Saturday, June 13, 2020
हर्ड इम्युनिटीः सामूहिक नरसंहार
कोविड-19 के कारण हुए लंबे लाॅकडाउन के उपरान्त जून 2020 से केन्द्र सरकार ने अनलाॅक-1 की घोषणा कर दी। सभी राज्य परिस्थितियों के अनुसार अपने-अपने निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र हैं। तदनुसार राज्य सरकारों ने अपने-अपने राज्यों को अनलाॅक करना आरंभ भी कर दिया है। कुछ तर्क इसके समर्थन में इस प्रकार हैं कि लंबे समय तक लाॅकडाउन देश की अर्थव्यवस्था के लिए घातक सिद्ध हो सकता है। देश की अपनी बाध्यता है कि मरीजों का आंकड़ा पाँच सौ से दो लाख से अधिक होने के बावजूद अब देश अनलाॅक हो रहा है।
सरकार का यह निर्णय अर्थव्यवस्था और देशवासियों में से किसे बचा पाएगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा परन्तु जो निर्णय कोरोनाकाल में लिए गए, उनकी विवेचना करना अति आवश्यक है। कदाचित इस समस्या का कोई उचित हल ही निकल आये।
जनवरी माह में कोरोना ने भारत में सर्वप्रथम दस्तक दी थी। उस समय शायद इसकी इस विकरालता का किसी को भी अनुमान न था। एक आशा, भारतीय वातावरण एवं तापमान से भी थी कि तेज़ धूप एवं असहनीय गर्मी भारत में इसे शीघ्र ही नष्ट कर देगी। परन्तु ‘अनुमान’ से मिले धोखे ने भारतीय नक्शे को रंक्तरंजित कर दिया। 24 मार्च से आरंभ हुए 21 दिन के लाॅकडाउन के परिणाम सुखद न थे और फिर शुरू हुआ लाॅकडाउन बढ़ाने का सिलसिला। लाॅकडाउन अर्थात् सबकुछ थम जाना। देश, व्यवस्था, व्यापार सबकुछ और इसी से आरंभ होती हैं चुनौतियाँ। सर्वप्रमुख कोराना के प्रसार को रोकना। दूसरी, थमे देश की अर्थव्यवस्था संभालना और तीसरी देशवासियों के भय को कम करते हुए उनका विश्वास जीतना। उन्हें भरोसा दिलाना कि ‘वे’ जिन्हें देश की जनता ने इस विश्वास के साथ चुना है कि ‘वे’ उनकी मुसीबत में उनका सहारा बनेंगे, ‘वे’ उनके भरोसे को कायम रखते हुए उनकी व्यवस्था अवश्य करेंगे।
भारत में दो अन्य समस्याएं भी है- एक जागरूकता का अभाव, दूसरी अनुशासनहीनता। ये दो वे समस्याएं है जिन्हें मजबूत सरकारी तंत्र एवं योजनाएं उन्मूलित कर सकती हैं। और यदि ये समाप्त हो जाएं तो निश्चित रूप से बहुत सारी समस्याएं स्वतः ही अदृश्य हो जाएंगी। तबलीगी जमात एवं सड़कों पर दौड़ती मजदूरों की भीड़ भी, इन्हीं दो समस्याओं को प्राथमिकता देते हुए नियंत्रित की जा सकती थी। अनुशासन मात्र जनता पर लागू नही होता। यह सर्वविदित है कि जनता से अनुशासन की अपेक्षा कर, योजनाओं को ढुलमुल तरीकों से लागू करके, किसी सकारात्मक परिणाम की अपेक्षा करना मूर्खता है। सरकारी योजनाओं को लागू करने के लिए पहले सरकारी तंत्र को स्वतः पूर्ण रूप से अनुशासित एवं ईमानदार होना होगा। यदि इस स्तर पर कोई चूक रहती है, तो निश्चित रूप से सभी प्रयास असफल हो ही जाएंगे। प्रथम लाॅकडाउन की असफलता इसी अनुशासनहीनता का परिणाम है।
सरकार के अनुसार, लाॅकडाउन के कारण भारत में मृत्यु दर अन्य देशों की अपेक्षा कम है। क्या मृत्यु को तुलनात्मक रूप से देखना निंदनीय नही है? यदि प्रथम लाॅकडाउन को अत्यधिक कड़ाई से लागू किया जाता तो क्या यह आंकड़ा और अधिक कम नही हो सकता था? मजदूरों का इस प्रकार पलायन रोक, उनकी उचित व्यवस्था उसी स्थान पर की जाती, जहाँ वे रह रहे थे। संभवतः इसमें सरकार का खर्च भी अपेक्षाकृत कम होता और कोरोना के विस्तार को भी रोका जा सकता था। साथ ही विदेशों से आने वाले लोगों को भी पूर्णतः लाॅक करते हुए, देश की सीमाओं को बंद कर दिया जाना चाहिए था। इसी प्रकार राज्य स्तर पर राज्य की सीमाओं को और फिर जिला स्तर पर जिलों की सीमाओं को पूर्ण रूप से प्रतिबंधित किया जाना चाहिए था। यह लाॅकडाउन कफ़्र्यू की भांति होना चाहिए था। तत्पश्चात् कोरोना निरीक्षण/जांच आरंभ की जाती एवं अन्य मेडिकल आवश्यकताओं की आपूर्ति की जाती। दैनिक आवश्यकताओं की आपूर्ति भी निश्चित योजनाएं बनाकर की जानी चाहिए थी, जिससे अफरा-तफरी न मचे। परन्तु मजदूरों का इतना निर्मम पलायन और उस पर सरकारी मलहम, ‘सहायता की राजनीति’ अधिक प्रतीत हो रही थी। साथ ही ऐसा लग रहा था कि एक के बाद एक लाॅकडाउन, मानो सरकार बस कोरोना से ही अपेक्षा कर रही हो कि वह स्वतः ही चला जाए। इसी बीच चलता रहा राहत पैकेजों का बंदरबाँट सिलसिला। सरकारी विभागों के निजीकरण की ओर बढ़ते कदम। आखिरकार लोग ‘कोरोना के प्रकोप’ में व्यस्त जो थे।
निश्चित रूप से कुछ चुनौतियाँ अप्रत्याशित भी थी। परन्तु मुसीबत से निपटने के लिए अनपेक्षित परिस्थितियों की तैयारी पहले की जाती है। इसीलिए ही तो कोई देश नेता चुनता है। किसी परिवार का मुखिया अपनी इस भूमिका को जितनी कुशलता से निभाता है, वह परिवार उतना ही अधिक प्रगति करता है। देश के मुखिया से भी यही अपेक्षा की जाती है। अपनी इसी कुशलता के कारण ही तो वह विशिष्ट होता है। परन्तु यदि वह विपरीत परिस्थितियों को संभालने की योग्यता नहीं रखता, तो वह मुखिया होने का भी हक़दार नहीं है। जनहित में उसे त्यागपत्र दे देना चाहिए।
जून से आरंभ हुआ ‘अनलाॅक’ इस असफलता के दोषी को अपनी अयोग्यता स्वीकार करने एवं जनहित में फै़सला लेने के लिए आमंत्रित कर रहा है। इस विकट स्थिति में लिया गया अनलाॅक का निर्णय ‘सामूहिक नरसंहार’ की ओर संकेत कर रहा है। देश के पालनहार कहते हैं कि देश को कोरोना के साथ जीने की आदत डाल लेनी चाहिए, परन्तु सच्चाई यह है कि अपर्याप्त मेडिकल सुविधा एवं डूबती अर्थव्यवस्था की नैया में, अब देशवासियों को कोरोना के साथ मरने की आदत डालनी होगी। उच्च स्तरीय मेडिकल सुविधाएं, उच्च स्तरीय लोगों के लिए संरक्षित है। अतः आम आदमी का उनकी ओर ललचाई नज़रों से देखना व्यर्थ है। हर्ड इम्युनिटी के नाम पर लोगों की बलि चढ़ाकर, सरकार अपनी पूजा सम्पन्न कर, कोरोना से मुक्ति अवश्य पा जाएगी। वैसे भी कोई आपदा या विपदा ही तो सरकार को पौ-बारह करने के अवसर प्रदान करती है।
बहरहाल, सभी देशवासी आत्मनिर्भर हो, अपने जीवन की रक्षा करें। सजग रहें, सुरक्षित रहें।
Friday, May 8, 2020
लाॅकडाउन
ऐसा भी समय होता है क्या? ये तो कभी सोचा भी न था। हम तो हम, हमसे पहली पीढ़ी ने भी ये सब कभी नही देखा होगा। पर हाँ, हमारे बच्चे आगे आने वाली पीढ़ियों को ये किस्से अवश्य सुनाएंगे। कुछ मजे़दार बनाकर, कुछ भयभीत कर, कुछ करूणामय अंदाज़ में। भावी पीढ़ी के लिए एक मज़ेदार मसालायुक्त, रात के लिए नानी-दादी की कहानियाँ बनेंगी। और यूँ शुरू हो जाएगा इक नया युग और परिवर्तित हो जाएंगी ये कहानियाँ। पहले किस्से राजा महाराजाओं के हुआ करते थे। और फिर चली आज़ादी की कहानियाँ। कम्प्यूटर युग में यह स्वरूप और बदला और फिर आया लाॅकडाउन...........। एक भयंकर महामारी, कोरोना जिसने सम्पूर्ण विश्व में हाहाकार मचा दिया, के उपचार हेतु लोगों का स्वतः एवं शासनादेशानुसार घरों में रहना है लाॅकडाउन।
कहा जाता है कि लगभग सौ वर्षों में कोई न कोई महामारी अवश्य फैलती है। 13वीं शताब्दी में ब्लैक डैथ, 15वीं शताब्दी में कोकोलिज़ली, 16वी शताब्दी में प्लेग, 17वीं शताब्दी में पुनः प्लेग, 18वीं शताब्दी में फ्लू, 19वीं शताब्दी में पोलियो, स्पेनिश फ्लू एवं एशियन फ्लू, 20वीं शताब्दी में स्वाइन फ्लू, इबोला, जीका और अब कोरोना। कदाचित यह इसलिए क्योंकि इसके माध्यम से प्रकृति पृथ्वी की रक्षा करती है। उसे स्वच्छ करती है। संतुलन स्थापित करती है। मानव की अतिमहत्त्वकांक्षाओं को आइना दिखा नियंत्रित करती है। सफलता, कामयाबी, मुनाफ़ा, ऊँचाई, लालच सबके खेल में मानो प्रकृति ने ‘स्टैच्यु’ बोल दिया हो।
परन्तु इस खेल में आनन्द आ रहा है। हालांकि कुछ लोगों को खेल खेलना नही भाता है, परन्तु इस खेल को खेलने के लिए कई परिवार वास्तव में तड़प गए थे। ‘ज़िदगी में सबकुछ है पर सुकून नहीं’, ‘पैसा है, पर परिवार नही’ ऐसे अनेक वाक्य हमारे जीवन में निराशा भरने लगे थेे। चाह कर भी कोई इस भंवर से बाहर नही आ पा रहा था। पर देखो ना! यह पृथ्वी हमारी माँ है और माँ बच्चों की अनकही पीड़ा को सुन लेती है। हमारी इसी पुकार को सुन, दे दिया इसने हमें ज़िंदगी का सुकुन। सुकुन परिवार के साथ घंटों टीवी देखने का, लूडो, कैरम, ताश, शतरंज, अंताक्षरी खेलने का, दुःख-सुख की बात करने का, यूँ ही बेवजह लड़ने का झगड़ने का, घंटों सोने का, विभिन्न व्यंजनों का, फ़ोन पर एक-दूसरे की ख़ैरियत पूछने का, हँसी-मजाक और खिलखिलाहट का। इसी सुकून चाह थी ना?
