Monday, May 16, 2011

असुरक्षित विद्याभवन

असुरक्षित विद्याभवन

टीचर इज लाइक ए कैंडिल! ये कैंडिल अब विद्यार्थियों के मार्गदर्शक के रूप में नहीं अपितु विद्यार्थियों के भविष्य को खाक करने व शोषक के रूप में अपनी विशिष्ट भूमिका निभा रही है। शहर के एक नामी पब्लिक स्कूल में ग्यारहवीं की छात्रा के साथ गुरू द्वारा किया गया अभद्र व अश्लील व्यवहार गुरूओं की शरण व मार्गदर्शन की विश्वसनीयता को संदेह के घेरे में खड़ा कर रहा है। विद्या के मंदिर में उपासक रूपी विद्यार्थियों के साथ किये जा रहे इस प्रकार का घृणित कृत्य पुजारी रूपी अध्यापकों की चारित्रिक व शैक्षिक योग्यताओं पर प्रश्न चिन्ह लगा रहे हैं। वस्तुतः पथभ्रष्ट हो रहे हैं इस प्रकार के शिक्षक जो शिक्षा को व्यापार बनाये हुए हैं। भोग-विलास की भावनाओं से लिप्त इनका स्तर दिन-प्रतिदिन गिरता ही जा रहा है। शारीरिक दंड़, ट्यूशन के लिए बाध्य करना इत्यादि से गिरते-गिरते अब कुटिल दृष्टि व चरित्रहीनता का चोला भी पहन लिया। कितनी शर्मनाक स्थिति है! स्कूल-कॉलेज के बाहर पुलिस खड़ा कर, गुण्डा दमन दल बनाकर प्रशासन अपनी बाह्यय जिम्मेेदारी से तो निवृत्त हो गया परन्तु आन्तरिक सुरक्षा का आधार क्या हो? यह किस प्रकार प्राप्त होगी? इस छात्रा के अभिभावक व स्वयं छात्रा का सशक्त हो उठाया गया पुलिस रिपोर्ट करने का कदम निःसन्देंह सरहानीय है परन्तु इस प्रकार के निकृष्ट कर्माें की न जाने कितनी छात्राएँ चुपचाप शिकार हो रही हैं। उनकी सिसकियों की आहट किसी तक नहीं पहुँचती। आखिर क्यों विद्यालय प्रशासन आन्तरिक सुरक्षा के प्रश्न पर निर्लज्ज हो जाता है? वास्तव में इन मामलों को व्यक्तिगत समस्या मानकर संगठित न होने के कारण हार का सामना करना पड़ता है। यदि सभी अभिभावक एकत्र हो इस प्रकार की घटनाओं का विरोध करें तो अवश्य ही हमारी बच्चियाँ किसी भी प्रकार के शोषण का शिकार होने से बच जायेंगी।

