Monday, May 16, 2011

ईश्वर में आस्था

‘‘ईश्वर में विश्वास रखो पर ईश्वर को भी यह विश्वास दिलाओ कि जो वो आपको दे रहा है आप भी उसके योग्य हो।’’
ये पंक्तियाँ ईश्वर में आस्था के सही मायने स्पष्ट कर रही हैं। वास्तव में हम जब भी किसी मुसीबत में होते हैं तो हमारी ईश्वर में आस्था कुछ ज्यादा ही अगाढ़ हो जाती है और ‘भगवान सब ठीक करेंगें’ शब्दों से हम स्वयं को तसल्ली देने लगते हैं। परन्तु ‘ईश्वर हमारी सहायता क्यों करें’ इस प्रश्न पर कभी विचार नहीं करते। ईश्वर ने हम सभी को इस धरती पर कर्म करने के लिए भेजा है। यदि हम अपने इस कर्तव्य का पालन नहीं कर रहे हैं तो क्यों यह उम्मीद लगाते हैं कि ईश्वर हमारी सहायता करे।
‘ईश्वर उन्हीं की सहायता करते हैं जो अपनी सहायता स्वयं करते हैं।’ इस कथन का भाव भी वही है जो उपर्युक्त पंक्ति का। रास्ते रास्तों पर चलने से ही मिलते हैं। समस्याएँ कर्म करने से ही सुलझ सकती है। हाथ पर हाथ रखे ईश्वर के सम्मुख बैठकर घण्टी बजाने से, राम-नाम का अलाप जपने से कोई कार्य सम्पन्न नहीं हो सकता। प्यासा बुझाने के लिए न केवल कुएँ तक जाना आवश्यक है अपितु कुएँ से पानी निकालने की मेहनत करनी भी पड़ती है।
सारांश यह है कि ईश्वर में अपने यकीन को कम न होने दो परन्तु ईश्वर का आपमें विश्वास रहे इसके लिए कर्म करने से कदम पीछे न हटाओ। ईश्वर भक्ति को कर्महीनता का प्रतीक न बनने दो।

इसांफ माँगती शहादत

इसांफ माँगती शहादत

जिस देश में शहीदों के परिजनों को इंसाफ पाने के लिए आत्मदाह जैसे कठोर कदम उठाने पडे़ उस देश का भविष्य भला क्या होगा? शहीदों को मेडल देकर, दो भावभीन दिखावटी शब्द बोलकर राजनेता अपनी राह चल देते हैं और पीछे छोड़ जाते हैं बिलखते-तड़पते असहाय परिजन। जब भी सीमा सुरक्षा की बात आती है तब हम नागरिक सीमा पर तैनात जवानों की ओर आशा भरी नज़रों से देखने लगते हैं और उनसे किसी भी प्रकार की चूक हमारे लिए असहनीय है। ये वीर जवान प्रतिक्षण अपने अंत को मस्तक पर सजाये हम देशवासियों की सुरक्षा करते हैं। परन्तु शहीद होने के उपरान्त जब हम आमजन के फर्ज निर्वाह का समय आता है तब हम अज्ञानी व लाचार बन जाते हैं। तब हमें न तो किसी सीमा से सरोकार होता है न ही किसी सुरक्षा से। अफजल जो इस देश के बेटों की हत्या का दोषी है उसकी फाँसी के लिए परिजनों को पुनः शहीद होना पड़ रहा है। कितनी दुखदायी स्थिति है जिसकी फाँसी के लिए सम्पूर्ण देश को एकत्रित हो संसद तक अपनी ललकार सुनानी चाहिये थी उसके लिए इंसाफ व्यक्तिगत संघर्ष हो गया। संदीप उन्नीकृष्णन के चाचा की मृत्यु पर देश की किसी भी संस्था के कंठ से कोई आवाज क्यों नहीं आई? राष्ट्रवाद का राग अलापने वाले किसी दल ने कोई तान संदीप के लिए क्यों नहीं छेड़ी? आखिर क्यों ऐसे देश की सुरक्षा के लिए माँ अपने बेटों का बलिदान दे जहाٕँ के नागरिक, सरकारी तंत्र, राजनेता या कहें कि सम्पूर्ण देश की आत्मा स्वार्थी हो? अभिनेता बनते राजनीतिज्ञ व उद्योगपतियों के सुपुत्रों को क्यों न एक बार देशभक्त जवान बनाया जाये, तब शायद किसी शहीद के गरीब माता-पिता की पीड़ा का अहसास हमारी गंदी राजनीति कर पाये।

