Thursday, July 20, 2017

चलो ढूँढे एक नया घर

आंटी जी.............. आती हूँ, रूको ज़रा.......... हमें तो तुम्हारा कोई सुख नहीं है। बस रात को सोने के लिए आती हो। ( दरवाजा खोलते हुए आंटी ने मुँह पिचकाते हुए कहा।) आंटी क्या करें नौकरी की मजबूरी ही ऐसी है। सुनो जी! एक नया किराये का मकान तलाश लो। अब लगता है यहाँ का समय भी पूरा हो गया। छः महीने भी नहीं हुए और.......... क्यों क्या हुआ? कुछ कहा आंटी ने? हम्म्म्म............ कह रही थी कि उन्हें तो हमारा कोई सुख नहीं। मुझे आज तक समझ में नहीं आया कि किरायदार से मकान-मालिक कौन-सा सुख चाहते हैं? हम किराया समय से पहले दे देते हैं। घर मंे कोई बच्चा नहीं, जो दीवारों का पोस्टर बनाए। कोई शोर-शराबा, तोड़-फोड़ नहीं। जाने-पहचाने शरीफ़ लोग हैं हम। कब्जे़ का कोई डर नहीं। सुरक्षा की कोई परेशानी नहीं। जैसा वे कहते हैं अपने सीमित समय से समय निकालकर भी वह सब कर देते हैं। फिर भला और कौन-सा सुख रह जाता है। आप ही बताइए मुझे? क्या केवल पूरे दिन घर में रहने भर से सुख प्राप्त हो जाएगा। अगर मैं अपने कमरे मंे रहूँ और इन्हें बिलकुल बात न करूँ तो क्या इन्हें सुख मिल जाएगा। किराया समय पर न दूँ और शोर मचा-मचाकर जीना दूभर कर दूँ तो इन्हें अथाह सुख की प्राप्ति हो जाएगी। सुख की परिभाषा प्रत्येक व्यक्ति के लिए भिन्न होती है। पता नहीं इनकी परिभाषा में कौन-कौन से कठिन शब्द हैं जो मेरी तो समझ से बाहर हैं। आपको याद है पहले वाली मकान-मालकिन ने कितना तंग किया था मकान से निकालने के लिए। सीधे तौर पर कुछ नहीं कहा परन्तु काम ऐसे किए कि हम भागते नज़र आए। क्योें करते हैं ये लोग ऐसे? क्या हमें कहीं रहने का अधिकार नहीं। किरायदार का अर्थ है किराया देकर रहने वाले। फिर भला और किस प्रकार की उम्मीदें लगाए रहते हैं ये! हाँ! ये तो है। पर अचानक हुआ क्या उन्हें? तुमसे कोई बात हुई क्या? नहीं-नहीं। मैं जब रात को आई और दरवाजा खोलने के लिए उन्हें आवाज़ लगाई तो बस अंदर से वो यहीं बोलती आई थी। अब आप ही बताइये सुबह हम दोनों साढ़े चार बजे साथ ही तो निकले थे। उसके बाद रात को आठ बजे मैं घर आई। इस बीच जब हम मिले ही नही तो भला मैंने क्या कह दिया उन्हें! हाँ! लेकिन कल उनकी कुछ सहेलियाँ आई थी और मैं किसी काम से घर आकर सामान लेकर चली गई थी तो जरूर उन्होंने कुछ कहा होगा। मुझे उनके चेहरे के हाव-भाव तभी खटक गए थे। आंटी बहुत अच्छी हैं परन्तु...................... ‘‘तुम्हें तो अपने किरायदारों का कोई सुख नहीं बहन। ये तो घर में रहते ही नही। जब देखो बाहर ही रहते हैं। किसी परेशानी में तुम तो इन्हें बुला भी नहीं सकती। नौकरी-पेशा वालों को तो किरायदार ना ही रखो तो अच्छा है।’’ आंटी की सहेलियों के अनकहे भावों में ये शब्द स्पष्ट थे। देखो तुम परेशान मत होओ और उनकी तरफ से भी सोचो। हम अब तक जितने मकानों में रहे हैं वहाँ केवल बुजुर्ग पति-पत्नी रहते थे। इस मोहल्ले में भी जितने घर हैं एक या दो को छोड़कर सभी में मात्र बुजुर्ग ही रहते हैं। स्थिति समझने की कोशिश करो। ये ही हमारा भी भविष्य है। इन सबके बच्चे इन्हें किसी भी परिस्थितिवश छोड़कर इनसे अलग रह रहे हैं। अपने सपनों के घर जिसे इन्होंने ताउम्र सजाया है, उसमें ये बुजुर्ग अकेले रह जाते हैं। अपने साथ किसी प्रकार की अनहोनी होने के भय से ये अपनी सुरक्षा के लिए किरायदार रखते हैं। वहीं दूसरी ओर जिन कारणों से इनके बच्चे इनसे दूर हैं, उन्हीं कारणों से हम स्वयं भी तो अपने माता-पिता से दूर हैं। यह समाज की अस्त-व्यस्त सी अवस्था है और गंभीर भी। समझ नहीं आता इस प्रकार बढ़ते समाज की नई तस्वीर क्या होगी!!! परिवार बिखर रहे हैं और साथ ही अकेलेपन का आसरा परायों में अपनापन तलाशकर ढूँढा जा रहा है। असुरक्षा की भावना से लिप्त निगाहें अनजाने परिवार से आशा करती हैं। हमारी समस्या एवं स्थिति वही है जो आज इनके बच्चों की है। वे भी किसी अनजाने शहर में नौकरी की मजबूरी में अपने माता-पिता से दूर उनकी चिंता करते हुए किसी मकान को तलाश रहे होंगे। उन्हें भी कोई मकान-मालिक यह सोचकर मकान नहीं देना चाह रहा होगा कि नौकरी-पेशा लोग हैं इनके घर की सुरक्षा ही हमें करनी पडे़गी। एक विचित्र-सा, अकल्पनीय, दिशाहीन समाज परन्तु वास्तविकता यही है? हम्म्म्म..... इसका अन्तिम रूप क्या होगा? आपको क्या लगता है? अन्तिम रूप का तो कोई अंदाजा नहीं परन्तु हल दो नज़र आते हैं। या तो ‘ओल्ड एज होम’ की संख्या में वृद्धि हो जायेगी या बुजुर्गां को अपने-अपने सपनों के घर का मोह त्यागकर बच्चों के साथ स्थानान्तरित होना होगा। यह प्रत्येक व्यक्ति अथवा परिवार का व्यक्तिगत् निर्णय होगा कि वह किसे प्रमुखता देता है। बहरहाल कुछ भी हो दोनों ही स्थितियाँ दुःखदायी हैं। परन्तु बढ़ती तकनीकी ने प्रतिस्पर्धा की गति के आवेग को अत्यधिक तीव्र कर दिया है। उससे कोई भी अछूता नहीं रह सकता। सभी को इस अंधी दौड़ में दौड़ते रहने की बाध्यता है। समस्या यह है कि दौड़ में सभी की गति भिन्न-भिन्न है। जिसके कारण हमारे कई अपने पीछे छूट जाते हैं और कई बहुत आगे निकल जाते हैं। उनसे बिछड़ने का अहसास हमें तब होता है जब हम खुशी और ग़म के अवसरों पर स्वयं को अकेला पाते हैं। आगे आने वाली तो प्रत्येक पीढ़ी पारिवारिक सुखों से वंचित ही रह जायेगी। उन्नति एवं परिवार वैकल्पिक हो जाएँगे। किसी एक का चयन कुंठा का जनक बन जाएगा। आज जिस बहुआयामी तरक्की के प्रति हम लालायित हैं, कल उसी पर हमें पछतावा होगा। परन्तु वर्तमान में कोई और विकल्प भी तो नही है। खैर! चलो एक नये मकान की तलाश करते हैं। हमारी पीढ़ी का सुख तो न हमारे माता-पिता को है, न हमारे बच्चों को और न स्वयं हमें ही।

अपराधबोध