अपराध, समाज और पत्रकारिता

अपराध, समाज और पत्रकारिता
वर्तमान मानव-समाज अनेक जटिल समस्याओं से गुजर रहा है। इन समस्याओं में अपराध प्रमुख है। मानव-सभ्यता के विकास के साथ-ही-साथ अपराधों की मात्रा मंे निरन्तर वृद्धि होती जा रही है। अपराधों की मात्रा में निरन्तर वृद्धि के कारण ही ऐसा प्रतीत होता है कि आधुनिक सभ्य समाज में अपराध के सामाजिकरण की प्रक्रिया गतिशील है। यदि सामाजिक व्यवस्था सुदृढ़ है, आर्थिक सम्पन्नता है, पारस्परिक सद्भाव है, सांस्कृतिक जागरूकता है और समाज में प्रेम, दया, करूणा आदि मानवीय गुणों को महत्व दिया जाता है तो अपराध की घटनाएँ कम होंगी। इसके विपरीत सामाजिक, अव्यवस्था, विपन्नता और सांस्कृतिक चेतना शून्य समाज मंे अपराध बढ़ेंगे। अतः यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि समाज में शान्ति और व्यवस्था बनाए रखने और आपराधिक प्रवृŸिायों पर अंकुश रखने के लिए एक व्यवस्थित, सुसंस्कृत और जागरूक सामाजिक संरचना बहुत ही आवश्यक है।
प्रेस की भूमिका इस मामले में बहुत महत्व रखती है। एक जिम्मेदार प्रेस अपने समाचारों की प्रस्तुति से समाज में सद्गुणों को बढ़ावा देता है और लोगों में जागरूकता फैलाता है। विकासशील लोकतान्त्रिक देशों में प्रेस का महत्व इसीलिए बहुत अधिक माना जाता है। यही कारण है कि पुराने मनीषियों ने पत्रकारिता का उद्देश्य और संकल्प सामाजिक योगक्षेम माना है। यद्यपि प्रेस सही अर्थाें मेें सामाजिक दर्पण की भूमिका निभाता है फिर भी इसको अपनी इस भूमिका के निर्वाह मेें सामाजिक जिम्मेदारियांे के आदर्श को सम्मुख रखना चाहिए। आदर्श पत्रकारिता अतीत के परिप्रेक्ष्य में वर्तमान पीढ़ी को भविष्य के लिए तैयार करती है। वर्तमान समस्याओं के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डालकर वर्तमान पीढ़ी को उन पर सोचने, समझने एवं समाधान प्रस्तुत करने के लिए अनुप्रेरित करती है। पत्र-पत्रिकाओं की निर्भीक वाणी न्यायसंगत सामाजिक-व्यवस्था की स्थापना में सहायक हो सकती है, अन्यायी-अपराधी-भ्रष्टाचारी को कठघरे के पीछे खड़ा कर सकती है, जन-सामान्य को समुचित दिशा-निर्देश और प्रशिक्षण दे सकती है तथा जन-जागृति एवं दायित्वबोध के गुरूतर दायित्व का निर्वाह कर सकती है।
वहीं दूसरी ओर आज पत्रकारिता के उद्देश्य और लक्ष्य बदल रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि आज पत्रकारिता मिशन न रहकर पेशे में बदल चुकी है। मात्र नवीनतम सत्य सूचनाओं की पकड़ के लिए सनसनीखेज ख़बर को और भी तीव्र रंग देकर प्रकाशित करते हैं। इसके लिए आपराधिक घटनाआंे का चयन किया जाता है।
आज पाठकों के लिए भी रोमांच उत्पन्न करने वाली खबरें होती है-‘आपराधिक ख़बरें। सभी आयु-वर्ग व सभी जाति-धर्मों के लोग, अमीर-गरीब सभी इन ख़बरों को उत्सुकता व रूचि के साथ पढ़ते हैं। ऐसा नहीं है कि समाज में आपराधिक प्रवृति का संचार हो रहा है इसलिए लोग इन ख़बरों को पढ़ने में रूचि रखते हैं अपितु ये ख़बरें समाज को उनके आस-पास हो रहे अपराधों से सचेत करती हैं। अपराधी आपराधिक घटनाओं को किस प्रकार अंजाम देते हैं, किस क्षेत्र-मौहल्ले में अपराध बढ़ रहा है, अपराध का स्वरूप क्या है, यहाँ तक कि इन अपराधों से स्वयं की रक्षा किस प्रकार की जा सकती है- इन सभी प्रश्नों के उत्तर मिलते हैं ‘अपराध पत्रकारिता से’। अपराध पत्रकारिता के समाज पर सकारात्मक प्रभाव अग्रलिखित हैं-
1ण् अपराध पत्रकारिता समाज में जागरूकता लाने का सशक्त माध्यम है।
2ण् अपराध की ख़बरों का प्रकाशन सरकारों के भ्रष्ट-तंत्र पर अंकुश लगाता है।
3ण् सामाजिक सचेतता लाने में अपराध पत्रकारिता महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
4ण् विभिन्न प्रकार से हो रहे अपराधों से बचाव के उपायों का ज्ञान अपराध पत्रकारिता के माध्यम से होता है।
5ण् अपराध के तरीकों की पूर्व जानकारी होने से बचाव हेतु मानसिक मजबूती प्राप्त होती है।
परन्तु प्रश्न यह उठता है कि क्या अपराध पत्रकारिता अपने वास्तविक उद्देश्य को प्राप्त कर रही है? क्या अपराध पत्रकारिता के नकारात्मक प्रभाव सकारात्मक प्रभावों पर भारी नहीं पड़ रहे हैं? क्यों अपराध पत्रकारिता समाज को सही दिशा प्रदान करने में असफल हो रही है? अपराध पत्रकारिता की अतिश्योक्ति समाज को सच से दूर कर पथभ्रष्ट नहीं कर रही है? इन प्रश्नों के उत्तर अपराध पत्रकारिता के समाज पर पड़ने वाले अग्रलिखित नकारात्मक प्रभावों का विश्लेषण कर समझा जा सकता है-
