Tuesday, July 19, 2011

‘‘एक फूल दो माली’’


‘भ्रष्टाचार’ की पल-पल खुलती पोल ने न केवल बड़ी-बड़ी सियासी ताकतों को बेनकाब किया अपितु लोकतंत्र की जड़ों को भी हिलाया दिया। वास्तविकता सामने आना और इस अशुद्ध चरित्र के विरूद्ध कोई कार्रवाई होना, दोनों अलग-अलग बातंे हैं। यथा इस फेर में न पड़ते हुए भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता के सशक्तिकरण व उसके द्वारा उठाये गये कदमों की बात करते हैं।
भ्रष्टाचार के विरूद्ध छेड़ी गई दो मुहिमों ने संप्रग सरकार की रातों की नींद व दिनों के चैन का हरण कर लिया। अन्ना हजारे का अध्याय अभी समाप्त भी नहीं हुआ था कि बाबा रामदेव ने जो सियासी भूचाल लाया उसने कई प्रश्नों को स्थायित्व दिया। अन्ना हजारे व बाबा रामदेव दोनों एक ही मंजिल के लिए सफर कर रहे हैं परन्तु दोनों के मूलभाव भिन्न-भिन्न हैं । एक (अन्ना हजारे) का मार्ग निष्पक्ष, निस्वार्थ व लोकहितकारी प्रतीत होता है। साधु न होते हुए भी साधुत्व के सभी गुण अन्ना हजारे स्वयं में समाहित किये हुए है। वहीं दूसरी ओर राजनीति की दहलीज पर अपनी चाबी का ताला टंागने की चाह रखने वाले बाबा के इस संघर्ष से निजी स्वार्थ की बू आती है। निश्चित रूप से किसी पर किसी भी प्रकार की उंगली उठाने से पूर्व प्रमाणिक साक्ष्य का होना आवश्यक है। अतः इस प्रकरण को भी इस प्रकार समझा जा सकता है-
इस संघर्ष का आरम्भ भ्रष्टाचार की लपटों से पीड़ित जनता पर लोकपाल विधेयक की मलहम से हुआ। अन्ना हजारे ने देश की सम्पूर्ण जनता का नेतृत्व करते हुए संप्रग सरकार से लोकपाल विधेयक पारित करने की मांग की। यह मुद्दा गर्म जोशी से चल ही रहा था कि अचानक बाबा रामदेव को भ्रष्टाचार रूपी दैत्य से युद्ध करने का जोश आया और वे विशेष सुविधाओं के साथ अपने योग-कम-अनशन पर बैठ गये रामलीला मैदान में। निश्चित रूप से बाबा ने सटीक व आवश्यक मुद्दों को सरकार के सम्मुख प्रस्तुत किया। परन्तु तुरत-फुरत लिये गये उनके इस निर्णय ने हजारों लोगों के प्राणों को संकट में डाल दिया। बाबा की भक्ति में लीन भक्त बाबा के शब्दों का अनुसरण करते हुए रामलीला मैदान पहुँच गये। प्रायः देखा गया है कि इस प्रकार के किसी भी एकत्रीकरण पर तत्कालीन सरकार किसी न किसी बहाने से गिरफ्तारी का वारंट निकलती ही है। उत्तर प्रदेश में भट्टा पारसौल मामले में राहुल गाँधी, सचिन पायलट आदि की गिरफ्तारी राजनीति में चूहा-बिल्ली के इस खेल का प्रमाण है। बाबा की गिरफ्तारी या बाबा के विरूद्ध किसी भी प्रकार की कार्रवाही निश्चित थी। यूपी सरकार हो या कोई अन्य सभी का प्रायः कदम यही होता है। बाबा जानते थे इस प्रकार की गतिविधि पर उन्हें प्राप्त जनसमर्थन का परिणाम हंगामा होगा और उस हंगामे को नियन्त्रित करने के लिए लाठी चार्ज और...........
परिणामतः बाबा के प्रति बढ़ी श्रृद्धा एवं सहानुभूति। पूर्व नियोजित यह सम्पूर्ण प्रकरण बिल्कुल उसी तर्ज पर चला जिसकी कल्पना बाबा ने की थी। इसका शिकार हुई निर्दोष व भोली जनता। बाबा जनता के विश्वास पर राजनीति की रोटियाँ सेंकने की कला भली-भांति जानते हैं और वे सफल भी हुए।
