Thursday, December 8, 2011

Why this slavery?


इसे दास्ता की फितरत कहें या अज्ञानता। भौतिक रूप से स्वतंत्रता की प्रसन्नता भी हमें मानसिक गुलामी के भँवर से बाहर निकालने में असमर्थ है। जी हाँ, अँग्रेजों की गुलामी से वर्तमान मीडिया की गुलामी तक के सफ़र के विभेदीकरण में आज भी हम असमर्थ हैं। वैयक्तिक वैचारिक क्षमता, विश्लेषण-संश्लेषण की बौद्धिकता विलुप्त होती जा रही है। तभी तो आज हम मीडिया के नेत्रों से देखे दृश्यों तथा श्रवणेन्द्रियों से सुने शब्दों के दास हो गये हैं। व्यक्तिगत निर्णय लेने की क्षमता जैसी शब्दावली हमारे शब्दकोश में स्थान पाने में असफल होती जा रही है। हाल ही में धूम मचा रहे गीत ‘कोलावेरी डी’ की विवेचना करें तो यह गीत पहली बार सुनने पर कर्णप्रिय होने का विश्वास भी नहीं जीत पाता परन्तु मीडिया में इसकी चर्चा सुनते ही यह हमारा ‘प्रिय गीत’ बन जाता है। इसी प्रकार छोटे-छोटे बच्चों में भी ‘डर्टी पिक्चर’ की चर्चा मात्र ही रसानुभूति का संचार कर रही है। वही दूसरी ओर ‘बोल’ सरीखी गंभीर एवं अर्थयुक्त फिल्में योग्य स्थान पाने तक में भी लाचार रही। कितनी विचित्र पसंद हो गई है ना हमारी! चूँकि मीडिया ने इन्हें हाइप दी है तो यह हमें अवश्य पसंद करनी चाहिए अन्यथा लोग हमें ‘बैकवर्ड’ समझेंगे। इसी मानसिकता के दायरे में सीमित हो गये हैं आज हम। पर ज़रा सोचिये- अपनी पसंद-नापसंद न पहचानने व उसे सामाजिक रूप से स्वीकार न कर पाने की विवशता क्या हमारी व्यक्तिगत कमजोरी नहीं है? शिक्षित होते हुए भी इस अशिक्षित स्थिति में प्रवेश करना कितना शर्मनाक है??

