार कहलाता है।’ इस शिक्षा नीति के अन्तर्गत न तो बालक शिक्षित हो सकेगें और न ही अच्छी नौकरी की आकांक्षा रख सकेंगे। वाह समाधान!
उच्च स्तरीय शिक्षा का आलम देखिए- पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने देश में शोध और प्रबंधन से जुड़े शीर्ष संस्थानों आइआइटी और आइआइएम की गुणवत्ता पर सवालिया निशान लगाते हुए कहा, ‘‘विद्यार्थियों की गुणवत्ता के कारण ही हमारे आइआइटी और आइआइएम संस्थान उत्कृष्ट बने हुए हैं।’’ रमेश के अनुसार, ‘‘संस्थान नहीं, यहाँ के छात्र विश्वस्तरीय हैं। सरकारी तंत्र की मकड़जाल के चलते भारत विश्वस्तरीय शोध केन्द्र विकसित नहीं कर पाता है।’’
वस्तुतः माननीय रमेश जी की यह कोई कल्पना नही वरन् यर्थाथ का वह आइना जिसकी स्वीकार्यता लज्जित करती है। विश्वविद्यालयों व सम्बद्ध महाविद्यालयों में विद्यार्थियों की उपस्थिति रजिस्टर में भले ही 75ः से अधिक है परन्तु वास्तविकता यह है कि विद्यार्थियों की आधे से अधिक संख्या ऐसी होती है जो परीक्षा देते समय ही कॉलेज के दर्शन करते हैं। नियमित उपस्थिति तो असंभव है। और जो कॉलेज में नियमित रूप से आने वाले विद्यार्थी हैं उन्हें प्रायः दूसरी कक्षाओं के बाहर लड़कियांे को ताकते हुए पाया जा सकता है।
यह सब निकृष्ट होते शिक्षा-तंत्र की मात्र कुछ झलकें हैं। यदि गम्भीरतापूर्वक व ईमानदारी का सानिध्य लेते हुए शिक्षा-तंत्र की वास्तविक स्थिति का अध्ययन किया जाये तो यूजीसी, एनसीटीई, सीबीएससी, आइसीएससी, विश्वविद्यालय, महाविद्यालय, स्कूल-कॉलेज, कोचिंग इंस्टीट्यूट इत्यादि प्रत्येक स्तर पर भ्रष्टाचार की होड़ लगी है। यह फहरिस्त इतनी लम्बी है कि इसके हर एक शब्द का अपना एक उपन्यास है। विस्मयबोधक है कि इस शिक्षा-तंत्र से जूझते हुए भी विद्यार्थी अपना विश्वास इसमें बनाये हुए हैं और उज्ज्वल भविष्य के लिए आशातीत हैं। निःसन्देह उम्मीद पर दुनिया कायम है। ईश्वर से प्रार्थना है कि इस उम्मीद की लौ यूँ ही रोशन रहे। परन्तु यह भी सच है कि ‘‘हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए’’। अब सटीक समाधान खोजा जाना नितांत आवश्यक है। अन्यथा सम्भावना है कि विश्वास की डोर छूटते ही काला भविष्य निर्दोष व निराश विद्यार्थियों को जुर्म की राह न दिखा दे। और गाँधी, नेहरू, सुभाष, भगतसिंह आदि जैसे महान व्यंिक्तत्वों के सपनों के भारत की भावी पीढ़ी उनके बलिदान को अज्ञानतावश कलंकित कर जाये। विषय वास्तव में गम्भीर है।

Sunday, November 13, 2011

चुनौती ‘अस्तित्व की’


