Friday, August 6, 2021

तीसरा प्यार



दीदी आप कल नहीं आई, तो यहाँ का माहौल काफी गमगीन था। इस पार्क के मुरझाये फूलों की ओझिल होती नमी और हरियाली के पीलेपन में रूपांतरण के माहौल में आपकी कमी की ख़लिश आपके घर का पता ढूँढ रही थी।

हे प्रभु! इतना रूमानी अंदाज़। सब ख़ैरियत तो है?

दरअसल सभी आपको बहुत शिद्दत से याद कर रहे थे। किसी का दिल नही लग रहा था यहाँ। आप तो रोज़ ही आया करो। अन्यथा बहुत लोगों की निगाहें आपकी ही तलाश में ‘पुलिस’ हुई रहती हैं। आपके इंतज़ार में पार्क के मुख्य द्वार पर पत्थर-सी हुई आँखों से मानो सैलाब आ गया होता कल यहाँ।

हा-हा-हा! कुछ ज़्यादा नही हो रहा ऊषा? आज तुम किसी और ही मूड में हो। शब्दों का ऐसा अंदाज़-ए-ब्यां मुझे किसी दूसरी ओर धकेल रहा है। तुम्हारे भीतर के किसी तूूफान ने तुम्हें उद्वलित किया हुआ है। सीधे तौर से बताओ तुम आज किस बात से विचलित हो?

हम्म्म......... आप बहुत अच्छे से समझती हो दीदी मुझे। आप सही पकड़े हैं। मैं कल इस पार्क के लोगों के व्यवहार से थोड़ी परेशान हो गई थी।

क्यों क्या हुआ कल यहाँ? कोई विशेष बात?

हाँ दीदी। अब तक हम दोनों जिस व्यवहार पर संदेह कर मजाक में लिया करते थे, कल उसकी वास्तविकता जान पड़ी। आपके लिए एक के बाद एक लगी सवालों की झड़ी के उत्तर देते-देते मैं कल उक्ता गई थी।

ऐसा क्या-क्या पूछ लिया तुमसे? (मजाकिया लहजे़ में)

यही कि आप क्यों नही आईं आज? आप कहाँ से आती हो? आप क्या करती हो? आप कौन हो? ब्ला-ब्ला-ब्ला!

तब तो कल मेरी सारी जन्म-कुंडली का व्याख्यान तुमने बड़े चटकारे लेते हुए किया होगा! और इस ब्ला-ब्ला में कौन-कौन से प्रश्न थे?

छोड़ो ना दीदी। क्या करोगी जानकर? आप आज आ गईं, सबको बहुत अच्छा लग रहा है। काफी सुकून है आज पार्क में। हरियाली लौट आई है और फूलों पर मुस्कराहट छाई है।

तुम मजे ले रही हो मेरे। पहले तो सच बताओ कि तुम मेरे मजे ले रही हो या इन लोगों के?

हा-हा-हा! सच कहूँ तो कल बहुत आश्चर्य हुआ मुझे कि लोगों की सोच इस क़द्र बहक सकती हैं! क्या इनमें से किसी को बिलकुल ख़्याल नहीं आया कि ये......

तुम कुछ ज़्यादा ही सोच रही हो ऊषा। 

आप कुछ ज़्यादा ही नज़र अंदाज़ कर रही हो दीदी। आप इस बात को इतना हल्के में कैसे ले सकती हो?

ले सकती हूँ ऊषा। जानती हो क्यों? क्योंकि दिल तो बच्चा है जी।

आप हर बात मज़ाक में टालने का हुनर जानती हो दीदी। पर क्या कभी इन सब से आपको क़ोफ्त नही होती? अक्सर लड़कियों को इस असभ्य आचरण से दो-चार होना पड़ता है। आपको नही लगता कि इन लोगों को अपने नयनों के तीखे कोरों की सफे़दी से झांकने के प्रयास से पहले अपने-अपने परिवारों के विषय में भी सोचना चाहिए!

तुम तो ज़्यादा ही संज़ीदा हो गई ऊषा। तुम किस बात से अधिक विचलित हो? इनके घूरने से या ‘किसी लड़की’ के विषय में प्रश्न करने से?

मैं समझ नहीं पा रही कि ये लोग चाहते क्या हैं?

यदि मैं तुमसे कहूँ कि सिर्फ़ मुझसे ‘दोस्ती’ करना चाहते हैं। बात करना चाहते हैं। तो क्या तुम इस बात को स्वीकार करोगी?

मतलब? ऐसा कैसे हो सकता है? आप एक लड़की हो...........

और ये पुरूष हैं। कुछ विवाहित भी हो सकते हैं और उम्रदराज़ भी। इनकी आपकी मित्रता कैसे हो सकती है? क्यों करनी है इन्हें आपसे दोस्ती या बात? इनकी नीयत सही नही होगी। आपका परिवार और समाज क्या सोचेगा? और सबसे बड़ा सवालः ऐसा कैसे हो सकता है? यही सब सोच रही हो ना तुम?

हाँ दीदी। पर आपको कैसे पता?

यही मानवीय प्रवृत्ति है। जैसे तुम सोच रही हो, अधिकतर लोग ऐसे ही सोचते हैं। पर तुम्हें नही लगता कि अब इस सोच के दायरे से बाहर निकल जाना आवश्यक है! साथ ही दोस्ती की परिभाषा को भी विस्तृत किया जाना चाहिए। दोस्ती किसी भी उम्र में और किसी के भी साथ हो सकती है। यह एक स्वार्थहीन और निश्छल रिश्ता होता है। बहुत गहरा भी, जिसमें दो व्यक्ति अपने भेद, दिल की बात, क्रोध, स्नेह, प्यार सब साँझा करते हैं, एक विश्वास के साथ। यह विश्वास इस बंधन को बहुत मजबूती भी देता है। ‘बातें’ जो कदाचित् आप किसी और रिश्ते के साथ खुलकर न कर सको, वे सब इस रिश्ते में निःसंकोच भाव से की जाती हैं। समस्त सघन रिश्तों मसलन माता-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नी से इतर इस रिश्ते की अपनी अलग भूमिका है। इस रिश्ते में जो ‘प्यार’ है उसे शब्दों में नही बाँधा जा सकता।

यह तुम्हारी और हमारी दोस्ती ही तो है जो इस विषय पर हम बिना किसी संकोच बात कर रहे हैं। तुम शायद ये बातें और किसी ‘रिश्ते’ से न करना चाहोगी।

मैं सहमत हूँ आपसे दीदी।

यह बात तो हुई दोस्ती के विषय में। अब समस्या यह है कि यह दोस्ती किन दो व्यक्तियों के बीच है! हम दोनों लड़कियाँ है और साथ रह सकती हैं और इस विषय पर बात कर सकती हैं। और एक-दूसरे से बहुत प्यार भी करती हैं। परन्तु यदि तुम्हारे या मेरे स्थान पर कोई लड़का हो तो...........

तो दीदी फिर वही समस्या कि ‘ऐसा कैसे हो सकता है’? ऐसी बातें एक लड़के के साथ कैसे की जा सकती हैं और ये दोस्ती का प्यार क्या होता है?

ये दोस्ती वाला प्यार मेरे शब्दों में ‘‘तीसरा प्यार’’ है।

तीसरा प्यार? पहला और दूसरा प्यार कौन-से हैं दीदी?

ऊषा! हम अक्सर दो ही प्रकार के प्रेम के विषय में बात करते हैं। पहला, जिसमें दो लोग एक-दूसरे के प्रति निष्ठापूर्वक समर्पित होते हैं। और दूसरा, जिसमें प्यार एक तरफ़ा होता है। परन्तु इन दोनों के अतिरिक्त एक तीसरे  प्रकार का प्यार भी होता है।

दीदी आप थोड़ा और विस्तार से समझाओगी?

समझाती हूँ। तुमने कुछ फिल्मों में देखा होगा कि हीरो-हीरोइन को एक-दूसरे के साथ रहना व बातचीत करना बहुत अच्छा लगता है। वे एक-दूसरे की परवाह करते हैं, दुःख-सुख का बहुत ध्यान भी रखते हैं। परन्तु वे एक-दूसरे के साथ जीवन-व्यतीत नही करना चाहते। शादी नही करना चाहते।

हाँ दीदी। उसे इंफेचुएशन या आसक्ति कहते हैं।

हम्म्म......... आसक्ति में एक-दूसरे के प्रति परवाह नही होती। यह क्षणिक भी होती है। आज आसक्ति ‘अमुक’ के प्रति है, तो हो सकता है कि कल किसी ‘अन्य’ के प्रति हो। 

तो फिर यह कैसा सम्बन्ध है दीदी?