अब आप कहेंगे व्यापार में हानि, भूख और पानी, दैनिक ज़रूरतें और होती मौतें कहाँ वह सुकून देती हैं। वास्तव में दुःखद एवं कष्टदायी है यह सब। परन्तु जिस प्रकार हर सिक्के के दो पहलू होते हैं, उसी प्रकार जो परिस्थितियाँ हमारे हाथ में नही हैं, तो क्यों न इसी में सुख की अनुभूति की जाए। आशावादी हो, जो बुरा नही हुआ उसके लिए ईश्वर का धन्यवाद किया जाए। व्यक्ति की वर्षाें से चल रही दिनचार्य से इतर जब कुछ होता है, तो वह कष्टदायी तो लगता ही है। परिणामस्वरूप दुःख एवं अवसाद की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। दुःख स्वभाविक है। मानवीय प्रकृति एवं अनुभूति है। परन्तु अवसाद विशेष अवस्था है। दुःख की चरम सीमा है। दुःख कष्ट का अहसास कराता है एवं उसका हल तलाशने की प्रेरणा देता है। अवसाद नकारात्मकता सृजित करता है। समस्याओं को गहराता है और अनजाने भंवर में फँसाता है। दुःख, सुख के महत्त्व को समझाता है और अवसाद विचार शून्य कर देता है। अतः दुःख को अनुभूत अवश्य करना चाहिए। यह त्रुटियों को सुधारने के अवसर प्रदान करता है। यह अभिप्ररित करता है, यह विचारने के लिए कि जो घटना अथवा अवस्था व्यक्ति के नियंत्रण से बाहर है, जिन्हें वह परिवर्तित करने में असमर्थ है, उनके लिए दुःख को अत्यधिक आत्मसात् न कर किसी अन्य मार्ग की ओर अग्रसरित होना चाहिए। और यदि उन समस्याओं के हल उपलब्ध हैं, तो दुःख का वजूद बेमानी है। अतः हल होने और न होने दोनों ही स्थितियों में व्यक्ति को कष्टानुसार दुःख को अनुभव तो अवश्य करना चाहिए, परन्तु उन परिथितियों को हावी होने का अवसर प्रदान कर अवसादग्रस्त नही होना चाहिए।
कोरोना की समस्या ने बहुत से घरों में अवसाद की स्थिति उत्पन्न कर दी है। लोग कुंठित हो हिंसा के लिए प्रेरित एवं बाध्य हो रहे हैं। विचित्र समस्या है। कभी व्यक्ति समय की कमी एवं परिवार का सान्निध्य न मिल पाने के कारण खिन्न रहता है, तो कभी प्रचूर समय भारी लगने लगता है और परिवार का साथ अप्रिय। दरअसल कारण समय और परिवार न होकर, यकायक हुए परिवर्तन की अस्वीकृति है। अभिलाषी एवं महत्त्वकांक्षी मस्तिष्क में अनपेक्षित परिस्थितियों ने ‘केमिकल लोचा’ कर दिया। ऐसा समय अकल्पिनीय था। इसकी तो कोई योजना ही नहीं बनाई गई थी। वरन् इसने अनेक योजनाओं की गति ही बाधित कर दी। इन समस्त परिवर्तनों को मानव मस्तिष्क अचानक से सुचारू रूप से प्रबन्धित नही कर पा रहा है। परिणामतः हिंसा एवं अवसाद।
इन परिस्थितियों का सामना करने वाले मनुष्य को समस्त चिंताओं को विस्मृत कर नवीन परिस्थितियों के लिए छोटी-छोटी योजनाएं तैयार करनी चाहिए। छोटी एवं निश्चित समयान्तराल की योजनाएं। चाहे-अनचाहे अभी घर परिवार के साथ ही रहना है, तो क्यों न वह समय हँसी-खुशी, प्रसन्नता के साथ बिताया जाए। लाॅकडाउन के प्रत्येक सुखद दिन की एक छोटी-सी योजना। साथ ही लाॅकडाउन समाप्त होने पर परिवर्तित हुई समस्त परिस्थितियों के लिए तैयार रहने की छोटी-सी योजना। हालांकि यह सभी कुछ अपूर्वानुमेय है, इसीलिए योजना का लघु होना आवश्यक है। अन्यथा फिर कोई अप्रत्याशित घटना अवसाद का सबब बन सकती है। बहुत अधिक सोचना सही नही है। जीवन के प्रत्येक क्षण को जी भरकर जिया जाए।
यह सब उन लोगों के लिए फिर भी बहुत सरल है, जो घर बैठे सुविधा सम्पन्न होते हुए भी अकारण ही कुंठित हो रहे हैं। विचार विशेषतः उन लोगों के लिए करना आवश्यक है, जो विकट परिस्थितियों से गुजर रहे हैं। जो भूख-बीमारी एवं मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित हो संघर्षरत् है। जिनके लिए खुश रहने का सुझाव, उनका उपहास करने जैसा है। उनकी सहायता के यथासंभव प्रयास सरकार भी कर रही है एवं आमजन से भी अपेक्षित हैं। परन्तु हमारे देश में यह संख्या अत्यधिक विशाल है। वस्तुतः भारत के लिए यह एक चुनौतीस्वरूप है। न केवल सरकार के लिए एक चुनौती वरन् प्रत्येक भारतीय के लिए मानवतावादी होना सिद्ध करने की चुनौती। और भारतीय परम्पराओं एवं संस्कृति में इस प्रकार का मानवतावादी व्यवहार सदैव प्रशंसनीय रहा है।
इसी के साथ सभी को कृतज्ञ होना चाहिए समस्त कोरोना प्रहरियों एवं योद्धाओं का, जो अपना जीवन संकट में डाल देशभक्ति को इस रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। सेना के वीर जवानों की भांति ही ये सभी लोग भी सलाम के पात्र हैं। वंदनीय हैं। साथ ही वे महिलाएं जो कभी न समाप्त होने वाली ड्यूटी और अधिक निष्ठा से घर के समस्त व्यक्तियों को प्रसन्न रखने के लिए कर रही हैं, उनका अभिवादन एवं सहयोग किया जाना भी आवश्यक है।
कोरोना एक जंग है, जिसे सभी को साथ में मिलकर जीतना है। साथ ही यह एक नये युग का जनक भी है। इस जंग के उपरान्त जीवन जीने के सलीके बदल जाएंगे। जीवन के प्रति नज़रिया बदल जाएगा। लोभ-लालच, रूपया-पैसा सभी की परिभाषाएं एवं प्राथमिकताएं बदल जाएंगे। हम सभी को उन परिवर्तनों के लिए मानसिक रूप से तैयार रहना चाहिए, जिससे फिर किसी यकायक परिवर्तन से अवसादग्रस्त होने से बचा जा सके।
मैं हूँ कोरोना
मैं कोरोना हूँ उफऱ् कोविड-19। आजकल सुबह उठने से रात को सोने तक बस मेरा ही जिक्र और मेरी ही चर्चा है। ऐसा लग रहा है कि लोग कुछ ज़्यादा ही मुझसे प्यार करने लगे हैं। मैं विदेशी हूँ, यह तो सभी जानते हैं और विदेश्िायों के प्रति आकर्षण भी स्वभाविक है। वस्तुतः इसीलिए इतना प्रेम और स्नेह मुझे मिल रहा है। हालांकि कुछ लोग मुझे पसंद नही कर रहे और धीरे-धीरे उनकी तादाद भी बढ़ती जा रही है। पर मैं दूसरों की पसंद की परवाह नही करता।
मैं चीन से आया हूँ। यद्यपि चाइनीज माल की कोर्इ गारंटी नही है, किन्तु मेरी गारंटी पूरी-पूरी है कि यदि आप थोड़े से भी कमजोर मेरे सामने रहे, तो बस लोगों की यादों में ही रह जाएंगे। मैं प्रभावशाली हूँ, उच्छृंखल हूँ। इसका प्रमाण मैं कर्इ देशों में दे चुका हूँ। इसके बावजूद कर्इ लोग मेरा उपहास उड़ा रहे हैं। मुझ पर लतीफ़े बना रहे हैं। बिल्कुल भी गम्भीरता ही नही है।
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मेरे वजूद की चुनौती को स्वीकारा गया है। मेरा नाम इतने उच्च स्तर पर भी प्रख्यात (कुख्यात) हो गया है। फिर भी कुछ लोग मेरे अस्ितत्व से घबरा नही रहे हैं। बस यही तो कोफ़्त है मुझे। यही तो नही भा रहा। जिन कारणों एवं उद्देश्यों से मेरा जन्म हुआ है, ऐसे लोग मुझे उन्हें पूर्ण करने का अवसर प्रदान कर रहे हैं। इनके इस सहयोग का बहुत आभारी हूँ मैं। इनकी यह निभ्र्ाीकता मुझे उकसाती है। मुझे प्रेरित करती है अपना प्रभुत्व, अपना खौफ़ कायम रखने के लिए।
