Wednesday, August 18, 2010

‘‘बिन ब्याही माँ’’


‘‘बिन ब्याही माँ’’

उसका सारा सामान मुश्किल से एक ठेले भर था। शायद वो सामान उस छोटे से कमरे में भरने के पश्चात् भी उस कमरे में एक बड़े सन्दूक की जगह बची रह जाये। पर आश्चर्य यह था कि उस अनजान मोहल्ले में उस घुटन भरी कोठरी में रहना उसने कैसे और क्यों स्वीकारा जिसमें न तो कोई बिजली की सुविधा थी और न ही पानी की। अब से पहले भी न जाने कितने लोग उस कमरे को बाहर से ही देखकर छोड़ गये। वह अन्धेरा व गुमनाम सा कमरा प्रतीक मात्र था।
वह पतली, छोटे से कद की साँवली परन्तु सुन्दर नाक-नक्श वाली 22-23 साल की लड़की थी। जिसके साथ गैस का छोटा सिलंेन्डर, गिनकर आठ बर्तन, एक चटाई, झाडू, एक सूटकेस जिसमें शायद उसके कपड़े हों और हाथों में कपडों मेें लिपटी एक अजीब सी चीज थी। वह लड़की उस चीज को अपने सीने से इस तरह चिपकाये हुए थी कि मानो अपने सारे सामान में वह उसे सर्वाधिक प्रिय हो। एक हाथ से उस चीज को संभाले और दूसरे हाथ से अपना वह थोड़ा सा सामान उठाकर उस छोटी सी कोठरी में ले जा रही थी। सामान रखने में ठेले वाले ने भी उसकी मदद की। आस-पास वाले सभी उत्सुकता भरी नजरों से जड़ हुए वो सब देख रहे थे। चारों तरफ छाये उस सन्नाटे में मात्र यही प्रश्न गूँज रहे थे- यह कौन है? कहाँ से आई है? अकेली है? कैसे रहेगी यहाँ? क्या करती है? इस कमरे का मालिक जो इस कमरे से कहीं दूर किसी अन्य स्थान पर रहता था, कैसे एक लड़की को उसने कमरा दे दिया? कहीं यह उसी की परिचित तो नहीं?
तभी एक आवाज उस सन्नाटे को चीरती हुई हम सभी के कानों में पहुँची। इस आवाज को सुनकर सभी हतप्रभ रह गये। यह आवाज बच्चे के रोने की थी, जो उस अजीब सी कपड़ों में लिपटी चीज से आ रही थी, जो वह लड़की अपने एक हाथ में संभाले हुए थी।
बच्चा................. बच्चा.................., बच्चा भी है इसके साथ? इसका है? ये तो कुवाँरी लगती है! इसकी शादी हो गई क्या? इसका पति भी है? कहाँ है वह? ना जाने एक ही क्षण में कितने सवाल चारों और गूँजने लगे। मूक दर्शक की भाँति खड़े लोगों में अब चेतना आ गई और उत्सुकता भरी चर्चा चारों ओर होने लगी।
परन्तु वो लड़की चुपचाप उस बच्चे को दुलारती हुई अपने कमरे में चली गई। मौहल्ले में प्रवेश करने से लेकर कमरे में प्रवेश तक वह अपने चेहरे की गम्भीरता के पीछे बहुत से प्रश्न उस कमरे के बंद दरवाजों के बाहर छोड़ गई।
वो दरवाजा शाम तक बंद रहा और लोगों की चैपाल उस दरवाजे के बाहर चटपटी चर्चाओं के साथ सजी रही। मोहल्ले के एक भी आदमी या औरत ने उस मोहल्ले के नये सदस्य के दरवाजे पर कोई भी दस्तक न दी। किसी ने भी किसी भी प्रकार की सहायता की कोई पेशकश नहीं की। और करते भी तो क्यों? एक कम उम्र की अकेली लड़की बच्चे के साथ वो भी बिना पति के, मतलब साफ था-‘‘एक बिन ब्याही माँ’’।
दिन भर भिन्न-भिन्न लांछन लगते रहे। नई-नई कहानियाँ बनती रही। सामाजिक मान-मर्यादाओं पर भाषण चलते रहे और अन्ततः उसे चरित्रहीन घोषित करते हुए उसके सामाजिक बहिष्कार की सर्व सम्मति बन जाने से उससे कोई मतलब न रखने का निर्णय लिया गया।
शाम को 5 बजे अचानक दरवाजा खुला और वो लड़की चुपचाप बच्चे को संभाले मोहल्ले से बाहर चली गई। मोहल्ले के सभी लोगों ने वही पुराना काम पूर्ण दक्षता के साथ किया। उसे घूरते रहे, चर्चाएँ चलती रही और उसके लौटने का इंतजार बेसब्री के साथ नज़रे गड़ाये जारी रहा।
लगभग एक घण्टे बाद वह कुछ खाने का सामान और दूध लेकर लौटी। शायद दूध उस नन्हे बच्चे के लिए था। लोग पुनः उसका दरवाजा बंद होने तक उसे घूरते रहे। और वो अपने बच्चे में लीन अपनी कोठरी में चली गई।
अगली सुबह वह पता नहीं कब चली गई। सुबह-सुबह उसके कमरे पर ताला लगा था। मैंने बाहर झाँककर देखा तो इक्का-दुक्का लोग नज़र आये। सबकी नज़र बचाती हुई मैं उसके कमरे की तरफ बढ़ी और उसकी टूटी खिडकी से उसके कमरे में झाँकने की कोशिश की। उस कमरे को देखकर उसके बदले हुए रूप की कल्पना भी न कर सकी। कमरे के अन्दर व बाहर आस-पास सफाई थी। हालाँकि बदबू-उमस थी परन्तु उतनी नहीं रही थी। और उस सफाई को देखकर यकीन है मुझे धीरे-धीरे वो सब भी समाप्त हो जायेगी। कमरे का सारा सामान व्यवस्थित था। उसके कमरे को देखकर मैं वापस आकर अपने घर की सफाई में लग गई। और साथ-साथ सोच रही थी कि उसने वो उमस भरी रात बिना बिजली के उस बच्चे के साथ उस बंद कमरे में कैसे गुजारी होगी? रात को न तो बच्चे के रोने की आवाज आई और न ही पंखे की कोई व्यवस्था ही कमरे में नज़र आई। मैं अपने घर की हर एक सुविधा की तुलना उसके कमरे की असुविधा से कर रही थी। मैं कभी पंखा बंद करती तो कभी लाइट तो कभी पानी और खुद को उस स्थिति में रखने की कोशिश करती। पर वाकई बहुत मुश्किल था। बहुत मुश्किल..............................
दोपहर को वो उसी गम्भीर मुद्रा में उस बच्चे के साथ कहीं से लौट आई और पहले की ही भाँति उस कमरे में बंद। शाम को पहले दिन की ही तरह वो फिर खाने पीने का सामान लेने बाहर गई और फिर वैसे ही दूध और कुछ खाने को लेकर लौट आई।
एक महीने तक हम सभी उसका यह रूटीन देखते रहे। उसके घर से सिर्फ उस बच्चे को खिलाने-दुलारने की आवाजें आती। उन आवाजों को सुनकर लगता कि वह और उसका बच्चा एक-दूसरे के साथ बहुत खुश थे और उनकी उस छोटी सी दुनिया में किसी और की कोई जगह नहीं थी। उस एक महीने मंे कोई भी उसके पास नहीं आया। मैं आश्चर्यचकित थी कैसे कोई उसकी सुध लेने नहीं आया? अकेली लड़की को ऐसे कैसे उसके परिवार ने छोड़ दिया? खैर! इन प्रश्नों के जवाब तो बस उन बंद होठों में ही छिपे थे और इन्हें खुलवाने के लिए कोई उस तक पहुँचा ही नहीं।
