Tuesday, May 31, 2011

पिछले दरवाजे की एन्ट्री


पिछले दरवाजे की एन्ट्री

जब भी किसी घोटाले या आपराधिक मामलों में किसी जनप्रतिनिधि की संलिप्तता पाई जाती है तो एक प्रश्न मतदाताओं की जुबाँ को सी देता है- ‘‘आखिर इन्हें चुनने वाला कौन है?’’ एक सीमा तक देखा जाये तो प्रश्न सार्थक भी है। आखिरकार लोकतंत्र में मतदान के अधिकार का प्रयोग कर इन्हें अपना रहनुमा हम खुद ही बनाते हैं। परन्तु वहीं दूसरी ओर एक विवशता इस प्रश्न के उत्तर में मतदाताओं को संरक्षण प्रदान करती है कि जब सारी ही मछलियाँ सड़ी हो तो अन्य कोई विकल्प ही कहाँ रह जाता है? इस मरूस्थल में सींचने हेतु कोई वृक्ष है ही कहाँ? विवशता व बाध्यता के अधीन जनता-जनार्दन को इन्हीं में से किसी का चयन करना ही पड़ता है। विस्मित कर देने वाला तथ्य यह है कि सम्पूर्ण भूमण्डल पर 6000 घराने पिछले कई वर्षाें से शासन कर रहे हैं। बाप से बेटे को राजनीति पीढ़ी दर पीढ़ी विरासत में मिलती जा रही है। बूढ़े शेर शिकार करने में इतने पारंगत हो चुके हैं कि वे किसी अन्य को स्थापित होने का अवसर ही प्रदान नहीं करते। ऐसी स्थिति में युवा पीढ़ी किस प्रकार प्रतिनिधित्व का बीड़ा उठाये? राज्य सभा व लोक सभा दोनांे में कुल मिलाकर लगभग 145 सांसद ऐसे हैं जो अरबपति हैं। जिनका चयन राजनीतिक पार्टियाँ स्वहित हेतु करती हैं। क्या वातानुकूलित कमरों में विराजमान लोग गरीब की धूप में जलती चमड़ी की जलन को महसूस कर सकते हैं? क्या महीने के अंत में घर चलाने के लिए आम आदमी की चेहरे की शिकन व तनाव को समझ सकते हैं? क्यों उतारा जाता है ऐसे व्यापारियों को राजनीति के अखाड़े में। राजनीति जनसेवा का क्षेत्र है व्यापार का नहीं। माननीय मनमोहन सिंह जी असम प्रदेश से संसद तक का सफर तय करते हैं जहाँ के क्षेत्र से वे पूर्णतः अनभिज्ञ थे और लतीफा यह है कि आम जनता भी इन्हें नहीं जानती थी। पत्रकारिता जगत ने इसे बैकडोर एन्ट्री की संज्ञा दी। राजनीति में इस प्रकार की बैकडोर एन्ट्री से आम जनता भला किस प्रकार लाभान्वित हो सकती है? वास्तव में अब देश को एक गरीब, समझदार, कर्तव्यनिष्ठ व ईमानदार प्रतिनिधि की आवश्यकता है जो वास्तव में इस गम्भीर व संवेदनशील दायित्व का गरिमापूर्ण ढं़ग से निर्वाह करने में सक्षम हो।