बाबा ने इतने विशाल आयोजन में जनता के लिए किसी रक्षात्मतक रणनीति की योजना क्यांे नहीं बनाई? विशाल भीड़ को बाबा ने अपनी जिम्मेदारी पर एकत्रित किया था जिसे निभाने में वे पूर्णतः असफल रहे। इस प्रकरण में एक प्रश्न बार-बार उठाया गया कि मासूम जनता पर लाठीचार्ज क्यूँ किया गया? इसका उत्तर प्रमाण के साथ बहुत सरल है- किसी न किसी को तो पिटना था- या तो पुलिस पिटती या जनता। हाल ही में मेरठ बिजली बम्बा पर हुए दंगों में जनता ने पुलिस को दौड़ा-दौड़ाकर पीटा। सर्वविदित है जिसका लाठी उसी की भैंस। जनता यदि साधन सम्पन्न स्थिति में होती तो निश्चित रूप से पुलिस को पीटती। पर क्या पुलिस वाले किसी के पिता किसी के भाई नहीं हैं? बाबा की अंध भक्ति ने लोगों की विचारणीय क्षमता को सम्मोहित किया हुआ है। वह दूरदर्शी हुए बिना वर्तमान के मोह को जीना चाहते हैं और बाबा का अंधानुसरण कर रहे हैं। विचारणीय है कि अन्ना हजारे के समर्थन में उतरा बॉलीवुड व अन्य बुद्धिजीवी वर्ग बाबा की राजनीतिक भूख को पहले ही भांप गये। यही कारण रहा कि इनमें से किसी ने भी बाबा के अनशन का समर्थन नहीं किया। स्मरणीय है कि कुछ वर्षों पूर्व बाबा ने राजनीति में आने की अपनी इच्छा व्यक्त की थी और तभी से बाबा किसी न किसी राजनीतिक बयानबाजी के लिए सुर्खियों में रहे हैं। आखिर साधु को राजनीति के इस चस्के का क्या अर्थ है? साधु तो निःस्वार्थ भाव से जनकल्याण के लिए समर्पित होते हैं। यह कैसा समर्पण है?
दिग्विजय सिंह द्वारा बाबा रामदेव के योग का नामकरण ‘योग उद्योग’ काफी सार्थक प्रतीत होता है। यह योग उद्योग नहीं तो और क्या है? बाबा से योग सीखाने के लिए अग्रिम पंक्तियों में बैठने का टिकट रू 25000 और पीछे बैठे लाचार गरीब जनता। योग को बढ़ावा देने वाले बाबा का यह पक्षपाती व्यवहार समझ से परे है। इस उद्योग ने बाबा को अरबपति साधु बना दिया। साधु को सम्पत्ति संग्रह की शिक्षा किस धर्मशास्त्र में दी जाती है, यह शोध का विषय है। व्यक्तिगत हैलीकॉप्टर, एसी युक्त भवन- ये कैसे साधु?
भ्रष्टाचार के विरूद्ध या कहें संप्रग सरकार के विरूद्ध आरम्भ की गई इस मुहिम में बाबा की राजनीतिक मंशा को उनके एक और कृत्य ने प्रमाणित किया। अनशन आरम्भ करते ही उन्होंने अन्ना हजारे की उपेक्षा की। जब दोनांे की लक्ष्य एक ही था और मार्ग भी समानान्तर थे तो क्यों नहीं बाबा ने अन्ना हजारे की जंग का समर्थन कर इस संघर्ष को मजबूती प्रदान की। अतिआत्मविश्वास के वशीभूत रामदेव ने इस संघर्ष को दिशाहीन कर दिया। एक ही उद्देश्य की पूर्ति की जिजीविषा के बावजूद देश की जनता अन्ना हजारे और रामदेव, दो धाराओं में बँट गई। फेसबुक पर आते अपडेट के अध्ययन से ज्ञात हुआ बहुत से लोग दिग्भ्रमित हो भ्रष्टचार को भूल अन्ना समर्थन और बाबा की आलोचना के चक्रव्यूह में उलझ कर रह गये हैं। और मुख्य मकसद से भटक गये। बाबा ने इस मुहिम को कमजोर कर दिया।
इस प्रकरण में नाटकीय मोड़ तब आया जब बाबा को स्त्रीवेश में देखा गया। बाबा ने अनशन गाँधीवादी नीतियों का अनुसरण करते हुए प्रारम्भ किया था। परन्तु सच कहें तो बाबा ने गाँधी जी की नीतियों का घोर अपमान किया। सभी देशभक्तों ने आजादी की जंग में लाठियाँ खाई। लाला लाजपत राय अंग्रेजों की लाठी की चोट के कारण वीरगति को प्राप्त हुए। उन सार्थक व अचूक नीतियों के अनुसरण का ढ़िढ़ोंरा पीटने वाले साधु बाबा जान बचाकर भागे स्त्रीवेश में? कितना शर्मनाक व अपमानजनक है यह सब। निश्चित रूप से उस दिन स्वतंत्रता सेनानियों व वीर देश भक्तों की आत्मा रोई होगी। बाबा ने जान बचाने के लिए महिलाओं का संरक्षण प्राप्त किया। यह कैसी वीरता थी? कैसे दृढ़ संकल्प था? क्या इन महिलाओं के भरोसे बाबा ने अनशन आरम्भ किया था?