एक दिन सुबह-सुबह मेरे दरवाजे की घण्टी बजने से मेरी नींद खुल गई। दरवाजा खोला तो सामने वो खड़ी थी। उसे देखकर मेरी आँखों से नींद ऐसे गायब हो गई जैसे मैं कभी सोई ही नहीं हूँ। मैं स्तब्ध खड़ी उसे देखती रही। मेरी आवाक् मुद्रा तब खण्डित हुई जब उसने कहा- गुड मार्निंग दीदी। दीदी मैं आपकी नई पड़ौसी हूँ। माफ कीजिएगा मैंने आपको इतनी सुबह-सुबह जगा दिया। परन्तु ये मेरी मजबूरी थी। गर्मी के कारण रात मेरा दूध फट गया। और मेरी बच्ची भूखी है। इसे दूध चाहिए। इतनी सुबह-सुबह मार्केट भी बंद है। क्या मुझे बच्ची के लिए एक कटोरी दूध मिल जाएगा। मैैं शाम को ही इसे वापस कर दूँगी।
उसके शालीनता भरे शब्द सुनकर मैं उसे ना तो कह ही नहीं सकती थी। परन्तु जब मैंने उस बच्ची को उसकी गोद में रोते देखा तो मैं तुरन्त दूध की खाली बोतल जिसे बच्ची के मुँह से लगाकर वह उसे बहकाने की कोशिश कर रही थी, उसके हाथ से छीनकर उस मासूम के लिए दूध तैयार करने चली गई।
वापस लौटी तो वो बच्ची को चुप कराने की असफल कोशिश कर रही थी। दूध की बोतल देते हुए उसके धन्यवाद से पहले मेरे जिज्ञाषा भरे शब्द उस तक पहुँच गये- ‘‘तुम कौन हो?’’
वो जैसे इस प्रश्न के लिए पहले से ही तैयार थी। उसके उस गम्भीर चेहरे पर पहली बार मैंने वो मुस्कुराहट देखी। मैंने बाहर झाँकते हुए उसे अन्दर बैठने के लिए कहा और पुनः अपना प्रश्न दूसरे रूप में दोहराया। कुछ अपने बारे में बताओ।
वो बोली- दीदी मेरा नाम शिवानी है। मैं एक स्कूल शिक्षिका हूँ। यहाँ अपनी दो महीने की बच्ची के साथ रहने आयी हूँ। ये कहकर वो चुुप हो गई।
उसके सुबह जाकर दोपहर को आने की बात तो समझ में आ रही थी। परन्तु मुझे असली उत्सुकता उसकी बच्ची को लेकर थी जो दूध पीती हुई इतनी प्यारी लग रही थी कि मेरा मन कर रहा था कि उसे शिवानी से छीन लूँ। परन्तु मन में स्थित उन्हीं बातों ने मुझे रोक लिया जिनकी वजह से मोहल्ले वालों ने शिवानी का बहिष्कार किया था। पता नहीं किसका पाप है? मैं जल्द से जल्द उसे अपने घर से भगाना भी चाहती थी लेकिन उसके बारे में और अधिक जानना भी चाहती थी। दुविधा भरी स्थिति से जूझते हुए मैंने उसके विषय में जानने का निर्णय लिया और तिरस्कृत वाणी में पूछा- ‘तुम्हारी उम्र तो 22-23 के आस-पास लगती है और इतनी कम उम्र में तुम दो महीने की बच्ची के साथ अकेली यहाँ रहती हो। ऐसा क्यों?
मेरी बात सुनकर वो हँसने लगी। और फिर धीरे से बोली- हमारे समाज की सोच का दायरा कितना सीमित है ना दीदी? जहाँ एक लड़की और बच्चा बिना किसी पुरूष के देखा वो सोच बस एक ही दिशा में सीमित हो जाती है। दीदी यह एक कुण्ठित समाज है जो मर्यादाओं, नियमों, कायदों, कानूनों का झूठा आवरण ओढ़े है। वो आवरण जो मात्र औरत की ओढ़नी है।
यह बोलकर वो एक मिनट के लिए चुप हो गई और मैं उसके तिलमिलाते चेहरे को घबराई नज़रों से देखती रही। पर एक मिनट के बाद वो शान्त हुई और बोली-दीदी यह बच्ची मेरी अपनी बच्ची नहीं है। हमारे गाँव की रिश्तेदारी में एक दुर्घटना में इस बच्ची के परिवारजनों की मृत्यु हो गई थी। कोई अन्य सहारा न होने के कारण मेरा परिवार इसे अपने घर ले आया। मैं हमेशा से चाहती थी कि मैं एक ‘बच्ची’ गोद लूँं। जिसकी सारी जिम्मेदारी मैं उठाऊँ। जिसे मैं एक परिवार दूँ, माँ-बाप का प्यार दूँ। जिसका भला मैं कर सकूँ। न जाने कितने बच्चे विभिन्न प्रकार की दुर्घटना में अनाथ हो जाते है। उनमें से कुछ का बचपन सड़कों पर और कुछ का अनाथालयों में बीतता है। यदि आप अनाथालय में जायें तो वहाँ इस बच्ची जैसे और भी न जाने कितने बच्चे अनाथालय के बाहर की दुनिया से आने वाले हर व्यक्ति को तरसायी आँखों से देखते हैे कि मानो कह रहे हों कि ‘‘हमें यहाँ से अपने साथ ले जाओ। हमें भी एक परिवार दे दो। एक नया संसार, जहाँ हमारे माँ-पिता, भाई-बहन हो। जहाँ हमें खुली हवा मिले सांस लेने के लिए। प्यार मिले जीने के लिए।’’ मैं इस बच्ची को अनाथ होने के अहसास से दूर करना चाहती थी। इसीलिए मैंने इस बच्ची की माँ बनने का निर्णय अपने घरवालों को सुनाया।
परन्तु मेरे घरवालों ने मेरे इस फैसले का घोर विरोध किया। उनके अनुसार इसके साथ मुझे समाज स्वीकार नहीं करेगा। मेरी कहीं शादी नहीं होगी। लड़का होता हो तो शायद लोगों को स्वीकार्य भी होता परन्तु लड़की के साथ कौन मुझे अपनायेगा। मुझ पर विभिन्न प्रकार के लांछन लगाये जायेगें। इसलिए मुझे यह ख्याल छोड़ देना चाहिए।
लेकिन मैं अपने फैसले पर दृढ़ रही। लड़के को तो कोई भी गोद लेने के लिए तैयार हो जाता है परन्तु क्या इन बच्चियों को माँ-बाप के प्यार नहीं चाहिये होता? क्या इन्हें अच्छी शिक्षा लेने का हक नहीं है? मैं इस बच्ची को वो सब देना चाहती थी जो एक सामान्य परिवार में दिया जाता है। मैं इसे इसका सम्मान दिलवाना चाहती हूँं।
मेरा यह संकल्प मेरे परिवार को रास नहीं आया और उन्होंने मुझे अपने परिवार का हिस्सा न रहने दिया। इसी कारण मैं ‘अकेली माँ’ अपनी बच्ची के साथ अपने इस छोटे से घर में रहती हूँ। पता नहीं क्यों लोग ये क्यों नहीं सोचते कि यदि हर परिवार एक बच्चे को मेरी तरह गोद ले ले तो कोई भी अनाथ बच्चा चोर, डाकू नहीं बल्कि एक आदर्श नागरिक बन जायेगा।
अच्छा दीदी अब मेरे स्कूल का समय हो रहा है। मैं चलती हूँ। कहकर वो चली गई। और मैं सन्न खड़ी उसके चंद शब्दों की विशाल गहराई में डूबी रह गई................................