Sunday, November 27, 2011

परतंत्र शिक्षातंत्र


नवजात शिशु असहाय अवस्था में होता है। उसका पालन-पोषण तो परिवार में माता-पिता के संरक्षकत्व में होता है किन्तु उसकी बौद्धिक चेतना का दीप शिक्षा के द्वारा ही प्रज्वलित होता है। शिक्षा के द्वारा ही बालक की शारीरिक, मानसिक, भावात्मक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक शक्तियों का विकास होता है। इस प्रकार व्यंिक्तत्व के पूर्ण विकास के लिए शिक्षा अनिवार्य है। यह प्रगति का आधार है। जिस देश और समाज में अधिकांश जनसंख्या अशिक्षित होती है, वह देश और समाज संसार में पिछड़ा हुआ कहलाया जाता है। अतः शिक्षा न केवल व्यक्ति के व्यंिक्तत्व विकास के लिए वरन् समाज व देश की पूर्ण उन्नति के लिए भी उत्तरदायी है।
शिक्षा का उपर्युक्त लिखा महत्व सर्वविदित है और सर्वस्वीकार्य भी। तथापि आज वर्तमान शिक्षा प्रणाली जर्जर होती जा रही है। विभिन्न आयोगों का गठन इसकी स्थिति सुदृढ़ करने हेतु किया जाता रहा है, परन्तु परिणाम ‘सिफर’ ही है। यह कथन पाठकों को निःसन्देह विचित्र प्रतीत हो रहा होगा, क्योंकि आाधुनिक पाठ्यक्रम व ऊँची-ऊँची स्कूल इमारतें व उत्कृष्ट परिणाम इत्यादि का तिलिस्म शिक्षा के मूल उद्देश्य को अदृश्य कर चुका है और अस्थायी उन्नति की चकाचौंध भावी परिणामों को दृष्टिगत होने नहीं दे रही है। इस भ्रमित भंवर से बाहर निकलने के लिए अग्रलिखित तथ्यों का विश्लेषण आवश्यक है-
‘‘हमारा शिक्षा-तंत्र तीन स्तरों में विभाजित है- प्राथमिक, माध्यमिक व उच्च शिक्षा। वर्तमान में प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षण हेतु भर्ती के लिए मुख्यतः दो द्वार प्रचलित हैं- विशिष्ट बीटीसी एवं बीटीसी। दोनों ही द्वार कई महाद्वारों पर ‘माया भंेट’ के पश्चात् ही खुलते हैं। बी. एड. की ही भाँति बीटीसी का भी बाजार सज चुका है। और नौकरी की आस में बोली लगाने वाले अपने-अपने स्थान पर विराजमान हैं। आशा वही पुरानी है- ‘बीटीसी के उपरान्त सुरक्षित भविष्य की गारण्टी’ अर्थात् ‘सरकारी नौकरी’।
मगर अफसोस! टीइटी व सीटीइटी सरीखे द्वारपाल कटोरा लिए इन द्वारों पर क्रूर रूप धारण किये सुशोभित हैं। प्रतिवर्ष नौकरी की दरकार करने वाले बेरोजगारों को इन परीक्षाओं हेतु माया की भंेट तो चढ़ानी ही होगी। और यदि किसी का कोटा एक वर्ष में ही पूरा हो गया अर्थात् यह परीक्षा उत्तीर्ण हो गई तो प्रसन्नचित मुद्रा पर विराम लगाइये और पाँच वर्षों के पश्चात् पुनः उस कटोरे में भेंट चढ़ाइये। यहाँ से आप साँप-सीढ़ी की प्रथम पंक्ति से प्रोन्नत हो द्वितीय पंक्ति पर आ गये। यहाँ आपको मिलेंगे ‘मेरिट’ रूपी ‘नाग देवता’, जो कब आपको डस लें, यह आपका भाग्य। इस पंक्ति में आगे बढ़ने की आपकी चाल घोर प्रतिक्षा के उपरान्त ‘रिक्तियों’ की सूचना के पश्चात ही आयेगी। और फिर आरम्भ होगा पुनः सरकारी कटोरे में भंेट चढ़ाने का सिलसिला। फॉर्म भरने से मेरिट लगने तक खूब धन-धान्य की वृष्टि विभिन्न विभागों पर आपके द्वारा की जायेगी। भाग्यवश आप मेरिट में आ जाते हैं तो तैयार हो जाइये दुर्गम स्थानों की सैर के लिए। ये वे गाँव व बस्तियाँ होंगी जिनकी कल्पना आपने अपने स्वपन में भी नहीं की होगी। स्थिति इतनी असहनीय हो जायेगी कि आप भागेंगे एक नये जुगाड़ के लिए जहाँ आप घर बैठकर इन कोर्सों व नौकरियों का आनन्द ले सकें। लेकिन यहाँ कुछ भी मुफ्त में नहीं मिलता जनाब! याद है ना माया की भेंट। चलिए, अब थोड़ी सी प्रसन्नता आपको नौकरी पाने की अवश्य होगी परन्तु साथ ही चिन्तनीय है कि उस अपरिचित व घर से इतनी दूर कैसे रहा जाये? विशेषतः लड़कियों के लिए तो यह अत्यन्त विकट समस्या है। यहाँ आवश्यकता है आपकी याददाशत के पुर्नाभ्यास की और चढ़ाइये भेंट माया की। यहाँ विभिन्न समस्याओं का एकमात्र समाधान माया ही है।’’