Saturday, May 21, 2011

लुटते बेरोजगार, घी में सरकार


लुटते बेरोजगार, घी में सरकार

लम्बी-लम्बी लाइनों में धक्का-मुक्की होते अभ्यर्थी, मूर्छित होती लड़कियाँ और भड़कते छात्र। कुछ ऐसी सी ही स्थिति है केंद्रीय शिक्षक दक्षता परीक्षा (सी. टी. ई. टी.) के फॉर्म के लिए जदोजहद कर रहे बी. एड. बेरोजगारांे की। वे सुबह जल्दी आकर लाइन में लग जाते हैं। इसके बावजूद कब नम्बर आयेगा, कोई ख़बर नहीं। कई बार तो नम्बर आते ही मुँह पर बैंक की खिड़की बंद हो जाती है और अगले दिन पुनः यही कार्यक्रम। कभी फॉर्म खत्म हो जाते हैं तो कभी बैंक का लंच टाइम हो जाता है। परन्तु हमारे इन लाचार बेरोजगारों को न तो लंच की अनुमति है और न इनके लिए कोई समय सीमा है। इनका यह स्थिर सफर हाथ में फॉर्म की उपलब्धी के साथ समाप्त होता है। फॉर्म प्राप्त करने के पश्चात प्रसन्नचित चेहरे इस प्रकार की भाव देते हैं मानो उन्हें नौकरी ही मिल गई हो। शायद यह उनके स्वयं को तसल्ली देने का माध्यम है क्योंकि सत्य तो यह है कि यह फॉर्म उनके आगामी संघर्ष की पहली सीढ़ी है।
कुछ अभ्यर्थी इस टेस्ट की वास्तविकता से अनभिज्ञ हैं। परन्तु फिर भी वे फॉम भरने के लिए उत्सुक हैं। क्या करें भेड चाल की आदत सी जो हो गई है। विशिष्ट बी. टी. सी. का दौर आया तो बी. एड. सुरक्षित भविष्य का पर्याय बन गई। बहुत से बेरोजगारों के लिए निःसन्देह यह वरदान साबित भी हुई। परन्तु वर्तमान स्थिति तो अब बी. एड. को शादी के लिए दहेज रूप में भी अस्वीकृत करती है। विशिष्ट बीटीसी के समय ससुराल पक्ष को बीएड बहु चाहिये थी। हाय दुभार्ग्य यह निवेश भी डूब गया।
खैर बात थी सीटीईटी और इससे जुड़ी भ्राँतियों की। यह टेस्ट नौकरी की गारण्टी नहीं है अपितु मात्र योग्यता परीक्षण का प्रमाण-पत्र है। परन्तु इसकी अनिवार्यता ने इसे महत्वपूर्ण अवश्य बना दिया है। इस परीक्षा में उत्तीर्ण अभ्यर्थी भविष्य में होने वाली नियुक्तियों के लिए आवेदन करने के योग्य होंगे। एनसीटीई के अनुसार सीटीईटी राज्य स्तरीय शिक्षकों के लिए पात्रता परीक्षा नहीं है। अतः केन्द्र की ही तर्ज पर राज्यों ने भी टीचर एलिजिब्लिटी टेस्ट (टी. ई. टी.) का बिगुल बजा दिया है। सीबीएसई शिक्षा प्रसार विभाग के एक अधिकारी के अनुसार पिछले कुछ दिनों में यूपी में सीटीईटी के डेढ़ लाख से अधिक फॉर्म बिके है।
केन्द्र व राज्यों का यह नया खेल अत्यन्त विचित्र है। अभ्यार्थियों की बेरोजगारी की बेबसी पर जगाई उम्मीद की किरण को भुनाने का निर्लज्ज प्रयास। सीटीईटी आवेदन मात्र केंद्रीय विद्यालयों व सीबीएसई से जुड़े स्कूलों के लिए है जिनकी संख्या बहुत कम है, यह बात अभ्यार्थियों के संज्ञान में नहीं है।
बी. एड. कक्षाओं में दाखिला, प्रवेश परीक्षा के माध्यम से होता है तो क्यांे सरकार बार-बार टेस्ट का प्रोपगंेडा रच लाचार बेरोजगारों का उपहास कर रही है? या यूँ कहें कि नौकरी के सुनहरे सपने दिखाकर स्वयं की जेबें गरम कर रहीं हैं। यह टेस्ट उन शिक्षकों के लिए भी अनिवार्य है जिनकी इण्टरमीडिएट सात वर्ष से पूर्व की है। वर्षों से शिक्षण कर रहे शिक्षक अब यदि टी. ई. टी. परीक्षा को उत्तीर्ण न कर पाते तो क्या वे अपनी वर्षाें की नौकरी से हाथ धो बैठेंगे? ऐसी स्थिति में राज्य सरकार का इन शिक्षकों के प्रति क्या निर्णय होगा? इसकी व्याख्या राज्य सरकार ने नहीं की है। राज्य सरकार के अनुसार सात वर्ष पूर्व पाठ्यक्रम परिवर्तन के कारण इन शिक्षकों के लिए यह टेस्ट उत्तीर्ण करना अनिवार्य है। कितना दुःखदायी है कि सरकार शिक्षकों के वर्षांे के शिक्षण अनुभव को इतनी निष्ठुरता से चुनौती दे रही है! वस्तुतः ऐसा तो नहीं है कि पाठ्यक्रम परिवर्तन के पश्चात् शिक्षकों ने विद्यार्थियों को नवीन पाठ्यक्रम से पढ़ाना बंद कर दिया हो और उन्हें पुराने पाठ्यक्रम से पढ़ने के लिए बाध्य कर रहे हों। जब ऐसी स्थिति है ही नहीं तब इस टेस्ट की क्या आवश्यकता है? मात्र मुद्रा संग्रहण के लिए? टेस्ट उत्तीर्ण करने के पश्चात छः माह की ट्रेनिंग भी अनिवार्य है। क्या सरकार वास्तव में नियुक्तियाँ करना चाहती है? या चुनावी पिच तैयार कर वोट बैंक पढ़ाने का प्रयास कर रही है, यह बात समझ से परे है। चिन्तनीय है यह स्थिति कि बार-बार टेस्ट, फॉर्म और लाचार बेरोजगारों का धन सरकारी तंत्र की जेबों में और बेरोजगार अंततः एक लुटा हुआ बेरोजगार!