तुम्हारे और मेरे जैसा। दोस्ती का। बस अन्तर है ‘जेंडर’ का। यही है तृतीय प्रकार का प्रेम।

ऊषा! किसी का अच्छा लगना या न लगना इसका सम्बन्ध उस ‘हृदय’ से है जो मात्र रक्त ही पम्प नही करता है, बल्कि संवेदनाओं एवं भावनाओं से सराबोर भी है। जिसे ईश्वर प्रदत्त वे जिम्मेदारियाँ भी दी गई हैं जिनका निर्वहन करते इसे कई बार अनेक पीड़ाओं से गुजरना पड़ता है। अक्सर इसकी पैरवी चक्षुओं द्वारा की जाती है। परन्तु इसे समझने की मेधा कई बार विद्वानों में भी नही होती। यह अतार्किक है। तार्किक बुद्धिधारियों के लिए यह विचार अपराध है। परन्तु ये भावनाएँ सभी सजीवों में निहित होती है। यह तृतीय प्रेम आवश्यक नही किसी फलाँ व्यक्ति के ही प्रति हो। यह प्रेम कई लोगों में किसी वस्तु विशेष के प्रति होता है, तो किसी में किसी सामाजिक कार्य के प्रति भी होता है। यह आभासी होते हुए भी यर्थाथ है, जिसके अस्तित्व को नकारा नही जा सकता। 

किसी सामाजिक भावना के प्रति पे्रम को उच्च काटि का मानते हुए उसे विभिन्न पुरस्कारों से नवाजा जाता है। ‘समाज सेवा’ का भी नाम दिया जाता है। किसी वस्तु के प्रति इस भावना को ‘वस्तु-प्रेम’ कहा जाता है। किसी संबंधी से इस प्रकार की भावना को रिश्तों के बंधन के रूप में परिभाषित किया जाता है। मात्र ‘विपरीत लिंग’ से ‘दोस्ती’ में इस भावना को प्रदूषित किया जाता हैं। विभिन्न प्रकार की निकृष्ट शब्दावली से इस बंधन की डोर को जबरन जोड़ा जाता है। पवित्र होते हुए भी सामाजिक कलंकों के दाग आज भी हमारे समाज में इस रिश्ते को बदरंग करते हैं। सीधे शब्दों में कहा जाए तो बदले हुए इस आधुनिक समाज में ‘एक लड़के और एक लड़की की पाक दोस्ती’ स्वीकार करने का साहस अभी भी नही आ सका। इस तीसरे प्यार की उचित परिभाषा अभी भी अनुचित का जामा पहने हुए है। पता नही कब इस ‘तीसरे प्यार’ को सामाजिक स्वीकारोक्ति का न्याय मिलेगा?

मैं आपकी बातों से सहमत हूँ दीदी। और आपके इस तीसरे प्यार की इतनी भिन्न अवधारणा का बहुत सम्मान करती हूँ। अभी हमारे समाज को इस अवधारणा के प्रति अपनी सोच विस्तृत करने में बहुत अधिक समय लगेगा। यहाँ रिश्ते निश्चित परिभाषा के दायरे में बंधे सम्बन्ध में तो स्वीकार्य हैं परन्तु उन दायरों के बाहर अन्य सभी अपराधी हैं। प्रत्येक परिवर्तन में समय लगता है। इसमें भी लगेगा। जो स्थिति पूर्ववत् थी, वह अभी नही है। और आगे आने वाले समय में और अधिक परिवर्तन निश्चित रूप से होंगे। 

सही कहा तुमने। लेकिन ये बताओ इन पार्क वालों से दोस्ती पर अब तुम्हेें कोई आपत्ति तो नहीं? तुम्हारी ही तरह क्या ये मेरे दोस्त बन सकते हैं?

हा-हा-हा! नही, कोई आपत्ति नही। चलिए, अब घर चलते हैं।


नीरज तोमर

मेरठ।


Tuesday, May 25, 2021

टैलेंटेड बहू


अरे मैडम! आप कब आई? हमें पता भी नहीं चला। 

हा-हा-हा। कैसे पता चलता सर! आज पूरा स्टाफ रूम किसी विशेष कार्य में लीन है। इतना सन्नाटा मैंने पहले तो कभी नहीं देखा। आज तो आप लोगों को स्टाफ रूम का एसी आॅन करना भी याद नहीं रहा। यह देखिए कितनी गंदगी यहाँ हो रही है, मैं ज़रा सफ़ाई वाले को बुलाती हूँ। और हाँ! जगदीश सर, क्या आपने प्रिंसिपल सर को अपना प्रोजेक्ट दिखा दिया? रीना मैडम आपके बेटे की तबियत कैसी है अब? और...........

रजनी मैडम बस भी कीजिए अब। बैठ जाइए ज़रा। 

क्या हुआ सर? आप सभी मुझे इस प्रकार से क्यों देख रहे हैं?

(यकायक सभी ठहाके लगाकर हँसने लगे। उनके ठहाकों की अचानक आई आवाज़ से रजनी मैडम सिहर गईं।)

मैं कुछ भी समझ नहीं पा रही हूँ रीना मैडम। सब ठीक तो है ना? आप सभी मुझ पर यूँ हँस क्यों रहे हैं?

इसलिए क्योंकि हम सभी राहुल सर के लिए लड़की ढूँढ रहे हैं और राहुल इसलिए परेशान है कि आपको शादी की इतनी जल्दी क्या थी? वह आपसे शादी करना चाहता है।

ओ........... तो ये बात है। राहुल जल्दी कहाँ! मुझे शादी किए हुए तो आठ साल हो गए। और तुमने विद्यालय दो साल पहले ज्वांइन किया है। और हाँ! तुम तो मुझसे शादी कर लेते, पर क्या मैं तुमसे करती! ये भी तो एक बात है।

हा-हा-हा। बस यही तो बात है मैडम रजनी। आपकी हाज़िर जवाबी भी गज़ब है। कितनी सहजता से आपने इस बात की दिशा को घुमा दिया। कोई और होता तो न जाने कितना बड़ा हंगामा हो गया होता।

इसमें हंगामा करने वाली क्या बात है? यदि हमें किसी की कोई बात या कोई व्यक्ति विशेष पसंद है, तो वे हमारी व्यक्तिगत् भावनाएँ हैं। हमें तब तक उनका सम्मान करना चाहिए, जब तक कि वे हमारे लिए नुकसानदायक न हो। तुमने अपनी भावनाएँ, मेरा सम्मान करते हुए सबके समक्ष रखी। तुम मुझे परेशान नहीं कर रहे हो, मेरे आत्मसम्मान को ठेस नहीं पहुँचा रहे हो, मेरे परिवार के लिए किसी परेशानी का सबब नहीं हो, तो भला मैं क्यों तुम्हारा अपमान करूँ?

मैडम बस आपके इसी व्यवहार के कारण ही तो मुझे आप जैसी लड़की से विवाह करना है। स्टाफ रूम में आते ही आपको सबकी कितनी फ़िक्र है! आप किसी काम के लिए कभी इस बात का इंतज़ार नहीं करती कि कौन करेगा, स्वयं करना आरंभ कर देती हो। घर, बच्चा, विद्यालय, समाज सभी प्रकार की जिम्मेदारियाँ इतने अच्छे से निभाती हो। यह सब हम स्वयं देखते हैं। तो भला आप जैसी लड़की से कौन विवाह करना नहीं चाहेगा?

सोच लो राहुल। यह सब तुमने बाहरी रूप देखा है। मेरे जैसी लड़की से हर लड़का शादी करना चाहता है, परन्तु मेरे जैसी लड़की का साथ निभाने के लिए मेरे पति जैसा धैर्यशील व निरहंकारी व्यक्ति होना भी आवश्यक है। क्या तुम स्वयं को उन कसौटियों पर खरा मानते हो?