अब देखो! ये इनकी नादानी कहूँ या अपनी खु़शकिस्मती कि मेरे संदेह होने मात्र् से ये लोग अस्पतालों से भाग रहे हैं। विचित्र मूर्खता है। बीमार होने पर इलाज कराया जाता है या अस्पतालों से भाग दूसरों को भी संक्रमित किया जाता है! इसमें कौन-सी बुद्धिमानी है, मेरी समझ से परे है। इन इंसानों को समझना मुझे समझने से भी अध्िाक जटिल है। मुझे दोष देते हैं कि मैं अनियंत्रित हो सबको परेशान कर रहा हूँ और स्वयं ‘मूविंग बम’ बने घूम रहे हैं। मैंने तो मौका दिया है मुझसे पीछा छुड़ाने का। बैठो घर पर। बचे रहो मुझसे। पर ये तो इंसान है ना! लोभी, आरामप्रस्त, स्वाथ्र्ाी....... घर बैठने का अवसर दिया, तो चल दिए पिकनिक मनाने। अब यदि मैं तुम्हारा आलिंगन करता हूँ, तो दोषी तो तुम स्वयं हो।
तुम इंसानों को तो मुझे धन्यवाद देना चाहिए कि विश्वपटल पर मैंने सबको संगठित कर दिया है। विभ्िान्न प्रकार की लड़ाइयाँ, खींचातानी, अध्िाकार-कर्तव्य सब बेमानी हो गए। ‘जान है तो जहान है’, बस यही बात सबको समझाने में मेरा महत्त्वपूर्ण योगदान है। एक बात तो पूर्णतः स्पष्ट हो गर्इ है कि सभी प्रलोभन ‘जीवन’ के रहते ही औचित्यपूर्ण है। जीवन ही नही तो क्या मायने इन ‘ख़्वाहिशों’ के?
पर इस पर भी कुछ लोग हैं जिनका जीवन-दर्शन बहुत अद्भुत है। उन्हें अपने व्यापार में हानि की बहुत चिंता है। वे निरंतर प्रयासर्त है, इस संकट की घड़ी में अपने व्यापार को बचाने एवं बढ़ाने के लिए। इसके लिए वे अपने प्राणों की आहुति देने एवं दूसरों के प्राणों की भी आहुति देने से संकुचाते नही हैं। ऐसे कर्मठ लोग मुझेे बहुत पि्रय हैं। उनकी अज्ञानता मेरी वाहक है। मेरी चहेती ‘टूरिस्ट गाइड’। मुझे सर्वव्यापी करने में सहायक।
वैसे लोगों को मेरा शुक्रगुज़ार होना चाहिए कि मैं उन्हें विभ्िान्न प्रकार के नवीन ‘आइडियाज़’ दे रहा हूँ। कभी सोचा होगा किसी ने कि ‘वर्क फ्राॅम होम’ जैसा भी कुछ हो सकता है। हालांकि बहुत लोग पहले से ही इसे करते आ रहे हैं, पर क्या इतने बड़े स्तर पर यह सब! कितना अच्छा है ना! क्या तुम इसके फ़ायदे जानते हो? इससे सड़क पर रोज़ सुबह होती परेड एवं भागमभाग से निजात मिली है। जिसके कारण वाहनों का आवागमन कम हुआ है और प्रदूषण का स्तर भी घटा है। और तो और जाने-आने का अनावश्यक खर्च भी बच गया है। आॅफि़स में बिजली-पानी जैसे अनेक व्यय जो कर्मचारियों पर होते हैं, सब कम हो गए हैं। और काम तो हो ही रहे हैं। कर्मचारियों का भी जो समय आने-जाने में बर्बाद होता था, उस समय का सदुपयोग किसी अन्य कार्य को सम्पन्न करने में किया जा सकता है। शारीरिक कष्टों से भी मुक्ित मिल रही है। एक स्वस्थ शरीर में की स्वस्थ मस्ितष्क का निवास होता है। इससे कार्य की गुणवत्ता भी बढ़ती है। कहने का तात्पर्य यह है कि जिन कार्यों को सरलतापूर्वक घर से ही करते हुए इतनी बचत की जा सकती है, तो क्यों न मेरे बाद भी उन कायर्ोें को आगे भी इसी प्रकार किया जाए, जिससे उन बचतों का उपयोग कर और अध्िाक उत्पादन बढ़ाया जा सके।
इंसान को अब अपना नजरिया बदलने का समय आ गया है। इलेक्ट्राॅनिक होती इस दुनिया को बर्बाद होने से बचाने का समय। अब गम्भीर होकर सबको सोचना होगा कि मेरा जन्म क्यों हुआ है? मैं किसी देश की खु़राफ़ात नही हूँ। मैं ‘बदला’ हूँ प्रकृति का। उस प्रकृति का जिसने तुम्हें माँ जैसा दुलार दिया, जिसने तुम्हें आसरा दिया, जीवन दिया, सौन्दर्य दिया, नैसगर्िकता दी। और तुमने क्या किया? बदले में तुमने उसे छलनी कर दिया। अपने स्वार्थ में उसका अंधाधुंध दोहन किया। उसके बनाए जीवों की हत्या की। उस पर जनसंख्या रूपी वजन को बढ़ाया। प्रदूषण से उसका दम घोट दिया। उसे असहनीय कष्ट दिए। पर तुम्हें कभी उसके कष्टों का अहसास तक न हुआ। अति हर चीज की बुरी होती है। मेरे जैसी विभ्िान्न व्याध्िायाँ, उसी अति का परिणाम हैं। मैं प्रकृति के बदले का माध्यम हूँ। प्रकृति अपना बदला विभ्िान्न रूपों में लेती है। कभी बाढ़, कभी भूकंप, कभी सूखा तो कभी अतिवष्र्ाा। ये प्राकृतिक आपदाएं नहीं हैं। यह प्राकृतिक प्रतिशोध है। इंसान को इस प्रतिशोध से डरना चाहिए क्योंकि प्रकृति ने उसे बनाया है, उसने प्रकृति को नही। प्रकृति जब चाहे उसके वजूद को समाप्त कर सकती है। इसलिए इंसान को कभी अपना दायरा नही भूलना चाहिए। यदि वह ऐसा करता है, चाहे किसी भी रूप में ‘अनियंत्रित जनसंख्या हो या प्रदूषण या प्राकृतिक संसाधनांे का दोहन, तब प्रतिशोध के द्योतक के रूप में मेरा जन्म होगा, या मेरे जैसों का जन्म होगा। इन बातों को समझने एवं इनसे सबक लेने का यही उचित समय है। यही समय है अपनी प्रकृति के प्रति अनुगृहीत होने का।
इस कठिन समय पर प्रकृति के महत्त्व को समझते हुए सुरक्ष्िात रहने का प्रयास करें। मुझसे बचना है, तो मेरी इन बातों पर गहनता से विचार करना होगा। कुछ समय बाद, मैं तो चला जाऊँगा, पर जो हृदयविदारक छाप देकर जाऊँगा, उसे याद रखना। यदि मेरी दी गर्इ सीखों की दिशा में उचित प्रयास नही किए गए, तो याद रखना, मैं फिर किसी दूसरे रूप में वापस आऊँगा। भूलना नहीं ‘मैं हूँ कोरोना’।
मैं चीन से आया हूँ। यद्यपि चाइनीज माल की कोर्इ गारंटी नही है, किन्तु मेरी गारंटी पूरी-पूरी है कि यदि आप थोड़े से भी कमजोर मेरे सामने रहे, तो बस लोगों की यादों में ही रह जाएंगे। मैं प्रभावशाली हूँ, उच्छृंखल हूँ। इसका प्रमाण मैं कर्इ देशों में दे चुका हूँ। इसके बावजूद कर्इ लोग मेरा उपहास उड़ा रहे हैं। मुझ पर लतीफ़े बना रहे हैं। बिल्कुल भी गम्भीरता ही नही है।
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मेरे वजूद की चुनौती को स्वीकारा गया है। मेरा नाम इतने उच्च स्तर पर भी प्रख्यात (कुख्यात) हो गया है। फिर भी कुछ लोग मेरे अस्ितत्व से घबरा नही रहे हैं। बस यही तो कोफ़्त है मुझे। यही तो नही भा रहा। जिन कारणों एवं उद्देश्यों से मेरा जन्म हुआ है, ऐसे लोग मुझे उन्हें पूर्ण करने का अवसर प्रदान कर रहे हैं। इनके इस सहयोग का बहुत आभारी हूँ मैं। इनकी यह निभ्र्ाीकता मुझे उकसाती है। मुझे प्रेरित करती है अपना प्रभुत्व, अपना खौफ़ कायम रखने के लिए।
अब देखो! ये इनकी नादानी कहूँ या अपनी खु़शकिस्मती कि मेरे संदेह होने मात्र् से ये लोग अस्पतालों से भाग रहे हैं। विचित्र मूर्खता है। बीमार होने पर इलाज कराया जाता है या अस्पतालों से भाग दूसरों को भी संक्रमित किया जाता है! इसमें कौन-सी बुद्धिमानी है, मेरी समझ से परे है। इन इंसानों को समझना मुझे समझने से भी अध्िाक जटिल है। मुझे दोष देते हैं कि मैं अनियंत्रित हो सबको परेशान कर रहा हूँ और स्वयं ‘मूविंग बम’ बने घूम रहे हैं। मैंने तो मौका दिया है मुझसे पीछा छुड़ाने का। बैठो घर पर। बचे रहो मुझसे। पर ये तो इंसान है ना! लोभी, आरामप्रस्त, स्वाथ्र्ाी....... घर बैठने का अवसर दिया, तो चल दिए पिकनिक मनाने। अब यदि मैं तुम्हारा आलिंगन करता हूँ, तो दोषी तो तुम स्वयं हो।
तुम इंसानों को तो मुझे धन्यवाद देना चाहिए कि विश्वपटल पर मैंने सबको संगठित कर दिया है। विभ्िान्न प्रकार की लड़ाइयाँ, खींचातानी, अध्िाकार-कर्तव्य सब बेमानी हो गए। ‘जान है तो जहान है’, बस यही बात सबको समझाने में मेरा महत्त्वपूर्ण योगदान है। एक बात तो पूर्णतः स्पष्ट हो गर्इ है कि सभी प्रलोभन ‘जीवन’ के रहते ही औचित्यपूर्ण है। जीवन ही नही तो क्या मायने इन ‘ख़्वाहिशों’ के?