Thursday, May 19, 2011

अन्यायपूर्ण अधिग्रहण


अन्यायपूर्ण अधिग्रहण

साल भर की मेहनत के बाद हमारे अन्नदाताओं को बाकी दिन गुजारने के लिए ‘ऊँट के मुँह में जीरे भर’ मेहनताना मिलता है। वो भी कभी लाठियाँ खाकर तो कभी गोलियाँ खाकर। कभी किसानों को गन्ने की वाजिब दाम के लिए लड़ना पड़ता है तो कभी अपनी जमीन के लिए। जो जमीन उन्हें-हमें अन्न प्रदान कर रही है उसे विकास के नाम पर उनसे कोड़ियों के दाम में छीना जा रहा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की भूमि खेती के लिए सर्वाधिक उपजाऊ जमीन मानी जाती है। विकास के नाम पर उसकी उपजाऊ क्षमता को व्यर्थ करना कहाँ कि बुद्धिमत्ता है? आजादी के समय 75 फीसदी उत्पादकों को जी डी पी का लगभग 61 फीसदी दिया जाता था आज 64 फीसदी उत्पादकों को 17 फीसदी मिलता है। आप ही बताइये क्या यह किसानों के प्रति अन्याय नहीं है? जो लोग हमारे लिए अन्न का उत्पादन करते हैं उनके हक की लड़ाई पर राजनेता वोट की राजनीति कर रहे हैं और अपने लाभ की रोटियाँ सेंक रहे हैं। वास्तव में किसानों का हित इनमें से कोई नहीं चाहता। क्या नोट बनाने की मशीनें (व्यापारी वर्ग) रोटियों का उत्पादन कर सकती हैं? भूमि अधिग्रहण कानून जोकि 116 साल पहले (1894) में बनाया गया था वर्तमान परिस्थितियों में प्रासंगिक नहीं है। परन्तु फिर भी वर्षाें से इस कानून से गरीब किसानों को प्रताड़ित किया जा रहा है। भारत में 80 प्रतिशत किसान ऐसे हैं जो 4 हेक्टेयर से भी कम भूमि के मालिक हैं और मुफलिसी में जीवन यापन कर रहे हैं। 1975 से अब तक 8 बार कृषि आयोग भूमि अधिग्रहण कानून की नवीन संस्तुतियाँ प्रस्तुत कर चुका है जिसमें किसानों के पुनर्वास सम्बन्धी सुझाव दिये गये। दुर्भाग्य से अभी तक इस प्रस्ताव को पारित नहीं किया गया। वर्तमान में भूमि अधिग्रहण कानून-2007 प्रस्तावित है। आशा करते हैं कि इसमें पूंजीपति हित की अपेक्षा किसानहित को प्राथमिकता दी जाये। जब किसी किसान की भूमि अधिग्रहित की जाती है तो मुआवजा कब्जे के तारीख से तय होता है। सरकारी महरबानी यह है कि सरकार कभी किसान को कब्जे की स्पष्ट तारीख से अवगत नहीं कराती और जब मुआवजा देना होता है तो पुरानी तारीखों से कब्जा प्रदर्शित कर किसान को ठगती है। शर्मनाक है कि भांखड़ा नांगल बाँध के लिए अधिग्रहित भूमि के किसान मालिकों को आज तक मुआवजा प्राप्त नहीं हुआ है। भूमि अधिग्रहण मसलों में किसान मुख्यतः दलाल की भूमिका निभाती है। यह किसानों से औने-पौने भाव जमीन खरीद बड़े मुनाफे से बिल्डरों को बेच देती है। किसानों में रोष इसी बात का है कि जिस जमीन के लिए उन्हें 1100रू प्रति मीटर दिये गये हैं वही जमीन सरकार ने बिल्डरों को 1 लाख 30 हजार रूपयों में बेची है। उसमें भी मुआवजे की राशि किसानों को 10 प्रतिशत कमीशन देने के बाद प्राप्त होती है। शहरीकरण और विकास के नाम पर किसानों को बेघर किया जा रहा है परन्तु क्या कृषि का विकास उन्नति की सीढ़ी नही है? क्या तेल, पेट्रोल के पश्चात् कृषि प्रधान देश अब खाद्यानों का भी आयात करेगा? स्थिति तो कुछ ऐसी ही है।