1ण् समाचार-पत्रों की अविवेकपूर्ण अपराध रिपोर्टिंग के कारण समाज अपराध करने की ओर उन्मुख हो रहा है।
2ण् आपराधिक घटनाओं के प्रकाशन से सामाजिक अविश्वास में वृद्धि हो रही है।
3ण् आपराधिक घटनाओं के बढ़ा-चढ़ाकर किये गये प्रस्तुतीकरण के कारण आपराधिक रिपोर्टिंग की विश्वसनीयता घट रही है।
4ण् आपराधिक की घटनाओं की रिपोर्टिंग के कारण समाज में भय बढ़ रहा है।
5ण् आपराधिक घटनाआंे को समाचार पत्र-पत्रिकाओं में पढ़कर बच्चें अपराध की ओर उन्मुख हो रहे हैं जिससे बाल-अपराधियों की संख्या में वृद्धि हो रही है।
6ण् आपराधिक घटनाओं के अतिश्योक्तिपूर्ण प्रस्तुतीकरण के कारण समाज में नकारात्मक सोच का प्रसार हो रहा है।
7ण् सनसनीखेज, खून-खराबे युक्त व नकरात्मक तत्व वाली ख़बर पर किये जाने वाले असन्तुलित कथनों से समाज भ्रमित होता है।
8ण् आपराधिक ख़बरों में अपराधी को हीरों की भाँति प्रस्तुत किया जाता है जिसके कारण किशोरों व युवाओं में अपराधियों के प्रति गरिमा का भाव बढ़ रहा है।
9ण् अपराध रिपोर्टिंग से समाज में यह संदेश जा रहा है कि शीघ्र कामयाबी प्राप्त करने के लिये अपराध, अपराधियों का संरक्षण शार्टकट रास्ता है।
10ण् ‘कानून एवं दण्ड़ की प्रक्रिया एवं संस्थानों का नियंत्रण कम होने के कारण दण्ड़ का भय कम हुआ है।’ इस प्रकार की भावना के विकास में पत्रकारिता की अहम भूमिका है।
11ण् अपराधी को हीरों की भाँति प्रस्तुत करने से अपराधियों में इस प्रकार की प्रसिद्धि प्राप्त करने की चाह बहुत बढ़ जाती है परिणामस्वरूप अपराधों की संख्या में वृद्धि होना।
12ण् अपराधियों को अपराध की नवीन तकनीकियों का ज्ञान हो जाता है। जिससे वे नई-नई रणनीतियाँ बनाते हैं। जैसे- सफेद अपराध जैसे नकली सामान बनाने का गोरख़धन्धा। जब कोई अपराधी पकड़ा जाता है और ये समाचार अख़बार में प्रकाशित होता है इससे वह अपराधी तो जेल चला जाता है परन्तु जन्म दे जाता है अपने जैसे कई नक्कलों को जो उस समाचार को पढ़कर नया आईडिया लेते है।
13ण् समाचार पत्र अपराध के उपरान्त ही ख़बर को प्रकाशित कर अपराधी को सावधान कर देते हैं। अपराधी ख़बरों के माध्यम से सावधान होकर पुलिस की गिरफ्त में आने से बचता रहता है।
14ण् बच्चे अपराध की घटनाओं को पढ़कर विभिन्न प्रकार की जिज्ञासायें रखते हैं जिनका यदि सही समाधान नहीं दिया जाये तो वे भटक सकते हैं।
15ण् यदि किसी जाति या धर्म विशेष के व्यक्ति के साथ घटना घटी तो उस जाति या धर्म से सम्बन्धित लोग उसका बदला लेने के लिये एक बार फिर से अपराध करते हैं और इसका सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है विद्यार्थी या उस आयु के लोगों पर क्योंकि उनकी सोच उतनी परिपक्व नहीं होती और वे समाचार पढ़कर उसके बारे में तुरन्त निर्णय ले लेते हैं।
16ण् मीडिया द्वारा की जा रही आपराधिक घटनाओं की रिपोर्टिंग के कारण समाज का स्तर गिर रहा है।
17ण् मनोचिकित्सकों के अनुसार भाई द्वारा भाई की हत्या, बेटे द्वारा पिता की हत्या, पति द्वारा पत्नी की हत्या आदि जैसे अपराध अपराध न होकर ‘असुरक्षा’ की भावना की तीव्र प्रतिक्रिया का परिणाम है जिसमें वह सोचता है कि ‘उसके परिवार का क्या? और वह अपनों को मार के खुद भी मरने का प्रयास करता है।’
यह एक ऐसा अपराध है जो घर से शुरू होता है और घर के माहौल में ही पनपता है और धीरे-धीरे समाज में फैल जाता है। यह तो हुई एक वारदात की बात परन्तु जब अगले दिन यह ख़बर मिर्च-मसाला के साथ अख़बारों में प्रकाशित होती है तो जन्म होता है वैसी ही मनोदशा से गुजर रहे और नये अपराधियों का जिन्हें लगता है कि हत्या करने वाला इन्सान सही था।
मीडिया में बढ़ रहे उपभोक्तावाद व प्रतिस्पर्धा ने गैर जिम्मेदाराना रिपोर्टिंग को जन्म दिया है। परिणामस्वरूप मीडिया अपने वास्तविक उद्देश्यों से विमुख हो स्वःहित की अन्धी दौड़ में दौड़े जा रही है। पत्रकारिता मात्र पेशा न होकर एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है, समाज के प्रति जवाबदेही है। इसका उद्देश्य समाज को सच्चाई का आईना दिखाकर जन-हित की रक्षा करना है। अतः आज मीडिया को आवश्यकता है अपने दायित्वों का ईमानदारी व जिम्मदारी से निर्वाह करने की और लोभ-लालच का परित्याग कर जन-हित के प्रति समपर्ण की भावना से इस पेशे की उपयोगिता व सार्थकता सिद्ध करने की।