पर इस पर भी कुछ लोग हैं जिनका जीवन-दर्शन बहुत अद्भुत है। उन्हें अपने व्यापार में हानि की बहुत चिंता है। वे निरंतर प्रयासर्त है, इस संकट की घड़ी में अपने व्यापार को बचाने एवं बढ़ाने के लिए। इसके लिए वे अपने प्राणों की आहुति देने एवं दूसरों के प्राणों की भी आहुति देने से संकुचाते नही हैं। ऐसे कर्मठ लोग मुझेे बहुत पि्रय हैं। उनकी अज्ञानता मेरी वाहक है। मेरी चहेती ‘टूरिस्ट गाइड’। मुझे सर्वव्यापी करने में सहायक।
वैसे लोगों को मेरा शुक्रगुज़ार होना चाहिए कि मैं उन्हें विभ्िान्न प्रकार के नवीन ‘आइडियाज़’ दे रहा हूँ। कभी सोचा होगा किसी ने कि ‘वर्क फ्राॅम होम’ जैसा भी कुछ हो सकता है। हालांकि बहुत लोग पहले से ही इसे करते आ रहे हैं, पर क्या इतने बड़े स्तर पर यह सब! कितना अच्छा है ना! क्या तुम इसके फ़ायदे जानते हो? इससे सड़क पर रोज़ सुबह होती परेड एवं भागमभाग से निजात मिली है। जिसके कारण वाहनों का आवागमन कम हुआ है और प्रदूषण का स्तर भी घटा है। और तो और जाने-आने का अनावश्यक खर्च भी बच गया है। आॅफि़स में बिजली-पानी जैसे अनेक व्यय जो कर्मचारियों पर होते हैं, सब कम हो गए हैं। और काम तो हो ही रहे हैं। कर्मचारियों का भी जो समय आने-जाने में बर्बाद होता था, उस समय का सदुपयोग किसी अन्य कार्य को सम्पन्न करने में किया जा सकता है। शारीरिक कष्टों से भी मुक्ित मिल रही है। एक स्वस्थ शरीर में की स्वस्थ मस्ितष्क का निवास होता है। इससे कार्य की गुणवत्ता भी बढ़ती है। कहने का तात्पर्य यह है कि जिन कार्यों को सरलतापूर्वक घर से ही करते हुए इतनी बचत की जा सकती है, तो क्यों न मेरे बाद भी उन कायर्ोें को आगे भी इसी प्रकार किया जाए, जिससे उन बचतों का उपयोग कर और अध्िाक उत्पादन बढ़ाया जा सके।
इंसान को अब अपना नजरिया बदलने का समय आ गया है। इलेक्ट्राॅनिक होती इस दुनिया को बर्बाद होने से बचाने का समय। अब गम्भीर होकर सबको सोचना होगा कि मेरा जन्म क्यों हुआ है? मैं किसी देश की खु़राफ़ात नही हूँ। मैं ‘बदला’ हूँ प्रकृति का। उस प्रकृति का जिसने तुम्हें माँ जैसा दुलार दिया, जिसने तुम्हें आसरा दिया, जीवन दिया, सौन्दर्य दिया, नैसगर्िकता दी। और तुमने क्या किया? बदले में तुमने उसे छलनी कर दिया। अपने स्वार्थ में उसका अंधाधुंध दोहन किया। उसके बनाए जीवों की हत्या की। उस पर जनसंख्या रूपी वजन को बढ़ाया। प्रदूषण से उसका दम घोट दिया। उसे असहनीय कष्ट दिए। पर तुम्हें कभी उसके कष्टों का अहसास तक न हुआ। अति हर चीज की बुरी होती है। मेरे जैसी विभ्िान्न व्याध्िायाँ, उसी अति का परिणाम हैं। मैं प्रकृति के बदले का माध्यम हूँ। प्रकृति अपना बदला विभ्िान्न रूपों में लेती है। कभी बाढ़, कभी भूकंप, कभी सूखा तो कभी अतिवष्र्ाा। ये प्राकृतिक आपदाएं नहीं हैं। यह प्राकृतिक प्रतिशोध है। इंसान को इस प्रतिशोध से डरना चाहिए क्योंकि प्रकृति ने उसे बनाया है, उसने प्रकृति को नही। प्रकृति जब चाहे उसके वजूद को समाप्त कर सकती है। इसलिए इंसान को कभी अपना दायरा नही भूलना चाहिए। यदि वह ऐसा करता है, चाहे किसी भी रूप में ‘अनियंत्रित जनसंख्या हो या प्रदूषण या प्राकृतिक संसाधनांे का दोहन, तब प्रतिशोध के द्योतक के रूप में मेरा जन्म होगा, या मेरे जैसों का जन्म होगा। इन बातों को समझने एवं इनसे सबक लेने का यही उचित समय है। यही समय है अपनी प्रकृति के प्रति अनुगृहीत होने का।
इस कठिन समय पर प्रकृति के महत्त्व को समझते हुए सुरक्ष्िात रहने का प्रयास करें। मुझसे बचना है, तो मेरी इन बातों पर गहनता से विचार करना होगा। कुछ समय बाद, मैं तो चला जाऊँगा, पर जो हृदयविदारक छाप देकर जाऊँगा, उसे याद रखना। यदि मेरी दी गर्इ सीखों की दिशा में उचित प्रयास नही किए गए, तो याद रखना, मैं फिर किसी दूसरे रूप में वापस आऊँगा। भूलना नहीं ‘मैं हूँ कोरोना’।
Sunday, March 29, 2020
ए-हिंदी
स्वपन के संसार में,
शब्दों के व्यापार में,
तुम्हारा वजूद तुम्हारा अहसास कराता है
अन्यथा तो तुम्हें अब अक्सर ढूँढा ही जाता है।
तुम्हारे दिन का उत्सव,
मानो तुम ही तो हमारे दिल की मल्लिका हो।
पर बाकी दिन..........
कौन हो तुम? क्यों हो यहाँ?
शर्मिंदा न करो, चली जाओ।
पड़ोसन मौसी से तो हमारी शान है,
वही तो अब सर्वमान, सर्वशक्तिमान हैं।
तुम्हारा ध्यान ही हमें टीस की गालियों में आता है
जब किसी को हृदय से कौसा जाता है।
तुम्हारा प्रयोग अब दुरुपयोग हो गया है
क्योंकि मौसी का जलवा तुमसे कहीं बड़ा है।
पर कुछ बात फिर भी है तुममें मेरी प्यारी हिंदी माँ
सपने आज भी मुझे तुझमें ही आते हैं,
आँसू भी तुझमें ही गाल भिगो जाते हैं
प्यार मुझे तुझमें जाहिर करते भाता है
क्योंकि ए हिंदी तुझमें अपनापन आता है।
तुझमें अपनापन आता है।
Thursday, July 20, 2017
चलो ढूँढे एक नया घर
आंटी जी..............
आती हूँ, रूको ज़रा..........
हमें तो तुम्हारा कोई सुख नहीं है। बस रात को सोने के लिए आती हो। ( दरवाजा खोलते हुए आंटी ने मुँह पिचकाते हुए कहा।)
आंटी क्या करें नौकरी की मजबूरी ही ऐसी है।
सुनो जी! एक नया किराये का मकान तलाश लो। अब लगता है यहाँ का समय भी पूरा हो गया। छः महीने भी नहीं हुए और..........