हाँ मैडम! जब कमाऊ, सर्वगुणसम्पन्न वधु मिलेगी, तो क्या करेंगे अहंकार का।

हा-हा-हा। यह कहना जितना आसान है राहुल, करना उससे कहीं अधिक कठिन। जब लड़की स्वयं कमाती है, तो अपने निर्णय भी स्वयं लेती है। उसका अपना एक समाज भी बनता है, जिसके अनुसार उसे व्यवहार भी करना होता है और सामाजिक दायित्व भी निभाने होते हैं। उन्हीं सामाजिक दायित्वों को निभाने के लिए उसे उन्हीं 24 घंटों में से समय एडजस्ट करना होता है, जो सभी के पास हैं। इसी समायोजन में यदि कभी-कभार कुछ दायित्व या व्यक्ति नज़रअंदाज हो जाएँ तो यह उसका एक गुनाह बन जाता है। किसी को इस बात से कोई सरोकार नहीं होता कि वह अपने लिए कुछ कर पायी या नहीं। आज उसे खाना भी मिला या नहीं। उसे कोई कष्ट तो नहीं। कहीं कोई दर्द तो नहीं। बस सबके सम्पन्न होते कार्यों पर सब प्रसन्नचित रहते हैं, परन्तु यदि कोई भूल हो जाए या तनिक भी वह अपने लिए कुछ कर ले, तो वह गैर-जिम्मेदार हो जाती है। और पता है तुम्हें ऐसी ‘टैलेंटेड बहू’  को कुंठित होने का भी कोई अधिकार नहीं होता! यदि किसी भी प्रकार की कोई कुंठा उसके चेहरे पर नज़र आती है तो तुरंत प्रश्न दागा जाता है कि कौन कहता है तुम्हें नौकरी करने के लिए? घर-परिवार की जिम्मेदारी निभाओ। घर बैठो। बस! इन्हीं शब्दों के वार से बचने के लिए लबों को सीलें टैलेंटेड बहू अपने कर्तव्यों का निर्वहन करती जा रही है।

वस्तुतः हमारा समाज दोगला है। उसे टू-इन-वन बहू चाहिए। एकः जो कुछ बोले नहीं। सीधी-सादी, सरल। घूँघट में लिपटी। आदेशों पर दौड़ने वाली। एक पैर पर तैनात।

और दूसरीः जो माॅर्डन हो। आत्मनिर्भर हो। कमाऊ हो। एक फोन काॅल पर एवेलेबल हो। समाज में प्रजेंटेबल हो। सबके काम बिना किसी ऊँ-आह के करती जाए। और फिर समाज में आप यह भी कहें कि हमने तो अपनी बहू को बेटी का दर्जा दिया हुआ है। वह जैसे चाहे, वैसे रह सकती है। हम इतने आधुनिक विचारों के हैं कि हमें बहू की नौकरी, पहनावे या उसके समाज से कोई आपत्ति नहीं है। हमने अपनी बहू को इतनी स्वतंत्रता दी हुई है कि वह अपने निर्णय स्वयं ले सकती है। मुझे यह समझ नहीं आता राहुल बहुओं को इस प्रकार की स्वतंत्रता देेने का अधिकार इन्हें किसने दिया? बहू परिवार की सदस्य होती है या बँधुआ मजदूर, जो इनकी दी हुई स्वतंत्रता के आधार पर अपने कदम बढ़ाती है। क्या उसका अपना कोई वजूद नहीं होता? वह इस प्रकार की स्वतंत्रता ससुराल वालों के रहमोकरम पर पा रही है या अपनी योग्यता के आधार पर? उसकी अपनी प्रतिभा क्या कोई मायने नहीं रखती? यदि वह यह डबल जिम्मेदारी निभा रही है तो भी ससुराल के अहसानों तले दबकर! जिसमें उसके लिए सोचने वाला कोई नहीं है। वह सुबह मशीन की भांति स्टार्ट हो रात तक चलती रहती है। और चलते रहना उसकी मजबूरी भी है। यदि वह रूकी तो तानों एवं आरोपी की बौछारों से उसका स्वागत घर में होगा। वास्तविकता तो यह है कि ‘टैलेंटेड बहू’ आत्महित एवं स्वार्थ के अनुसार चाहिए। 

अब तुम्हें ही देख लो। तुमने मुझमें देखा कि घर-परिवार-समाज-नौकरी-बच्चा सभी कुछ मैं संभाल लेती हूँ, इसलिए तुम्हें मेरे जैसी पत्नी चाहिए। पर क्या तुमने ये सोचा है कभी कि मुझे भी इसी प्रकार का सर्वगुणसम्पन्न वर चाहिए हो सकता है? मैं भी ऐसे व्यक्ति को अपने पति के रूप में चाहती होंगी जो अपने सारे दायित्वों को पूर्ण निष्ठा से पूरा करे और मैं वह समय अपने सपनों को पूरा करने में लगा सकूँ। एटीएम नहीं बनना मुझे, अपने सपनों को आसमान की उड़ान देनी है। परन्तु क्या कोई विकल्प है मेरे पास अपने सपनों को पूरा करने के लिए?

तुमने देखा होगा कि आजकल पारिवारिक विवाद के मामले बहुत बढ़ गए हैं। जानते हो क्यों? क्योंकि लोग घर पर बेटी रूपी बहू न लाकर ‘टैलेंटेड वधु’ लाने लगे हैं। जिस पर आते ही सभी अपने-अपने हिस्से की जिम्मेदारियाँ बाँटनी आरंभ कर देते हैं। कोई रसोई उसे भेंट में देता है, तो कोई घर के खर्च में उसकी सहभागिता समझाता है। बीस वर्ष से ऊपर के देवर-ननद बेटे व बेटी के रूप में प्रस्तुत किए जाते हैं। घर का कौना-कौना उसे एक-एक जिम्मेदारी के रूप में दिखाया जाता है। मस्तिष्क में अनगिनत आइडियाज़ के साथ उसका भव्य स्वागत किया जाता है। परन्तु कोई उससे यह नहीं पूछता कि इस नए परिवार से उसे क्या आशाएँ हैं? वह कौन-कौन सी जिम्मेदारियाँ पूर्ण करने में स्वयं को सक्षम मानती है? या कौन-कौन सी जिम्मेदारियाँ पूर्ण करने की इच्छुक है? उसकी इच्छा अथवा अभिलाषाओं पर तो कभी कोई विचार ही नहीं करता। बस यहीं से विवाद आरंभ हो जाते हैं। कुछ समय तक तो वह अपने पूर्ण उत्साह से समस्त दायित्वों का निर्वहन करती है परन्तु सभी व्यक्ति प्रत्येक कार्य में निपुण नहीं हो सकते। जहाँ उसकी निपुणता में कमी आयी, वह तुलना एवं उपहास भरे अल्फ़ाजों से छलनी होने लगती है। यहाँ उसके स्वाभिमान पर चोट कर उसके धैर्य की अन्तिम सीमा तक परीक्षा ली जाती है। और जब पानी सीमा से ऊपर जाने लगता है, तो परिवार विवादों की बाढ़ में बहने लगताा है। चूँकि वह बाँध ‘टैलेंटेड बहू’ के धैर्य के चरम बिन्दु पर टूटा है, तो निश्चित रूप से वह है- ‘गिल्टी’।

इसलिए तुमसे कहती हूँ ‘गिल्टी बहू’ मत ढूँढो। अब देखो तुम्हें ‘टैलेंटेड लड़की’ से कितना कुछ सुनना पड़ा! हो सकता है.......... ना-ना यकीनन तुम्हें यह सब सुनकर बुरा लग रहा होगा। लेकिन मैं तुम्हें मात्र यही समझाना चाहती थी कि यदि यह सब सुनने का धैर्य तुममें है, तो तुम ‘टैलेंटेड बहू’ से शादी करने के योग्य हो। यदि तुम इन समस्याओं को सुलझाने की योग्यता रखते हो और यदि तुम अपने हमसफ़र के स्वाभिमान का सम्मान कर सकते हो तो तुम ‘टैलेंटेड बहू’ से शादी कर सकते हो। साथ ही यदि तुम उसकी उड़ान पर अपने अहंकार एवं ईष्र्या की भावना को नियंत्रित रख समाज में उसकी प्रतिभा की प्रशंसा कर सकते हो, तो तुम ‘टैलेंटेड बहू’ से विवाह कर सकते हो। यदि तुम उसके बढ़ते करियर पर बच्चों की जिम्मेदारी स्वयं ले, उसे समय दे सकते हो तथा स्वयं को उसके सहारे के रूप में न प्रस्तुत कर, उसके साथी बन साथ चल सकते हो, तो तुम निश्चित रूप से ‘टैलेंटेड बहू’ से शादी कर लेना। परन्तु यदि तुम मात्र स्वार्थसिद्धि हेतु कि वह तुम्हारे एटीएम के रूप में तथा तुम्हें पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्त करने के लिए तुम्हारी पत्नी के रूप में आए, तो याद रखना ज़िंदगी ‘गिल्टी/नोट गिल्टी/ हू इज़ गिल्टी?’ के बीच उलझकर रह जाएगी। अब निर्णय तुम्हें करना है कि नम्बर एक बेहतर है अथवा नम्बर दो!