सभी अपने-अपने स्थान पर विराजमान अपने-अपने कार्यों में इस प्रकार लीन थे कि मानो उन्हें अपने कार्य से अधिक किसी भी प्रलोभन के प्रति कोई रूचि न हो। अत्यधिक कर्मठ। जबकि वास्तव में आज किसी का भी मन अपने किसी भी कार्य में बिलकुल नहीं लग रहा था। सभी की श्रवणेंद्रियाँ उस दरवाजे पर केंद्रित थी जो किसी भी क्षण खुल सकता था और जिसके खुलने की प्रतीक्षा पिछले एक घण्टे से सभी उत्कंठित कर रही थी। इस पसरे सन्नाटे एवं भ्रामक मुद्राओं के पीछे कोई गंभीर कारण तो अवश्य है। तभी यकायक दरवाजे के पट खुलते हैं और समस्त दृष्टियाँ अपने-अपने महत्त्वपूर्ण कार्यों से विचलित हो, उस पर टिक जाती हैं। उसके चेहरे के भावों की विभिन्न व्याख्यायें व्यक्तिगत् विभिन्नताओं का स्पष्ट प्रतिमान प्रतीत हो रहीं थीं। किसी को भी किसी भी प्रकार के सकारात्मक परिणाम की आशा न थी। परन्तु ‘उम्मीद’ किसी चमत्कार की प्रतीक्षा में थी। उसके मुख पर तनाव निःसंदेह स्पष्ट रूप से दस्तक दिए हुए था। ऑफ़िस के प्रथम दिन से ही वह अंतर्मुखी थी, बिलकुल मिलनसार नहीं। किसी से अधिक बातचीत न करना और अपने कार्यों एवं चुनौतियों को गंभीरता से लेते हुए दक्षता से करना, यही उसके कार्य करने का तरीका था और कदाचित् ज़िंदगी जीने का भी। उसकी यही कर्तव्यपरायणता कुछ चाटुकारों को रास नहीं आती थी परन्तु फिर भी वह किसी की परवाह किए बिना अपनी दिनचर्या का पालन करती रहती। आज कर्तव्यनिष्ठा-ईमानदारी और खुशामदी-बेइमानी के मध्य एक अकथित जंग थी। उसके मद्धम-मद्धम बढ़ते कदम हमारी हृदयगति में आवेग उत्पन्न कर रहे थे। हमारे सहकर्मियों के साथ हमारा व्यवहार दो प्रकार की भावनाओं से ओत-प्रोत होता है, एक- प्रतिस्पर्धा, दूसरी- ईर्ष्या। स्वस्थ प्रतिस्पर्धा तक हमारे संबंधों का स्वास्थ्य भी स्वस्थ रहता है। कुछ छुट-पुट घटनाओं को छोड़कर हम अपने प्रतियोगी के साथ अच्छा व उपयोगी समय व्यतीत करते हैं। परन्तु यदि भावनायें ईर्ष्या में लिप्त हों तो स्थिति अधिकतर गंभीर-विकराल हो जाती है जिसके परिणाम अधिकतर सरल, मेहनती, ईमानदार व कर्मठ व्यक्ति को ही भुगतने पड़ते हैं। अक्सर कुटिलता सरलता पर हावी हो जाती है। ऐसा ही कुछ हुआ मीरा के साथ भी। पिछले कुछ दिनों में ऑफ़िस में अनेक नवीन नियुक्तियाँ र्हुइं। नया खून, नयी उमंग, नया जोश और जनून तथा जल्दी सफ़ल होने का चरसरूपी नशा। कुछ लोग वास्तव में उन पदों के योग्य थे परन्तु कुछ उन पदों को हथियाने की योग्यता में माहिर थे और अपनी इस कला का भरपूर दुरूपयोग भी कर रहे थे। इसी कारण वास्तविक योग्यता का आत्मविश्वास जीर्ण-शीर्ण हो रहा था और ऑफ़िस कर्मस्थल न रहकर युद्ध का मैदान बनता जा रहा था। हालाँकि इस घटना ने ऑफ़िस को दो वर्गों में विभाजित कर दिया था। एक समूह कर्मठता का और दूसरा चापलूसों का। परन्तु वह पूर्णतः तठस्थ थी। किसी भी जमात में सम्मिलित न हो मात्र अपने कार्यों पर केद्रिंत रहनेे वाली कारिंदी। उसका यही विरला-विलक्षण व्यक्तित्व अकसर दूसरों में उसके प्रति ईर्ष्या उत्पन्न कर देता था और उसकी बरख़ास्तगी इसी का परिणाम थी। कुछ दिन पूर्व नये चेयरमैन ने कार्यालय में काम करने के संबंध में कई नये निर्देश सूचना-पट पर चस्पा कराये