क्यों क्या हुआ? कुछ कहा आंटी ने?
हम्म्म्म............ कह रही थी कि उन्हें तो हमारा कोई सुख नहीं।
मुझे आज तक समझ में नहीं आया कि किरायदार से मकान-मालिक कौन-सा सुख चाहते हैं? हम किराया समय से पहले दे देते हैं। घर मंे कोई बच्चा नहीं, जो दीवारों का पोस्टर बनाए। कोई शोर-शराबा, तोड़-फोड़ नहीं। जाने-पहचाने शरीफ़ लोग हैं हम। कब्जे़ का कोई डर नहीं। सुरक्षा की कोई परेशानी नहीं। जैसा वे कहते हैं अपने सीमित समय से समय निकालकर भी वह सब कर देते हैं। फिर भला और कौन-सा सुख रह जाता है। आप ही बताइए मुझे?
क्या केवल पूरे दिन घर में रहने भर से सुख प्राप्त हो जाएगा। अगर मैं अपने कमरे मंे रहूँ और इन्हें बिलकुल बात न करूँ तो क्या इन्हें सुख मिल जाएगा। किराया समय पर न दूँ और शोर मचा-मचाकर जीना दूभर कर दूँ तो इन्हें अथाह सुख की प्राप्ति हो जाएगी। सुख की परिभाषा प्रत्येक व्यक्ति के लिए भिन्न होती है। पता नहीं इनकी परिभाषा में कौन-कौन से कठिन शब्द हैं जो मेरी तो समझ से बाहर हैं।
आपको याद है पहले वाली मकान-मालकिन ने कितना तंग किया था मकान से निकालने के लिए। सीधे तौर पर कुछ नहीं कहा परन्तु काम ऐसे किए कि हम भागते नज़र आए। क्योें करते हैं ये लोग ऐसे? क्या हमें कहीं रहने का अधिकार नहीं। किरायदार का अर्थ है किराया देकर रहने वाले। फिर भला और किस प्रकार की उम्मीदें लगाए रहते हैं ये!
हाँ! ये तो है। पर अचानक हुआ क्या उन्हें? तुमसे कोई बात हुई क्या?
नहीं-नहीं। मैं जब रात को आई और दरवाजा खोलने के लिए उन्हें आवाज़ लगाई तो बस अंदर से वो यहीं बोलती आई थी। अब आप ही बताइये सुबह हम दोनों साढ़े चार बजे साथ ही तो निकले थे। उसके बाद रात को आठ बजे मैं घर आई। इस बीच जब हम मिले ही नही तो भला मैंने क्या कह दिया उन्हें!
हाँ! लेकिन कल उनकी कुछ सहेलियाँ आई थी और मैं किसी काम से घर आकर सामान लेकर चली गई थी तो जरूर उन्होंने कुछ कहा होगा। मुझे उनके चेहरे के हाव-भाव तभी खटक गए थे।
आंटी बहुत अच्छी हैं परन्तु......................
‘‘तुम्हें तो अपने किरायदारों का कोई सुख नहीं बहन। ये तो घर में रहते ही नही। जब देखो बाहर ही रहते हैं। किसी परेशानी में तुम तो इन्हें बुला भी नहीं सकती। नौकरी-पेशा वालों को तो किरायदार ना ही रखो तो अच्छा है।’’
आंटी की सहेलियों के अनकहे भावों में ये शब्द स्पष्ट थे।
देखो तुम परेशान मत होओ और उनकी तरफ से भी सोचो। हम अब तक जितने मकानों में रहे हैं वहाँ केवल बुजुर्ग पति-पत्नी रहते थे। इस मोहल्ले में भी जितने घर हैं एक या दो को छोड़कर सभी में मात्र बुजुर्ग ही रहते हैं। स्थिति समझने की कोशिश करो। ये ही हमारा भी भविष्य है। इन सबके बच्चे इन्हें किसी भी परिस्थितिवश छोड़कर इनसे अलग रह रहे हैं। अपने सपनों के घर जिसे इन्होंने ताउम्र सजाया है, उसमें ये बुजुर्ग अकेले रह जाते हैं। अपने साथ किसी प्रकार की अनहोनी होने के भय से ये अपनी सुरक्षा के लिए किरायदार रखते हैं। वहीं दूसरी ओर जिन कारणों से इनके बच्चे इनसे दूर हैं, उन्हीं कारणों से हम स्वयं भी तो अपने माता-पिता से दूर हैं। यह समाज की अस्त-व्यस्त सी अवस्था है और गंभीर भी। समझ नहीं आता इस प्रकार बढ़ते समाज की नई तस्वीर क्या होगी!!! परिवार बिखर रहे हैं और साथ ही अकेलेपन का आसरा परायों में अपनापन तलाशकर ढूँढा जा रहा है। असुरक्षा की भावना से लिप्त निगाहें अनजाने परिवार से आशा करती हैं।
हमारी समस्या एवं स्थिति वही है जो आज इनके बच्चों की है। वे भी किसी अनजाने शहर में नौकरी की मजबूरी में अपने माता-पिता से दूर उनकी चिंता करते हुए किसी मकान को तलाश रहे होंगे। उन्हें भी कोई मकान-मालिक यह सोचकर मकान नहीं देना चाह रहा होगा कि नौकरी-पेशा लोग हैं इनके घर की सुरक्षा ही हमें करनी पडे़गी।
एक विचित्र-सा, अकल्पनीय, दिशाहीन समाज परन्तु वास्तविकता यही है?
हम्म्म्म..... इसका अन्तिम रूप क्या होगा? आपको क्या लगता है?
अन्तिम रूप का तो कोई अंदाजा नहीं परन्तु हल दो नज़र आते हैं। या तो ‘ओल्ड एज होम’ की संख्या में वृद्धि हो जायेगी या बुजुर्गां को अपने-अपने सपनों के घर का मोह त्यागकर बच्चों के साथ स्थानान्तरित होना होगा। यह प्रत्येक व्यक्ति अथवा परिवार का व्यक्तिगत् निर्णय होगा कि वह किसे प्रमुखता देता है। बहरहाल कुछ भी हो दोनों ही स्थितियाँ दुःखदायी हैं। परन्तु बढ़ती तकनीकी ने प्रतिस्पर्धा की गति के आवेग को अत्यधिक तीव्र कर दिया है। उससे कोई भी अछूता नहीं रह सकता। सभी को इस अंधी दौड़ में दौड़ते रहने की बाध्यता है। समस्या यह है कि दौड़ में सभी की गति भिन्न-भिन्न है। जिसके कारण हमारे कई अपने पीछे छूट जाते हैं और कई बहुत आगे निकल जाते हैं। उनसे बिछड़ने का अहसास हमें तब होता है जब हम खुशी और ग़म के अवसरों पर स्वयं को अकेला पाते हैं। आगे आने वाली तो प्रत्येक पीढ़ी पारिवारिक सुखों से वंचित ही रह जायेगी। उन्नति एवं परिवार वैकल्पिक हो जाएँगे। किसी एक का चयन कुंठा का जनक बन जाएगा। आज जिस बहुआयामी तरक्की के प्रति हम लालायित हैं, कल उसी पर हमें पछतावा होगा। परन्तु वर्तमान में कोई और विकल्प भी तो नही है।
खैर! चलो एक नये मकान की तलाश करते हैं। हमारी पीढ़ी का सुख तो न हमारे माता-पिता को है, न हमारे बच्चों को और न स्वयं हमें ही।
अपराधबोध
सभी अपने-अपने स्थान पर विराजमान अपने-अपने कार्यों में इस प्रकार लीन थे कि मानो उन्हें अपने कार्य से अधिक किसी भी प्रलोभन के प्रति कोई रूचि न हो। अत्यधिक कर्मठ। जबकि वास्तव में आज किसी का भी मन अपने किसी भी कार्य में बिलकुल नहीं लग रहा था। सभी की श्रवणेंद्रियाँ उस दरवाजे पर केंद्रित थी जो किसी भी क्षण खुल सकता था और जिसके खुलने की प्रतीक्षा पिछले एक घण्टे से सभी उत्कंठित कर रही थी। इस पसरे सन्नाटे एवं भ्रामक मुद्राओं के पीछे कोई गंभीर कारण तो अवश्य है।
तभी यकायक दरवाजे के पट खुलते हैं और समस्त दृष्टियाँ अपने-अपने महत्त्वपूर्ण कार्यों से विचलित हो, उस पर टिक जाती हैं। उसके चेहरे के भावों की विभिन्न व्याख्यायें व्यक्तिगत् विभिन्नताओं का स्पष्ट प्रतिमान प्रतीत हो रहीं थीं। किसी को भी किसी भी प्रकार के सकारात्मक परिणाम की आशा न थी। परन्तु ‘उम्मीद’ किसी चमत्कार की प्रतीक्षा में थी। उसके मुख पर तनाव निःसंदेह स्पष्ट रूप से दस्तक दिए हुए था। ऑफ़िस के प्रथम दिन से ही वह अंतर्मुखी थी, बिलकुल मिलनसार नहीं। किसी से अधिक बातचीत न करना और अपने कार्यों एवं चुनौतियों को गंभीरता से लेते हुए दक्षता से करना, यही उसके कार्य करने का तरीका था और कदाचित् ज़िंदगी जीने का भी। उसकी यही कर्तव्यपरायणता कुछ चाटुकारों को रास नहीं आती थी परन्तु फिर भी वह किसी की परवाह किए बिना अपनी दिनचर्या का पालन करती रहती।