Thursday, May 13, 2021

कलयुगी कोरोना


बाहर वाले कमरे की खिड़की के पास बैठी कौतूहलवश बाहर झाँक रही थी। पड़ौसी की बगिया के ‘रात की रानी’ के फूल और साथ ही कुछ गुलाब काले-काले बादलों से आती ठंडी-ठंडी हवा के साथ इठला रहे थे। कुछ कुकुर भोजन की तलाश में इधर-उधर भटक रहे थे। पर लगता है, आज उन्हें कुछ भी मिलना कठिन है। रोज़ शर्मा जी के बिस्कुट के चटोरे ये कुकुर आज सुनसान पड़ी सड़कों को ताड़ रहे थे। सन्नाटा मानों कान के पर्दे फाड़ देगा। घरों में शोर है, पर रास्ते मौन हैं। विचित्र-सा दृश्य है। अब यह सब दिनचर्या-सी बन गई है। पिछले एक वर्ष से, जब से व्यक्ति से ज़्यादा ‘कोरोना’ का हाल लिया जाने लगा है, यह सन्नाटा कभी भी ज़िदगी थाम-सी देता है। सुनसान-सी ज़िंदगी में चूँ-चूँ करती आवाजंे हृदय गति बढ़ा देती हैं। आज फिर किसी का कोई अपना......।


कुछ ऐसा ही है कोरोना ‘काल’। दिसंबर 2019 से 2021 तक न जाने कितनों ने कितने अपनों को खो दिया। अब फ़ोन की घंटी बजते ही दिल बैठने लगता है। विगत वर्ष जब लॉकडाउन शब्द ने जीवन में प्रवेश किया, तो कुछ अनुभवों ने बहुत रोमांचित किया। अपनों के साथ समय बिताने के सुकून ने बहुत आनन्दित किया। रोज़ की भागमभाग से दो पल नहीं वरन् दो माह से अधिक ऐसे रहे, जिसमें सबने अपने शौक पूरे किए। कुछ भय अवश्य था, पर मज़ा आ रहा था। किंतु यह वर्ष...... चहुँ ओर की चित्कारों ने खौफ़ का मंजर कायम कर दिया। हर पल किसी अपने को खोने का गम दिन-रात आँखों को नम किए हुए है। इस बीमारी से बचे लोग अपनी आगे आने वाली पीढ़ियों को इस समय के विषय में सदैव भीगी पलकों से बताएंगे।

जब चीन से इस बीमारी ने फैलना आरंभ किया तो विश्व स्तर पर चीन की आलोचना की गई, जो की भी जानी चाहिए थी। परन्तु मात्र आलोचना, इसके फैलाव को रोकने के लिए पर्याप्त नहीं थी। ऐसा नहीं है कि भारत ने प्रयास नहीं किए। आरंभिक स्तर पर समस्त आवश्यक कदम उठाए गए। परन्तु इसी बीच भारत में राजनीति, मानवीयता से उच्च हो गई और प्रयास स्वार्थानुरूप हो गए। भारत मूल्यों एवं संस्कारों का देश है। यहाँ की संस्कृति एवं सभ्यता वैश्विक स्तर पर पूजनीय एवं अनुसरणीय है। परन्तु ‘कोरोना’ के इस विकट समय में कुछ उदाहरणों ने सम्पूर्ण विश्व में देश को शर्मसार कर दिया। ‘आपदा में अवसर’ का इतना विभत्स रूप एवं पशुवृति देख मानवता छलनी हो गई।
सर्वप्रथम बात करते हैं इसके प्रसार की। मुझे याद है फरवरी,2020 में जब भारत में कोरोना का प्रवेश हुआ, तो दिसंबर,2020 इसके फैलाव के लिए सर्वाधिक चुनौतीपूर्ण बताया जाता था। परन्तु वह समय काफी शांतिपूर्ण ढंग से बीत गया। शनैः-शनैः भरोसा होने लगा था कि हम यह जंग जीतने वाले है। निःसंदेह इसी कारण हम सभी लापरवाह और फिर बेपरवाह भी हो गए। तभी अप्रैल में अचानक बढ़े केसों की बाढ़-सी आ गई। यकायक यह क्या हुआ?
पिछले कुछ माह देखें तो बंगाल चुनाव एवं पंचायत चुनाव इस अनियंत्रित प्रसार के विशेष कारण रहें। भारत में कोरोना का गाँवों में प्रवेश सर्वाधिक खतरनाक परिस्थितियों का जनक होगा, यह सर्वविदित था। इन चुनावों ने कोरोना के प्रसार की गति को कई गुना बढ़ा दिया। फिर वही हुआ जिसका भय था। और परिणाम भी सभी के सम्मुख हैं। ‘‘मद्रास हाइकोर्ट ने तो चुनाव आयोग को दोषी मानते हुए टिप्पणी की कि चुनाव आयोग के अफसरों पर इस कृत्य के लिए सामूहिक हत्या का मुकदमा चलाया जाना चाहिए।’’ ‘‘आस्ट्रेलियन अख़बार लिखता है कि घमंड, अंध राष्ट्रवाद और नौकरशाही की अयोग्यता ने भारत को तबाही में धकेल दिया।’’ ये कथन मामूली नहीं हैं। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय साख पर प्रश्नचिह्न तो आरोपित करते ही हैं, साथ ही भारत में बिगड़े हालातों एवं उनके कारणों की ओर ध्यानाकर्षित भी करते हैं।

इसी के साथ गाँव में एक भ्रांति भी थी कि खेतों में बहाए पसीने में कोरोना कहाँ टिक पाएगा! इसी अतिआत्मविश्वास ने गाँव में लाशों के ढेर लगाने आरंभ कर दिए हैं। मेरी छोटी-सी समझ बड़े लोगों (नेताओं) की नीतियों और युक्तियों को नहीं समझ पा रही है कि पिछले एक वर्ष में मंदिरों एवं मूर्तियों के निर्माण में लगाए गए ‘धन’ को इन विकट परिस्थितियों से निपटने के लिए अपेक्षित मदों में क्यों नहीं खर्च किया गया? 2020 हमें मेडिकल क्षेत्र में हमारी तैयारियों की सच्ची एवं कड़वी तस्वीर दिखा चुका था। अपर्याप्त अस्पताल एवं दवाइयों ने हमें सिखा दिया था कि आस्था को श्रद्धा के साथ सींचे परन्तु वास्तविकता में जीते हुए बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति करना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। इन सबके बावजूद हमारे हुक्मरानों के स्वार्थपूर्ण निर्णयों ने देश की जनता के प्राणों को इस क़दर संकट में डाल दिया! कैसे उठाएंगे ये इतनी मौतों के जिम्मेदारी के शर्मनाक बोझ को?

आम जनता उच्च पदों हेतु समझदार नहीं होती है, तभी तो वह प्रधानमंत्री एवं मुख्यमंत्री पद की दावेदारी नहीं करती। परन्तु जिन पर वह भरोसा कर उस पद पर सुशोभित करती है, उनके निर्णय इतने ग़लत हो गए कि उन्हें बनाने वाले ही मिटने लगें? इतनी अहसानफ़रामोशगी, इतना स्वार्थ, इतनी निष्ठुरता कि मौत के इतने भयावह मंजर पर आँखों में इक आँसू न हो! इटली के प्रधानमंत्री अपने देश के हालातों पर सम्पूर्ण विश्व के सम्मुख रो पड़ते हैं, ईश्वर से अपने देश के लिए न केवल प्रार्थना करते हैं, वरन् अथक प्रयासोें से स्थिति नियंत्रित भी करते हैं। और भारत में............ थाली, कटोरी, चम्मच राग........... इतिहास इन कृत्यों को कभी माफ़ नहीं करेगा। ईश्वर में लोगों की आस्था का दुरूपयोग करने वाली राजनीति भारतीय इतिहास का सबसे काला अध्याय होगी। 

एक बात तो स्पष्ट है कि चारों ओर के मंजर ने लोगों को यह तो भली-भांति समझा दिया कि चाहे लखपति हो, या करोड़पति और हो चाहे रोड़पति अपने साथ न कुछ ले जा सका है और न उसका अपने लिए ही उपभोग कर सका है। तो ये कौन प्राणी हैं जो मौत का भी व्यापार कर रहे हैं? दवाइयों की कालाबाज़ारी, ऑक्सीजन पर राजनीति, अस्पतालों में अंग व्यापार इससे अधिक तुच्छता और भला क्या हो सकती है? इतनी कठोरता प्राप्त करने की ये कौन-सी सिद्धि है, जो इस हाहाकार पर भी हृदय विदारित नहीं होता!!! 