मानव स्वभाव विपरीत परिस्थितियों में दो में से एक प्रकार की प्रतिक्रिया का चयन करता है। या तो वह चुनौतियों को स्वीकार कर डटकर उनके सम्मुख खड़े हो, उन परिस्थितियों को प्रति-चुनौती देता है या उनके सम्मुख नतमस्तक हो समायोजन करने का प्रयास करता है और कुण्ठा को अपनी नियति स्वीकार करता है। मैंने कुण्ठा को चुनौती देने का निश्चय किया और अपने जीवन को एक नई राह दी।
बात हाल ही की है जब उच्च शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात् बेटी के प्रति सामाजिक व पारिवारिक दायित्व कहे जाने वाली रीत अर्थात् बेटी के लिए रिश्ता ढूँढ़ने मेरे पिता को घर की चौखट से बाहर एक विचित्र प्रश्न को अपने मुख पर तमाचे की भाँति सहन करना पड़ा। यह असमंजस्य है कि वह प्रश्न था अथवा उत्तर। शब्द कुछ इस प्रकार के थे कि ‘‘हम तीन बेटियों वाले घर में अपने बेटे का रिश्ता नहीं करेंगे। यहाँ आगे का परिवार तो खत्म ही हो जाना है।’’
संवाद बेहद कटु है परन्तु मानसिकता दया की पात्र है। जब यह उत्तर मैंने अपने माता-पिता के मुख से सुना तो मेरा प्रश्न एक था, ‘‘क्या आपको अपनी तीन बेटियाँ होने का कोई पछतावा, शर्मिंदगी या किसी प्रकार का दुःख है?’’ माता-पिता का उत्तर था- हमें गर्व है अपनी बेटियों पर। तो फिर पापा आप उनको फोन करके कह दीजिए कि आपके सुपुत्र न तो शैक्षिक योग्यता में मेरी बेटी के समतुल्य है और न ही उपलब्धियों में। इसलिए हम अपनी बेटी का विवाह आपके बेटे के साथ करने में अक्षम है।
निश्चित रूप से ऐसे किसी परिवार में विवाह किया जाना जहाँ स्त्री के वजूद का सम्मान न हो, मूर्खता है। परन्तु इस घटना ने मेरे आत्मसम्मान को झकझोर दिया और अपने परिवार की प्रतिष्ठा को उस समाज में पहचान दिलाने का जुनून सवार हो गया जहाँ मानवता व स्वतंत्र मस्तिष्क का वास हो। वर्तमान में मैं अपने दृढ़ संकल्प का अनुसरण करते हुए अपनी मंजिल की सीढ़ी चढ़ रही हूँ और अपने माता-पिता के साथ-साथ अपने अस्तित्व को भी अपेक्षित पहचान दिला रही हूँ।

Tuesday, November 8, 2011

बदनियती को करें नियंत्रित


आज के i- next की रिपोर्ट सड़क पर लड़कियों की सुरक्षा, कसे जाने वाले तंज, भद्दी फब्तियाँ, अपराधिक घटनाएँ इत्यादि, शायद इस ख़बर को पढ़ते समय महिला समाज की प्रतिक्रिया ऐसी हो, ‘‘ये सब तो रोज़ होता है। इसे क्या पढ़ना इससे ज्यादा तो हम जानते हैं और झेलते हैं।’’ और पुरूष समाज के संवाद होंगे, ‘‘ इतनी स्वतंत्रता लेंगी तो यही होगा। और चलो सड़कों पर मनमौजी अंदाज में।’’ पर क्या इतनी सी प्रतिक्रिया इस विषय की गंभीरता को कम कर देती है? बात करें अगर उस छोटी बच्ची की जिस पर कसी गई अश्लील फब्ती का उसे अर्थ भी नही पता परन्तु आस-पास वालों की उपाहासनीय-निर्लज हँसी फिर भी उसे लज्जित कर देती है या उस बच्ची की जिसे कोई अनजाना असुरक्षित स्पर्श सहमा देता है; क्या मानसिक स्थिति रहती होगी उस बच्ची की उस समय? दो दिन पूर्व की घटना जिसमें एक पॉश कॉलोनी में रहने वाले वकील साहब की नीयत दो मासूम बच्चियों पर बिगड़ गई; पढ़ने-देखने-सुनने वालों के लिए चंद घंटों बाद यह आई गई घटना हो गई या निकटस्थ पड़ौसियों के लिए चटपटी गॉसिप का विषय, परन्तु क्या किसी ने उन बच्चियों पर इस घटना के पड़े प्रभाव के विषय में सोचा है? क्या वे बच्चियाँ ता उम्र इस घटना के मानसिक दबाव से उभर पायेंगी? क्या उनका विकास सामान्य रूप से हो पायेगा? क्या फिर वे किसी अंकल पर विश्वास कर पायेंगी? हंसी ठिठोली करने वालों के लिए दो पल का मजा है और पीडिताओं के लिए मस्तिष्क के किसी कोने में हर पल की सिसकियाँ और घुटन। ज़रा समझिये और स्वीकार कीजिए कि खुश्नुमा और स्वतंत्र जीवन जीने का अधिकार हम लड़कियों को भी ईश्वर ने समान रूप से प्रदत्त किया है। किसी भी विकृत मानसिता को न तो यह हक छीनने का अधिकार है और न ही महिलाओं को यह हक थाल में परोसकर देने की आवश्यकता है।