इसके पश्चात् बाबा ने पुनः जनता के कंधों पर बंदूक चलाने की रणनीति बनाई। 11000 लोगों की फौज जो भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़ने के लिए तैयार की जायेगी। समझ में नहीं आता कि बाबा यह सब ना समझी में कर रहे हैं या जानबूझकर देश की जनता को ‘देसी आतंकवाद’ का पाठ पढ़ा रहे हैं। क्या इस प्रकार की भड़काऊ रणनीति देश में कानून व्यवस्था को चरमराने के लिये पर्याप्त नहीं है? निश्चित रूप से है। वास्तव में बाबा स्वार्थपूर्ति के जनून में आत्मनियत्रण व विवेक को खो चुके हैं। गाँधी-नेहरू के देश में हिंसा के उपदेश, सम्पूर्ण विश्व में भारत के वीरों की किरकिरी करा रहे हैं। भोली कहे जाने वाली जनता यदि ऐसे उपदेशों का अनुसरण करती है तो कड़े शब्दों में कहा जाये, तो निश्चित रूप से वह भोली नहीं बेवकूफ है।
कुछ सीमाएँ बाबा ने लाँघी और कुछ पोल बाबा की स्वतः खुल गई। योग द्वारा 200 वर्षों तक जीने का दावा करने वाले बाबा 6 दिन अनशन करने में सफल न हो सके। फिर कर दिया बाबा ने योग का अपमान। विश्व भर में योग सेंटर चला रूपया कमाने वाले बाबा ने योग पर प्रश्नचिन्ह आरोपित कर दिया। विश्व में भारतीय योग का प्रचार-प्रसार कर सम्मान दिलाने वाले ने ही भारतीय योग को शर्मिंदा कर दिया।
वर्तमान परिस्थितियाँ यह है कि बाबा ने मौन धारण कर लिया। यह एक सरल माध्यम है। बाबा जानते है कि जब भी वे मुँह खोलेंगे उनसे कुछ न कुछ अंटशंट बोला जायेगा। वे पहले ही अपनी बहुत सी पोल खोल चुके है। कहा भी जाता है ‘जो मुँह खोले सो राज बोले’। बाकि रहस्य उद्घटित न हो इसके लिए बाबा का मौन रहना ही उचित है।
इस सम्पूर्ण घटनाक्रम में विपक्ष व मीडिया दोनों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। विपक्ष ने राजनीतिक दाँवपेंचों की सभी पोथियाँ खोल दी। आरोप-प्रत्यारोप राजनीति की पुरानी परम्परा है। परन्तु क्या इसकी कोई सीमा निधारित नहीं होनी चाहिए? इस परम्परा का पालन करना कोई विवशता नहीं, मात्र राजनीतिक लाभ के लिए देश को बाँटना कहाँ तक उचित है? क्या निजस्वार्थ देशहित से बड़ा हो चला है?
मीडिया का रामदेव कवरेज इसके दायित्वबोध को संदिग्ध करता है। बड़ौत में जैन मुनि प्रभसागर के साथ हुए अत्याचार का मीडिया कवरेज नाममात्र के लिए था। एक मुनि की वर्षों की तपस्या भंग कर दी गई। उनकी आस्था, उनके सम्मान को खण्डित किया गया और मीडिया चुप। क्यों मीडिया ने इस प्रकरण पर विशेषांक नहीं निकाले? क्या मीडिया वास्तव में बाबा की व्यक्तिगत सम्पत्ति हो गया है? किंकर्तव्यविमुढ़ता की इस चरमावस्था ने यह सोचने के लिए बाध्य कर दिया है कि आखिर हमारे लिए देश कितना महत्वपूर्ण है? इस पीढ़ी को उपहारस्वरूप मिली आजादी को क्या चंद लोगों के सुपूर्द कर देना समझदारी है? इस वैचारिक गुलामी से आजादी पाना बहुत जटिल है। देश की जनता को विवेक को जाग्रत करने की आवश्यकता है। सोचिये, समझिये और विचारिये अन्यथा आपके मस्तिष्क पर किसी और का राज होगा।