अपील

अपील
बिहार में एक महिला ने विधायक के शोषण से व्यथित होकर उसकी चाकू से गोदकर हत्या कर दी। जरा सोचिये क्या मनोस्थिति रही होगी उस महिला की जो सार्वजनिक रूप से हत्यारिन बनने के लिए बाध्य हो गई? कितनी कुण्ठित, कितनी निराश, हतोत्साहित, असहाय व लाचार रही होगी वह। और जब निराशाओं पर विजय प्राप्त करनी चाही जो उस रोष ने लहु में ऐसा उबाल लाया कि परिणाम विभत्स रूप में सामने आया। वस्तुतः देखा जाये तो यह संकेत है स्त्रियों के सब्र के बाँध के टूटने की कगार पर होने का। पिछले कुछ महीनों से जिस प्रकार महिला अपराध व अत्याचार का ग्राफ बुलंदियों को छू रहा है और न्याय प्रक्रिया व सुरक्षा स्तर में गिरावट आ रही है तो यह गुबार कोई ना कोई रोद्र रूप लेगा ही। निसंदेह जब पापों की पराकाष्ठा होती है तो कोई ना कोई अप्रिया घटना घटित होती ही है। लडकियों के अपहरण, बलात्कार, छेडछाड़ को आखि़र कब तक सहन किया जाये? सुरक्षा की दृष्टि न तो घर पर टिकती है और न ही समाज पर। आखि़र जाये तो जाये कहाँ? क्या महिला समाज का अंग नहीं है? यदि है जो वह सम्मान व सुरक्षा के अधिकार से वंचित क्यों है? सहनशीलता मात्र स्त्री धर्म क्यों है? पुरूष अपनी बहन की सुरक्षा में तो जान की बाजी लगाने के लिए तैयार है परन्तु दूसरों की बहनों पर नज़रों में फेर कैसे आ जाता है? कृपया जवाब दीजिए, हमें सुरक्षा का संरक्षण कब और कैसे प्राप्त होगा? कब हमें मानसिक स्वतंत्रता का आनन्द व सुकून प्राप्त होगा? आखि़र कब?