Tuesday, October 25, 2011

मंहगाई में मनायें खुशियों की दिवाली


चहुँ ओर की हाहाकार में त्यौहारों का उल्लास दम तोड़ रहा है। मंहगाई का कुचक्र त्यौहारांे की खुशियों को सिसकियों में परिवर्तित कर रहा है। अमीर-गरीब का स्तरीय विभेदीकरण एक कॉमन (उभयनिष्ठ) सीमा पर आकर बेबस हो गया है। मंहगाई- आर्थिक रूप से विभिन्नता लिए कोई भी जीवन स्तर हो, सभी इसी शब्द से त्रस्त हैं। आखिर कैसे आनन्दित हो त्यौहारों के आगमन पर? यह विचार प्रत्येक उस व्यक्ति को कचोटता होगा जिसके लिए त्यौहार के आगमन की प्रसन्नता का आधार ‘‘पैसा’’ है। पटाखे जलाना, मिठाई खरीदना, घर सजाना, खरीददारी करना, क्या यही एक माध्यम है त्यौहार मनाने का? नहीं! यदि त्यौहार मनाने के वास्तविक स्वरूप को स्वीकार किया जाये तो निःसन्देह इस वर्ष की दिवाली आपको सर्वाधिक आत्मिक प्रसन्नता देगी। मात्र् आवश्यकता है बाहरी आडम्बर व दिखावे-छलावे की दुनिया के स्वयं को विरक्त करने की। आर्थिक प्रतिस्पर्धा को त्यागकर सादगी को अपनाते हुए दीये जलाइये उन घरों में जहाँ त्यौहार पर चूल्हे की ठंडी राख बेबस माँ के आँसूओं और भूख से तड़पते बच्चों की सिसकियों को छुपाती है। पटाखों की गूँज से तीव्र कीजिए उन बच्चों की हँसी की गूँज को जिनकी प्यासी आँखें अपनों के न होने के अहसास से सिहर उठती हैं। दीजिए सहारा उन काँपते हाथों को जिनके कटु अनुभव उनके जीवन की मिठास को कहीं लील गये हैं। अगर इस दिवाली को मनाने को इस ढ़ंग को आप अपनायेंगे तो कभी मंहगाई की मार आपकी दिवाली फीकी नहीं कर सकेगी।

Tuesday, October 4, 2011

बनिये रोजगारदाता

i-next में प्रकाशित रिपोर्ट ‘जॉब के लिए जाएं कहाँ?’, यह प्रश्नचिन्ह स्वयं में एक प्रतिप्रश्न समाहित किये हुए है कि ‘जॉब के लिए जायें क्यों?’ स्कूल से कॉलिज तक के सफर की आवश्यकता, उद्देश्य एवं अन्तिम लक्ष्य जीविकोपार्जन हेतु रोजगार प्राप्त करना है। परन्तु वर्तमान परिस्थितियाँ इसी बिन्दु पर निराशा व अंधकारमय भविष्य के दर्शन कराती है। परिणाम स्वरूप बेराजगारों के बढ़ते आपराधिक रिकार्ड, कुण्ठा एवं आत्महत्याओं के ग्राफ में वृद्धि। किसी भी देश की ताकत एवं गुरूर उस देश की युवाशक्ति होता है परन्तु भारतवर्ष की युवाशक्ति को यह कैसी दिशा प्राप्त हो रही है? इस समस्या का समाधान क्या है? वास्तव में नासूर बनती जा रही, इस समस्या का समाधान नितांत आवश्यक भी है। ऐसा नही है कि यह अविनाशी समस्या है। गांधी जी की शिक्षा नीतियाँ इस संदर्भ में पुनः हमारा ध्यानाकर्षित करती हैं। जी हाँ, गांधी जी की ‘बेसिक शिक्षा’ जो आधुनिक परिस्थितियों में भी अपनी सार्थकता प्रमाणित करती है। मात्र आवश्यकता है समकालीन परिस्थितियों के अनुरूप सामंजस्य स्थापित करते हुए उसका अनुसरण करने की। यह शिक्षा ‘स्वः रोजगार’ की अवधारणा पर आधारित है। भारतीय युवा पीढ़ी में चमत्कृत प्रतिभा एवं गुण है जिनसे वह स्वयं भी अनभिज्ञ है। माता-पिता एवं गुरूजनों को युवाओं के भीतर स्थिति इस स्पार्क को पॉजीटिव दिशा प्रदान करते हुए, उन्हें स्वः रोजगार के लिए प्रेरित करना चाहिये। परजीवी एवं पराश्रित बनाने वाले मानसिकता को तिलांजलि देते हुए उनमें विश्वास उत्पन्न करना चाहिये कि वे न केवल अपने लिए अपितु दूसरों के लिए भी रोजगार उत्पादित करें। यह वक्तव्य कुछ लोगों को यह कहने का अवसर अवश्य प्रदान करता है कि ‘कहना आसान है और करना मुश्किल’। परन्तु एक सत्य यह भी है कि आत्मविश्वास के धरातल पर सफलता की इमारत खड़ी करना कठिन भी नहीं है। बढ़ते कदमों को साथ अवश्य प्राप्त होता है परन्तु यह निर्णय उन कदमों का होता है कि वह किस मंजिल की ओर अग्रसर है। दृढ़ संकल्प एवं एकाग्रता आपके एवं मंजिल के मध्य की दूरी को कम कर देते हैं। आत्मनिर्भरता की यह लौ न केवल बेरोजगारी की समस्या का निवारण करेगी वरन् देश की उन्नति में भी सहायक सिद्ध होगी।