आज कर्तव्यनिष्ठा-ईमानदारी और खुशामदी-बेइमानी के मध्य एक अकथित जंग थी। उसके मद्धम-मद्धम बढ़ते कदम हमारी हृदयगति में आवेग उत्पन्न कर रहे थे। हमारे सहकर्मियों के साथ हमारा व्यवहार दो प्रकार की भावनाओं से ओत-प्रोत होता है, एक- प्रतिस्पर्धा, दूसरी- ईर्ष्या। स्वस्थ प्रतिस्पर्धा तक हमारे संबंधों का स्वास्थ्य भी स्वस्थ रहता है। कुछ छुट-पुट घटनाओं को छोड़कर हम अपने प्रतियोगी के साथ अच्छा व उपयोगी समय व्यतीत करते हैं। परन्तु यदि भावनायें ईर्ष्या में लिप्त हों तो स्थिति अधिकतर गंभीर-विकराल हो जाती है जिसके परिणाम अधिकतर सरल, मेहनती, ईमानदार व कर्मठ व्यक्ति को ही भुगतने पड़ते हैं। अक्सर कुटिलता सरलता पर हावी हो जाती है। ऐसा ही कुछ हुआ मीरा के साथ भी।
पिछले कुछ दिनों में ऑफ़िस में अनेक नवीन नियुक्तियाँ र्हुइं। नया खून, नयी उमंग, नया जोश और जनून तथा जल्दी सफ़ल होने का चरसरूपी नशा। कुछ लोग वास्तव में उन पदों के योग्य थे परन्तु कुछ उन पदों को हथियाने की योग्यता में माहिर थे और अपनी इस कला का भरपूर दुरूपयोग भी कर रहे थे। इसी कारण वास्तविक योग्यता का आत्मविश्वास जीर्ण-शीर्ण हो रहा था और ऑफ़िस कर्मस्थल न रहकर युद्ध का मैदान बनता जा रहा था। हालाँकि इस घटना ने ऑफ़िस को दो वर्गों में विभाजित कर दिया था। एक समूह कर्मठता का और दूसरा चापलूसों का।
परन्तु वह पूर्णतः तठस्थ थी। किसी भी जमात में सम्मिलित न हो मात्र अपने कार्यों पर केद्रिंत रहनेे वाली कारिंदी। उसका यही विरला-विलक्षण व्यक्तित्व अकसर दूसरों में उसके प्रति ईर्ष्या उत्पन्न कर देता था और उसकी बरख़ास्तगी इसी का परिणाम थी।
कुछ दिन पूर्व नये चेयरमैन ने कार्यालय में काम करने के संबंध में कई नये निर्देश सूचना-पट पर चस्पा कराये जिनमें से सर्वाधिक जोर किसी भी कर्मचारी द्वारा ऑफ़िस के समय में फ़ोन का प्रयोग न करने पर था। आवश्यक कार्याें के लिए मात्र ऑफ़िस के फ़ोन ही प्रयोग किए जा सकेंगें, जिसके लिए प्रत्येक की सीट पर इंटरकोम की सुविधा उपलब्ध करा दी गई थी। सभी को अपने फ़ोन ऑफ़िस के बाहर कंट्रोल रूम में ही जमा करके जाना होगा।
यद्यपि सभी ने इस आदेश का भरसक विरोध किया परन्तु चापलूसों के एक बड़े समूह ने इस आदेश को अम्ल में लाना शुरू कर दिया और चेयरमैन साहब का सहयोग किया। सहकर्मियों द्वारा उनकी भर्त्सना का स्पष्टीकरण वे कुछ इस प्रकार देते- ‘‘हम यहाँ काम करने आते हैं और अगर हम अपना काम अच्छे से कर रहे हैं तो हमारा फोन कहीं भी रहे क्या फ़र्क पड़ता है!’’
सत्य ही कहा। उन्हें भला क्या फ़र्क पडेगा। फ़र्क तो उन्हें पड़ता है जो वास्तव में ईमानदारी से अपना काम कर रहे हैं। जो बेइमानी में माहिर हैं, वे तो नियमों को तोड़ने का हुनर जानते हैं। हुआ भी यही। कर्मठ लोग कुढ़ते हुए नियमों का पालन कर रहे थे, बेइमान निर्लजता से मनमानी कर रहे थे। साथ ही चुगली रस का आस्वादन कर अधिकारियों के पसंदीदा व्यक्तियों की जमात में भी शामिल थे।
ऑफ़िस में घुटन बहुत बढ़ गई थी। सभी का मन व्यथित था यहाँ काम करने में। अति हर चीज की बुरी होती है और बुराई का अंत करने वाला कोई न कोई निर्भीक नेता अवश्य कहीं से भी निकल आता है। हुआ भी यही। इस नियम को सर्वप्रथम खुली चुनौती दी मीरा ने। किसी को भी इसकी आशा न थी। सभी की उम्मीद से परे था यह सब। परन्तु उसने ऐसा ही किया।
वह फ़ोन जबरन ऑफ़िस में लेकर आने लगी। ऐसा भी नही है कि वह सारा समय फ़ोन पर ही व्यतीत करती थी। यदा-कदा उसे फोन का प्रयोग करते देखा गया होगा, वह भी अति लघु वार्ता के साथ। उस दिन उसके घर से कोई महत्त्वपूर्ण फ़ोन आया। उसे सुनती हुई वह कुछ विचलित भी प्रतीत हो रही थी, तभी न जाने कहाँ से अचानक चेयरमैन साहब उसके सामने आ खड़े हुए। सभी हक्के-बक्के रह गए। वे अचानक से ऐसे इतने बड़े ऑफिस में.................... नहीं! अवश्य ही किसी ने उन्हें सूचित किया था।
वे मौन रहे। मीरा को भी उन्होंने कुछ नहीं कहा। मात्र कुछ क्षण घूरा और फिर चले गए। हम सबने सोचा कदाचित् बला टल गई और पूरा दिन कुछ खुसर-पुसर के साथ बीत गया। लाज़िमी है मीरा तनाव में थी। पहली बार उसे बिना कुछ काम किए हथेलियों से मुँह ढके बैठे देखा। बहुत परेशान थी वह आज।
अगले दिन सुबह रिसेप्शन पर ही मीरा को रोककर एक लिफ़ाफ़ा दिया गया। हम सभी ने सोचा, अवश्य ही उसे ‘कारण बताओ नोटिस’ दिया गया होगा। पास ही खड़ी उसकी एक सहकर्मी तिरछी निगाहों से उसके उस लिफ़ाफे़ में से निकले नोटिस को पढ़ने का प्रयास कर रही थी। हमारी नज़रंे लिफ़ाफ़े और मीरा के चेहरे से अधिक पास खड़ी सहकर्मी की भाव-भंगिमा पर थी। अचानक निकली एक लंबी चीख ‘नो........’ ने सभी के सम्मोहन को भंग कर दिया।
नहीं यार! ये सही नही है। ऐसा कैसे कर सकते हैं!! पहले कोई नोटिस तो दिया जाता है। नो!!! ये गलत है।
हमने आश्चर्य से पूछा क्या हुआ मीरा? अवाक् खड़ी मीरा कुछ न बोल सकी।
हमने वह पत्र उसके हाथ से लेकर पढ़ा। मीरा को नौकरी से निकाल दिया गया था। अनुशासनहीनता के आरोप के साथ।
हम पत्र पढ़ ही रहे थे कि मीरा ने तपाक् से वह हमारे हाथ से छीन लिया और दामिनी की भाँति चेयरमैन के ऑफ़िस की ओर बढ़ गई।
तब से एक घण्टा हो गया। हम सबकी नज़र उस दरवाजे पर लगी थी जहाँ चेयरमैन और मीरा के बीच सघन वार्तालाप चल रही थी। किसी को नहीं पता वहाँ क्या हुआ? बस मीरा के चेहरे के भाव और हमारा अनुमान!!!!!
मीरा चली गई। शायद चेयरमैन ने उसकी बात नहीं सुनी। शायद मीरा इस ऑफ़िस में अब कभी नहीं आएगी। यह एक निराशाभरा दिन था और चर्चाओं का सिलसिला जारी था।
अगले दिन सभी को ई-मेल के माध्यम से एक बजे की मीटिंग की सूचना प्राप्त हुई। सभी के बीच अजीब-सा भय व्याप्त था। कुछ व्यक्ति मीरा को भी कोस रहे थे कि वह हमारे लिए गड्ढ़ा खोद गई। क्या ज़रूरत थी उसे ऑफ़िस में फ़ोन का प्रयोग करने की! मीटिंग रूम के अंदर व्याकुल हम सभी चेयरमैन का इंतज़ार कर रहे थे कि तभी मीरा और चेयरमैन के एक-साथ प्रवेश ने सभी को चौंका दिया। मीरा ने चेयरमैन के पीछे से घूमते हुए हम सभी के सम्मुख अपना स्थान ग्रहण किया। सभी के कंठ में समान स्वर थे- ‘ये क्या हुआ?’
चेयरमैन ने माइक संभालते हुए बोलना शुरू किया-
आप सभी का स्वागत है। आप लोग सोच रहे होंगे कि अचानक सभी को यहाँ क्यों बुलाया गया? और मीरा यहाँ क्या कर रही है?