Monday, May 16, 2011

‘माता-पिता बनाम पुरूष-स्त्री’


‘माता-पिता बनाम पुरूष-स्त्री’

मिसेज़ वर्मा चाय बनाने के लिए रसोई घर में गई। तभी उनका बेटा एडमिशन फॉर्म लेकर मेरे पास आया और बोला- ‘दीदी! इस फॉर्म को भरने में मेरी मदद कीजिए प्लीज्।
रोहन मिसेज़ वर्मा का 13 साल का बेटा है और इस वर्ष 9वीं कक्षा में आया है। मिसेज वर्मा उसका एडमिशन दूसरे स्कूल में कराना चाहती हैं। इस नये स्कूल के बच्चे बड़ी-बड़ी गाडियों में आते हैं और जब उनका ड्राइवर गाडी से उतरते समय भागकर उनके लिए गाड़ी की खिड़की खोलता तो मिसेज वर्मा गहरी सांस लेकर उसे कुछ क्षण रोकती और फख़ महसूस करती। वह यह ठान चुकी थी कि उनका बेटा भी इन्हीं अमीरों के साथ पढ़ेगा। आखिर वह भी एक अच्छा सामाजिक स्तर रखती हैं। उनके पिताजी की शहर के बाहर एक छोटी सी गत्ता फैक्ट्री थी। जो अब बंद हो चुकी है। काम अच्छा चल रहा था। पर कुछ दगाबाजों की मारफत फैक्ट्री को भारी नुकसान हुआ और फैक्ट्री बंद हो गयी।
बहराल वर्तमान स्थिति यह है कि मिसेज वर्मा का परिवार मध्यम वर्गीय है जो रईस बनने की ओर प्रयासरत् है। इसी प्रेरणा ने मिसेज वर्मा के विचारों को कुछ इस प्रकार विकसित किया वे सोचने लगी कि बच्चों का दाखिला बड़े लोगों के स्कूल में कराने से, छोटे-छोटे कपड़े पहनने से, आय से अधिक खर्चा करने से, पार्टी-क्लब में जाने से व्यक्ति रईस हो जाता है।
कुछ दिन पूर्व अख़बार में ‘नोवा रिच’ विषय पर एक लेख पढ़ा था। ये वे अमीर होते हैं जो अमीरी की दहलीज पर खडे़ अपना सन्तुलन स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं। एक पल अमीरी दूसरे पल गरीबी के भंवर में फंसे हैं। ये कुछ तो अमीर अपनी हैसियत से होते हैं परन्तु बहुत कुछ अमीर अपने शब्दों (डीगों) से होते हैं। इनकी आकांक्षाओं का सैलाब इन्हें मचलती लहरों में ऊपर-नीचे करता रहता है। शायद ये भावी अमीरों की पहली पीढ़ी है।
ख़ैर! रोहन का एडमिशन फार्म लेकर मैंने पढ़ना शुरू किया। नाम-पता, कक्षा-वर्ग आदि शुरूआती सामान्य जानकारियों को भरवाने के पश्चात् मेरी नज़र एक ऐसे विचित्र बिन्दु पर पड़ी जिसे पढ़कर मैं हँसते-हँसते लोट-पोट हो गई। मेरी हँसी का रूप इतना भयंकर हो गया था कि रोहन कुछ सहम गया और मिसेज वर्मा घबराकर भागी-भागी मेरे पास आई।
वे मेरी हँसी रूकने की प्रतीक्षा नहीं कर सकी और चिल्लाते हुए बोली, ‘‘क्या हुआ मिस तोमर आपको इतनी हँसी क्यों आ रही हैं?’’ (मिस तोमर- सरनेम के साथ मिस या मिसेज लगाकर शब्दों को लटके-झटके के साथ बोलना नोवा रिच का अंदाज है और स्वयं के लिए भी वे ऐसे ही संबोधन पसंद करते हैं।)
परन्तु मैं स्वयं को नियंत्रित नहीं कर पा रही थी और लगातार हँसती जा रही थी। इस भयावह हँसी से वे स्वयं को अपमानित महसूस कर रही थी। शायद इसीलिए इस बार उनके शब्दों में आक्रोश आ गया था। ‘मिस तोमर’ मैं आपकी हँसी का कारण जानना चाहती हूँ। उनके तिलमिलाते चेहरे को देखकर मैंने अपनी भावनाओं को समेटा और एडमिशन फॉर्म उनकी और बढ़ा दिया।
फॉर्म हाथ में लेकर वह बोली- हाँ, एडमिशन फॉर्म है यह। इसमें हँसने वाली क्या बात है?
‘‘बिलकुल-बिलकुल एडमिशन फॉर्म ही है परन्तु बहुत ही है। परन्तु क्या आपने इसे पढ़ा है?’’, मैंने पुनः हल्की सी हँसी के साथ पूछा।