ऑनर किलिंग

ऑनर किलिंग

पिछले कुछ दिनों से ‘ऑनर किलिंग’ की घटनाओं में आश्चर्यजनक रूप से वृद्धि हुई है। लगभग प्रतिदिन कोई न कोई युगल ऑनर किलिंग का शिकार हो रहा है। ऐसा नहीं है कि ऑनर किलिंग की घटनाएँ पहले नहीं होती थी परन्तु आज इन घटनाओं पर समाचार-पत्र व चैनलों के अतिश्योक्तियुक्त प्रस्तुतीकरण ने इसे अनावश्यक रूप से बढ़ावा दिया है।
इस प्रकार की घटनाओं के प्रस्तुतीकरण की प्रभावात्मकता इतनी गहन है कि माता-पिता व बुजुर्ग वर्ग के सम्मान से अब यह अहंकार का विषय बन गया है। प्रेमी युगलों की हत्याओं की संख्या में वृद्धि का कारण इसी अहंकार की सन्तुष्टी की लालसा है। वहीं दूसरी ओर प्रेमी युगलों द्वारा आत्महत्याआंे का कारण चहुँ ओर ऑनर किलिंग का व्याप्त भय है।
क्या ऑनर किलिंग वास्तव मेें न्यायोचित है? ‘धर्मनिरपेक्ष राज्य’ कहे जाने वाले भारतवर्ष में जात-बिरादरी के नाम पर ये कैसा आपराधिक वातावरण बनता जा रहा है? बिरादरी के नाम पर होने वाली पंचायतें ऑनर किलिंग का जहर समाज में भर कैसे मानवाधिकार कानून का उपहास कर रही हैं?
मीडिया को इस अपराध को रोकने के लिए अपने दायित्वों का अहसास करना चाहिए और निस्वार्थ भाव (टी. आर. पी. का लोभ छोड़) से घटनाओं का न्यायपूर्ण प्रस्तुतीकरण करना चाहिए। साथ ही अस्वीकृत व असफल प्रेम के प्रस्तुतीकरण की पुनरावृत्ति को बढ़ावा न देकर स्वीकृत व सफल प्रेम के प्रशंसनीय उदाहरण प्रस्तुत करने चाहिए।

होली का संदेश

होली का संदेश

हरे-लाल-पीले-नीले रंगों की रंगबिरंगी होली जीवन के रंगों को तब और भी अधिक चटक कर देती है जब दिलों के मैल होली के रंगीन पानी में कहीं खो जाते हैं। इस त्यौहार की रंग लगाकर गले लगाने की परम्परा हृदय स्पर्श के साथ मधुर भावनाओं का संचार करती हैं। परन्तु इस पावन उत्सव की पवित्रता को कुछ लोग अपनी अंध-मस्ती के जोश से दूषित करने का प्रयास भी करते हैं। होली से कई दिन पूर्व ही राह चलते लोगों पर रंगों से भरे गुब्बारे फेंकना उनको तो आनन्दित कर देता है परन्तु उस राहजन की बढ़ी हुई मुश्किलों से इन मस्तानों को कोई सरोकार नहीं होता। होली के दिन भी किसी-किसी के दिलों के मैल इतने जिद्दी हो जाते है कि उस पर प्रेम के डिटेरजेंट भी फेल हो जाते है। दाग फिर भी रह जाते हैं और ये दाग अच्छे भी नहीं होते। और बार-बार दूरियों का अहसास कराते हैं। दुर्भावनाआंे के भरा मन भला क्या ईश वंदना करता होगा? क्या ईश्वर ऐसी प्रार्थना स्वीकार करते होगें? प्रत्येक त्यौहार सद्भावना, सहभागिता, आत्मीयता, प्रेम, अपनत्व एवं जनकल्याण के संदेश को लेकर आता है। यदि हम उस त्यौहार के संदेश को ही ना समझ पाये तो क्या औचित्य है त्यौहार मनाने का?

एक नज़र इधर भी....................

एक नज़र इधर भी....................

पिछले कुछ महीनों से सोशल नेटवर्किंग साइट्स का आर्मी व सी. आर. पी. एफ. के जवानों में क्रेज बढ़ता जा है। वे अति उत्साह के साथ इन साइट्स पर सक्रिय हैं। यदि इन जवानों का प्रोफाइल व फोटोज देखें तो यह सक्रियता एक चिन्ता का विषय बन जाती है। इनके प्रोफाइल व स्क्रेप्स का अध्ययन कर बहुत ही सरलता से इनकी महत्वाकांक्षा के स्तर को परखा जा सकता है। आत्मप्रदर्शन की चाह में कुछ जवानों ने तो आर्मी में प्रयोग किये जाने वाले हथियारों, विभिन्न मुद्राओं व वेशभूषाओं में स्वंय की, स्थानीय क्षेत्रों व यहां तक की बंकरस की फोटो भी अपलोड की हुई हैं। ये जवान नियमित रूप से सोशल नेटवर्किंग साइट्स का प्रयोग कर रहे हैं।
वास्तव में देखा जाये तो देश की सुरक्षा से जुड़े ये व्यक्ति व क्षेत्र गोपनीयता की सीमा के भीतर होने चाहिए। इनकी पहचान सार्वजनिक नहीं होनी चाहिए। इस प्रकार अति उत्साह व दिखावे की भावनाओं के वशीभूत होकर ये जवान आतंकियों को अपने मानसिक स्तर व शक्तियों की पहचान व परख करने का खुला न्यौता दे रहे हैं। इनकी बढ़ती सामाजिकता का पूर्ण लाभ आतंकियों को मिलेगा। वे इनसे सम्पर्क कर इन्हें बहला-फुसला सकते हैं। साइट्स पर सक्रिय कुछ जवान चैटिंग के भी बहुत शौकीन हैं। इनके ये मिजाज न केवल इनकी व इनके साथियों की अपितु सम्पूर्ण देश की सुरक्षा को खतरे में डाल रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि आर्मी वालों को मनोरंजन का अधिकार नहीं है परन्तु यदि यह मनोरंजन देश की सुरक्षा पर प्रश्न चिन्ह आरोपित करने लगे तो सचेतता आवश्यक हो जाती है।