जी हाँ! आपके भाव मैं अच्छे से पढ़ पा रहा हूँ। कल जो घटना इस ऑफ़िस में घटित हुई उसके लिए मीरा को पदच्युत कर दिया गया और ऐसा भी नहीं कि उसका पुनः इस आफ़िस में किसी भी प्रकार का स्वागत किया जा रहा है। बस कल हुई हमारी एक घण्टे की वार्ता उसकी बखऱ्ास्तगी वापसी के लिए न होकर इस मीटिंग के लिए हुई थी। मीरा चाहती थी कि वह अपनी बात सबके सामने इस मीटिंग के माध्यम से रखे। मुझे स्वयं यह अत्यन्त विचित्र लगा। मैं सोच रहा था कि इतनी मेहनती लड़की ने इस प्रकार का व्यवहार क्यों किया! साथ ही वह अपनी बर्ख़ास्तगी के लिए संघर्ष न कर इस मीटिंग के लिए हठ कर रही है। सच कहूँ तो मैं मीरा को सुनने के लिए बहुत उत्सुक हूँ और भयभीत भी कि कहीं मीरा हम सभी का समय तो बर्बाद नहीं कर देगी!!
बहरहाल मैं माइक मीरा को देता हूँ। आओ मीरा।
मीरा ने माइक संभालते हुए सभी का अभिवादन किया और चेयरमैन सर को इस अवसर के लिए धन्यवाद दिया। मीरा ने कहना शुरू किया-
चेयरमैन सर के शब्दों को ध्यान में रखते हुए मैं कोशिश करूँगी कि आपका समय नष्ट न हो और सीधे ही अपनी बात कहना शुरू करती हूँ। इस मीटिंग के माध्यम से मैं आपको बताना चाहती हूँ कि मैंने फ़ोन का प्रयोग क्यों किया।
बात तीन वर्ष पूर्व की है। मैं अपने कार्य में बहुत अधिक लीन और व्यस्त थी। तभी एक फ़ोन बजता है। नम्बर देखा तो सुधीर का फोन। मैंने फ़ोन नहीं उठाया और अपने काम में पुनः लीन हो गई। परन्तु फ़ोन फिर बजा। मैंने फ़ोन उठाते ही बिना एक शब्द सुने बोला, ‘‘सुधीर! अभी व्यस्त हूँ, तुम्हें बाद में फ़ोन करती हूँ।’’
सुधीर!!! जिससे न कोई खून का रिश्ता था और न ही सामाजिक भय से जबरन बनाया गया भाई रूपी बंधन। बस व्यवहार और दिल का रिश्ता था उससे। मेरी माँ को मम्मी बुलाता था वह। मैं न दोस्त थी न बहन और न ही प्रेमिका। नामविहीन एक-दूसरे के प्रति सम्मान एवं आदर-भाव का रिश्ता। हमें जब एक-दूसरे की सहायता की आवश्यकता होती तो कभी-कभार बात हो जाती थी। उसका बैंक में चयन हुआ तो मम्मी का आशीर्वाद लेने व मिठाई देने वह आया था। उस दिन उसका फ़ोन कई महीनों बाद आया था।
काम से निर्वृत होकर मैंने सुधीर को फ़ोन किया। उसका फ़ोन नहीं लगा। उसके दूसरे नम्बर पर मिलाया वह भी नहीं मिला। मैंने एक-दो बार प्रयास और किया और फिर भूल गई।
सात महीनों बाद एक कॉमन मित्र के माध्यम से मुझे ज्ञात हुआ कि सुधीर इस दुनिया में नही रहा। उसने आत्महत्या कर ली। लगभग सात माह पूर्व हमारे ही एक अन्य मित्र ने उसके मृत शरीर को पोस्मार्टम के लिए जाते हुए देखा। मैं सन्न रह गई।
लगभग सात माह पूर्व, जब उसने मुझे फ़ोन किया था, वह मुझसे अपनी परेशानी साँझा करना चाहता था। वह मुझसे कुछ कहना चाहता था। वह बच सकता था यदि मैंने काम को इतनी प्रमुखता न दी होती। बस एक बार उससे यह पूछ लेती कि सुधीर सब ठीक है न। बस एक बार उसे हैलो के बाद बोलने का मौका दे देती। बस एक बार.............
यह एक मौका फिर कभी नहीं मिला। वह मर गया। मेरी वजह से। मेरी काम के प्रति धुन की वजह से और कदाचित् मेरी महत्त्वकाँक्षाओं की वजह से।
हम सभी इतने भौतिकवादी एवं आत्मनिष्ठ हो गए हैं कि स्वार्थपूर्ति वाले संदर्भों के लिए हमारे पास समय है अन्यथा अन्य किसी व्यक्ति, भावना अथवा संबंध के लिए हम अत्यधिक व्यस्त हैं। कितनी ही बार हमारे परिजन हमें जरूरी सूचना देने के लिए तड़पते रह जाते हैं परन्तु फ़ोन पर प्रतिबंध के कारण हम किसी अपने को खो देते हैं। वास्तव में जिनके लिए यह प्रतिबंध है वे सभी इसका बेहिचक एवं निर्भीकता से प्रयोग कर रहे हैं। परेशान होते हैं तो सच्चे, ईमानदार एवं कर्तव्यनिष्ठ लोग। मैं आज भी सुधीर की ‘गैर-इरादतन हत्या’ के अपराधबोध से ग्रसित हूँ। ऐसा कोई दिन नहीं जब वह मेरी स्मृति में न आता हो। ऐसा कोई दिन नहीं जब मैं वापस फिर उसी पल में लौटकर उसका फ़ोन सुनना न चाहती हूँ। ऐसा कोई दिन नहीं जब मैं उसे पुनः जीवित न करना चाहती हूँ।
मैं फिर किसी और हत्या का भार वहन करने की स्थिति में नहीं हूँ इसलिए मैं सहर्ष आपकी संस्था छोड़ने के लिए तैयार हूँ। आशा करती हूँ कि मैंने आपका अमूल्य समय नष्ट नहीं किया होगा। धन्यवाद।
(अपनी बात कहकर मीरा चली गई। सब विचारशून्य हुए स्तब्ध बैठे रह गए।)
(यह मात्र कहानी न होकर मेरे स्वयं के साथ घटित सत्य घटना है। निवेदन है कि आप सब भी इस घटना के सबक से प्रेरित हो अपने किसी प्रियजन को आहत होने से बचा लें।)
Tuesday, March 7, 2017
डियर जिं़दगीः डियर बच्चे
रात के एक बजे का सन्नाटा और ‘‘डियर जिं़दगी’’ का अन्तिम दृश्य। एक अनोखी, भिन्न एवं संवेदनशील विषयक फ़िल्म। अत्यन्त खास। ‘खास’ इसलिए कि यह कहीं न कहीं, किसी न किसी प्रकार से हम सबकी ज़िंदगियों एवं जीवन-शैलियों से संबंधित है। कदाचित इसीलिए इसकी कहानी दिल को न केवल छू गई अलबत्ता दिल को ‘लग’ गई। बाध्य कर दिया इस फ़िल्म ने रात के एक बजे लिखने के लिए। अनिंद्रा ने प्रातःकाल की प्रतीक्षा की अनुमति प्रदान नहीं की। भोर का विलम्ब कहीं भावनाएँ की आँधी के वेग को कम न कर दे। एक भी संवेदना अलिखित न रह जाए। इस भगौडे़ वक्त का भी तो भरोसा नहीं।
इस विषय पर आरंभ करने से पूर्व फ़िल्म की निदेशिका ‘गौरी शिंदे’ को बहुत-बहुत धन्यवाद एवं शुभकामनाएँ, जिन्होंने इतने संजीदा विषय को इतनी खूबसूरती से प्रस्तुत किया। समस्त अभिनेता एवं अभिनेत्रियों को बधाई। मुख्यतः आलिया भट्ट। आलिया से बेहतर इस भूमिका को कोई और अभिनेत्री निभा ही नही सकती थी।
बहरहाल, पुनः फ़िल्म के विषय की ओर ध्यानस्थ होते हुए। ‘‘बच्चे’’, ढाई अक्षर का बेहद वजनी शब्द। एक अकथित जिम्मेदारी। हमारे जीवन की अभिन्न एवं अनमोल धुरी। प्रत्येक परिस्थिति में इनकी ढाल बन हम इन्हें प्रसन्न एवं सम्पन्न देखना चाहते हैं। हमारे दिन-रात मात्र इनके दुःख-सुख की चिंता में व्यतीत होते हैं। उनके भविष्य के लिए विचलित एवं चिंतित, उनके वर्तमान के लिए भयभीत, उनके लिए विभिन्न योजनाएँ बनाते-बनाते हम अपने सुख एवं आनंद से बेपरवाह हो गए हैं। हालांकि उन्हें एक अच्छा एवं समृद्ध जीवन देने की हमारी अति-अभिलाषा ने हमें कहीं यथार्थता से दूर भी किया है परन्तु माता-पिता ऐसे ही होते हैं। अपने अरमानों एवं स्वपनों की आहुति से बच्चों के उज्ज्वल भविष्य को प्रदीप्त करते ‘माता-पिता’।
परन्तु यदा-कदा त्यागों की श्रृंखला लम्बी करते-करते हम बच्चों की हमसे वास्तविक अपेक्षाओं की अवहेलना कर जाते हैं। बलिदानों की कृतज्ञता से बच्चों को दबाकर उनके सम्मुख हम अपनी महानता एवं श्रेष्ठता प्रस्तुत करना चाहते हैं। परन्तु क्या वास्तव में हमारे बच्चे हमारी उस महानता के लोभी हैं? या वे हमसे कुछ और ही आस लगाए हैं? इस फ़िल्म की बात करें तो ‘कायरा’ जिसके इर्द-गिर्द यह सारी पटकथा घूम रही है, वह अपने माता-पिता से वास्तव में क्या चाहती है, यह वे समझ ही नहीं सके। उसके माता-पिता उसकी भलाई समझते हुए उसे उसके नाना-नानी के पास छोड़ अपना बिजनेस सेट करने चले जाते हैं। किंतु एक बच्चे के मृदुल मन पर उसका क्या प्रभाव पड़ता है, इससे वे अनभिज्ञ थे।