अहितकारी कट्टरता


अहितकारी कट्टरता
राहुल गांधी के हिंदू कट्टरपंथी संगठनों को खतरनाक बताये जाने वाले वक्तव्य ने सभी हिंदूवादी लोगों की भावनाओं को ठेस पंहुचायी। परन्तु यदि गहतापूवर्क विचार किया जाये तो यह बात कहीं हद तक औचित्यपूर्ण भी है। कट्टरता चाहे धर्म की हो अथवा अधर्म की, कभी हितकारी नहीं हो सकती। नकारात्मक भाव लिए यह शब्द स्वार्थ तत्व से लिप्त होता है। इसी का परिणाम है कि भारत के हिंदूत्व को आजादी के इतने वर्षाें के पश्चात् आतंकवाद के तगमे से संघर्ष करना पड़ रहा है। आजादी का संघर्ष सम्मानीय था, है और रहेगा क्योंकि वह वैचारिक, औचित्यपूर्ण, जनहितवादी व देश के सम्मान के लिए था परन्तु हिंदूत्व का यह संघर्ष जो इस धर्मनिरपेक्ष देश में विभेदीकरण के बीज पल्लवित कर रहा है, निश्चित रूप से आतंकवाद की श्रेणी में सम्मिलित होने की ओर उन्मुख है। राजनीति के स्वाद ने इसके उद्देश्यों को भ्रमित कर दिया है। राष्ट्रवाद का तात्पर्य राष्ट्र के एकीकरण से है जिसमें सभी धर्म, जाति व सम्प्रदाय सम्मिलित हो और देशभक्ति की भावना का प्रतिनिधित्व करें। परन्तु हिंदू कट्टरपंथियों की राष्ट्रवाद की परिभाषा तो धार्मिक संघर्ष को जन्म दे रही है। त्याग, दया अहिंसा, परोपकार के संदेश देने वाले भारत में कट्टरता इन शब्दों की पर्यायवाची कदापि नहीं हो सकती। देश को संगठित करने के लिए वैचारिक तरलता की आवश्यकता है। तभी आदर्श भारत का निर्माण हो सकता है।

फैसला


फैसला
काफी दिनों से चलते आ रहे वाद-विवाद और द्वंद का कल शायद अन्तिम दिन हो। कल मेरे आने वाले कल पर एक ऐसा फैसला लिया जायेगा जो पिछले छः माह से घर में वाद-विवाद का विषय बना हुआ है। देखना ये है कि ये फैसला परम्परागत रूढ़िवादी विचारधारा का समर्थन करते हुए बेटी के भविष्य को दाँव पर लगायेगा या अनावश्यक अहितकारी सामाजिक व मानसिक दबाव के विरूद्ध सशक्त हो बेटी के हित को प्राथमिकता देगा। यही सोचते-सोचते सारी रात खुली आँखों में संशय व भय का अंधकार लिए बीत गई।
अगले दिन सुबह नाश्ते की आवश्यकता किसी को न थी। सभी ड्राइंग रूम में एकत्रित हुए। शान्त, उलझे चहरे टकटकी लगाये पिताजी के मुख की ओर देख रहे थे। सभी के भावों और उत्सुकता को अधिक प्रतिक्षा न कराते हुए पिताजी ने कहा, ‘‘यह फैसला मेरे लिए ऐसा है जैसे किसी बच्चे से कहा जाये कि वो अपनी माँ या पिता में से किसी एक का चयन करे। एक ओर मेरी सामाजिक मर्यादाएँ और परम्पराएँ हैं और दूसरी ओर मेरी बेटी का हित। एक ओर हमारी ही जाति का एक अयोग्य लड़का है और दूसरी ओर गैर-बिरादरी परन्तु बेटी के लिए उसकी पसंद का सर्वोत्तम चयन है, जो उसके सुखद भविष्य की गारंटी भी है। मेरी मान्यताएँ गैर-बिरादरी के चयन से मुझे रोक रही हैं परन्तु बेटी का प्यार, स्नेह ओर सुरक्षित भविष्य मझे उसकी पसंद को अपनी पसंद बनाने के लिए बाध्य कर रहा है। सालों से चली आ रही विचारधारा के विरूद्ध एक नई सोच को अपनाना मेरे लिए वास्तव में कठिन है। परन्तु शायद बेटी का हित और उसकी खुशी ही मेरी प्राथमिकता है। अतः मेरा फैसला उसके फैसले का समर्थन करता है और मैं उसकी पसंद स्वीकार करता हूँ।’’
उनके शब्दों ने मुझे चौंका दिया। सभी की आँखें भर आई और पिताजी ने मुझे गले से लगा लिया।

आँखंे ‘गर हो जायें पराई’


आँखंे ‘गर हो जायें पराई’