Tuesday, July 12, 2011

डेल्ही बेली


लगान, तारे जमीं पर, रंग दे बसंती, 3-इडिएटस जैसी फिल्मों का निर्माण कर आमिर खान ने फिल्म विषयों को एक विस्तृत आयाम प्रदान किया। इन विषयों की पृष्ठभूमि वे समस्याएँ थी जिनसे हम अक्सर दो-चार होते है परन्तु निजी जीवन की व्यस्तताओं एवं आवश्यकतापूर्ति की जद्दोजहद में इनकी अवहेलना कर जाते हैं। आमिर खान ने न केवल इन विषयों की प्रस्तति से जनसाधारण को सामाजिक दायित्वों के प्रति सजग किया अपितु इसी प्रकार की बहुतेरी विद्रूपताओं हेतु शान्तिपूर्ण ढं़ग से समाधान प्राप्ति का मार्गदर्शन भी किया। गाँधीवादी सत्याग्रह को जीवंत करता कैंडल मार्च रूपी समाधान आज सम्पूर्ण भारत में विरोध प्रदर्शन का अचूक यंत्र बन गया है। निःसन्देह आमिर खान की यह प्रयोगधर्मिता समाजोपयोगी निर्देशन के अपने उद्देश्य को प्राप्त कर पाई है।
इसी क्रम में अपेक्षित डेल्ही बेली का निर्माण समझ से परे रहा। यह फिल्म क्या संदेश देना चाहती थी? या इसमें प्रयुक्त भाषा को आमिर खान समाज के किस वर्ग को दिनचर्या के अनिवार्य अंग के रूप में भेंट करना चाहते थे? इन प्रश्नों के उत्तर-प्राप्ति में मैं असमर्थ रही। यदि मान भी लिया जाये कि यह मनोरंजन आधारित फिल्म थी, तो मनोरंजन का क्षेत्र इतना संकीर्ण व स्तर इतना निम्न कैसे हो गया? मनोरंजन चार्ली चैपलन द्वारा भी किया जाता था और यह कहने में कोई कंजूसी नही की जानी चाहिए कि वह ‘बेमिसाल’ था।
फिल्म निर्देशन एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है। यह समाज का पथ प्रदर्शन करती है। समाज की जड़ांे में ऐसे विषयों का अकूत भण्डार है जिन्हें समाज स्वीकार करने में भयभीत होता है परन्तु उनका समाधान चाहता है। इसका मुख्य कारण नेतृत्व क्षमता का अभाव है। फिल्म निर्माता, लेखक, पत्रकार इत्यादि वे अघोषित नेता हैं जो समाज को दिशा प्रदान करते हैं। यह दिशा प्रभावोत्पादक व सकारात्मक परिणाम प्रस्तुत करने में समर्थ हो, यह संकल्प लिया जाना आवश्यक है।