हाल ही की एक घटना में एक नर्स असली रेमडेसिविर इंजेक्शन को मरीज को न लगाकर अपने साथी को दे देती। और वह उसे ब्लैक मंे बेच मुनाफ़ा कमाता। मरीज को वह नर्स नॉर्मल इंजैक्शन लगाती, जिसके कारण बहुत से मरीजों की मृत्यु तक हो गई। इसी क्रम में पिछले वर्ष एक डॉक्टर ने 100 से अधिक मरीजों को मारकर उनके अंग बेच दिए। अस्पतालों में मरीजों को ऑक्सीजन सिलेंडर लगाने का दिखावा किया जा रहा है। उनके तीमारदारों द्वारा लाया गया ऑक्सीजन सिलेंडर पुनः बाज़ार में बिकने के लिए आ जाता है। वेंटिलेटर पर मृत व्यक्ति को लंबे समय रख लोगों से पैसा ठगा जाना............. क्या यह सब कलयुग का चरम बिंदु नहीं है? क्या यह राक्षसी प्रवृत्ति नहीं है? इसी प्रकार की अनेक घटनाओं से इंसानियत लज्जित हो रही है। तो क्या कोई अंत है इन सबका? या यह सब प्रकृति का न्याय है? किसी अवतार को अवतरित करना अर्थात् पुनः एक और आस्था का व्यापारीकरण हो जाना। कहीं ऐसा तो नहीं कि प्रकृति ने अधर्म के विनाश हेतु इस ‘कलयुगी कोरोना’ को परोक्ष रूप से अवतरित किया हो? और हम अब भी लालच के मार्फ़त शमशान सजाने में लगे हैं। पुण्य के स्थान पर पाप कमाने में लगे हैं।

इस समस्या के निस्तारण के लिए प्रत्येक वर्ग को सचेत एवं मर्यादित होना ही होगा। धन एवं सत्ता के लोभ का त्याग कर परहित एवं परोपकारी बनना होगा। यदि अब भी नहीं संभले, तो ऐसा न हो कि किसी भी व्यक्ति के पास खोने के लिए कुछ शेष ही न बचे।

Wednesday, August 19, 2020

मैंने तुमसे ये तो न कहा था!

मैं उसे जानती थी और वो मुझे
मैं उसे चाहती थी और वो मुझे
मैंने उसे खु़द को सौंपा था और उसने मुझे
मैंने उस पर भरोसा किया था और उसने.........
मैंने उससे ये तो न कहा था कि तुम.........
मुझे यूँ तार-तार करना,
इस क़दर मुझे लाचार करना,
इतना बेजार करना,
बिन सोचे, बिन विचार करना।

तुम ही तो कहते थे ना कि मैं
तुम्हारी जिंदगी हूँ,
प्रीत हूँ, जीवन का संगीत हूँ।
मैंने भी तुमसे कहा था कि
तुम मेरी साँस हो, 
जीने की आस हो,
एक सुखद अहसास हो।
पर मैंने तुमसे ये तो न कहा था कि तुम......
सरे राह मेरे कपड़े उतार देना,
अपने दोस्तों को मेरे जिस्म पर विस्तार देना,
मेरे नाजुक अंगों पर घातक वार देना,
मेरी पीड़ा से अपने आनन्द को निखार देना।

मैंने तो माना था कि मैं तुम्हारी थी,
तुम पर हर तरह से वारी थी।
पर मेरा अंतर्मन रो उठा ये जान कर,
कि तुम्हें दया तक नही आती, 
किसी नन्हीं सी जान पर।
न कोई उम्र है, न कोई पहनावा
तुमने तो बस किया, 
सबसे अपनेपन का दिखावा
पर उनमें से किसी ने तुम्हें ये तो न कहा था कि तुम....
उस अबोध को किसी अंधेरी गली मेें ले जाना,
और फिर निष्ठुरता से उसके कोमल अंगों को दबाना,
तोड़ना उसके जिस्म के एक-एक जोड़ को,
फंेक देना गला दबाकर कि चलती रोड़ को,
या खिला देना बोटी उसकी जंगली कुत्तों को,
और लगा देना आग बचे हुए टुकड़ों को।
उसने तो तुम्हारी दिखाई, 
मामूली टाॅफी का ही तो लालच किया था।
और तुमने उसको इसका ऐसा सिला दिया था।
गलती थी उसकी, लालची थी वो
प्यार समझती थी, तो भरोसा कर गई वो
पा गई सज़ा और दे गई तुम्हें मज़ा।
पर उसने ये तो न कहा कि तुम..........
उसकी कोमलता को रक्तरंजित कर
उसे मृत्यु का दान देना,
उसके विश्वास का ये इनाम देना।


एक और अबोध पूछती है तुमसे
चलना नही आता, अक्सर लेटी रहती है वो
उसके चंचल नेत्र बहुत लुभाते हैं सबको,
उठती बांहों को देख, सब उठाते हैं उसको,
सबकी चहेती और सबकी लाड़ली है वो,
अभी ज़्यादा उम्र नही, थोड़ी बावली है वो।

पर तुम्हें तो उसका अपूर्ण यौवन नज़र आता है,
उसका हंसना भी तुम्हें बहुत ही भाता है,
उसकी नासमझ-सी अंगड़ाई तुम्हें बुलाती है,
और तुम्हारे परिपक्व अंगों को उकसाती है।
तुम निकल पड़ते हो, लेकर उसे अपनी गोद में
तुम बन जाते हो उसके अपने, उसके अज्ञान बोध में
उसकी नाजुक उंगलियाँ छूती हैं तुम्हारे होठों से,
और तुम दबा देते हो उसे अपने कुटिल दाँतों से,
वो चीखती है, ज़ोर से होकर बेबस
क्यों रखा तुमने हाथ उसके मुँह पर,
नही समझती इसका सबब।
भीगे नयनों से निहार है, और पूछती है तुमसे
कि मैं तुमसे ये तो न कहा था कि तुम...........
यूँ चुरा लाना मुझे,
यूँ बेदर्दी से दबाना मुझे,
यँू इतना रूलाना मुझे,
और जीवन मुक्त कर जाना मुझे,
और जीवन मुक्त कर जाना मुझे।

मैं भी जा रही थी अपनी राह,
तुमने ही तो था मुझे चाहा,
मेरा तुम्हारा तो परिचय भी न था,
तुमने मुझे देखा कभी,
मेरी तो यह रूचि में भी न था।
फिर तुम्हें क्या लगा?
कि तुम भर लाए उस ज़हर का प्याला,
जिसने मेरा सारा जिस्म जला डाला,
मैं कैसे कहूँ कि मैंने तुम्हें ये तो न कहा था कि तुम....
जब मैं हूँ तुमसे पूर्णतः गुम।
तुमने छीन लिया मुझसे मेरे वजूद को,
मेरे पहचान को, मेरे जुनून को,
अब मैं बाहर नही जाती हूँ,
खुद को ही नही जान पाती हूँ,
पर तुमसे मिलना चाहती हूँ,
और पूछना चाहती हूँ कि
क्या तुम अब भी मुझे चाहोगे?
क्या अब भी मुझे अपनाओगे?
जैसी थी, वैसी तो तुम्हें न मिल पाई मैं
पर जैसी तुमने बनाई, 
क्या इसे आजमाओगे?
क्या अब तुम मेरी जिंदगी में आओगे?
क्या अब तुम मेरी जिंदगी में आओगे?
यदि नहीं,
तो मुझे बताओ!
मैंने तो तुमसे न कहा था कि तुम........
मुझे ये रूप देना,
ये तड़पाती धूप देना,
लोगों का उपहास देना,
जिंदगी की प्यास देना,
और मौत का अहसास देना।

मैं भी पूछना चाहती हूँ तुमसे कि....
तुम जानते थे ना, मेरा दिमागी दिवालियपन?
बात ये, कि क्यों हूँ मैं अधनंग?
ज्ञान नही मुझे मेरे होने का,
तो क्या समझूँगी भला लड़की का होना?
छीः! तुम मुझसे भी न घिन कर सके,
क्या आदमी हो, जो मुझ पर भी मुँह गड़ा पाए।
हवस की इंतिहा क्या है ए-मालिक!
कोख में लिए घूम रही हूँ एक कालिख।
मुझे तो ना मेरी सुध, ना मेरा होश
कैसे आता है मुझे देख इन वहशियों को जोश?
क्या हो रहा, क्या होगा?
कुछ न पता, कुछ न ख़बर
बस एक ही आस और एक ही डगर,
कोई तो पूछो इन शैतानों से,
कि हमने कब कहा था इन्हें कि तुम...........
हमें यूँ............

नीरज तोमर
मेरठ।




Thursday, July 23, 2020

पढ़ाई ऑनलाइन



अब सो जाओ। सुबह बात करते हैं।

सुबह होने में अभी कई घंटे बाकी हैं। सारी रात ही तो बाकी है। इस बेचैनी के साथ भला कैसे होगी सुबह? रात को नींद ही कहाँ आएगी!