विचारणीय है कि इस प्रकार की परिस्थितियों से उपजित शिक्षक क्या अपने दायित्वबोध से परिचित रह पायेंगे? प्राथमिक विद्यालयों में अवनत शिक्षा स्तर इसी के परिणाम का प्रदर्शन कर रहा है। मिड डे मील में कीड़े, अनुपस्थित शिक्षक और ज्ञानविहीन कोरे बालक, ऐसा प्रतीत होता है मानो शिक्षक आपबीती का प्रतिशोध ले रहे हों।
अधिकांशतः इन प्राथमिक विद्यालयों में अभावग्रस्त बच्चे ही प्रवेश लेते हैं। भाग्य को प्रतिपल चुनौती देना इनकी दिनचर्या में सम्मिलित है। संघर्ष इनकी नियति है। तो क्या इन बच्चों को अच्छी शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नहीं है? क्या गरीबी से आइएएस, पीसीएस की कल्पना व्यर्थ है? वस्तुतः निर्धनों के सुनहरे सपनों को तोड़ने का यह पाप अप्रत्यक्ष रूप से शिक्षा-तंत्र द्वारा ही किया जा रहा है।
शिक्षा का कोई भी स्तर हो प्राथमिक, माध्यमिक अथवा उच्च, एक समस्या सर्वव्यापी है- ‘अध्यापको द्वारा ट्यूशन के लिए बाध्य किया जाना’। ट्यूशन के लोभ में शिक्षकों के गिरते स्तर की पराकाष्ठा इनके द्वारा विद्यार्थियों का मानसिक, शारीरिक व आर्थिक शोषण है। प्रायः समाचार-पत्र शिक्षकों द्वारा विद्यार्थियों के प्रति किये गये दुर्व्यवहार की घटनाओं से लबालब रहते हैं। शिक्षकों द्वारा अपने पेशे की गरिमा के परे छात्राओं का किया जाने वाला शारीरिक शोषण, शिक्षकों की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह आरोपित करता है। कैसे निश्चिन्त हो जायें अभिभावक अपने बच्चों को शिक्षा के मंदिर में भेजकर?
विद्यालयों को शिक्षा का मंदिर कहना अब उचित न होगा। विद्यालय-कॉलेज अब एक ऐसा व्यापार हो गये हैं जिसमें मुनाफा निश्चित है, घाटे का तो कोई प्रश्न ही नहीं है। विद्यालय में बच्चे का दाखिला मानो शेयर मार्केट में पैसा लगाने जैसा है। जितना बड़ा निवेश उतना मोटा फायदा। तथापि सुरक्षा, अनिश्चित। डोनेशन से लेकर छोटे-बड़े कार्यक्रमों के नाम पर लूट, स्कूल यूनिफॉर्म से किताबों तक पर लुटाई, कभी टूर पर जाने के लिए विवश किया जाना तो कभी किसी कार्यक्रम में भाग लेने के लिए इत्यादि। आखिर माता-पिता बच्चों को पढ़ायें तो पढ़ायें कैसे? प्राथमिक स्तर से उच्च स्तर तक शिक्षा प्राप्ति का आधार योग्यता न रहकर पैसा हो गया है। जो जितना निवेश करेगा, उतना ही अधिक लाभान्वित होगा।
वर्तमान शिक्षा नीतियों ने शिक्षा की गुणवत्ता को भी संदिग्ध किया है। उदाहरण स्वरूप आठवीं कक्षा व दसवीं कक्षा में अब कोई भी विद्यार्थी अनुत्तीर्ण नहीं होगा। बेसिक स्तर पर ही यदि विद्यार्थी के फेल न होने के डर को संरक्षण मिल जायेगा तो भला विद्यार्थी के लिए परिश्रम का क्या महत्व रह जायेगा? दसवीं कक्षा में प्रत्येक विद्यार्थी को पास करने का परिणाम हम देख ही चुके हैं। ग्यारहवीं कक्षा में प्रवेश के लिए होती मारामारी ने भ्रष्टाचार को उड़ान हेतु विस्तृत आकाश प्रदान कर दिया। अधिकतम अंक प्राप्तकर्ताओं को प्रवेश प्राप्त हो गया परन्तु कम अंक वाले विद्यार्थियों को अंधकारमय भविष्य ने भोग लगाया। यदि वे विद्यार्थी दसवीं मंे ही अनुत्तीर्ण हो जाते तो कम से कम उनके पास