मुझे अपनी मित्र की एक बात अक्सर याद आती है और अपने बच्चे के प्रति संवेदनशील रहने के लिए कभी उस बात को विस्मृत नहीं किया जा सकता। मैं नहीं चाहती कि कभी अज्ञानतावश भी मैं वह भूल कर जाऊँ, जिसका दुष्प्रभाव उसके मस्तिष्क पर अमिट छाप छोड़े हुए है। मेरी मित्र की मम्मी उसे दो माह की आयु में छोड़कर विदेश घूमने चली गई थी। आज भी वह पैतींस वर्षीय मित्र अपनी माँ से इस बात के लिए रूष्ट है। एक प्रश्न उसे बार-बार कौंधता हैै- ‘‘क्या घूमना मुझसे भी अधिक आवश्यक था माँ?’’ गौरतलब यह भी है कि दो माह की बच्ची के साथ घटित इस घटना को किसने और किस प्रकार उसके सम्मुख प्रस्तुत किया? ऐसा क्या बताया या सिखाया गया कि उसके मासूम मन पर इतनी गहरी चोट लगी। संभवतः उसकी माँ घूमने न जाकर किसी विशेष कार्य के लिए गई हो। कुछ भी हो सकता है परन्तु बाल-मन पर उन बातों का क्या प्रभाव पड़ा, यह विचारणीय है।
मेरे संज्ञान में ऐसी कई महिलाएँ हैं जो मुरादाबाद से मेरठ प्रतिदिन यात्रा कर नौकरी कर रही हैं। उनके गन्तव्य तक का आने-जाने का सफ़र लगभग 300 किमी. प्रतिदिन है। प्रातः तीन बजे उठना। कभी ट्रेन तो कभी बस। सुबह-सुबह की परेड। मार्ग में प्रतिदिन एक नया अनुभव। विभिन्न प्रकार के लोग। कई स्वस्थ व्यक्ति के रूप में मनोरोगी। प्रतिदिन जीवन का खतरा। सुबह निकले तो हैं पर रात को घर लौटंेगे या नहीं। कभी रात को सात बजे घर आना, तो कभी नौ बजे। तीन बजे से भागते-भागते रात को बारह बजे तक भागना। उनमें से कई महिलाओं के पति भी किसी अन्य शहर से आते-जाते इसी प्रकार का जीवन व्यतीय कर रहे हैं। दिनभर अपनी-अपनी नौकरी कर ये पंक्षी रात को अपने रैन-बसेरे में वापस लौट आते हैं। वे दोनों मात्र एक प्रश्न के भय से भाग रहे हैं- ‘‘आप दोनों मुझे नाना-नानी के घर छोड़कर पैसा कमाने चले गये थे। आपको आपके करियर से प्यार था, मुझसे नहीं। मुझे आप दोनों चाहिए थे पैसा नहीं।’’
इन वाक्यों के भय ने उन सबकी ज़िंदगी का रूख मोड़ दिया है। बहुत सरल-सा प्रतीत होता है यह ‘अप-डाउन’ शब्द। परन्तु इसके पीछे के कष्ट कई बार असहनीय हो जाते हैं। रात की नींद से रू-ब-रू मात्र छुट्टियों में ही हो पाते हैं। जब सारी दुनिया भयंकर सर्दियों में रात के तीन बजे की गहरी नींद में मूर्छित-सी होती है उस समय इनकी रसोइयों में खाना पक रहा होता है। नींद की तो मानो इनसे शत्रुता गई हो। थकान ने स्थाई तौर पर इनकी देह में प्रवेश कर लिया हो। अब तो अहसास होना भी बंद हो गया है। रात को अपने बच्चे के चंद घंटों के साथ के लोभ में ये प्रतिदिन भागते रहते हैं। अगले दिन की भागदौड़ के लिए जब ये बच्चे को रात को नानी-दादी के घर छोड़कर जाते हैं तो बच्चे के द्वारा प्रतिदिन कहे जाने वाले शब्द ‘मम्मी जाना नहीं’ आज यह फ़िल्म देखकर डरा रहे हैं। कहीं कल हमारे बच्चे हमसे यह शिकायत तो नहीं करेगें कि आप तो मुझे छोड़कर चले जाते थे! शायद इसीलिए रात के एक बजे विचारों की भँवर में डूबे नींद का दामन छोड़ कलम को उँगलियों में सुशोभित कर दिया है। क्या समझा पाएँगे ये माता-पिता अपने बच्चों को अपनी मजबूरी, अपनी जटिलताएँ। क्या समझ पाएगा वह कभी कि क्यों उसके माता-पिता उसे छोड़कर जाने के लिए बाध्य हैं?
न जाने कितने माता-पिता अपने बच्चों व परिवार के लिए प्रतिदिन के खतरों व कष्टों को झेलते हुए नौकरी कर रहे हैं। कितनी ही माएँ अपने दूधमुहे बच्चे के साथ सामान के बोझ से लदी अकेली ही ट्रेनों व बसों का सफ़र करती हैं। अपने परिवारों से हजारों किमी दूर, अनजानी जगह-अनजाने शहर में परेशान-बेबस। केवल माँ ही नहीं वरन् लाखों पिता भी अपने बच्चों से दूर उनके सुखी भविष्य के लिए नौकरी की मजबूरी में अलग-अलग शहरों से सफ़र करते हैं। एक समाचार-पत्र के अनुसार लगभग डेढ लाख लोग मेरठ से दिल्ली प्रतिदिन सफ़र करते हैं। यह आँकड़ा मात्र मेरठ से दिल्ली के बीच के मुसाफ़िरों का है। और भी न जाने कितने शहरों एवं गाँवों की इसी प्रकार की स्थिति है। यह सही है कि सबको मनपसंद स्थान पर काम मिलना या सरकार की तरफ से दिया जाना सरल नहीं। परंतु जहाँ सरल किए जाने की संभावना एवं साधन हैं, वहाँ तो प्रयास किए जाने चाहिए। यात्रा के सुगम एवं सुरक्षित परिवहन साधनों की व्यवस्था, महिलाओं के लिए ट्रांसफर के सरल नियम, नौकरी के स्थान की परिसीमा में रहने की बाध्यता समाप्त करना इत्यादि।
सामाजिक प्रतिष्ठा से लेकर पारिवारिक दायित्वों के निर्वहन तक ‘नौकरी’ शब्द अपनी अहम भूमिका निभाता है। यह मजबूरी भी है और आवश्यकता भी। परन्तु इन सबके साथ-साथ एक अन्य शब्द की भी अवहेलना नहीं की जा सकती। वह है परिवार। मुख्यतः बच्चे। देश, परिवारों से बनता है और यदि परिवार ही बिखर जाएंगे तो देश के अस्तित्व की कल्पना ही बेमानी है। यदि प्रत्येक व्यक्ति अपने देश को एक शिक्षित एवं संस्कारी परिवार दे दे तो देश से भ्रष्टाचार, बेइमानी, अपराध जैसे व्याधियाँ स्वतः कम हो जाएंगी। ‘‘कोई व्यक्ति देश के लिए कितने घंटे कार्य करता है, से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है वह देश के लिए किस प्रकार के कार्य करता है’’। यदि व्यक्ति अपने कार्यस्थल पर संतुष्ट नहीं है और अपने परिवार तक वह कुंठा लेकर जाता है तो निश्चित रूप से उसके परिवार में संतोष-सुख जैसे शब्दों को स्थान नहीं मिल सकेगा। और यहीं से परिवार की खूबसूरत तस्वीर बदरंग होनी शुरू हो जाएगी। परिणामस्वरूप जाने-अनजाने व मजबूरी में ऐसे परिवारों में अपराधिक प्रवृत्तियों का जन्म होना प्रारंभ हो जाता है। हम भारत में अमेरिका की कल्पना करते हैं। ब्रेन-डेªन की आलोचना करते हैं। परन्तु इसके पीछे के वास्तविक कारणांे का सामना नहीं करना चाहते। कितनी ही बार यह विषय चर्चा में रहता है कि भारत का टेलंेट बाहर विदेशों में क्यांे जाता है? कारण स्पष्ट है, जिसे हम ‘जॉब सेटिस्फैक्श’ के नाम से भी जानते हैं।
बहरहाल बात शुरू की थी ‘डियर ज़िंदगी’ से। निश्चित रूप से बच्चे मासूम होते हैं। वे प्यार के साथ-साथ आपका स्नेही स्पर्श भी चाहते हैं। आपकी व्यस्तताओं को समझने की समझ उनमें नहीं होती। बहुत सरल एवं ज़िंदगी की कटुता से अनभिज्ञ ये मासूम न जाने किस बात पर आपसे नाराज हो जाएं, आप समझ भी न सकेंगे और ये कह भी न सकेंगे। ‘काम-काम-काम’ ये भाषणों तक रहने दे लेकिन वास्तविक जीवन में परिवार को समय दें। विशेष रूप से बच्चों को। उनका बचपन फिर कभी नहीं लौटेगे। उनकी नन्हीं शरारतें जो आज आपको परेशान भी कर जाती है अगर खामोश हुई तो तड़प उठंेगे आप। ख्याल रखिए उनका।
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