तुम इतनी परेशान मत होओ। सुबह इसका हल निकालेंगे। अभी सो जाओ।

प्रयास तो बहुत किया सोने का, परन्तु नींद को तो मानो मुझसे शत्रुता हो गई थी। या कहो उसे मेरी फ़िक्र बहुत थी। आधी रात तो बस करवटें बदलने में भी चली गई और शेष बुरे स्वपनों से चैंकने में।
सुबह उठी तो ऐसा लगा ही नही कि रात भर सोई भी थी। सिर और मन दोनों ही बोझिल थे।

कुछ सोचा तुमने कि क्या करना है?

हम्म्म....... मन है कि पहले तुमसे लड़ लूँ।

मुझसे? वो क्यों भला? मैंने क्या किया?

तुम ही तो इतने दिनों से हमें नाकारा सिद्ध कर रहे थे। जब तुम ही हमारी समस्या या परेशानी नही समझोगे, तो भला बाहर वालों से क्या आशा रखें? तुम तो सब अपनी आँखों से देखते हो, समझते हो। तब इतने आरोप हम पर......। और जो इस विभाग से परिचित भी नही हैं, वे तो मानो अपराधी साबित करने के अवसर ही तलाशते रहते हैं।

मैंने तो तुमसे ऐसा कुछ भी नही कहा, जो तुम इतनी क्रोधित हो रही हो।

क्यों भूल गए? तुम ही ने तो कहा था ना कि जब सब स्कूलों में ऑनलाइन पढ़ाई हो रही है, तो तुम्हारे सरकारी स्कूल में भी ऑनलाइन पढ़ाई होनी चाहिए। मैं तुम्हें समझा रही थी कि यह सब यकायक आरंभ नही हो सकता। जिन प्राइवेट स्कूलों में यह सब हो रहा है, वे लोग कहीं न कहीं आॅन लाइन प्रक्रियाओं से पहले से ही जुड़े हुए हैं। और जिन सरकारी स्कूल के बच्चों के साथ आप यह सब आरंभ करने के लिए कह रहे हैं, ये वे बच्चे हैं, जो आर्थिक रूप से अत्यधिक कमजोर हैं। जिनके घर खाना तक खाने के लिए नही होता, इसीलिए स्कूलों में मिड डे मील बनता है। तो भला ये बच्चे व्हाट्स अप या अन्य किसी एप पर आॅन लाइन क्लास कैसे कर सकते हैं?
पर आपने मेरी बात न समझकर, यह कहा कि हम सरकारी शिक्षक काम न करने के बहाने तलाशते हैं। कुछ समस्याओं की यर्थाथता को भी समझना चाहिए। अब बताइये..... हो गई न समस्या खड़ी।

मेरे कहने का यह अर्थ नही था। मैं तो बस उन बच्चों की भलाई के लिए कह रहा था। मुझे इस प्रकार की समस्या का अनुमान तक न था।

आपसे अधिक विभागीय परिस्थितियों को तो हम ही समझ सकते हैं ना? और सौ में से यदि नौ-दस बच्चों के व्हाट्स अप नम्बर मिल भी गए तो बाकी के नब्बे बच्चों को कैसे पढ़ाएंगे? आपके सामने ही उन्हें फ़ोन किया है। वे किस प्रकार भद्दी भाषा का प्रयोग करते हैं। अभिभावक साफ़-साफ़ मना कर रहे हैं कि यह समय गेहूँ की कटाई का है। गेहूँ काटें या बच्चों को पढ़ाई पर बैठाएं? और तो और टीचर का नम्बर क्या मिल गया, दिन-रात कितने फ़ोन करने शुरू कर दिए! न कोई समय देखता है और न कोई मर्यादा है। कोई उल्टी-सीधी बात शुरू कर देता है। कोई सिर्फ़ इसलिए फ़ोन कर रहा कि आपसे बात करने का मन है। क्या हमारी कोई व्यक्तिगत् जिंदगी या परिवार नही है? क्या हमारी सुरक्षा सुनिश्चित नही की जानी चाहिए? क्या अध्यापक होने के नाते हमें शिक्षक-सम्मान का अधिकार नही है?

उन दस बच्चों के साथ बनाए व्हाट्स अप ग्रुप में जिस भद्दी गाली से हमें सम्बोधित किया गया है, उसने तो मेरी आत्मा को ही लज्जित कर दिया। उन शब्दों का स्वयं के लिए प्रयोग मेरे आत्मसम्मान के लिए असहनीय है। हो सकता है कि किसी में गाली सहने की शक्ति हो, परन्तु मेरे लिए अत्यधिक कष्टदायी है। मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है, मानो किसी ने मेरा गला दबा रखा हो। मैं ग्रुप में बच्चों को पढ़ा रही थी। मैं क्या पढ़ा रही हूँ एक शिक्षिका होने के नाते मैं अच्छी तरह से जानती हूँ। वे जो पढ़े भी नही और इस प्रकार की अभद्र भाषा का प्रयोग कर रहे हैं, वे मुझे ‘ज्ञान’ बाँट रहे हैं कि मैंने क्या काम दे दिया?

अलबत्ता तो वे समझ ही नही पाए कि यह ग्रुप बच्चों की पढ़ाई के लिए बनाया गया है। एक भी दिन उस बच्चे ने मेरे द्वारा दिया गया कोई भी कार्य कर ग्रुप में नही भेजा। पर हाँ, उसके घर में से जिसका वह व्हाट्स अप नम्बर था, उसने इतनी गंदी गाली अवश्य भेजी। क्या अब भी आप हमें नकारा कहेंगे? सिर्फ़ इसलिए कि हम पर ‘सरकारी’ होने का टैग है।

ऐसा नही है। तुम ग़लत समझ रही हो। मैं जानता हूँ कि सरकारी संस्थाएँ भले ही बहुत गालियाँ खाती हैं, परन्तु देश की व्यवस्था की रीढ भी ये ही हैं। इन संस्थाओं की जवाबदेही होती है। कोई भी जिम्मेदारी वाला कार्य इन्हीं संस्थाओं को भरोसे के साथ दिया जाता है। ये सरकारी संस्थाएं ही हैं, जो किसी भी कार्य को मना करने के अधिकार से वंचित होती हैं। यदि इन्हें चाँद तोड़ने के लिए कहा जाए, तो भी एक सरकारी कर्मचारी तोड़ने के लिए निकल पड़ता है। क्योंकि न कहने का अधिकार तो उसके पास है ही नही। देश के सभी ‘बड़े’ कार्य चुनाव, जनगणना, बालगणना इत्यादि और गालियाँ खाना सभी तो सरकारी कर्मचारी को ही करने होते हैं। यदि देश में कोई महामारी फैल जाए तो प्राइवेट डाॅक्टर्स दुबक कर बैठ जाते हंै, सभी तो नही परन्तु अधिकतर। लेकिन सरकारी डाॅक्टर फ्रंट पर खड़ा होता है। इसी प्रकार सभी विभागों में यही हाल है। तो तुम भी परेशान मत होओ। तुम सरकारी हो। काम भी करो, और गालियाँ भी खाओ। आदत डाल लो।

आप मज़ाक बना रहे हैं मेरा।

नही, समझा रहा हूँ तुम्हें। मात्र एक बच्चे के अभिभावक द्वारा किया गया अभद्र व्यवहार तुम्हारा आत्मविश्वास नही तोड़ सकता। इस बच्चे के अभिभावक की विभाग में शिकायत करो। और बाकी बच्चों के प्रति अपने दायित्वों का निर्वहन करो। न घबराओ, न परेशान होओ। बस अपना कर्म करो।

थैंक्यू। मैं आपकी बात समझ गई। आप सही कह रहे हैं। मैं ज़रा बच्चों को आज का काम दे दूँ।



Saturday, June 13, 2020

हर्ड इम्युनिटीः सामूहिक नरसंहार


कोविड-19 के कारण हुए लंबे लाॅकडाउन के उपरान्त जून 2020 से केन्द्र सरकार ने अनलाॅक-1 की घोषणा कर दी। सभी राज्य परिस्थितियों के अनुसार अपने-अपने निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र हैं। तदनुसार राज्य सरकारों ने अपने-अपने राज्यों को अनलाॅक करना आरंभ भी कर दिया है। कुछ तर्क इसके समर्थन में इस प्रकार हैं कि लंबे समय तक लाॅकडाउन देश की अर्थव्यवस्था के लिए घातक सिद्ध हो सकता है। देश की अपनी बाध्यता है कि मरीजों का आंकड़ा पाँच सौ से दो लाख से अधिक होने के बावजूद अब देश अनलाॅक हो रहा है।

सरकार का यह निर्णय अर्थव्यवस्था और देशवासियों में से किसे बचा पाएगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा परन्तु जो निर्णय कोरोनाकाल में लिए गए, उनकी विवेचना करना अति आवश्यक है। कदाचित इस समस्या का कोई उचित हल ही निकल आये।