Wednesday, June 29, 2011

सैंया बने भैया


मेरठ के आरती-नितीश प्रकरण ने रिश्तों की एक नई परिभाषा की व्युत्पत्ति की। रिश्ता, सात्विक भावनाओं व निश्छलता का। आरती ने सत्य के आँचल की छांव में अपने और विनीत के सम्बन्ध को नितीश के सम्मुख स्वीकार किया और नितिश ने भी सन्तुलित व्यक्तित्व का परिचय देते हुए आरती के साथ एक नवीन पवित्र रिश्ते की डोर बाँधी। समाजशास्त्री इस नव-परिवर्तन को स्वीकार न कर सामाजिक कुप्रभाव की संभावनाएँ व्यक्त कर रहे हैं। परन्तु पिछले कुछ आंकडों का विश्लेषण करने पर ऑनर किलिंग की बढ़ती घटनाओं का यह समाधान तलाशने की बाध्यता ऑनर किलिंग के जनकों ने ही उत्पन्न की है। बेटियों को शिक्षित कर उन्हंे प्रत्येक अधिकार प्रदान करने की रीत में एक कड़ी अभी भी टूटी हुई है, उन्हंे अपने योग्य जीवन साथी के चयन की स्वतंत्रता। यही कारण है कि आरती को माता-पिता की आज्ञा का अनुसरण करते हुए नितीश का हमसफर बनने के लिए विवश होना पड़ा। परन्तु क्या इस मजबूरी के रिश्ते का बोझ वे दोनों जीवन पर्यन्त ढो पाते? क्या एक-दूसरे के प्रति निष्ठा व सम्पर्ण की आस्था उनमें उत्पन्न हो पाती? ऐसी परिस्थितियों में नितिश का यह निर्णय एक मिसाल है। उसके सुलझे मस्तिष्क व व्यापक सोच का स्वागत किया जाना चाहिए। और अभिभावकों को विचारना चाहिए कि वर्तमान में तलाक, हत्या, भाग जाना, ऑनर किलिंग जैसी बढ़ती घटनाआंे में वृद्धि न हो इसके लिए बच्चों के मित्र बन उनके करियर के साथ-साथ विवाह सरीखे विषयों पर भी खुलकर बात करें और उनमें स्वयं के हित-अहित पर मनन करने की योग्यता विकसित करें। साथ ही अभिभावकों को भी व्यवहारगत जड़ता का त्याग करते हुए बच्चों के सही निर्णयों को सहर्ष स्वीकार कर शुष्क सम्बन्धों को जीवन्त करने का प्रयास करना चाहिए। परिवर्तन ही संसार का नियम है और पारस्परिक सामंजस्य इस नवीन परिवर्तन को एक सार्थक परिणाम प्रदान कर सकता है।

Tuesday, June 7, 2011

‘‘स्पीक अप पेरेंट्स’’


‘‘स्पीक अप पेरेंट्स’’

एक 15 वर्षीय बच्चे ने जब स्पीक एशिया की तारीफों के कसीदें पढ़ने आरम्भ किये तो बहुत आश्चर्य हुआ। वह न केवल स्पीक एशिया के फरॉड होने की अफवाओं का सिरे से खण्डन कर रहा था अपितु इसके लाभ के लुभावने प्रलोभन भी दे रहा था। स्पीक एशिया फरॉड है अथवा नहीं, इससे परे इसकी दुष्प्रभावी, लालची हवाएँ अधिक खतरनाक हैं। यह युवाओं में अधिक धनार्जन का लोभ भर उन्हें पथभ्रष्ट कर रही है। माया की मीठी चाश्नी इतनी गूढ़ है कि आस-पास की सभी वस्तुओं को स्वयं में समा उनका भक्षण कर रही है। पैसा कमाने का यह शॉर्ट कट युवाओं को उनके करियर व पढ़ाई से तो विमुख कर ही रहा है, साथ ही इस अनापेक्षित धन से युवा विलासी भी होता जा रहा है। इस उपलब्ध धन ने उन्हें पार्टीज, बांड के शौक और मौजमस्ती के जीवन की ओर प्रेरित करना आरम्भ कर दिया है। अब वे माता-पिता को उल्टा जवाब देने में संकुचाते नहीं और आत्मनिर्भरता के अतिआत्मविश्वास के कारण अपने निर्णय स्वयं लेने के लिए ढ़ीठ भी हो रहे हैं। समस्या वास्तव में गम्भीर है। जीवन के प्रति गम्भीरता समाप्त हो रही है। मूल्यों का हृास हो रहा है। कम्पनी धोखेबाज है या नहीं से अधिक चुनौतीपूर्ण कम्पनी द्वारा समाज विशेषतः युवाओं को असुरक्षित, दिशाहीन व अंधकारमय भविष्य की गर्त में धकेला जाना है। अभिभावकों की सचेतता अति आवश्यक है। सम्भालिए बच्चों को।