इस पर उन्होंने चिढ़ि नज़रों से मुझे देखते हुए कहा- नहीं, अभी नहीं। पर आप अब पहेलियाँ बुझाना बंद कीजिए और ये बताइये कि आप इतनी बेहूदी हँसी क्यों हँस रही हैं?
उनके ‘बेहूदे’ शब्द का प्रयोग मुझे अवश्य ही चुभा परन्तु वह सही भी थी। मेरी हँसी ने सभ्यता की सीमा तो लाँघी ही थी। कोई व्यक्ति आपके घर में बैठकर उपहासनीय हँसी हँसे और आपको सम्मिलित न करे तो निश्चित रूप से शालीनता के विरूद्ध है। अतः मैं अपनी सभ्यता व शालीनता का परिचय देते हुए उनसे क्षमा माँगी और स्पष्ट करते हुए कहा कि आप इस फॉर्म का पाँचवाँ व छँटा बिन्दु देखिए। बहुत ही विचित्र प्रश्न है? पाँचवें बिन्दु में माँ का नाम व लिंग तथा छटंे बिन्दु में पिता का नाम व लिंग पूछा है।
यह देखकर उनके चेहरे पर एक भ्रमित सी मुस्कुराहट आ गई। उन्हंे इन बिन्दुओं पर हँसी तो आ रही थी परन्तु वे यह नहीं समझ पा रही थी कि इस प्रकार माता-पिता का लिंग पूछने का क्या तात्पर्य है? इसलिए उन्होंने बात को घुमाते हुए कहा- ओह! इतना बड़ा स्कूल और इतनी सिली मिस्टेक। इस प्रकार माता-पिता का लिंग पूछने का क्या मतलब? यह तो अन्डरस्टुड है, माँ फीमेल और पिता मेल होंगे। मैं प्रिंसीपल से इसकी शिकायत जरूर करूँगी। और.............................
रूकिये मिसेज वर्मा इस एडमिशन फॉर्म में कोई गलती नहीं है। मैंने उनकी बात बीच में ही काटते हुए कहा।
जी हाँ। यह बिलकुल सही प्रश्न है और आधुनिक परिवेश में प्रासंगिक भी है। आपने समलैंगिगकता के विषय में तो सुना ही होगा। सैक्शन 377 के अन्तर्गत इसे कानून वैध माना गया है। अब चूंकि यह वैध है तो बच्चों के एडमिशन फॉर्म में माता-पिता के लिंग के बिन्दु होना तो जायज है ही। यह बताना तो आवश्यक हो ही जाता है ना माता पुरूष है या स्त्री? पिता पुरूष है या स्त्री?
कैसी विडम्बना है कि पहले जिसे बीमारी माना जाता था आज वह कानून वैध सिद्ध हो गया है। इन्सान और कितना प्रकृति विरोधी होगा? प्रकृति के नियमों को ताक पर रखकर समाज को यह किस दिशा में ले जाया जा रहा है? जब किसी प्रस्ताव को कानूनी जामा पहना दिया जाता है तो समाज में उसके प्रसार की गति तीव्र हो जाती है। क्या सरकार ने इस प्रस्ताव के परिणामों को ध्यान में रखा था? अभी तक पुरूष द्वारा स्त्री शोषण के केस दर्ज किये जाते थे। लेकिन इस प्रकार तो पुरूष द्वारा पुरूष और स्त्री द्वारा स्त्री शोषण के केसों की संख्या में वृद्धि हो जायेगी। और कानूनी जटिलताएँ भी बढ़ जायेंगी। अब तक जहाँ एक लड़का-लड़की साथ दिखाई देते तो सामाजिक सोच की दिशा मात्र प्रेमी-प्रेमिका वाली होती थी वहीं अब तो दो पुरूष व दो महिलाओं का साथ चलना भी दुश्वार हो जायेगा। और बाल-मन तो इससे कितना भ्रमित होगा यह तो किसी ने सोचा ही नहीं।
मेरी सोच के बादलों के बीच बिजली की कड़क जैसी आवाज ने मुझे वापस विचारशून्यता की सूखी धरती पर लाकर खडा कर दिया। मिसेज वर्मा बोली- ओह! ऐसा है। खै़र हमें इससे क्या मतलब? आप ये एडमिशन फॉर्म भरने में रोहन की मदद कर दीजिए प्लीज। यह कहकर वे रसोई में चाय लाने चली गई। और मैं ’हमें इससे क्या मतलब’ संवाद की गूँज के बीच रोहन का फॉर्म भरवाने लगी।