जनवरी माह में कोरोना ने भारत में सर्वप्रथम दस्तक दी थी। उस समय शायद इसकी इस विकरालता का किसी को भी अनुमान न था। एक आशा, भारतीय वातावरण एवं तापमान से भी थी कि तेज़ धूप एवं असहनीय गर्मी भारत में इसे शीघ्र ही नष्ट कर देगी। परन्तु ‘अनुमान’ से मिले धोखे ने भारतीय नक्शे को रंक्तरंजित कर दिया। 24 मार्च से आरंभ हुए 21 दिन के लाॅकडाउन के परिणाम सुखद न थे और फिर शुरू हुआ लाॅकडाउन बढ़ाने का सिलसिला। लाॅकडाउन अर्थात् सबकुछ थम जाना। देश, व्यवस्था, व्यापार सबकुछ और इसी से आरंभ होती हैं चुनौतियाँ। सर्वप्रमुख कोराना के प्रसार को रोकना। दूसरी, थमे देश की अर्थव्यवस्था संभालना और तीसरी देशवासियों के भय को कम करते हुए उनका विश्वास जीतना। उन्हें भरोसा दिलाना कि ‘वे’ जिन्हें देश की जनता ने इस विश्वास के साथ चुना है कि ‘वे’ उनकी मुसीबत में उनका सहारा बनेंगे, ‘वे’ उनके भरोसे को कायम रखते हुए उनकी व्यवस्था अवश्य करेंगे।

भारत में दो अन्य समस्याएं भी है- एक जागरूकता का अभाव, दूसरी अनुशासनहीनता। ये दो वे समस्याएं है जिन्हें मजबूत सरकारी तंत्र एवं योजनाएं उन्मूलित कर सकती हैं। और यदि ये समाप्त हो जाएं तो निश्चित रूप से बहुत सारी समस्याएं स्वतः ही अदृश्य हो जाएंगी। तबलीगी जमात एवं सड़कों पर दौड़ती मजदूरों की भीड़ भी, इन्हीं दो समस्याओं को प्राथमिकता देते हुए नियंत्रित की जा सकती थी। अनुशासन मात्र जनता पर लागू नही होता। यह सर्वविदित है कि जनता से अनुशासन की अपेक्षा कर, योजनाओं को ढुलमुल तरीकों से लागू करके, किसी सकारात्मक परिणाम की अपेक्षा करना मूर्खता है। सरकारी योजनाओं को लागू करने के लिए पहले सरकारी तंत्र को स्वतः पूर्ण रूप से अनुशासित एवं ईमानदार होना होगा। यदि इस स्तर पर कोई चूक रहती है, तो निश्चित रूप से सभी प्रयास असफल हो ही जाएंगे। प्रथम लाॅकडाउन की असफलता इसी अनुशासनहीनता का परिणाम है।

सरकार के अनुसार, लाॅकडाउन के कारण भारत में मृत्यु दर अन्य देशों की अपेक्षा कम है। क्या मृत्यु को तुलनात्मक रूप से देखना निंदनीय नही है? यदि प्रथम लाॅकडाउन को अत्यधिक कड़ाई से लागू किया जाता तो क्या यह आंकड़ा और अधिक कम नही हो सकता था? मजदूरों का इस प्रकार पलायन रोक, उनकी उचित व्यवस्था उसी स्थान पर की जाती, जहाँ वे रह रहे थे। संभवतः इसमें सरकार का खर्च भी अपेक्षाकृत कम होता और कोरोना के विस्तार को भी रोका जा सकता था। साथ ही विदेशों से आने वाले लोगों को भी पूर्णतः लाॅक करते हुए, देश की सीमाओं को बंद कर दिया जाना चाहिए था। इसी प्रकार राज्य स्तर पर राज्य की सीमाओं को और फिर जिला स्तर पर जिलों की सीमाओं को पूर्ण रूप से प्रतिबंधित किया जाना चाहिए था। यह लाॅकडाउन कफ़्र्यू की भांति होना चाहिए था। तत्पश्चात् कोरोना निरीक्षण/जांच आरंभ की जाती एवं अन्य मेडिकल आवश्यकताओं की आपूर्ति की जाती। दैनिक आवश्यकताओं की आपूर्ति भी निश्चित योजनाएं बनाकर की जानी चाहिए थी, जिससे अफरा-तफरी न मचे। परन्तु मजदूरों का इतना निर्मम पलायन और उस पर सरकारी मलहम, ‘सहायता की राजनीति’ अधिक प्रतीत हो रही थी। साथ ही ऐसा लग रहा था कि एक के बाद एक लाॅकडाउन, मानो सरकार बस कोरोना से ही अपेक्षा कर रही हो कि वह स्वतः ही चला जाए। इसी बीच चलता रहा राहत पैकेजों का बंदरबाँट सिलसिला। सरकारी विभागों के निजीकरण की ओर बढ़ते कदम। आखिरकार लोग ‘कोरोना के प्रकोप’ में व्यस्त जो थे।

निश्चित रूप से कुछ चुनौतियाँ अप्रत्याशित भी थी। परन्तु मुसीबत से निपटने के लिए अनपेक्षित परिस्थितियों की तैयारी पहले की जाती है। इसीलिए ही तो कोई देश नेता चुनता है। किसी परिवार का मुखिया अपनी इस भूमिका को जितनी कुशलता से निभाता है, वह परिवार उतना ही अधिक प्रगति करता है। देश के मुखिया से भी यही अपेक्षा की जाती है। अपनी इसी कुशलता के कारण ही तो वह विशिष्ट होता है। परन्तु यदि वह विपरीत परिस्थितियों को संभालने की योग्यता नहीं रखता, तो वह मुखिया होने का भी हक़दार नहीं है। जनहित में उसे त्यागपत्र दे देना चाहिए।

जून से आरंभ हुआ ‘अनलाॅक’ इस असफलता के दोषी को अपनी अयोग्यता स्वीकार करने एवं जनहित में फै़सला लेने के लिए आमंत्रित कर रहा है। इस विकट स्थिति में लिया गया अनलाॅक का निर्णय ‘सामूहिक नरसंहार’ की ओर संकेत कर रहा है। देश के पालनहार कहते हैं कि देश को कोरोना के साथ जीने की आदत डाल लेनी चाहिए, परन्तु सच्चाई यह है कि अपर्याप्त मेडिकल सुविधा एवं डूबती अर्थव्यवस्था की नैया में, अब देशवासियों को कोरोना के साथ मरने की आदत डालनी होगी। उच्च स्तरीय मेडिकल सुविधाएं, उच्च स्तरीय लोगों के लिए संरक्षित है। अतः आम आदमी का उनकी ओर ललचाई नज़रों से देखना व्यर्थ है। हर्ड इम्युनिटी के नाम पर लोगों की बलि चढ़ाकर, सरकार अपनी पूजा सम्पन्न कर, कोरोना से मुक्ति अवश्य पा जाएगी। वैसे भी कोई आपदा या विपदा ही तो सरकार को पौ-बारह करने के अवसर प्रदान करती है।

बहरहाल, सभी देशवासी आत्मनिर्भर हो, अपने जीवन की रक्षा करें। सजग रहें, सुरक्षित रहें।

Friday, May 8, 2020

लाॅकडाउन


ऐसा भी समय होता है क्या? ये तो कभी सोचा भी न था। हम तो हम, हमसे पहली पीढ़ी ने भी ये सब कभी नही देखा होगा। पर हाँ, हमारे बच्चे आगे आने वाली पीढ़ियों को ये किस्से अवश्य सुनाएंगे। कुछ मजे़दार बनाकर, कुछ भयभीत कर, कुछ करूणामय अंदाज़ में। भावी पीढ़ी के लिए एक मज़ेदार मसालायुक्त, रात के लिए नानी-दादी की कहानियाँ बनेंगी। और यूँ शुरू हो जाएगा इक नया युग और परिवर्तित हो जाएंगी ये कहानियाँ। पहले किस्से राजा महाराजाओं के हुआ करते थे। और फिर चली आज़ादी की कहानियाँ। कम्प्यूटर युग में यह स्वरूप और बदला और फिर आया लाॅकडाउन...........। एक भयंकर महामारी, कोरोना जिसने सम्पूर्ण विश्व में हाहाकार मचा दिया, के उपचार हेतु लोगों का स्वतः एवं शासनादेशानुसार घरों में रहना है लाॅकडाउन।
कहा जाता है कि लगभग सौ वर्षों में कोई न कोई महामारी अवश्य फैलती है। 13वीं शताब्दी में ब्लैक डैथ, 15वीं शताब्दी में कोकोलिज़ली, 16वी शताब्दी में प्लेग, 17वीं शताब्दी में पुनः प्लेग, 18वीं शताब्दी में फ्लू, 19वीं शताब्दी में पोलियो, स्पेनिश फ्लू एवं एशियन फ्लू, 20वीं शताब्दी में स्वाइन फ्लू, इबोला, जीका और अब कोरोना। कदाचित यह इसलिए क्योंकि इसके माध्यम से प्रकृति पृथ्वी की रक्षा करती है। उसे स्वच्छ करती है। संतुलन स्थापित करती है। मानव की अतिमहत्त्वकांक्षाओं को आइना दिखा नियंत्रित करती है। सफलता, कामयाबी, मुनाफ़ा, ऊँचाई, लालच सबके खेल में मानो प्रकृति ने ‘स्टैच्यु’ बोल दिया हो।