Tuesday, August 17, 2010

मरती संवेदना.................


मरती संवेदना.................

क्लॉस में काफी हँसी खुशी का वातावरण था। सभी बच्चे काफी गम्भीरता के साथ सर का लेक्चर समझने का प्रयास कर रहे थे। परन्तु पता नहीं, ये किसका दोष था- अध्यापक का, छात्र-छात्राओं, सेलेबस का या पढ़ने के लिए प्रयोग की जा रही विधियों का, कि न तो पढ़ाने वाले को ये समझ आ रहा था कि वो क्या पढ़ा रहा है और न ही पढ़ने वालों को ही पता लग रहा था कि वे क्या पढ़ रहे हैं।
लेकिन फिर भी क्लॉस में हँसी खुशी का माहौल था। ये शायद उम्र का दोष भी हो सकता है कि इस उम्र में अध्यापक पढ़ाने के लिए रसहीन हो जाते हैं और छात्र..............। छात्रों के पढ़ने के मूड से तो सभी वाकिफ हैं। असल में ये क्लॉस थी बी0 टेक0 सेकण्ड सैम की। और मैं इस कक्षा की निर्जीव बैंच हूँ।
इस क्लॉस में मैं सभी कुछ ध्यानपूर्वक देखती हूँ या आप मुझे चश्मदीद गवाह भी कह सकते हैं। इस कक्षा में घटने वाली हर घटना की साक्षी। वैसे सच कहूँ तो मुझे ये क्लॉस बहुत पसंद है। क्योंकि इस क्लॉस के सभी बच्चे हृदयस्पर्शी हैं। ये एक-दूसरे की सहायता के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं। एकता की भावना का बेहतरीन उदाहरण इस क्लॉस मंे आपको मिल जायेगा।
हालाँकि पाँचों अँगुलियाँ एक समान नहीं होती। कुछ छोटी-छोटी बातें तो होती ही रहती हैं पर फिर भी मुझे इस क्लॉस पर पूरा भरोसा है।
मेरे ऊपर तीन लड़के बैठे हुए थे- राहुल, सुधांशु और संदीप। तीनों ही पढ़ने में बहुत अच्छे हैं। संदीप इस शहर का नहीं है। वह लखनऊ निवासी है। लखनऊ से सम्बन्धित होने के कारण ही उसकी बोली इतनी मीठी है कि मेरा मन बस उसे ही सुनते रहने को करता है। ‘हम कह रहे हैं ना, आपको चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है।’, ‘ये सर तो क्या पढ़ा जाते हैं, हम तो कुछ समझ ही नहीं पाते है।’ उसकी ऐसी-ऐसी बातें मेरे भी मन में मिठास घोल देती हैं। पतला-दुबला सा संदीप यहाँ अपने बचपन के दोस्त के साथ कमरा किराय पर लेकर रहता है।
वह अक्सर बीमार रहता है। परन्तु अर्न्तमुखी होने के कारण किसी से ज्यादा बातचीत नहीं करता। आज भी वह कुछ अस्वस्थ ही लग रहा था।
सर का लेक्चर आगे चल रहा था परन्तु पहली बैंच से आखरी बैंच तक के छात्र-छात्राओं की पढ़ाई का विषय भिन्न-भिन्न था। निशा अपना असाइन्मेंट पूरा कर रही थी क्योंकि यदि आज जमा नहीं हुआ तो नम्बर नहीं मिलेंगें। आकाश किसी दूसरे विषय की पढ़ाई में तल्लीन था, उसे सर के लेक्चर मंे मजा नहीं आ रहा था। सुनीता के ट्यूशन क्लॉस में टेस्ट था इसलिए उसे ट्यूशन का काम करना बहुत जरूरी था। पूजा अक्सर फोन पर व्यस्त रहती है और आज भी क्लॉस में वो वही कर रही थी। बहुत हिम्मत वाली लड़की है पूजा। उसे किसी से डर नहीं लगता। अजय एस एम एस का बहुत शौकीन है। इसलिए वो एस एम एस ही कर रहा था। कोई क्लॉस मंे ऐसा भी था जो सो रहा था। रीना को भी बहुत तेज नींद आ रही थी। पूरी क्लॉस इसी प्रकार की पढ़ाई में गम्भीरता से व्यस्त थी। (आजकल के कॉलेजों में अक्सर ऐसी ही पढ़ाई होती है।)
पर फिर भी क्लॉस में पढ़ाई चल रही थी। संदीप को भी अब तो शायद नींद आने ही लगी। वह धीरे-धीरे अपना सिर मुझ पर रखने लगा और अन्ततः मुझ पर लेट ही गया। लेकिन ये तो...........अचानक.......................
अरे...............ये क्या? ये तो अचानक बराबर में बैठेे सुधांशु पर गिर गया। क्या हुआ संदीप? तुम ठीक तो हो?
सर..........................संदीप बेहोश हो गया।
(पूरी क्लॉस में हड़कंप मच गया। आखिर अचानक संदीप को क्या हुआ? मुझे भी कुछ समझ नहीं आ रहा था। बस चारों ओर छात्र-छात्राओं की भीड़ दिखाई दे रही थी जो केवल संदीप को देखती हुई ‘क्या हुआ? क्या हुआ?’ का राग अलाप रही थी।) तभी सर आ गये........................
क्या हुआ? कौन है ये लड़का? इसी क्लॉस का ही है क्या? कैसे बेहोश हो गया?
(सर की बातें सुनकर मुझे बहुत आश्चर्य हो रहा था। क्लॉस में रोज पढ़ाने वाले अध्यापक को अपनी कक्षा के विद्यार्थियों के विषय में इतनी भी जानकारी नहीं थी कि वे उनकी इतनी भी पहचान कर सकें कि छात्र उनकी ही कक्षा का है अथवा किसी और कक्षा का।)
दूर खड़े होकर सर ने प्रश्नों की बौछार तो खूब की परन्तु उसको (संदीप को) भली-भाँति लेटाने के लिए एक कदम न बढ़ा सके।
मैं समझ नहीं पा रही थी कि ये इस कक्षा के जिम्मेदार अध्यापक है या कोई तमाशबीन?
यह अध्यापक की ही जिम्मेदारी होती है कि यदि किसी विद्यार्थी को किसी प्रकार की कोई भी परेशानी हो तो उसे ‘प्राथमिक चिकित्सा’ उपलब्ध करायी जाये।