लादेन की मौत पर रुदन क्यांे?


लादेन की मौत पर रुदन क्यांे?

लादेन की मौत पर विश्व भर से मिली-जुली प्रतिक्रियाएँ प्राप्त हो रही हैं। कहीं लोग आतंक के इस बादशाह की मौत पर उल्लासित है तो कहीं इस मौत पर शोक व्यक्त किया जा रहा है। प्रथम सर्वविदित पक्ष तो यह है कि लादेन का अंत सम्पूर्ण आतंकवाद के अंत का पर्याय नहीं है। परन्तु यह भी सत्य है कि यह आतंकवाद को दी गई एक खुली चुनौती अवश्य है। सम्पूर्ण विश्व आतंकवाद से प्रताड़ित है और इससे मुक्ति भी पाना चाहता है तो ऐसे में आतंकवाद के पर्यायवाची अर्थात लादेन की मौत का शोक मनाने वाले ये कौन लोग हैं? यह अमेरिका का विरोध है अथवा आतंकवाद का समर्थन? लादेन को मारने के संदर्भ में अमेरिका की जो कुछ भी मंशा रही हो परन्तु यह भी सर्वमान्य तथ्य है कि आतंकवाद विश्व शान्ति व समृद्धि की राह में रोड़ा है और चैन व अमन की जिंदगी हेतु इसका अंत अति आवश्यक है। वस्तुतः लादेन की मौत का राजनीतिकरण कर पाकिस्तान स्वयं को पाक साफ सिद्ध करने के लिए प्रयासरत् है। यही कारण है कि वह इस खूखांर आतंकी की मौत को भावनात्मक पक्ष से जोड़कर स्वयं के बचाव का मार्ग तलाश रहा है। आतंकवाद मात्र अमेरिका का शत्रु नहीं है। यह उस प्रत्येक व्यक्ति की वेदना है जो सुख व शान्ति से जीवन यापन करना चाहता हैं। अतः सम्पूर्ण विश्व को निष्पक्ष भाव से एकजुट हो अमेरिका की बहादुरी का स्वागत करना चाहिए।