पुनः परिश्रम कर अच्छे अंक प्राप्त करने का अवसर सुरक्षित रहता । यद्यपि यह निर्णय विद्यार्थियों द्वारा आत्महत्या की घटनाओं को कम करने हेतु लिया गया था परन्तु इसके पश्चात् भी स्थिति यथावत् रही। कहीं प्रवेश न मिल पाने की कुण्ठा, अवसाद व हीनभावना ने उन्हें पुनः एक ही मार्ग की ओर प्रेरित किया। पलायनवादी प्रवृत्ति के विद्यार्थियों ने आत्महत्या के मार्ग का ही चयन किया। बहरहाल स्थिति अधिक विकट अवश्य हो गई। प्रवेश न मिल पाने के कारण घर खाली बैठने, छोटे-मोटे रोजगार में लगने व वैकल्पिक कोर्स करने वाले विद्यार्थियों की संख्या में वृद्धि हो गई। इस शिक्षा नीति ने बहुत से विद्यार्थियों को उच्च शिक्षा से वंचित तो किया ही, साथ ही निराशा ने उन्हें अपराध की ओर प्रवृत भी किया।
इन चाणक्य नीतियों की भला और क्या तारीफ की जाये। इन्होंने बेरोजगारी की परिभाषा का स्वरूप ही परिवर्तित कर दिया है। ‘‘शिक्षित वर्ग जो रोजगार प्राप्त नही कर पाता है, बेराजगार कहलाता है।’ इस शिक्षा नीति के अन्तर्गत न तो बालक शिक्षित हो सकेगें और न ही अच्छी नौकरी की आकांक्षा रख सकेंगे। वाह समाधान!
उच्च स्तरीय शिक्षा का आलम देखिए- पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने देश में शोध और प्रबंधन से जुड़े शीर्ष संस्थानों आइआइटी और आइआइएम की गुणवत्ता पर सवालिया निशान लगाते हुए कहा, ‘‘विद्यार्थियों की गुणवत्ता के कारण ही हमारे आइआइटी और आइआइएम संस्थान उत्कृष्ट बने हुए हैं।’’ रमेश के अनुसार, ‘‘संस्थान नहीं, यहाँ के छात्र विश्वस्तरीय हैं। सरकारी तंत्र की मकड़जाल के चलते भारत विश्वस्तरीय शोध केन्द्र विकसित नहीं कर पाता है।’’
वस्तुतः माननीय रमेश जी की यह कोई कल्पना नही वरन् यर्थाथ का वह आइना जिसकी स्वीकार्यता लज्जित करती है। विश्वविद्यालयों व सम्बद्ध महाविद्यालयों में विद्यार्थियों की उपस्थिति रजिस्टर में भले ही 75ः से अधिक है परन्तु वास्तविकता यह है कि विद्यार्थियों की आधे से अधिक संख्या ऐसी होती है जो परीक्षा देते समय ही कॉलेज के दर्शन करते हैं। नियमित उपस्थिति तो असंभव है। और जो कॉलेज में नियमित रूप से आने वाले विद्यार्थी हैं उन्हें प्रायः दूसरी कक्षाओं के बाहर लड़कियांे को ताकते हुए पाया जा सकता है।
यह सब निकृष्ट होते शिक्षा-तंत्र की मात्र कुछ झलकें हैं। यदि गम्भीरतापूर्वक व ईमानदारी का सानिध्य लेते हुए शिक्षा-तंत्र की वास्तविक स्थिति का अध्ययन किया जाये तो यूजीसी, एनसीटीई, सीबीएससी, आइसीएससी, विश्वविद्यालय, महाविद्यालय, स्कूल-कॉलेज, कोचिंग इंस्टीट्यूट इत्यादि प्रत्येक स्तर पर भ्रष्टाचार की होड़ लगी है। यह फहरिस्त इतनी लम्बी है कि इसके हर एक शब्द का अपना एक उपन्यास है। विस्मयबोधक है कि इस शिक्षा-तंत्र से जूझते हुए भी विद्यार्थी अपना विश्वास इसमें बनाये हुए हैं और उज्ज्वल भविष्य के लिए आशातीत हैं। निःसन्देह उम्मीद पर दुनिया कायम है। ईश्वर से प्रार्थना है कि इस उम्मीद की लौ यूँ ही रोशन रहे। परन्तु यह भी सच है कि ‘‘हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए’’। अब सटीक समाधान खोजा जाना नितांत आवश्यक है। अन्यथा सम्भावना है कि विश्वास की डोर छूटते ही काला भविष्य निर्दोष व निराश विद्यार्थियों को जुर्म की राह न दिखा दे। और गाँधी, नेहरू, सुभाष, भगतसिंह आदि जैसे महान व्यंिक्तत्वों के सपनों के भारत की भावी पीढ़ी उनके बलिदान को अज्ञानतावश कलंकित कर जाये। विषय वास्तव में गम्भीर है।