पर ये तो एक मूक दर्शक की भाँति खड़े हो गये थे।)
सर, डारेक्टर सर को फोन कर दीजिए। संदीप को हॉस्पिटल ले जाना चाहिए। सुधांशु ने कहा।
ठीक कहते हो तुम, यही करना चाहिएं अभी करता हूँ। पर पहले देखना जरा इसकी जेब में कोई फोन है क्या? वो क्या है ना मेरे फोन में बैलेंस नहीं है और कॉल रेट भी मँहगी है।
(छी! कितनी ओछी बात कर रहे थे वे सर। शर्म आती है ये सोचकर भी कि आज के हमारे अध्यापक कितने गैर जिम्मेदार हैं।)
हाँ सर, फोन तो है। ये लीजिए। राहुल ने संदीप का फोन सर को दे दिया। (नम्बर मिलाने के बाद.......................)
हाँ सर मैं बोल रहा हूँ। जी हाँ, जी हाँ। हाँ सर, सब ठीक है। आपकी कृपा है। और घर में सब ठीक है ना, भाभी जी, बच्चे? क्या कर रहें हैं आजकल। ओहो, बहुत बड़े हो गये हैं। हाँ जी। वो आज आपकी बहुत याद आ रही थी तो सोचा बात ही कर लूँ। जी सब आपकी महरबानी है। जी सर, एक छोटी सी दिक्कत है। नहीं-नहीं ज्यादा घबराने वाली बात नहीं है। वो क्लॉस में एक लड़का बेहोश पड़ा है। हाँ, पता नहीं क्या हुआ। आप तो जानते ही हैं इन लड़कों को। किया होगा कुछ नशा वगैराह। हाँ-हाँ आप ज्यादा परेशान ना होएँ, मैं देख लेता हूँ। आप आराम से आ जाइये। ओके साहब नमस्कार।
(मैं यह सोच रही थी कि क्या भाभी जी व बच्चे उस बेहोश पड़े इंसान से भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो गये हैं। मरते हुए व्यक्ति के लिए इनके (सर के) मन में कोई संवेदना नहीं है। और जिस विद्यार्थी की पहचान तक वे नहीं कर पा रहे थे, उस पर नशा करने का आरोप लगा रहे हैं। गुरू जिसे माता-पिता से पहले पूजा जाता है, आज ऐसे शिक्षकों ने उसे कितनी निम्नतम श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया है।
तभी एक अन्य सर प्रवेश करते हैं।)
क्या बात है सर जी, आज क्लॉस नहीं छोड़नी है क्या ? अजी बहुत तेज भूख लगी है। अब चलिए भी। और ये क्या इन छात्रों के बीच ऐेसे क्यों घिरे खड़े है? क्या हुआ?
कुछ नहीं जनाब, ये लड़का बेहोश हो गया है। अरे भई कुछ करो आप लोग (छात्रों को कहते हुए)। इसके रिश्तेदारों को बुलाओ।
(और ये कहते हुए वे दोनों क्लॉस से बाहर चले गये।)
निशाः अरे चल सुनिता, अच्छा मौका है जल्दी से असाइन्मेंट पूरा कर लेते हैं। थैंक्यू संदीप। बस थोड़ी देर और बेहोश रहना। जल्दी चल सुनीता, तुझे भी तो अपना काम पूरा करना है।
पूजाः (फोन पर) हाय मोहित। कैसे हो? नहीं क्लास नहीं हो रही है। वो संदीप बेहोश हो गया। मैंने सोचा जब तक वो बेहोश है तब तक तुमसे ही बात कर लूँ। कहाँ हो अभी..........................
आकाश, अजय से-
यार मैं तो घर जा रहा हूँ। वैसे भी कोई पढ़ाई नहीं हो रही है और मुझे तो अब बहुत तेज नींद आ रही है।
(हे भगवान! मेरा इस क्लॉस के लिए जो भ्रम था वो टूट गया। क्या वाकई ये वो ही क्लॉस है? जो मैंने अब तक देखा था वो हस्ते-गाते खुशी के पल थे। पर आज जब मुसीबत में कोई है तो एक-एक व्यक्ति की पहचान हो रही है।
शायद वो सब मेरी गलतफहमी थी। और यही सच है। आज का इंसान वाकई इतना पत्थर दिल इतना स्वार्थी हो गया है कि मजबूर-लाचारों के आँसूओं से अपनी प्यास बुझाने लगा है। लोगों के दिलों से प्रेम, दया, सौहार्द के भाव समाप्त हो गये हैं। एक दूसरे से मिलने पर किया गया व्यवहार मात्र दिखावा है। लोग दो-दो चेहरे लेकर जीने लगे हैं। निजीत्व की भावना ने परोपकार जैसे शब्दों को अर्थहीन कर दिया।
आज ये सब देखकर मुझे ऐसा लग रहा है मानो मैं किसी सुनहरा सपना टूटने के कारण अचानक जग गई हँूं। वो सपना जिसमें मैं अपने आस-पास अच्छे लोेगों को देख रही थी, जिसमें मैंने खुशियाँ देखी, जिसमें मैंने लोगों के बीच उमड़ते प्रेम को देखा, जिसमें मैंने एक-दूसरे के लिए प्राण न्यौछावर करते देखा। पर जब सपना टूटा तो वास्तविकता जानकर बहुत दुख हुआ। कुछ भी वैसा नहीं रहा अब हमारे समाज में। यहाँ सिर्फ लोग अपना स्वार्थ साधने पर आमादा है। लोग सिर्फ अपने लिए जीने लगे हैं। दूसरों का दुख-दर्द उनके लिए कोई मायने नहीं रखता। दूसरों के जलते झोपड़े पर अपनी रोटी सेंकना का हुनर आज के इंसान ने बखूबी सीख लिया है।
पर इस प्रकार का जीवन हमें किस दिशा में ले जा रहा है? क्या ये विनाश की ओर बढ़ते कदम नहीं हैं? क्या मरती संवेदनशीलता व मरती इंसानियत मरते समाज की पहली सीढ़ी नहीं है? क्या ऐसी भावनाएँ हमें इंसान कहने का हक प्रदान करती हैं?
सोचना होगा!!!!!!!!!!)
संदीप आधे घण्टे बेहोश पड़ा रहा। इस आधे घण्टे में सभी ने अपने-अपने जरूरी काम समाप्त कर लिए। पर किसी ने भी संदीप की सुध न ली...........

