
अहितकारी कट्टरता
राहुल गांधी के हिंदू कट्टरपंथी संगठनों को खतरनाक बताये जाने वाले वक्तव्य ने सभी हिंदूवादी लोगों की भावनाओं को ठेस पंहुचायी। परन्तु यदि गहतापूवर्क विचार किया जाये तो यह बात कहीं हद तक औचित्यपूर्ण भी है। कट्टरता चाहे धर्म की हो अथवा अधर्म की, कभी हितकारी नहीं हो सकती। नकारात्मक भाव लिए यह शब्द स्वार्थ तत्व से लिप्त होता है। इसी का परिणाम है कि भारत के हिंदूत्व को आजादी के इतने वर्षाें के पश्चात् आतंकवाद के तगमे से संघर्ष करना पड़ रहा है। आजादी का संघर्ष सम्मानीय था, है और रहेगा क्योंकि वह वैचारिक, औचित्यपूर्ण, जनहितवादी व देश के सम्मान के लिए था परन्तु हिंदूत्व का यह संघर्ष जो इस धर्मनिरपेक्ष देश में विभेदीकरण के बीज पल्लवित कर रहा है, निश्चित रूप से आतंकवाद की श्रेणी में सम्मिलित होने की ओर उन्मुख है। राजनीति के स्वाद ने इसके उद्देश्यों को भ्रमित कर दिया है। राष्ट्रवाद का तात्पर्य राष्ट्र के एकीकरण से है जिसमें सभी धर्म, जाति व सम्प्रदाय सम्मिलित हो और देशभक्ति की भावना का प्रतिनिधित्व करें। परन्तु हिंदू कट्टरपंथियों की राष्ट्रवाद की परिभाषा तो धार्मिक संघर्ष को जन्म दे रही है। त्याग, दया अहिंसा, परोपकार के संदेश देने वाले भारत में कट्टरता इन शब्दों की पर्यायवाची कदापि नहीं हो सकती। देश को संगठित करने के लिए वैचारिक तरलता की आवश्यकता है। तभी आदर्श भारत का निर्माण हो सकता है।
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