Sunday, November 13, 2011

चुनौती ‘अस्तित्व की’


मानव स्वभाव विपरीत परिस्थितियों में दो में से एक प्रकार की प्रतिक्रिया का चयन करता है। या तो वह चुनौतियों को स्वीकार कर डटकर उनके सम्मुख खड़े हो, उन परिस्थितियों को प्रति-चुनौती देता है या उनके सम्मुख नतमस्तक हो समायोजन करने का प्रयास करता है और कुण्ठा को अपनी नियति स्वीकार करता है। मैंने कुण्ठा को चुनौती देने का निश्चय किया और अपने जीवन को एक नई राह दी।
बात हाल ही की है जब उच्च शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात् बेटी के प्रति सामाजिक व पारिवारिक दायित्व कहे जाने वाली रीत अर्थात् बेटी के लिए रिश्ता ढूँढ़ने मेरे पिता को घर की चौखट से बाहर एक विचित्र प्रश्न को अपने मुख पर तमाचे की भाँति सहन करना पड़ा। यह असमंजस्य है कि वह प्रश्न था अथवा उत्तर। शब्द कुछ इस प्रकार के थे कि ‘‘हम तीन बेटियों वाले घर में अपने बेटे का रिश्ता नहीं करेंगे। यहाँ आगे का परिवार तो खत्म ही हो जाना है।’’
संवाद बेहद कटु है परन्तु मानसिकता दया की पात्र है। जब यह उत्तर मैंने अपने माता-पिता के मुख से सुना तो मेरा प्रश्न एक था, ‘‘क्या आपको अपनी तीन बेटियाँ होने का कोई पछतावा, शर्मिंदगी या किसी प्रकार का दुःख है?’’ माता-पिता का उत्तर था- हमें गर्व है अपनी बेटियों पर। तो फिर पापा आप उनको फोन करके कह दीजिए कि आपके सुपुत्र न तो शैक्षिक योग्यता में मेरी बेटी के समतुल्य है और न ही उपलब्धियों में। इसलिए हम अपनी बेटी का विवाह आपके बेटे के साथ करने में अक्षम है।
निश्चित रूप से ऐसे किसी परिवार में विवाह किया जाना जहाँ स्त्री के वजूद का सम्मान न हो, मूर्खता है। परन्तु इस घटना ने मेरे आत्मसम्मान को झकझोर दिया और अपने परिवार की प्रतिष्ठा को उस समाज में पहचान दिलाने का जुनून सवार हो गया जहाँ मानवता व स्वतंत्र मस्तिष्क का वास हो। वर्तमान में मैं अपने दृढ़ संकल्प का अनुसरण करते हुए अपनी मंजिल की सीढ़ी चढ़ रही हूँ और अपने माता-पिता के साथ-साथ अपने अस्तित्व को भी अपेक्षित पहचान दिला रही हूँ।