Saturday, June 4, 2011

‘कमेला नहीं हटेगा’


‘कमेला नहीं हटेगा’

पिछले कुछ महीनों से कमेला विस्थापन के लिए विभिन्न प्रकार से हाहाकार मची हुई है। इस संघर्ष में विभिन्न कुर्बानियाँ भी दी गई। बड़ौत के जैन मुनि की तपस्या भंग हुई, बंद के दौरान करोड़ों का घाटा हुआ, आमजन को विभिन्न मुसीबतों का सामना करना पड़ा परन्तु परिणाम ‘सिफ़र’। वस्तुतः इस सम्पूर्ण संघर्ष की ढुलमुल सफलता-असफलता के कारण निरन्तरता की कमी, कुशल नेतृत्व, दृढ़ता व संगठन का अभाव है। इस मुहीम ने भी अन्ना हजारे जैसी सफलता के सपने संजोये परन्तु समस्या क्षेत्रीय होने के कारण उन सपनों को पर नहीं मिल सके। भ्रष्टाचार की त्रास्दी विश्वव्यापी है, जिस पर सम्पूर्ण विश्व की आँखें छलकती हैं। परन्तु कमेले के प्रति सीमित वर्ग ही गम्भीर व संघर्षरत् है। इस रेतीली बुनियाद पर सफलता की मजबूत इमारत की कल्पना का अस्तित्व संकटग्रस्त प्रतीत होता है। दूसरा पहलू यह भी है कि जनता स्वयं अपने विचारों में स्पष्ट नहीं है कि वह कमेले का विस्थापन चाहती है अथवा कमेले का समाप्त अस्तित्व? स्पष्टतः कमेला बिना जानवरों के नहीं चल सकता। पशुपालक व्यक्तिगत लाभ हेतु कमेले के जानवर बेचते हैं। यहाँ तक कि दुधारू जानवर जो अस्थायी रूप से दुग्ध उत्पादित करने में अक्षम हैं, घरों में बढ़ती जानवरों की संख्या देखते हुए पशुपालक उन्हें कमेले को बेच लाभार्जित करते हैं। वस्तुतः कमेला ऐसा पशुपालकों द्वारा पोषित व संचालित किया जा रहा है। फिर कमेले विरोध का यह ढ़ोंग क्यों? तीसरा मुद्दा कमेले के विस्थापन से सम्बन्धित है। निःसन्देह वर्षों से स्थापित किसी व्यवस्था का स्थान परिवर्तन सरल नहीं है, परन्तु यह असम्भव हो ऐसा भी नहीं है। दिल्ली क्लोथ मील बसापत बढ़ने से रिहायशी क्षेत्र के मध्य आ गई थी। मील मालिक ने मील को अच्छे मुनाफे से बेच आबादी से दूर अन्य स्थान पर स्वयं को पुनः स्थापित किया। तो कमेला क्यों नहीं? कमेले की दुर्गंध व इसके कारण होने वाली असहनीय व्याधियों से ग्रसित परिवारों का जीवन व्यापारियों के लाभ के सम्मुख महत्वहीन कैसे हो सकता है? सरकारी चुप्पी भ्रष्टाचार की एक और शब्दविहीन कहानी कह रही है।