जिनमें से सर्वाधिक जोर किसी भी कर्मचारी द्वारा ऑफ़िस के समय में फ़ोन का प्रयोग न करने पर था। आवश्यक कार्याें के लिए मात्र ऑफ़िस के फ़ोन ही प्रयोग किए जा सकेंगें, जिसके लिए प्रत्येक की सीट पर इंटरकोम की सुविधा उपलब्ध करा दी गई थी। सभी को अपने फ़ोन ऑफ़िस के बाहर कंट्रोल रूम में ही जमा करके जाना होगा। यद्यपि सभी ने इस आदेश का भरसक विरोध किया परन्तु चापलूसों के एक बड़े समूह ने इस आदेश को अम्ल में लाना शुरू कर दिया और चेयरमैन साहब का सहयोग किया। सहकर्मियों द्वारा उनकी भर्त्सना का स्पष्टीकरण वे कुछ इस प्रकार देते- ‘‘हम यहाँ काम करने आते हैं और अगर हम अपना काम अच्छे से कर रहे हैं तो हमारा फोन कहीं भी रहे क्या फ़र्क पड़ता है!’’ सत्य ही कहा। उन्हें भला क्या फ़र्क पडेगा। फ़र्क तो उन्हें पड़ता है जो वास्तव में ईमानदारी से अपना काम कर रहे हैं। जो बेइमानी में माहिर हैं, वे तो नियमों को तोड़ने का हुनर जानते हैं। हुआ भी यही। कर्मठ लोग कुढ़ते हुए नियमों का पालन कर रहे थे, बेइमान निर्लजता से मनमानी कर रहे थे। साथ ही चुगली रस का आस्वादन कर अधिकारियों के पसंदीदा व्यक्तियों की जमात में भी शामिल थे। ऑफ़िस में घुटन बहुत बढ़ गई थी। सभी का मन व्यथित था यहाँ काम करने में। अति हर चीज की बुरी होती है और बुराई का अंत करने वाला कोई न कोई निर्भीक नेता अवश्य कहीं से भी निकल आता है। हुआ भी यही। इस नियम को सर्वप्रथम खुली चुनौती दी मीरा ने। किसी को भी इसकी आशा न थी। सभी की उम्मीद से परे था यह सब। परन्तु उसने ऐसा ही किया। वह फ़ोन जबरन ऑफ़िस में लेकर आने लगी। ऐसा भी नही है कि वह सारा समय फ़ोन पर ही व्यतीत करती थी। यदा-कदा उसे फोन का प्रयोग करते देखा गया होगा, वह भी अति लघु वार्ता के साथ। उस दिन उसके घर से कोई महत्त्वपूर्ण फ़ोन आया। उसे सुनती हुई वह कुछ विचलित भी प्रतीत हो रही थी, तभी न जाने कहाँ से अचानक चेयरमैन साहब उसके सामने आ खड़े हुए। सभी हक्के-बक्के रह गए। वे अचानक से ऐसे इतने बड़े ऑफिस में.................... नहीं! अवश्य ही किसी ने उन्हें सूचित किया था। वे मौन रहे। मीरा को भी उन्होंने कुछ नहीं कहा। मात्र कुछ क्षण घूरा और फिर चले गए। हम सबने सोचा कदाचित् बला टल गई और पूरा दिन कुछ खुसर-पुसर के साथ बीत गया। लाज़िमी है मीरा तनाव में थी। पहली बार उसे बिना कुछ काम किए हथेलियों से मुँह ढके बैठे देखा। बहुत परेशान थी वह आज। अगले दिन सुबह रिसेप्शन पर ही मीरा को रोककर एक लिफ़ाफ़ा दिया गया। हम सभी ने सोचा, अवश्य ही उसे ‘कारण बताओ नोटिस’ दिया गया होगा। पास ही खड़ी उसकी एक सहकर्मी तिरछी निगाहों से उसके उस लिफ़ाफे़ में से निकले नोटिस को पढ़ने का प्रयास कर रही थी। हमारी नज़रंे लिफ़ाफ़े और मीरा के चेहरे से अधिक पास खड़ी सहकर्मी की भाव-भंगिमा पर थी। अचानक निकली एक लंबी चीख ‘नो........’ ने सभी के सम्मोहन को भंग कर दिया। नहीं यार! ये सही नही है। ऐसा कैसे कर सकते हैं!! पहले कोई नोटिस तो दिया जाता है। नो!!! ये गलत है। हमने आश्चर्य से पूछा क्या हुआ मीरा? अवाक् खड़ी मीरा कुछ न बोल सकी। हमने वह पत्र उसके हाथ से लेकर पढ़ा। मीरा को नौकरी से निकाल दिया गया था। अनुशासनहीनता के आरोप के साथ। हम पत्र पढ़ ही रहे थे कि मीरा ने तपाक् से वह हमारे हाथ से छीन लिया और दामिनी की भाँति चेयरमैन के ऑफ़िस की ओर बढ़ गई। तब से एक घण्टा हो गया। हम सबकी नज़र उस दरवाजे पर लगी थी जहाँ चेयरमैन और मीरा के बीच सघन वार्तालाप चल रही थी। किसी को नहीं पता वहाँ क्या हुआ? बस मीरा के चेहरे के भाव और हमारा अनुमान!!!!! मीरा चली गई। शायद चेयरमैन ने उसकी बात नहीं सुनी। शायद मीरा इस ऑफ़िस में अब कभी नहीं आएगी। यह एक निराशाभरा दिन था और चर्चाओं का सिलसिला जारी था। अगले दिन सभी को ई-मेल के माध्यम से एक बजे की मीटिंग की सूचना प्राप्त हुई। सभी के बीच अजीब-सा भय व्याप्त था। कुछ व्यक्ति मीरा को भी कोस रहे थे कि वह हमारे लिए गड्ढ़ा खोद गई। क्या ज़रूरत थी उसे ऑफ़िस में फ़ोन का प्रयोग करने की! मीटिंग रूम के अंदर व्याकुल हम सभी चेयरमैन का इंतज़ार कर रहे थे कि तभी मीरा और चेयरमैन के एक-साथ प्रवेश ने सभी को चौंका दिया। मीरा ने चेयरमैन के पीछे से घूमते हुए हम सभी के सम्मुख अपना स्थान ग्रहण किया। सभी के कंठ में समान स्वर थे- ‘ये क्या हुआ?’ चेयरमैन ने माइक संभालते हुए बोलना शुरू किया- आप सभी का स्वागत है। आप लोग सोच रहे होंगे कि अचानक सभी को यहाँ क्यों बुलाया गया? और मीरा यहाँ क्या कर रही है? जी हाँ! आपके भाव मैं अच्छे से पढ़ पा रहा हूँ। कल जो घटना इस ऑफ़िस में घटित हुई उसके लिए मीरा को पदच्युत कर दिया गया और ऐसा भी नहीं कि उसका पुनः इस आफ़िस में किसी भी प्रकार का स्वागत किया जा रहा है। बस कल हुई हमारी एक घण्टे की वार्ता उसकी बखऱ्ास्तगी वापसी के लिए न होकर इस मीटिंग के लिए हुई थी। मीरा चाहती थी कि वह अपनी बात सबके सामने इस मीटिंग के माध्यम से रखे। मुझे स्वयं यह अत्यन्त विचित्र लगा। मैं सोच रहा था कि इतनी मेहनती लड़की ने इस प्रकार का व्यवहार क्यों किया! साथ ही वह अपनी बर्ख़ास्तगी के लिए संघर्ष न कर इस मीटिंग के लिए हठ कर रही है। सच कहूँ तो मैं मीरा को सुनने के लिए बहुत उत्सुक हूँ और भयभीत भी कि कहीं मीरा हम सभी का समय तो बर्बाद नहीं कर देगी!! बहरहाल मैं माइक मीरा को देता हूँ। आओ मीरा। मीरा ने माइक संभालते हुए सभी का अभिवादन किया और चेयरमैन सर को इस अवसर के लिए धन्यवाद दिया। मीरा ने कहना शुरू किया- चेयरमैन सर के शब्दों को ध्यान में रखते हुए मैं कोशिश करूँगी कि आपका समय नष्ट न हो और सीधे ही अपनी बात कहना शुरू करती हूँ। इस मीटिंग के माध्यम से मैं आपको बताना चाहती हूँ कि मैंने फ़ोन का प्रयोग क्यों किया। बात तीन वर्ष पूर्व की है। मैं अपने कार्य में बहुत अधिक लीन और व्यस्त थी। तभी एक फ़ोन बजता है। नम्बर देखा तो सुधीर का फोन। मैंने फ़ोन नहीं उठाया और अपने काम में पुनः लीन हो गई। परन्तु फ़ोन फिर बजा। मैंने फ़ोन उठाते ही बिना एक शब्द सुने बोला, ‘‘सुधीर! अभी व्यस्त हूँ, तुम्हें बाद में फ़ोन करती हूँ।’’ सुधीर!!! जिससे न कोई खून का रिश्ता था और न ही सामाजिक भय से जबरन बनाया गया भाई रूपी बंधन। बस व्यवहार और दिल का रिश्ता था उससे। मेरी माँ को मम्मी बुलाता था वह। मैं न दोस्त थी न बहन और न ही प्रेमिका। नामविहीन एक-दूसरे के प्रति सम्मान एवं आदर-भाव का रिश्ता। हमें जब एक-दूसरे की सहायता की आवश्यकता होती तो कभी-कभार बात हो जाती थी। उसका बैंक में चयन हुआ तो मम्मी का आशीर्वाद लेने व मिठाई देने वह आया था। उस दिन उसका फ़ोन कई महीनों बाद आया था। काम से निर्वृत होकर मैंने सुधीर को फ़ोन किया। उसका फ़ोन नहीं लगा। उसके दूसरे नम्बर पर मिलाया वह भी नहीं मिला। मैंने एक-दो बार प्रयास और किया और फिर भूल गई। सात महीनों बाद एक कॉमन मित्र के माध्यम से मुझे ज्ञात हुआ कि सुधीर इस दुनिया में नही रहा। उसने आत्महत्या कर ली। लगभग सात माह पूर्व हमारे ही एक अन्य मित्र ने उसके मृत शरीर को पोस्मार्टम के लिए जाते हुए देखा। मैं सन्न रह गई। लगभग सात माह पूर्व, जब उसने मुझे फ़ोन किया था, वह मुझसे अपनी परेशानी साँझा करना चाहता था। वह मुझसे कुछ कहना चाहता था। वह बच सकता था यदि मैंने काम को इतनी प्रमुखता न दी होती। बस एक बार उससे यह पूछ लेती कि सुधीर सब ठीक है न। बस एक बार उसे हैलो के बाद बोलने का मौका दे देती। बस एक बार............. यह एक मौका फिर कभी नहीं मिला। वह मर गया। मेरी वजह से। मेरी काम के प्रति धुन की वजह से और कदाचित् मेरी महत्त्वकाँक्षाओं की वजह से। हम सभी इतने भौतिकवादी एवं आत्मनिष्ठ हो गए हैं कि स्वार्थपूर्ति वाले संदर्भों के लिए हमारे पास समय है अन्यथा अन्य किसी व्यक्ति, भावना अथवा संबंध के लिए हम अत्यधिक व्यस्त हैं। कितनी ही बार हमारे परिजन हमें जरूरी सूचना देने के लिए तड़पते रह जाते हैं परन्तु फ़ोन पर प्रतिबंध के कारण हम किसी अपने को खो देते हैं। वास्तव में जिनके लिए यह प्रतिबंध है वे सभी इसका बेहिचक एवं निर्भीकता से प्रयोग कर रहे हैं। परेशान होते हैं तो सच्चे, ईमानदार एवं कर्तव्यनिष्ठ लोग। मैं आज भी सुधीर की ‘गैर-इरादतन हत्या’ के अपराधबोध से ग्रसित हूँ। ऐसा कोई दिन नहीं जब वह मेरी स्मृति में न आता हो। ऐसा कोई दिन नहीं जब मैं वापस फिर उसी पल में लौटकर उसका फ़ोन सुनना न चाहती हूँ। ऐसा कोई दिन नहीं जब मैं उसे पुनः जीवित न करना चाहती हूँ। मैं फिर किसी और हत्या का भार वहन करने की स्थिति में नहीं हूँ इसलिए मैं सहर्ष आपकी संस्था छोड़ने के लिए तैयार हूँ। आशा करती हूँ कि मैंने आपका अमूल्य समय नष्ट नहीं किया होगा। धन्यवाद। (अपनी बात कहकर मीरा चली गई। सब विचारशून्य हुए स्तब्ध बैठे रह गए।) (यह मात्र कहानी न होकर मेरे स्वयं के साथ घटित सत्य घटना है। निवेदन है कि आप सब भी इस घटना के सबक से प्रेरित हो अपने किसी प्रियजन को आहत होने से बचा लें।)