मैं उसके खेल को दूर से निहार रही थी और बीच-बीच में मिसेज शर्मा की बातों का जवाब भी दे रही थी। परन्तु मिसेज शर्मा की बातों से ज्यादा मेरा ध्यान उस खेल पर था जो मेरी छः साल की मासूम बेटी ‘अनुभूति’ मिसेज शर्मा की हमउम्र बेटी ‘महक’ के साथ खेल रही थी। मुझे आज उसका खेल उन सामान्य खेलों से भिन्न लग रहा था जो वह रोज़ खेलती थी। सामान्यतः मैं कभी इतनी केन्द्रित होकर उस पर नज़र नहीं रखती थी परन्तु शायद कुछ दिनों से उसके व्यवहार में आये परिवर्तन के कारण मैं उसका कुछ ज्यादा ही ध्यान रखने लगी थी।
उसका खेल बडा ही विचित्र था। उसने एक काले रंग की पट्टी महक की आखांे पर बाँध दी। फिर उसके सामने अपने पेंसिल बॉक्स से पेंसिल निकालकर पूछा, ‘‘ये क्या है?’’ महक ने उत्सुकता से झटपट आँखों से पट्टी हटाई और बोली, ‘‘कितनी सुन्दर पेंसिल है!’’ अनुभूति को जैसे इस उत्तर से कोई सरोकार ही नहीं था। वह कुछ और उत्तर चाहती थी इसलिए उसने महक को दो पल घूरा और गुस्से से बोली, ‘‘तुमने पट्टी क्यों खोल दी? आँखों पर पट्टी बाँधकर बताओ ये क्या है?’’ वह उठी और दोबारा उसने महक की आँखों पर वह पट्टी बाँध दी। फिर कलर बॉक्स से लाल रंग निकालकर पूछा, ‘‘ये कौन सा कलर है?’’ इस बार महक ने अंदाजा लगाया और बोली, ‘‘ब्लैक’’। नो, दिस इज़ रेड। अनुभूति चिल्लायी।
अनुभूति छोटी-छोटी बातों पर इस तरह से कभी नहीं झुझलाती थी। शान्त व सहयोगी स्वभाव की वह कुछ दिनों से किसी उलझन में लग रही थी। उलझन की इसी अवस्था में उसने फिर सफेद रंग उठाकर पूछा, ‘‘विच कलर इज़ दिस?’’ महक ने इस बार थोड़ा समय लगाया और फिर बोली- ब्लैक। अनुभूति के चेहरे की शिकन बढ़ने लगी और उसने महक के आँखों की पट्टी खोल दी और कहा- ये पट्टी मेरी आँखों पर बाँधों। उसे देखकर लगा कि वो कुछ ऐसे प्रश्नों के उत्तर चाहती है जो सामान्य नहीं हैं।
खै़र! आँखों पर पट्टी बँधते ही उसने महक के पूछने से पहले ही अपनी नन्ही-नन्ही उंगलियों को पंेसिल बॉक्स पर धीरे-धीरे घुमाया और स्पर्श से कुछ जानने की कोशिश की। इसी बीच महक ने उससे पूछा- विच कलर इज़ दिस? लेकिन उसने उसका कोई जवाब नहीं दिया। और अपनी धुन में मगन पेंसिल बॉक्स और कलर बॉक्स को बार-बार छूकर अलग-अलग पहचानने की कोशिश वह करती रही। महक ने फिर उससे अपना प्रश्न दोहराया परन्तु इस बार भी उत्तर न पाकर वह अनुभूति के व्यवहार से नाराज हो गई और अपने पापा व भाई जो मिसेज शर्मा के ही साथ आये थे, उनके पास चली गई। अनुभूति को इस बात का अहसास तक नहीं हुआ और वह अब भी अलग-अलग रंग उठाकर उसका अंदाजा लगाने की कोशिश कर रही थी और कभी स्पर्श के माध्यम से चीजों को पहचाने की।
अनुभूति मानसिक रोगी या किसी बीमारी से ग्रस्त नहीं थी। वस्तुतः ऐसा उसके साथ तब से हो रहा था जब से वह उस नेत्रहीन बच्चे से मिली थी जो हमें नेत्र-अस्पताल में मिला था। उस दिन हम नेत्रदान करने के लिए नेत्र-अस्पताल गये थे। वहीं हम उस नेत्रहीन बच्चे से मिले। अनूभूति उसकी आँखों को, उसके व्यवहार को और उसकी पर-निर्भरता को बहुत ध्यान से देख रही थी। वह बहुत समझदार, जिज्ञासु और बहुत भावुक लड़की है इसलिए शायद उसने उसे देखते ही प्रश्नों की झड़ी लगा दी।
मम्मी भैया की आँखें ऐसी क्यों हैं? इनको पकड़कर क्यों ले जा रहे हैं? मैं इन्हें देख रही हूँ फिर भी ये मुझे क्यों नही देख रहे हैं? ये देखकर क्यों नहीं चल रहे हैं? क्यों चीजों से टकरा जाते हैं? और भी न जाने क्या-क्या?
मैंने पूरी कोशिश की कि अपने उत्तरों से उसे संतुष्ट कर सकूँ। पर मुझे यह भी अहसास हो रहा था कि शायद वह पूर्णतः सन्तुष्ट नहीं हो पा रही थी। उसने फिर पूछा कि हम यहाँ क्यों आये हैं? मैंने बताया कि नेत्रदान करने के लिए। नेत्रदान से सम्बन्धित उसके प्रश्नों की झड़ी ने फिर मुझे घेर लिया। परन्तु इस बार उसके प्रश्न मेरे नेत्रदान के फैसले को सहयोग कर रहे थे। वो मासूम जैसे मेरे फैसले से खुश हो।