महिला सशक्तिकरणः एक छलावा


महिला सशक्तिकरणः एक छलावा

‘महिला सशक्तिकरण’ शब्द का प्रयोग समाज में महिलाओं के मजबूत आधार को दर्शाने का माध्यम है। महिलाओं की प्रत्येक क्षेत्र में बढ़ती भागीदारी निःसन्देह महिलाओं की प्रगति की द्योतक है। अन्तरिक्ष से लेकर समुद्र की अथाह गहराई तक महिलाओं ने अपने अस्तित्व के प्रतीक चिन्ह स्थापित किये हैं। समाज में सम्मानीय स्थान, अधिकार व कर्तव्यों के प्रति जागरूकता, अनावश्यक प्रथाओं की बेड़ियों से मुक्ति आदि ने महिलाओं के वजूद को दृढ़ता प्रदान की है।
हाल ही में चर्चित रूचिका हत्याकाण्ड में ‘अनुराधा’ की भूमिका ने महिलाओं में न्याय पाने के लिए बढ़ते साहस का परिचय दिया है। इस घटना ने सिद्ध किया कि अब महिलायें अन्याय सहकर चार दीवारी में घुटकर नहीं रहेंगी। उन्हें न्याय चाहिए। वो न्याय जो उनका हक है और जो न्याय स्वयं में न्यायपूर्ण हो।
बात चाहे न्याय की हो या व्यवसाय की या समाज से लेकर पारिवारिक दायित्व निर्वाह करने की, महिलाओं ने सदैव स्वयं की योग्यता को सिद्ध किया है। यही कारण है कि आज बी. एस. एफ. में महिलाओं की भरती ने महिलाओं के चुनौतीपूर्ण व्यक्तित्व को और अधिक निखार दिया है। घर और बाहर दोनों चुनौतियों में खरी उतरने वाली महिलाओं ने ‘महिला सशक्तिकरण’ शब्दों की सार्थकता को प्रमाणित किया है।
महिला सशक्तिकरण के सन्दर्भ में उपर्युक्त लिखे वाक्य अक्सर पढ़ने व सुनने में आते हैं। परन्तु विचारणीय बिन्दु ये हैं कि क्या वास्तव में महिला इतनी सशक्त हो गई है या हम किसी वर्ग विशेष के आधार पर सामान्यीकरण कर स्वयं को झूठी तसल्ली देने का प्रयास कर रहे हैं।
महिला सशक्तिकरण की बात आते ही हम न जाने कितनी स्त्रियों के नाम गिनने शुरू कर देते हैं। हालांकि उनमें से कुछ वास्तव में इन शब्दों को सार्थक सिद्ध करती हैं परन्तु सोचने वाली बात यह है कि अगुलियों पर गिनी जा सकने वाली इन महिलाओं की आड़ में नित्य रूप से हारती नारियों की अवहेलना हम कैसे कर सकते हैं? सशक्तिकरण का आधार गरीब व मध्यम वर्ग होना चाहिए। परन्तु इस वर्ग से तो हर क्षण अत्याचार, शोषण, हत्या, बलात्कार से तड़पती महिलाओं की चीखों की आवाजें सुनाई देती हैं। घर, परिवार, ऑफिस से जूझती महिलाओं की चेहरे की शिकन, डर, दुख व पीडा महिला सशक्तिकरण की खोखली बुनियाद को हिलाती है।
ये मात्र संवाद नहीं बल्कि स्कूल, विद्यालय, ऑफिस, परिवार, बसों व ट्रेनों की भीड़ में होते शोषण की शिकार महिलाओं की पीड़ा है। जनवरी माह में दैनिक जागरण द्वारा बसों में सफर करने वाली लड़कियों से उनके सम्मुख आने वाली समस्याओं के विषय में पूछा गया तो वे फफक उठी। उन्होंने बताया बसों में होते दुर्वव्यवहार और छेड़छाड़ की घटनाओं से वे व्यथित हैं। यदि इसकी शिकायत में पुलिस से करती हैं तो पुलिस उल्टा उन्हें ही उन गुण्ड़ों का भय दिखाकर चुप रहने की सलाह देती हैं। यदि परिवार मेें यह शिकायत की जाती है तो घर वाले घर बैठने कर पढ़ाई करने के लिए कहते हैं। ऐसे में सब कुछ चुपचाप सहने के अलावा उनके पास कोई और रास्ता नहीं है।
ये ऐसी शिकायतें हैं जो कहीं दर्ज नहीं की जाती। मात्र खामोशी से सहने कर ली जाती हैं और महिला सशक्तिकरण के आंकड़ों को मजबूती प्रदान करती हैं। कोई एफ. आई. आर. न होने के कारण पुलिस भी ‘महिलाएँ सुरक्षित हैं’ का ढ़िढ़ोरा पीटती नहीं थकती। परन्तु क्या वास्तव में ऐसी कोई सुरक्षा है?
महिला सशक्तिकरण आयोग ऊँचे-ऊँचे झण्डे उठाये धरने पर बैठे नज़र आते हैं। परन्तु क्या कभी ये हाथ किसी गरीब की सहायता के लिए उठे हैं? मेरठ में इंदिरा चौक के पास घटित हुए ‘एसिड केस’ की भुक्तभोगी ‘भावना और प्रतीभा’ आज भी अपनी मुफलिसी से बेहाल है। नरक सरीखी जिंदगी घसीटने वाली ये दोनों बहनें आज दाने-दाने को मोहताज हैं। अब प्रश्न ये है कि ‘महिला सशक्तिकरण आयोग’ की कृपा दृष्टि ऐसी महिलाओं पर कब पड़ेगी?
महिला सशक्तिकरण पर सम्मेलन करने मात्र से सशक्तिकरण नहीं होता। महिला सशक्तिकरण या किसी भी प्रकार के सशक्तिकरण के लिए सर्वप्रथम कमजोर कड़ी को मजबूत बनाना आवश्यक होता है। और हमारे समाज की कमजोर कड़ी निम्न व मध्यम वर्ग है। उच्च वर्ग को सशक्तिकरण आयोग की आवश्यकता नहीं है। वह अपने अधिकार छीनना भी भली-भाँती जानता है। जागरूकता की आवश्यकता उन्हें है जो अपने अधिकारों को ही नहीं जानते। तो क्यों न महिला सशक्तिकरण की परिभाषा को जनसाधारण की भाषा दी जाये और महिला सशक्तिकरण की दिशा में वास्तव में प्रयास किये जायें।

आरक्षण नीति



आरक्षण एक ऐसा मुद्दा है जो ज्वलन्त रहता है और इस पर व्यक्तियों के विचार स्वार्थ भावना से लिप्त होते हैं। आरक्षण पाने वाले की दृष्टि से आरक्षण ‘‘मिलना चाहिए’’ व न पाने वालों के विचारानुसार ‘‘नहीं मिलना चाहिए’’। परन्तु यदि इस स्वार्थ भावना से ऊपर उठकर, प्रारम्भ आरक्षण की आवश्यकता से करें अर्थात् ‘‘क्या प्रगतिशील भारत में आज भी भारतीयों की उन्नति की नींव आरक्षण है?’’ तो कड़वा ही सही परन्तु सत्य यही है कि ‘‘आज भी कुछ वर्ग विशेष ऐसा है जिसे आरक्षण की आवश्यकता है।’’
अब प्रश्न यह उठता है कि आरक्षण की आवश्यकता क्यों है? आरक्षण की आवश्यकता समाज की उस गरीब व कमजोर वर्ग को ऊपर उठाने के लिए है जो देश की प्रगति में बाधक इसके असहयोग के कारण बन रहा है। उन्नति चहुँमुखी विकास पर निर्भर करती है अतः यह आवश्यक हो गया है कि इस वर्ग विशेष को भी अन्य वर्गों की श्रेणी तक लाने का प्रयास किया जाये। इन्हीं प्रयासों की एक कड़ी है- आरक्षण नीति। यह एक प्रकार की सहायता मात्र है। जो लोग सुविधाओं के अभाव में भी जीवन में कुछ पाने की इच्छा रखते हुए प्रयत्न करते हैं उनकी प्रगति में इस सहयोग का विरोध करने वालों को समझना चाहिए कि यह देश के लिए कितना हितकर है अब प्रश्न यह उठता है कि आरक्षण का आधार क्या हो?
आज भी तीस करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे जिन्दगी बसर कर रहे हैं। पढ़ाई-लिखाई, उन्नति-प्रगति शब्दों से शायद ही कभी रू-ब-रू हुए हों। भूख प्यास से बिलखती ये जिन्दगियाँ आमन्त्रित करती है आरक्षण नीति को। ये हैं आरक्षण की नींव। आरक्षण की आधार शिला जाति या वर्ग विशेष न होकर अमीरी-गरीबी की तराजू होनी चाहिए। आरक्षण का उद्देश्य है पिछड़े लोगों को मानसिक विकास हेतु उपयुक्त साधन उपलब्ध करना है। अतः इसका आधार वे लोग कदापि नहीं हो सकते जो न केवल मानसिक रूप से अपितु आर्थिक रूप से भी स्वस्थ हैं। आवश्यकता समाज के गरीब वर्ग को आरक्षित करने की हैै।
आर्थिक आधार पर आरक्षण के लिए क्रीमी लेयर के नियम की सख्ती से पालन किया जाये तथा इसमें राजनीतिज्ञों को छूट कतई ना दी जाये। राजनीति समाज सेवा का कार्य पहले हुआ करता था अब यह एक पेशा तथा कमाई का धन्धा मात्र रह गया है।
देश के राजनीतिक वातावरण में किसी गरीब या सामान्य जन की हैसियत राजनीति की लाइन पर चलनेे की नहीं रह गई है।
यह सच है कि यह प्र्रयास कठिन हो सकता है परन्तु असम्भव नहीं हो सकता। परन्तु इस कठिन प्रयास को क्रियान्वित करने से पहले समाज के उस वर्ग को नियन्त्रित करना होगा जो घूसखोरी, जालसाजी जैसे कार्यों में व्यस्त हैं। इस प्रकार अपनाई गई नीति से न केवल आरक्षित वर्ग लाभान्वित होगा अपितु यदि रिश्वतखोरी आदि क्रियाओं पर अंकुश लगा सके तो देश की उन्नति में यह प्रयास सार्थक हो जायेगा और हम उस देश में सांस लेंगे जिसकी कल्पना हमारे शहीदों ने की थी।

क्योंकि मैं एक लड़की थी.............



क्योंकि मैं एक लड़की थी.............