‘‘बेटियों का जन्म खुशियों का हकदार’’

‘‘बेटियों का जन्म खुशियों का हकदार’’

बेटी के जन्म पर खुशियाँ, पढ़कर ऐसा लगा मानो किसी ने उपहास स्वरूप अख़बार में ये ख़बर दी हो। परन्तु पूरी ख़बर पढ़कर अत्यन्त प्रसन्नता हुई कि पुरूष प्रधानता का दायरा सिमट रहा है और बेटियों के जन्म को भी उस खुशी का सानिध्य प्रदान किया जा रहा है जिसके हकदार अभी तक केवल बेटे थे। बागपत-शामली जैसे ग्रामीण क्षेत्र से इस नयी विचारधारा के बहाव में यदि कुछ अन्य परिवार और सम्मिलित हो जाये तो भू्रण हत्या जैसे कुकृत्यों का काल निश्चित रूप से निकट होगा और बिगड़ता स्त्री-पुरूष लिंगानुपात संतुलित हो, प्रकृति के नियम को वजूद प्रदान करेगा। बागपत-शामली के इन परिवारांे ने ग्रामीण क्षेत्र की रूढ़िवादी परम्पराओं का हवाला दे बेटियों का दुख मनाने वालों के लिए एक मिसाल कायम की है कि विस्तृत सोच किसी निश्चित परिवेश की बपौती नहीं होती। शहरवासी प्रदत सुविधाओं का दुरूपयोग कर रहे हैं और ग्रामीण ईश्वरीय देन का सम्मान करते हुए स्वागत कर रहे हैं। वास्तव में ये परिवार बधाई के पात्र हैं। सभी बेटियाँ इन्हें तहे दिल से धन्यवाद देती हैं।

बच्चों द्वारा आत्महत्या के कारण

बच्चों द्वारा आत्महत्या के कारण

निरन्तर प्राप्त होने वाले बच्चों द्वारा आत्महत्या के समाचार ‘बच्चों द्वारा आत्महत्या’ को शोध का विषय बना रहे हैं। ये समाचार सोचने के लिए बाध्य कर रहे हैं कि क्यों आज बच्चों की भावनात्मक दृढ़ता शिथिल हो रही है। माता-पिता की डाँट हो या परीक्षा-परिणाम या कोई अन्य मामूली कारण- बच्चों को अपनी जीवन-लीला समाप्त करने के लिए उद्दीपक का कार्य कर रहा हैं। आखिर यह किसकी कमजोरी है- बच्चों की? जो आधुनिक परिवेश में अतिमहत्वकांक्षा का शिकार हो रहे हैं या माता-पिता की? जो बच्चों के जीवन के अनमोल क्षणों में उन्हें एकाकीपन का अहसास करा रहे हैं। जेनरेशन-गैप का राग अलापते-अलापते आज यह अन्तराल नियति बनता जा रहा है। अभिभावकों व बच्चों ने इसे जीवन का अभिन्न अंग मान लिया है और वैचारिक विविधता को पीढ़ीगत-शत्रुता में परिवर्तित कर दिया है। जबकि वास्तव में देखा जाये तो इन शब्दों का अस्तित्व हर पीढ़ी में मौजूद है और ये वैचारिक मतभेद भी चिरकाल से चलते आ रहे हैं। आवश्यकता है इन शब्दों के जाल से बाहर निकलकर वास्तविक कारण जानने की। अभिभावकों को बच्चों से मित्रता कर उन्हें समझते हुए अपना वह समय देने की जिसे वे पार्टी इत्यादि में व्यतीत करने में रसानुभव करते हैं। बच्चों को अपने प्रेम, अपनत्व, सुरक्षा व बड़प्पन का अहसास दिलाने की। उनके खट्टे-मीठे क्षणों में उनका सिर अपनी गोद में रख यह कहने की ‘ कोई बात नहीं बच्चे, हम हैं ना सदा तुम्हारे साथ।’ तब यकीनन बच्चों की भावनात्मक दुर्बलता की जड़ें अभिभावकों के प्रेम की बुनियाद में अपना अस्तित्व तलाशेंगी।