Tuesday, May 31, 2011

पिछले दरवाजे की एन्ट्री


पिछले दरवाजे की एन्ट्री

जब भी किसी घोटाले या आपराधिक मामलों में किसी जनप्रतिनिधि की संलिप्तता पाई जाती है तो एक प्रश्न मतदाताओं की जुबाँ को सी देता है- ‘‘आखिर इन्हें चुनने वाला कौन है?’’ एक सीमा तक देखा जाये तो प्रश्न सार्थक भी है। आखिरकार लोकतंत्र में मतदान के अधिकार का प्रयोग कर इन्हें अपना रहनुमा हम खुद ही बनाते हैं। परन्तु वहीं दूसरी ओर एक विवशता इस प्रश्न के उत्तर में मतदाताओं को संरक्षण प्रदान करती है कि जब सारी ही मछलियाँ सड़ी हो तो अन्य कोई विकल्प ही कहाँ रह जाता है? इस मरूस्थल में सींचने हेतु कोई वृक्ष है ही कहाँ? विवशता व बाध्यता के अधीन जनता-जनार्दन को इन्हीं में से किसी का चयन करना ही पड़ता है। विस्मित कर देने वाला तथ्य यह है कि सम्पूर्ण भूमण्डल पर 6000 घराने पिछले कई वर्षाें से शासन कर रहे हैं। बाप से बेटे को राजनीति पीढ़ी दर पीढ़ी विरासत में मिलती जा रही है। बूढ़े शेर शिकार करने में इतने पारंगत हो चुके हैं कि वे किसी अन्य को स्थापित होने का अवसर ही प्रदान नहीं करते। ऐसी स्थिति में युवा पीढ़ी किस प्रकार प्रतिनिधित्व का बीड़ा उठाये? राज्य सभा व लोक सभा दोनांे में कुल मिलाकर लगभग 145 सांसद ऐसे हैं जो अरबपति हैं। जिनका चयन राजनीतिक पार्टियाँ स्वहित हेतु करती हैं। क्या वातानुकूलित कमरों में विराजमान लोग गरीब की धूप में जलती चमड़ी की जलन को महसूस कर सकते हैं? क्या महीने के अंत में घर चलाने के लिए आम आदमी की चेहरे की शिकन व तनाव को समझ सकते हैं? क्यों उतारा जाता है ऐसे व्यापारियों को राजनीति के अखाड़े में। राजनीति जनसेवा का क्षेत्र है व्यापार का नहीं। माननीय मनमोहन सिंह जी असम प्रदेश से संसद तक का सफर तय करते हैं जहाँ के क्षेत्र से वे पूर्णतः अनभिज्ञ थे और लतीफा यह है कि आम जनता भी इन्हें नहीं जानती थी। पत्रकारिता जगत ने इसे बैकडोर एन्ट्री की संज्ञा दी। राजनीति में इस प्रकार की बैकडोर एन्ट्री से आम जनता भला किस प्रकार लाभान्वित हो सकती है? वास्तव में अब देश को एक गरीब, समझदार, कर्तव्यनिष्ठ व ईमानदार प्रतिनिधि की आवश्यकता है जो वास्तव में इस गम्भीर व संवेदनशील दायित्व का गरिमापूर्ण ढं़ग से निर्वाह करने में सक्षम हो।