‘‘ऐ जिन्दगी ऐ मेरी बेबसी
अपना कोई ना था,
अपना कोई नहीं
इस दुनिया में हाय.............’’
सैंकड़ों लोगों के बीच पड़ी मैं यही सोच रही थी। मेरे लिए लड़ने वाले इन अनजान लोगों की भीड़ में भी मैं कितनी अकेली हूँ। मेरे लिए लड़ाई.................
सुनकर आप लोगों को लग रहा होगा कि जरूर ‘लड़की का कोई किस्सा या चक्कर होगा’। हँसी आती है मुझे ऐसी मानसिकता पर जहाँ ‘लड़की’ शब्द सुनते ही लोगों की नकारात्मक सोच उनके विकसित कहे जाने वाले व्यक्तित्व पर हावी हो जाती है। क्यों हम लड़कियों को अकेले इसी सांचे में फिट किया जाता है? 21वीं शताब्दी की इस पढ़ी लिखी, सुसंस्कृत, विस्तृत सोच वाली दुनिया के मानसिक विकास का दायरा इतना संकुचित क्यों है?
खैर! हम लड़कियों की अपने अस्तित्व की यह लड़ाई कभी न खत्म होने वाली है। न तो हमारे प्रश्नों का अन्त है और न ही हमारे प्रश्नों का उत्तर इस समाज के पास है। सच कहुँ तो मेरा यह प्रश्न इस समाज से पहले उस भगवान से है जो किसी पापी को सजा स्वरूप लड़की के रूप में पैदा होना निर्धारित करता है (ऐसा हमारे समाज में कहा जाता है कि भगवान जिसे सजा देना चाहते हैं उसे लड़की के रूप मेें धरती पर भेजते हैं)। एक तरफ लड़की को ‘माँ’ जैसे संवेदनशील शब्द से भावुक किया जाता है, देवी के रूप में पूजा जाता है, बहन के रूप में प्यार किया जाता है, विभिन्न रूपों में सम्मान दिया जाता है वहीं दूसरी ओर उसी लड़की को घृणित दृष्टि से देखा जाता है, बदनियति से उसका शोषण किया जाता है, उसके जन्म पर आँसू बहाये जाते हैं, घर में उदासी का ऐसा आलम छा जाता है कि जब तक वह लड़की एक घर से दूसरे घर तक नहीं पहुँच जाती तब तक लड़की होने के ताने दिये जातेे हैं और अगले घर की जिंदगी............................ इस जिंदगी से तो हर कोई वाकिफ है। समझ में नहीं आता हमारा अस्तित्व किससे जुड़ा है, उस पूजनीय रूप से या आज के इस कड़वे सच से? परन्तु यह तो तय है कि इन दोनों रूपों में से कोई एक हमें अवश्य छल रहा है।
छल.................... यह ‘छल’ हमारी जिन्दगी का एक अटूट हिस्सा बन गया है। पैदा होते ही माँ-बाप के आँसू देखकर अहसास हुआ कि शायद मुझे इस दुनिया में देखकर खुशी के कारण माँ-बाप की आँखों से ये अनमोल मोती गिर रहे हैं। शायद जो भाव वे शब्दों में बयाँ नहीं कर पा रहे, वे आँसूओं के रूप में प्रकट हो रहे हैं। मेरी भी इस दुनिया में आने की खुशी दुगनी हो गयी। परन्तु मेरी खुशी ने मुझे मेरी जिन्दगी का पहला धोखा दिया। मेरा भ्रम माँ-बाप के वो चार शब्द सुनते ही दूर हो गया जो मुझे दिल की गहराइयों तक छू गये। ‘‘ये तो लड़की है।’’
जी हाँ, मैं तो एक लड़की थी। पता नहीं क्यों मैं माँ-बाप के आँसूओं को देख भावनाओं के सूखे सागर में बह गई और जब उस सूखे सागर से बाहर आई तो मैं प्यासी ही रह गई। माँ-बाप के पहले स्पर्श की प्यासी, उनके पहले दुलार की प्यासी, उनके पहले अहसास की प्यासी, मुझे छूने के लिए उनके काँपते हाथों की प्यासी, उनके पहले शब्द की प्यासी, उनके चेहरे की मुस्कराहट की प्यासी। प्यासी, क्योंकि मैं एक लड़की थी.........................
मुझे ‘छल’ शब्द से नफरत होने लगी थी। मैं ‘छल’ को कोस रही थी कि क्यों ये मेरी जिन्दगी में आया। बहुत दुख होता है जब कोई अपनों से छला जाता है। पर जल्द ही मुझे पता लगा कि यह छल अब मेरी जिन्दगी भर का साथी होने जा रहा है।
मैं कुछ घंटों की बच्ची मेरे माँ-बाप पर भारी होने लगी थी। मेरे लड़की होने का गम वे और अधिक सहन नहीं कर पा रहे थे। तभी उन्हें एक कुटिल युक्ति सूझी। जिसे सुनकर मेरी रूह काँप उठी। मुझे वाकई अपने लड़की होने पर घृणा होने लगी। माँ-बाप की बात सुनकर मुझे वास्तव में यकीन हो गया कि लड़की होना कितना बड़ा पाप है।
‘पाप’ ही तो है। यदि लड़की होने के कारण एक माँ अपने कलेजे के टुकडे को फंेकने के लिए तैयार हो जाये तो वास्तव में यह पाप ही है। जी हाँ, मेरे माँ-बाप ने मुझे शहर से दूर कहीं फेंक देने की युक्ति सोची थी। कितने कष्टप्रद थे वे संवाद.....................।
माँ को ममता की देवी कहा जाता है। कहा जाता है कि एक माँ से ज्यादा अपने बच्चे को कोई और प्यार नहीं कर सकता। एक माँ ही है जो अपने बच्चों के बंद होठों की भाषा भी समझ लेती है। माँ से ज्यादा श्रेष्ठ इस दुनिया में किसी और को नहीं माना जाता। माँ से पहले इस दुनिया में कोई पूजनीय नहीं है।
परन्तु मेरी माँ....................... वो ऐसी क्यों नहीं है? मुझे मेरी माँ क्यों नहीं समझ रही है? मेरा स्पर्श मेरी माँ में ममता का संचार क्यों नहीं कर रहा है? मेरी माँ ने मुझे एक बार भी गोद में क्यों नहीं उठाया? वो मुझे फेंकने के लिए कैसे राजी हो गई? माँ................... तुम इतनी निष्ठुर कैसे हो गई?
नहीं माँ नहीं, मुझेे कुछ घण्टे और अपने साथ बिताने दो। मुझे इस तरह से मत फेंको......................