परन्तु इस खेल में आनन्द आ रहा है। हालांकि कुछ लोगों को खेल खेलना नही भाता है, परन्तु इस खेल को खेलने के लिए कई परिवार वास्तव में तड़प गए थे। ‘ज़िदगी में सबकुछ है पर सुकून नहीं’, ‘पैसा है, पर परिवार नही’ ऐसे अनेक वाक्य हमारे जीवन में निराशा भरने लगे थेे। चाह कर भी कोई इस भंवर से बाहर नही आ पा रहा था। पर देखो ना! यह पृथ्वी हमारी माँ है और माँ बच्चों की अनकही पीड़ा को सुन लेती है। हमारी इसी पुकार को सुन, दे दिया इसने हमें ज़िंदगी का सुकुन। सुकुन परिवार के साथ घंटों टीवी देखने का, लूडो, कैरम, ताश, शतरंज, अंताक्षरी खेलने का, दुःख-सुख की बात करने का, यूँ ही बेवजह लड़ने का झगड़ने का, घंटों सोने का, विभिन्न व्यंजनों का, फ़ोन पर एक-दूसरे की ख़ैरियत पूछने का, हँसी-मजाक और खिलखिलाहट का। इसी सुकून चाह थी ना?

अब आप कहेंगे व्यापार में हानि, भूख और पानी, दैनिक ज़रूरतें और होती मौतें कहाँ वह सुकून देती हैं। वास्तव में दुःखद एवं कष्टदायी है यह सब। परन्तु जिस प्रकार हर सिक्के के दो पहलू होते हैं, उसी प्रकार जो परिस्थितियाँ हमारे हाथ में नही हैं, तो क्यों न इसी में सुख की अनुभूति की जाए। आशावादी हो, जो बुरा नही हुआ उसके लिए ईश्वर का धन्यवाद किया जाए। व्यक्ति की वर्षाें से चल रही दिनचार्य से इतर जब कुछ होता है, तो वह कष्टदायी तो लगता ही है। परिणामस्वरूप दुःख एवं अवसाद की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। दुःख स्वभाविक है। मानवीय प्रकृति एवं अनुभूति है। परन्तु अवसाद विशेष अवस्था है। दुःख की चरम सीमा है। दुःख कष्ट का अहसास कराता है एवं उसका हल तलाशने की प्रेरणा देता है। अवसाद नकारात्मकता सृजित करता है। समस्याओं को गहराता है और अनजाने भंवर में फँसाता है। दुःख, सुख के महत्त्व को समझाता है और अवसाद विचार शून्य कर देता है। अतः दुःख को अनुभूत अवश्य करना चाहिए। यह त्रुटियों को सुधारने के अवसर प्रदान करता है। यह अभिप्ररित करता है, यह विचारने के लिए कि जो घटना अथवा अवस्था व्यक्ति के नियंत्रण से बाहर है, जिन्हें वह परिवर्तित करने में असमर्थ है, उनके लिए दुःख को अत्यधिक आत्मसात् न कर किसी अन्य मार्ग की ओर अग्रसरित होना चाहिए। और यदि उन समस्याओं के हल उपलब्ध हैं, तो दुःख का वजूद बेमानी है। अतः हल होने और न होने दोनों ही स्थितियों में व्यक्ति को कष्टानुसार दुःख को अनुभव तो अवश्य करना चाहिए, परन्तु उन परिथितियों को हावी होने का अवसर प्रदान कर अवसादग्रस्त नही होना चाहिए।

कोरोना की समस्या ने बहुत से घरों में अवसाद की स्थिति उत्पन्न कर दी है। लोग कुंठित हो हिंसा के लिए प्रेरित एवं बाध्य हो रहे हैं। विचित्र समस्या है। कभी व्यक्ति समय की कमी एवं परिवार का सान्निध्य न मिल पाने के कारण खिन्न रहता है, तो कभी प्रचूर समय भारी लगने लगता है और परिवार का साथ अप्रिय। दरअसल कारण समय और परिवार न होकर, यकायक हुए परिवर्तन की अस्वीकृति है। अभिलाषी एवं महत्त्वकांक्षी मस्तिष्क में अनपेक्षित परिस्थितियों ने ‘केमिकल लोचा’ कर दिया। ऐसा समय अकल्पिनीय था। इसकी तो कोई योजना ही नहीं बनाई गई थी। वरन् इसने अनेक योजनाओं की गति ही बाधित कर दी। इन समस्त परिवर्तनों को मानव मस्तिष्क अचानक से सुचारू रूप से प्रबन्धित नही कर पा रहा है। परिणामतः हिंसा एवं अवसाद।

इन परिस्थितियों का सामना करने वाले मनुष्य को समस्त चिंताओं को विस्मृत कर नवीन परिस्थितियों के लिए छोटी-छोटी योजनाएं तैयार करनी चाहिए। छोटी एवं निश्चित समयान्तराल की योजनाएं। चाहे-अनचाहे अभी घर परिवार के साथ ही रहना है, तो क्यों न वह समय हँसी-खुशी, प्रसन्नता के साथ बिताया जाए। लाॅकडाउन के प्रत्येक सुखद दिन की एक छोटी-सी योजना। साथ ही लाॅकडाउन समाप्त होने पर परिवर्तित हुई समस्त परिस्थितियों के लिए तैयार रहने की छोटी-सी योजना। हालांकि यह सभी कुछ अपूर्वानुमेय है, इसीलिए योजना का लघु होना आवश्यक है। अन्यथा फिर कोई अप्रत्याशित घटना अवसाद का सबब बन सकती है। बहुत अधिक सोचना सही नही है। जीवन के प्रत्येक क्षण को जी भरकर जिया जाए।

यह सब उन लोगों के लिए फिर भी बहुत सरल है, जो घर बैठे सुविधा सम्पन्न होते हुए भी अकारण ही कुंठित हो रहे हैं। विचार विशेषतः उन लोगों के लिए करना आवश्यक है, जो विकट परिस्थितियों से गुजर रहे हैं। जो भूख-बीमारी एवं मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित हो संघर्षरत् है। जिनके लिए खुश रहने का सुझाव, उनका उपहास करने जैसा है। उनकी सहायता के यथासंभव प्रयास सरकार भी कर रही है एवं आमजन से भी अपेक्षित हैं। परन्तु हमारे देश में यह संख्या अत्यधिक विशाल है। वस्तुतः भारत के लिए यह एक चुनौतीस्वरूप है। न केवल सरकार के लिए एक चुनौती वरन् प्रत्येक भारतीय के लिए मानवतावादी होना सिद्ध करने की चुनौती। और भारतीय परम्पराओं एवं संस्कृति में इस प्रकार का मानवतावादी व्यवहार सदैव प्रशंसनीय रहा है।

इसी के साथ सभी को कृतज्ञ होना चाहिए समस्त कोरोना प्रहरियों एवं योद्धाओं का, जो अपना जीवन संकट में डाल देशभक्ति को इस रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। सेना के वीर जवानों की भांति ही ये सभी लोग भी सलाम के पात्र हैं। वंदनीय हैं। साथ ही वे महिलाएं जो कभी न समाप्त होने वाली ड्यूटी और अधिक निष्ठा से घर के समस्त व्यक्तियों को प्रसन्न रखने के लिए कर रही हैं, उनका अभिवादन एवं सहयोग किया जाना भी आवश्यक है।

कोरोना एक जंग है, जिसे सभी को साथ में मिलकर जीतना है। साथ ही यह एक नये युग का जनक भी है। इस जंग के उपरान्त जीवन जीने के सलीके बदल जाएंगे। जीवन के प्रति नज़रिया बदल जाएगा। लोभ-लालच, रूपया-पैसा सभी की परिभाषाएं एवं प्राथमिकताएं बदल जाएंगे। हम सभी को उन परिवर्तनों के लिए मानसिक रूप से तैयार रहना चाहिए, जिससे फिर किसी यकायक परिवर्तन से अवसादग्रस्त होने से बचा जा सके।