उस दिन नेत्रदान करके हम घर आ गये। परन्तु अनूभूति हर पल उस बच्चे की पीड़ा का अहसास करने का प्रयास करने लगी थी। यह खेल भी उसी प्रयास का ही एक हिस्सा था।
थोड़ी देर बाद मिसेज शर्मा परिवार और हम सभी खाने की मेज पर साथ बैठे खाना खाते हुए गपशप कर रहे थे। हमारी गपशप के बीच में एक प्रश्न ने हम सभी का ध्यान उसकी ओर मोड़ दिया।
अंकल क्या आपने आईज़ डोनेट की हैं? उसके इस सवाल पर चंद क्षणों का सन्नाटा छा गया परन्तु फिर अचानक मिस्टर शर्मा हँसने लगे और बोले, ‘‘बेटा क्या आप जानते हो कि आई डोनेशन क्या होता है?’’
‘‘हाँ, मैं जानती हूँ। मम्मी ने मुझे बताया था कि जो लोग देख नहीं पाते उनको, जो लोग मर जाते हैं उनकी आँखें लगा देते हैं और वे लोग फिर से देखने लगते हैं।’’, अनुभूति ने समझाते हुए कहा।
‘‘आप तो बहुत समझदार हो बेटा। लेकिन मैंने तो अपनी आईज़ डोनेट नहीं की।’’ मिस्टर शर्मा ने से कहा।
‘‘क्यों? क्यों नहीं की आपने अपनी आईज़ डोनेट?’’, अनुभूति ने आश्चर्य से पूछा।
मिस्टर शर्मा व्यंगात्मक लहजे से बोले, ‘‘वो इसलिए बेटा, कहीं ऐसा न हो कि मरने के बाद आईज़ डोनेट करने पर मैं अगले जन्म में अंधा पैदा होऊँ।’’
और पापा मैं तो अपनी आँखें कभी डोनेट नहीं करूँगा। मैं नहीं चाहता कि मरने के बाद मेरी खूबसूरती में कोई कमी आये। मिस्टर शर्मा की बातें समाप्त होते ही तुरन्त उनके बेटे ने कहा।
उन दोनों के ये संवाद सुनकर मैं आवाक् रह गई। मुझे लगा शायद बच्ची को बहकाकर शान्त करने के लिए वे ऐसा कह रहे हैं। मैंने तुरन्त उनसे पूछा, ‘‘भाई साहब क्या आप वाकई ऐसा सोचते हैं?’’
जी हाँ, बहन जी। ये सच है। मैं अगले जन्म मंे अंधा पैदा नहीं होना चाहता। मिस्टर शर्मा ने कहा।
उनका यह जवाब सुनकर सबसे पहले तो मुझे उनके पढ़े-लिखे अनपढ़ होने का अहसास हुआ। और बहुत दुख भी हुआ कि आज भी हमारा शिक्षित समाज कितना अशिक्षित है। कैसी-कैसी निराधार धारणाएँ उनकी विचारधारा की दिशा निर्देशित करती हैं?
मैंने उन्हंे समझाने की कोशिश की कि भाई साहब! जो लोग किसी दुर्घटना में विकलांग हो जाते है क्या वे सभी विकलांग ही पैदा होते हैं? अगर ऐसा होता तो धीरे-धीरे विकलांगों की तादात इतनी बढ़ जाती कि कोई भी पूर्णतः हष्ट-पुष्ट नहीं होता। और जो शरीर अग्नि में स्वाह होकर पंचतत्वों में विलीन हो जाना है उसकी खुबसूरती या बदसूरती का कोई औचित्य ही नहीं है। हाँ, लेकिन हमारी आँखें यदि किसी को ये खूबसूरत दुनिया दिखाने में सफल हो जाये तो हमारी मौत अवश्य सार्थक हो जायेगी। वैसे भी मरणोपरांत इस मिट्टी रूपी शरीर का कोई वजूद नहीं होता। तो क्यांे न इसे किसी के लिए उपयोगी बना दिया जाये?
डॉक्टर आपकी पूरी आँखें नहीं केवल कॉर्निया का उपयोग करते हैं। और पुनः आँखों में आई-बॉल डालकर पहले जैसा ही रूप दे देते हैं। जिससे आपकी ‘खूबसूरती’ में भी कोई कमी नहीं आती।
यदि हम अपनी आँखें कुछ पल के लिए बंद कर लें तो बैचेन हो उठते हैं। अपनी दुनिया देखने के लिए तड़प उठते हैं। जरा सोचिए उन लोगों के विषय में जिन्हें अपनी सूरत का भी अंदाजा नहीं। अपने बच्चों की शक्ल मालूम नहीं, दुनिया के रंगों का अहसास नहीं। वे सिर्फ स्पर्श की आँखों से दुनिया को समझते हैं। पर क्या कभी स्पर्श आँखों की कमी पूरी कर सकता है?
मेरी बातें शर्मा जी को शायद बोर कर रही थी और वे इस भाषण से मुक्ति चाहते थे। तभी वे बोल उठे, ‘‘अच्छा जी! अब हम चलते हैं। काफी देर हो गई है। इस लजीज खाने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।’’
उन्हें अलविदा कहने के बाद जैसे ही मैं पीछे मुड़ी, अनुभूति जैसे मेरा ही इन्तजार कर रही थी। उसके चेहरे पर दृढ़ भाव थे। उसी गम्भीर दृढ़ता से वह बोली, ‘‘अंकल बहुत गंदे थे ना मम्मी। वे झूठ बोल रहे थे। उनको कुछ नहीं पता। आप प्लीज मेरी आईज़ डोनेट कर दो।’’
उसकी मासूमियत पर मेरी आँखें छलक उठी और मैंने उसे सीने से लगा लिया।