घटती दूरियाँ बढ़ते फ़ासले


घटती दूरियाँ बढ़ते फ़ासले

पिछले आधे घण्टे से राहुल की मम्मी उसे खाने के लिए बुलाती-बुलाती उकता गई, पर राहुल है कि उसका ‘मम्मी एक मिनट-दो मिनट’ का राग ही समाप्त नहीं हो रहा है। दरअसल राहुल पिछले चार घण्टों से अपने इन्टरनेट दोस्तों के साथ चैट करने में व्यस्त है। वह इन दोस्तों के साथ इतना मशरूफ है कि घर में कौन आया-कौन गया, इसकी उसे कोई ख़बर नहीं। दसवीं कक्षा में अच्छे अंकों से प्राप्त सफलता के लिए बधाई देने दूसरे शहर से आये उसके प्रिय अंकल के लिए भी बामुश्किल वह दस मिनट ही निकाल पाया।
ये है चैटिंग का चाव। अनजाने लोगों से चटपटी बातों के तड़के ने घरों में होने वाले गम्भीर संवादों की अर्थी निकाल दी है। एक परिवार के भिन्न-भिन्न सदस्यों द्वारा इन्टरनेट पर निर्मित अनजाने परिवारों ने एकल परिवार को भी एकाकी कर दिया है। इन्टरनेट चैट करने वाले चैटिंग करते हुए एक-दूसरे की समस्या का निवारण तो बहुत गम्भीरता से करते हैं परन्तु उनके स्वयं के परिजनों की आह का उन्हें कोई ज्ञान नहीं होता है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स ने रास्तों की दूरियाँ तो निश्चित रूप से सिमेट दी हैं परन्तु दिलों के फ़ासले बहुत बढ़ा दिये हैं। सात समंदर पार बैठे उन दोस्तों का ‘सलाम’ बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है, जिन्हें न तो कभी देखा है और शायद न ही कभी देखंेगे परन्तु अपने से बड़ों को की जाने वाली ‘नमस्ते’ की परम्परा कहीं दम तोड़ रही है। इन्टरनेट के दोस्तों का एक-एक शब्द इतना मूल्यवान हो गया है कि उनके किसी भी प्रश्न का उत्तर दिये बिना अगला श्वास शरीर त्यागने के लिए राजी नहीं है। परन्तु वहीं दूसरी ओर चैटिंग के दौरान माँ द्वारा सिर पर फेरे जाने वाला हाथ और पिता के चिन्तनीय घरेलू मुद्दे व्यर्थ प्रतीत होते हैं तथा मनोरंजन के क्रम को बाधित करते हैं।
पारिवारिक बन्धन संवादों से मजबूत व घनिष्ठ होते हैं। इसी से संवेदनाओं का संचार होता है, अपनत्व का अहसास होता है। परन्तु चैटिंग संस्कृति ने इन सभी भावनाओं की हत्या कर एक नये समाज का निर्माण किया है- क्षणिक रिश्तों का सुविधाजनक समाज। जब तक किसी से चैट करने में रसानुभूति हो तब तक की जाये और जब मिचवास आने लगे तो ‘तू नहीं कोई और सही’। कोई बन्धन नहीं मात्र स्वच्छंदता। स्वतंत्रता से स्वच्छंदता की मानसिकता ने ‘निभाव’ के अस्तित्व को खतरे में डाल दिया है। पहले प्रत्येक रिश्ते को पारिवारिक-सामाजिक समायोजन के द्वारा निभाया जाता था। लोक-लाज, सामाजिक मान्यताओं को सम्मान व प्राथमिकता दी जाती थी परन्तु आज समाज व्यक्तिवादी हो गया है। आत्महित के सुरूर ने लोकहित की परम्परा का उपहास करना प्रारम्भ कर दिया है। क्या ‘आत्मवाद’ किसी समाज की बुनियाद हो सकता है?
वर्तमान में एक गम्भीर व्याधि ने इन्टरनेट प्रयोगकर्त्ताओं को जकड़ा हुआ है। वह है-चैटिंग की आदत जो अब आदत से सनक में परिवर्तित होती जा रही है। यदि कोई व्यक्ति चैटिंग की लत का शिकार हो जाये तो भीड़ में भी अकेलेपन के थपेड़े उसका शोषण करते रहते हैं। उसके मुख की लालिमा समाप्त हो जाती है और विचारों के भंवर में उलझा वह व्यक्ति बाह्य रूप से मानसिक रोगी प्रतीत होने लगता है। ऐसे व्यक्ति अक्सर स्वयं मंें ही डूबे दिखाई पड़ते हैं। उनके चेहरे पर पड़ी तनाव की झुर्रियाँ उनके विचलित मन की कहानी कहती हैं। वास्तविक दुनियाँ इनसे बेगानी होती है।
निःसन्देह इन्टरनेट चैटिंग ने सम्पूर्ण विश्व को एक की-बोर्ड में समाहित कर दिया है परन्तु दूर के रिश्ते निभाते-निभाते अपने कब दूर हो गये इसका अहसास किया जाना भी आवश्यक है। परिवार को जीवित रखने के लिए परिवार को समय का उपहार दिया जाना बहुत जरूरी है। अन्यथा वैश्विक परिवार के संसार में व्यक्तिगत परिवार विलुप्त हो जायेंगें।