मेरी माँ ने मेरी एक ना सुनी। उनके मन में मेरे लिए इतनी घृणा थी कि उन्होंने मुझे किसी मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे, अनाथालय या किसी अन्य सुरक्षित स्थान पर न फेंककर एक ऐसे स्थान पर फेंक दिया जहाँ से गुजरते हुए भी लोग अपनी नाक भौं सिकोड़ते हैं। जहाँ लागों को अपना रूमाल अपनी नाक पर रखने के लिए मजबूर होना पड़ता है, जहाँ लोगोें का दम घुटता है। ऐसे कूड़े के ढेर पर मेरी माँ ने मुझे निर्ममता से फेंक दिया।
माँ........................ क्या आपको कभी आत्मग्लानि होगी? क्या कभी आपको मेरे दुख का अहसास होगा? माँ मुझे मेरा कसूर तो बता दिया होता?
फिर एक ‘छल’। परन्तु यह सब इतना दुखदायी था कि मुझे जीने की ही चाह न रही। मुझे खुद से घृणा होने लगी। मैं और नहीं जीना चाहती थी। मैं उस कुड़े के ढ़ेर पर अकेली पड़ी बिलख रही थी। देखने व सुनने वालों को लगा कि ‘बच्ची छोटी है इसलिए रो रही है।’ जबकि सच यह था कि मैं खुद पर रो रही थी। परन्तु आज की स्वार्थी दुनिया में कोई किसी के दर्द को नहीं समझता। परन्तु ऐसे मेें मेरा दर्द समझने वाला कोई था वहाँ। मोहल्ले के कुछ कुत्ते, जो भोजन की तलाश में वहाँ आये थे। मुझे देखते ही पाँच कुत्तों की उस टोली के मुँह में पानी आ गया। कुछ घण्टों का ताजा गोश्त। और फिर बिना एक पल गँवाये वे मुझ पर ऐसे टूट पड़े जैसे कई महीनों से भूखे हो। किसी को मेरा हाथ पसन्द आया तो कोई मेरे पैर नोंच रहा था। एक कुत्ते को तो मेरी नन्हीं आँखें ही भा गई। कोई मेरे पेट को चीर रहा था। तभी एक कुत्ते की नज़र मेरे धड़कते दिल पर पड़ी। जो गम के कारण इतना वजनी था कि उस कुत्ते का पेट ही भर गया। चित्थड़े- चित्थड़े हो गया मेरा वो नन्हा शरीर।
पर मुझे खुशी थी कि मेरे जीवन का मोल कुत्तों ने ही सही पर किसी ने समझा तो। और आज नहीं तो कल मुझे इसका सामना तो करना ही था। अन्तर सिर्फ इतना होता कि ये वास्तव में कुत्ते थे और बड़े होने पर मुझे ‘इन्सानी कुत्ते’ मिलते। पर परिणाम समान ही होना था। क्योंकि मैं एक लड़की हूँ..............................
पर इस घटना के बाद की हैवानियत पर मुझे हँसी आ रही थी। जी हाँ अब तक के गम मेरे लड़की होने के कारण मेरे अपने थे। पर अब मैं जो बताने जा रही हूँ वो समाज का गम है। समाज के गिरते स्तर का, लोगों की संकुचित मानसिकता का और समाज के पढ़े लिखे गवाँरों का इससे उन्मदा नमूना कुछ और नहीं हो सकता।
मेरे कुछ चित्थडे जिन्हें लेकर समाज के दो वर्ग अपने-अपने हथियार लिए एक दूसरे के सामने तैनात थे। जी हाँ, यह वही लड़ाई है जिसका जिक्र मैंने कहानी के आरम्भ में किया था। एक नन्हीं बच्ची के चित्थडों के लिए लड़ाई (न कि किसी लड़की से सम्बन्धित कोई और किस्सा)। मुझे हँसी इस बात के लिए आ रही थी कि जब मैं जीवित थी तक मेरे लिए किसी ने आवाज नहीं उठाई और अब जब मेरे कुछ अंश बचे हैं तो उनके लिए लड़ाई? बहुत विचित्र लग रहा है ये सब। समझ में नहीं आ रहा है कि ये माजरा क्या है?
ओेह! मैं अपने उस साथी को कैसे भूल गई जिसने मेरा हर पल साथ दिया। जिसके साथ मैं यहाँ तक पहुँच पाई। ‘छल’ आ ही गये तुम। अब तुम ही बताओ ये सब क्या चल रहा है? अब क्यों लड़ रहे हैं ये सब मेरे लिए?
छलः ‘छल’ के साथ रहती हो और ‘छल’ को नहीं समझ पाई। गलतफहमी है ये तुुम्हारी कि कोई तुम ‘लड़की’ के लिए लड़ रहा है। यहाँ जो भीड़ है वह दो समुदायों की है-हिन्दु व मुस्लिम। ये तुम्हारे बचे हुए चित्थड़ों के लिए लड़ रहे हैं। हिन्दुओं के अनुसार तुम्हारे चित्थड़े हिन्दु है और मुसलमानों के अनुसार वे मुसलमान के है। ये लड़ाई तुम्हारे लिए नहीं बल्कि दो सम्प्रदायों की है।
कितनी अभागी हो तुम! सच कहूँ तो आज मुझे तुमसे ये छल करते हुए भी शर्मिंदगी हो रही है। पर सच यही है यहाँ लड़ाई तुम्हारे लिए नहीं है। और लड़ाई तुम्हारे लिए हो भी कैसे सकती है? क्योंकि तुम तो एक लड़की हो..............................
मैंः सही कहते हो ‘छल’ तुम। ये लड़ाई मेरे लिए नहीं हो सकती। क्योंकि मैं एक लड़की हूँ..........................
मेरे लिए कोई समाज आगे नहीं बढ़ता। क्योंकि मैं एक लड़की हूँ..........................
मेरे लिए किसी की आँखों में आँसू नहीं आते। क्योंकि मैं एक लड़की हूँ.......................
मेरी पीड़ा किसी के लिए पीड़ा नहीं है। क्योंकि मैं एक लड़की हूँ..........................
मैं सिर्फ एक उपभोग की वस्तु बनकर रह गई हूँ। क्योंकि मैं एक लड़की हूँ................
पर यदि वास्तव में मेरा लड़की होना इतना बड़ा अभिशाप है तो क्यों आज समाज मेरे माँ, बेटी, बहन और बहु के रूप का कोई विकल्प नहीं ढूँढ़ लेता? वह मुझे इन रूपों में भी चाहता है और मेरे अस्तित्व भी समाप्त करना चाहता है। आखिर कब मुझे इस दोहरी मानसिकता वाले समाज से मुक्ति मिलेगी? आखिर कब???