Sunday, October 31, 2010

त्यौहारों का होता बाजारीकरण



त्यौहारों का होता बाजारीकरण

आज कल त्यौहारों की धूम है। विजयदशमी, करवा चैथ व आगामी दीपावली आदि सेे प्रत्येक घर में हर्ष व उल्लास का माहौल है। आधुनिक व्यस्तताओं के मध्य ये त्यौहार ही तो है जो कोल्हू के बैल की भाँति जुटे मानसों को परिवार के लिए कुछ समय प्रदान करते है।
आज त्यौहारों का स्वरूप व उन्हें मनाने का ढंग बहुत ही आश्चर्यजनक रूप से परिवर्तित हो गया है। पिछले कुछ वर्षों की बात करें तो व्यक्ति त्यौहार स्वयं के लिए या परिवार के लिए ना मनाकर बाजार के लिए मना रहा है। अर्थात् त्यौहारों का बाजारीकरण हो रहा है। कोई भी त्यौहार आये बाजार सर्वप्रथम गर्म व सक्रिय हो जाता है। मानवीय व धार्मिक भावनाओं को भुनाना आज का बाजार भली-भाँति सीख गया है।
पहले त्यौहार घर-परिवार-पड़ौस के सभी जन मिलकर मनाते थे। एक दूसरे के यहाँ प्रेम भाव से गृह-निर्मित सामग्री दिया करते थे। परन्तु आज त्यौहार क्बस में मनाये जाने लगे है। घर की बनायी मिठाईयों के स्वाद की हत्या बाजार की मिठाईयों ने कर दी है। दीयों का अस्तित्व इलैक्ट्रिक बल्बों ने खतरे मंे डाल दिया है। उपहासनीय है कि त्यौहार टैक्निकल हो गये है।
त्यौहारों के मनाये जाने का कारण आज यदि बच्चों से पूछा जाता है तो उनका उत्तर स्तब्ध कर देता है। वे नही जानते कि कोई त्यौहार क्यों मनाया जा रहा है। परन्तु वे ये जानते है कि दीपावली पटाखों व मिठाईयों का त्यौहार है। पूर्वजों की सीख से उन्हें कोई सरोकार न होकर मौज मस्ती का त्यौहार प्यारा है।
इस स्थिति में आखिर कब तक पूर्वजों की स्मृति व सीख को बचाया जा सकता है? इस प्रकार तो भारतीय संस्कृति विलुप्त हो जायेगी। कौन जानेगा कि राम कौन? और भगवान कौन? सोचिए..........................