माँ


माँ

‘माँ’ छोटा सा शब्द परन्तु बिलकुल अनमोल। इस छोटे से शब्द में कितने भाव, कितनी आत्मीयता, कितनी ममता निहित है। दुनिया में किसी भी रिश्ते से बड़ा व गहरा रिश्ता होता है माँ का रिश्ता। इस रिश्ते का सौन्दर्य इसकी मौन भाषा में विद्यमान है। माँ को अपने बच्चे के भाव, उसके दुःख-दर्द, प्रेम, स्नेह, क्रोध, प्रसन्नता का अहसास करने के लिए किसी शब्द की आवश्यकता नहीं होती। वह बच्चे के स्पर्श, उसकी गंध, उसकी कुलमुलाहट और उसके भावों से उसकी सभी भावनाओं को समझ लेती है। सच कहें तो एक सुन्दर अहसास है माँ। ईश्वर से बढ़कर अप्रतिम रचना, जो अतुलनीय है, पूजनीय है, अविस्मरणीय है। जिसके बिना बच्चे के संस्कार अधुरे हैं, जिसके बिना उसका विकास दुर्गम है। उसकी गोद के सुकून के सम्मुख स्वर्ग भी तुच्छ है। उसका प्यार भरा स्पर्श सुरक्षा की भावना का संचार करता है। वह प्रेरणा देती है, समर्थन करती है और मार्गदर्शन करती है। वह एकल काया सभी कुछ व्यवस्थित रखती है। प्रत्येक जिम्मेदारी को अपने जीवन का अभिन्न अंग मानती है। और वह भी बिना किसी स्वार्थ के, बिना किसी संकोच अथवा प्रतिफल की चाह के। वह कभी रूकती नहीं है। निरन्तर कार्यरत रहती है। अथाह सहनशक्ति की स्वामिनी वह सदा संतुष्ट रहती है। कभी शिकायत नहीं करती। वह मात्र अपने परिवार के लिए नहीं जीती वरन् उसे समाज की भी चिन्ता है। इसलिए सभी सामाजिक दायित्वों का भी निर्वाह करती है। कितनी ऊर्जावान रचना है यह। चाहे थककर चूर हो परन्तु बच्चे की एक आह पर अनापक्षित ऊर्जा से सराबोर हो बच्चे के लिए तड़प उठती है। एक अद्भुत कृति जिसके समतुल्य संसार में अन्य कुछ भी नहीं है। आज आठ मई, मदरस डे के अवसर पर सभी माँओं को नमन। धन्यवाद शब्द आपकी तपस्या के सम्मुख अर्थहीन व महत्वहीन है। बस ईश्वर से आपके लिए दुआ करते हैं और आपको कोटि-कोटि नमन करते हैं।