‘‘एक लम्हे की प्रेम कहानी’’


‘‘एक लम्हे की प्रेम कहानी’’

वो एक लम्हा, उसकी वो एक नज़र और उस क्षण का वो तूफान जिसने जिन्दगी के मायने ही बदल दिये। मैं कभी उस दिन को नहीं भूल पाऊगाँ। मेरी जिन्दगी का वो एक पन्ना जिस पर दर्द की कलम से मेरी प्रेम कहानी अनजाने में ही चित्रित हो गई।
जी हाँ, मेरी प्रेम कहानी। ये प्रेम कहानी कुछ लम्हों की है पर इसका अहसास मानों सदियों पुराना हो। इस कहानी में दर्द प्रेम से ज्यादा व्याप्त है, ऐसा कहकर शायद अपने इस अमर प्रेम को मैं गाली दे जाऊँ। क्योंकि प्रेम का समय से कोई सम्बन्ध नहींे होता। शायद आपको विश्वास न हो। पर मुझे यकीन है मेरी कहानी जानकर आप न केवल इस बात पर विश्वास करेंगें बल्कि इसका यकींे आपके रोम-रोम में बस जायेगा और प्यार के लिए आपकी धारणा बदल जायेगी।
यह एक ऐसी निश्चछल प्रेम कथा है जो प्यार के ज़ज्बातोें को अमरत्व की माला में पिरोती है।
ये कहानी शुरू होती है कोहलापुर में भड़क रहे दंगों से। कोहलापुर के हालात बद से बदत्तर हो गये थे। चारों ओर एक ऐसा अजीब सा सन्नाटा था जो चीख-चीखकर वहाँ के लोगों की मौत के दर्द को गा रहा था। लोगों के अन्दर डर का ऐसा आतंक था कि कोयल की आवाज भी उन्हें कर्कश और आतंकित करने वाली प्रतीत हो रही थी। बच्चे जिनका नन्हा बचपन सड़क, पार्क आदि में खेलकर गुजरता था, वो आज घर की चार दीवारी में कैद सिसकियाँ ले रहे थे। लोगों के आतंकित चेहरों पर पड़ी सिकुड़न उनके हर पल मौत के खौफ को बयाँ कर रही थी। लोग समझ नहीं पा रहे थे कि वे जी-जी कर मर रहे हैं या मर-मर कर जी रहे हैं। ओह! कितना घुटन भरा वातावरण था वो सब। जिन्दगी नरक सी लगने लगी थी।
असल में ये दंगा प्रत्येक समुदाय के लोग शहर में शान्ति व्यवस्था के बिगड़ते हालातों के खिलाफ कर रहे थे। लोगों में असंतोष था कि क्यों उनके शहर की शान्ति व्यवस्था की हालत इतनी दरिद्र्र है? पर कोई उन्हें यह कैसे समझाये कि सुख-शान्ति, चैन-आराम के अर्थ जिस दिन वे समझ जायेंगें, सबसे पहले ये दंगे समाप्त हो जायेंगें।
ये लोगों की संकीर्ण मानसिकता नहीं तो और क्या है कि वे जिस चीज के लिए लड़ रहे हैं, सबसे पहले उसी का तिरस्कार कर रहे है।
यही तिरस्कृत शान्ति अचानक गली-मोहल्ले से विलुप्त होने लगी। अचानक एक ओर से कुछ हाहाकार की आवाजें आने लगी। मैं कुछ समझ नहीं पाया। और जब तक कुछ समझता, दंगाईयों की एक टोली बहुत तेजी के साथ मेरी ओर बढ़ती चली जा रही थी। वे लोग ईंट, पत्थर, तलवार, लोहे की छड़, लाठी, मशाल आदि हथियार लिये दौड़े चले आ रहे थे।
एक बार तो उन्हें देखकर मेरी सांसे थम ही गई। मैं मिट्टी के बूत की भाँति स्थिर हो गया। मैं चाह रहा था कि भाग जाऊँ पर डर के मारे मैं अपनी जगह जड़ हो गया था। कितना लाचार था मैं उस समय। पर फिर याद आया कि मैं पुलिस की सुरक्षा में खड़ा हूँ। हालांकि यह असुरक्षित सुरक्षा थी। पर मेरे लिए यह डूबते में तिनके का सहारा बनी हुई थी। पर मैं कौन हूँ? जिसे इतनी सुरक्षा मिली है।
नहीं- नहीं मैं कोई वी0 आई0 पी0 नहीं हूँ जो उन दंगाइयों की दलील सुनने वहाँ आया हूँ। हालाँकि मेरी उस समय की मनोदशा, दिल का खौफ और परजीवी प्रकृति (पुलिस वालों पर आश्रित होना) बाह्य रूप से मुझे किसी वी0 आई0 पी0 से कम नहीं आँक सकती थी। पर वास्तविकता तो यह है कि मैं तो एक मामूली सा पत्रकार हूँ जो अपनी पूरी टीम के साथ घटना स्थल की रिर्पोटिंग के लिए वहाँ उपस्थित था।
पत्रकारिता एक ऐसा पेशा है जो साहस की बुनियाद पर अपना करियर बनाता है। जो अपने जज्.बे और जुनून से अँधेरे में दबे सच को रोशनी दिखाकर दुनिया को वास्तविकता से रूबरू कराता है। इस पेशे में स्पष्टवादिता, चतुरता और इन सभी से कहीं अधिक महत्वपूर्ण ‘साहस’ की आवश्यकता होती है। पर उस दिन मुझे अपने साहस का अहसास हुआ। मेरे इस विशालकय शरीर में चूहे का दिल निवास करता है। मुझे अच्छी तरह याद है स्कूल-कॉलेज की हर क्लास में अपनी वीरता के हमने ढ़ेरों किस्से गाये थे। लड़कियों पर इम्प्रैशन ड़ालने के लिए ऊँची-ऊँची आवाज में ड़ींगे मारना। उल्टे-सीधे फिल्मी डायलॉग बोलना। किसी भी दब्बू लड़के को पीटकर खुद को हीरो साबित करना, क्लास की बैंच पर कूदकर खुद को जिम्नास्ट साबित करना और ऐसे अनगिनत ख्याल एक ही पल में एक के बाद एक मेरे दिमाग में आते जा रहे थे। पर आज सच के एक दृश्य ने मेरी भ्रम के बादलों की दुनिया को कहीं विलुप्त कर दिया। ओह! कितना शर्मिंदगी महसूस की उस वक्त मैंने। कल्पना से बाहर की दुनिया कितनी निदर्यी है और इसी के साथ ही मैंने अपने करियर को असफलता के पर से उड़ते देखा। मेरे पैर धीरे-धीरे पीछे हटने लगे थे। और आँखों के सामने अंधेरा छाने लगा था। धुँधले से इस माहौल के बीच इक हल्की सी रोशनी ने मुझे भ्रम और वास्तविकता के बीच उलझा दिया। मुझे लगा जैसे कोई झाँसी की रानी की तरह उस युद्ध के मैदान में अपने शौर्य का परिचय देती हुई आगे बढ़ रही हैै। पर ये क्या.............. एक झलक के बाद ही वो कहाँ खो गई। शायद मेरी ही आँखों का धोखा था। डर के कारण कुछ-कुछ दिखाई दे रहा था। शायद मेरे अंदर कहीं किसी कोने में छुपा बैठा साहस मुझे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करने की असफल कोशिश कर रहा था। क्योंकि अब मैं पुलिस व दंगाईयों की टोली के बीच खुद को ढूँढ़ रहा था कि मैं किस की तरफ खड़ा हूँ कि अचानक.............
वही धुंधला चेहरा जो अब सच बनकर मेरी बाहों में पड़ा था। वो बेचैन सा शरीर मेरी बाहों के सहारे में अचानक खुद को सहज महसूस करने लगा। उसके उस मासूम से चेहरे पर बेखौफ हिम्मत की चमक मुझे सम्मोहित कर रही थी। उसके गुलाबी गालों पर धूल की हल्की सी परत वाला वो चेहरा काली घटा में से झाँकते चाँद सा लग रहा था। और उस पर वो पसीने की बूँदे जैसे चाँद की रोशनी से टिमटिमाते तारे। वो बड़ी-बड़ी आँखें जो मेरी आँखों पर थम गई थी, उनमें लगा काजल जो थोड़ा सा बह गया था मानो नीले आकाश में बहती घटा हो। भगवान ने उसके चेहरे के एक-एक भाग को बखूबी तराशा था। मेरी बाहों में उसकी वो मजबूत पकड़ मेरे अंदर उसके प्रेम का संचार कर रही थी। 15 सेकण्ड का वो समय जिसमें हम न कुछ कह पाये, न कुछ समझ पाये। बस समझे तो वो वादा जो आँखों ही आँखों में हमने एक दूसरे से किया कि “हम सिर्फ एक दूसरे के लिए बने है।” उन 15 सेकण्ड में हमने आँखों ही आँखों में जीवन भर साथ निभाने की कसमें खा ली। हम पूरी निष्ठा से सारी उम्र एक दूसरे का साथ निभायेंगें। अपने दिल के भावों को शब्दों में पिरोते हुए मैंने अपने लब खोलने ही चाहे कि अचानक..............
उसके गुलाबी चेहरे पर चमकती पसीने की बूँदे लाल हो गई। मेरे हाथों में एक झटके के साथ उसका भार कम हो गया। ज़्ामीं पर पड़ा उसका धड़ और मेरे हाथों में उसका सर। उसकी वो बड़ी-बड़ी खुली आँखें अभी भी मुझसे कह रही थी ‘‘हम जीवन भर साथ रहेगें।’’ और मैं हकदम उसकी आँखों के विश्वास को अपना विश्वास नहीं बना पा रहा था। दिल कहता है कि वो झूठ नहीं बोल सकती। दिमाग कहता है कि वो अब नहीं..................
दंगाईयों ने मेरी बाहों में ही उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। और मैं आवाक्् खड़ा सब देखता रहा।
आज भी उसकी आँखें मुझे उसके प्यार का अहसास कराती हैं। उसका वो क्षणिक स्पर्श आज भी मेरी यादों में बसा है। इसके साथ-साथ एक ग्लानि जो उस क्षण से आज तक मेरे अन्दर है-‘‘कि वो मेरी कायरता के असुरक्षित घेरे में मुझसे दूर हो गई। मेरा एक पल का साहस हमारे एक पल में देखे उस सपने को साकार कर सकता था। मेरा क्षणिक आत्मविश्वास हमें जीवन की डगर पर साथ-साथ कदम बढ़ाने में सहायक होता।
पर सच तो यह है कि आज भी मैं उन मृत सपनों को जीवित करने के एक और भ्रम मंे खो चुका हूँ...................