Saturday, May 21, 2011

लुटते बेरोजगार, घी में सरकार


लुटते बेरोजगार, घी में सरकार

लम्बी-लम्बी लाइनों में धक्का-मुक्की होते अभ्यर्थी, मूर्छित होती लड़कियाँ और भड़कते छात्र। कुछ ऐसी सी ही स्थिति है केंद्रीय शिक्षक दक्षता परीक्षा (सी. टी. ई. टी.) के फॉर्म के लिए जदोजहद कर रहे बी. एड. बेरोजगारांे की। वे सुबह जल्दी आकर लाइन में लग जाते हैं। इसके बावजूद कब नम्बर आयेगा, कोई ख़बर नहीं। कई बार तो नम्बर आते ही मुँह पर बैंक की खिड़की बंद हो जाती है और अगले दिन पुनः यही कार्यक्रम। कभी फॉर्म खत्म हो जाते हैं तो कभी बैंक का लंच टाइम हो जाता है। परन्तु हमारे इन लाचार बेरोजगारों को न तो लंच की अनुमति है और न इनके लिए कोई समय सीमा है। इनका यह स्थिर सफर हाथ में फॉर्म की उपलब्धी के साथ समाप्त होता है। फॉर्म प्राप्त करने के पश्चात प्रसन्नचित चेहरे इस प्रकार की भाव देते हैं मानो उन्हें नौकरी ही मिल गई हो। शायद यह उनके स्वयं को तसल्ली देने का माध्यम है क्योंकि सत्य तो यह है कि यह फॉर्म उनके आगामी संघर्ष की पहली सीढ़ी है।
कुछ अभ्यर्थी इस टेस्ट की वास्तविकता से अनभिज्ञ हैं। परन्तु फिर भी वे फॉम भरने के लिए उत्सुक हैं। क्या करें भेड चाल की आदत सी जो हो गई है। विशिष्ट बी. टी. सी. का दौर आया तो बी. एड. सुरक्षित भविष्य का पर्याय बन गई। बहुत से बेरोजगारों के लिए निःसन्देह यह वरदान साबित भी हुई। परन्तु वर्तमान स्थिति तो अब बी. एड. को शादी के लिए दहेज रूप में भी अस्वीकृत करती है। विशिष्ट बीटीसी के समय ससुराल पक्ष को बीएड बहु चाहिये थी। हाय दुभार्ग्य यह निवेश भी डूब गया।
खैर बात थी सीटीईटी और इससे जुड़ी भ्राँतियों की। यह टेस्ट नौकरी की गारण्टी नहीं है अपितु मात्र योग्यता परीक्षण का प्रमाण-पत्र है। परन्तु इसकी अनिवार्यता ने इसे महत्वपूर्ण अवश्य बना दिया है। इस परीक्षा में उत्तीर्ण अभ्यर्थी भविष्य में होने वाली नियुक्तियों के लिए आवेदन करने के योग्य होंगे। एनसीटीई के अनुसार सीटीईटी राज्य स्तरीय शिक्षकों के लिए पात्रता परीक्षा नहीं है। अतः केन्द्र की ही तर्ज पर राज्यों ने भी टीचर एलिजिब्लिटी टेस्ट (टी. ई. टी.) का बिगुल बजा दिया है। सीबीएसई शिक्षा प्रसार विभाग के एक अधिकारी के अनुसार पिछले कुछ दिनों में यूपी में सीटीईटी के डेढ़ लाख से अधिक फॉर्म बिके है।
केन्द्र व राज्यों का यह नया खेल अत्यन्त विचित्र है। अभ्यार्थियों की बेरोजगारी की बेबसी पर जगाई उम्मीद की किरण को भुनाने का निर्लज्ज प्रयास। सीटीईटी आवेदन मात्र केंद्रीय विद्यालयों व सीबीएसई से जुड़े स्कूलों के लिए है जिनकी संख्या बहुत कम है, यह बात अभ्यार्थियों के संज्ञान में नहीं है।
बी. एड. कक्षाओं में दाखिला, प्रवेश परीक्षा के माध्यम से होता है तो क्यांे सरकार बार-बार टेस्ट का प्रोपगंेडा रच लाचार बेरोजगारों का उपहास कर रही है? या यूँ कहें कि नौकरी के सुनहरे सपने दिखाकर स्वयं की जेबें गरम कर रहीं हैं। यह टेस्ट उन शिक्षकों के लिए भी अनिवार्य है जिनकी इण्टरमीडिएट सात वर्ष से पूर्व की है। वर्षों से शिक्षण कर रहे शिक्षक अब यदि टी. ई. टी. परीक्षा को उत्तीर्ण न कर पाते तो क्या वे अपनी वर्षाें की नौकरी से हाथ धो बैठेंगे? ऐसी स्थिति में राज्य सरकार का इन शिक्षकों के प्रति क्या निर्णय होगा? इसकी व्याख्या राज्य सरकार ने नहीं की है। राज्य सरकार के अनुसार सात वर्ष पूर्व पाठ्यक्रम परिवर्तन के कारण इन शिक्षकों के लिए यह टेस्ट उत्तीर्ण करना अनिवार्य है। कितना दुःखदायी है कि सरकार शिक्षकों के वर्षांे के शिक्षण अनुभव को इतनी निष्ठुरता से चुनौती दे रही है! वस्तुतः ऐसा तो नहीं है कि पाठ्यक्रम परिवर्तन के पश्चात् शिक्षकों ने विद्यार्थियों को नवीन पाठ्यक्रम से पढ़ाना बंद कर दिया हो और उन्हें पुराने पाठ्यक्रम से पढ़ने के लिए बाध्य कर रहे हों। जब ऐसी स्थिति है ही नहीं तब इस टेस्ट की क्या आवश्यकता है? मात्र मुद्रा संग्रहण के लिए? टेस्ट उत्तीर्ण करने के पश्चात छः माह की ट्रेनिंग भी अनिवार्य है। क्या सरकार वास्तव में नियुक्तियाँ करना चाहती है? या चुनावी पिच तैयार कर वोट बैंक पढ़ाने का प्रयास कर रही है, यह बात समझ से परे है। चिन्तनीय है यह स्थिति कि बार-बार टेस्ट, फॉर्म और लाचार बेरोजगारों का धन सरकारी तंत्र की जेबों में और बेरोजगार अंततः एक लुटा हुआ बेरोजगार!