Tuesday, November 8, 2011

बदनियती को करें नियंत्रित


आज के i- next की रिपोर्ट सड़क पर लड़कियों की सुरक्षा, कसे जाने वाले तंज, भद्दी फब्तियाँ, अपराधिक घटनाएँ इत्यादि, शायद इस ख़बर को पढ़ते समय महिला समाज की प्रतिक्रिया ऐसी हो, ‘‘ये सब तो रोज़ होता है। इसे क्या पढ़ना इससे ज्यादा तो हम जानते हैं और झेलते हैं।’’ और पुरूष समाज के संवाद होंगे, ‘‘ इतनी स्वतंत्रता लेंगी तो यही होगा। और चलो सड़कों पर मनमौजी अंदाज में।’’ पर क्या इतनी सी प्रतिक्रिया इस विषय की गंभीरता को कम कर देती है? बात करें अगर उस छोटी बच्ची की जिस पर कसी गई अश्लील फब्ती का उसे अर्थ भी नही पता परन्तु आस-पास वालों की उपाहासनीय-निर्लज हँसी फिर भी उसे लज्जित कर देती है या उस बच्ची की जिसे कोई अनजाना असुरक्षित स्पर्श सहमा देता है; क्या मानसिक स्थिति रहती होगी उस बच्ची की उस समय? दो दिन पूर्व की घटना जिसमें एक पॉश कॉलोनी में रहने वाले वकील साहब की नीयत दो मासूम बच्चियों पर बिगड़ गई; पढ़ने-देखने-सुनने वालों के लिए चंद घंटों बाद यह आई गई घटना हो गई या निकटस्थ पड़ौसियों के लिए चटपटी गॉसिप का विषय, परन्तु क्या किसी ने उन बच्चियों पर इस घटना के पड़े प्रभाव के विषय में सोचा है? क्या वे बच्चियाँ ता उम्र इस घटना के मानसिक दबाव से उभर पायेंगी? क्या उनका विकास सामान्य रूप से हो पायेगा? क्या फिर वे किसी अंकल पर विश्वास कर पायेंगी? हंसी ठिठोली करने वालों के लिए दो पल का मजा है और पीडिताओं के लिए मस्तिष्क के किसी कोने में हर पल की सिसकियाँ और घुटन। ज़रा समझिये और स्वीकार कीजिए कि खुश्नुमा और स्वतंत्र जीवन जीने का अधिकार हम लड़कियों को भी ईश्वर ने समान रूप से प्रदत्त किया है। किसी भी विकृत मानसिता को न तो यह हक छीनने का अधिकार है और न ही महिलाओं को यह हक थाल में परोसकर देने की आवश्यकता है।

Tuesday, October 25, 2011

मंहगाई में मनायें खुशियों की दिवाली


चहुँ ओर की हाहाकार में त्यौहारों का उल्लास दम तोड़ रहा है। मंहगाई का कुचक्र त्यौहारांे की खुशियों को सिसकियों में परिवर्तित कर रहा है। अमीर-गरीब का स्तरीय विभेदीकरण एक कॉमन (उभयनिष्ठ) सीमा पर आकर बेबस हो गया है। मंहगाई- आर्थिक रूप से विभिन्नता लिए कोई भी जीवन स्तर हो, सभी इसी शब्द से त्रस्त हैं। आखिर कैसे आनन्दित हो त्यौहारों के आगमन पर? यह विचार प्रत्येक उस व्यक्ति को कचोटता होगा जिसके लिए त्यौहार के आगमन की प्रसन्नता का आधार ‘‘पैसा’’ है। पटाखे जलाना, मिठाई खरीदना, घर सजाना, खरीददारी करना, क्या यही एक माध्यम है त्यौहार मनाने का? नहीं! यदि त्यौहार मनाने के वास्तविक स्वरूप को स्वीकार किया जाये तो निःसन्देह इस वर्ष की दिवाली आपको सर्वाधिक आत्मिक प्रसन्नता देगी। मात्र् आवश्यकता है बाहरी आडम्बर व दिखावे-छलावे की दुनिया के स्वयं को विरक्त करने की। आर्थिक प्रतिस्पर्धा को त्यागकर सादगी को अपनाते हुए दीये जलाइये उन घरों में जहाँ त्यौहार पर चूल्हे की ठंडी राख बेबस माँ के आँसूओं और भूख से तड़पते बच्चों की सिसकियों को छुपाती है। पटाखों की गूँज से तीव्र कीजिए उन बच्चों की हँसी की गूँज को जिनकी प्यासी आँखें अपनों के न होने के अहसास से सिहर उठती हैं। दीजिए सहारा उन काँपते हाथों को जिनके कटु अनुभव उनके जीवन की मिठास को कहीं लील गये हैं। अगर इस दिवाली को मनाने को इस ढ़ंग को आप अपनायेंगे तो कभी मंहगाई की मार आपकी दिवाली फीकी नहीं कर सकेगी।

Tuesday, October 4, 2011

बनिये रोजगारदाता

i-next में प्रकाशित रिपोर्ट ‘जॉब के लिए जाएं कहाँ?’, यह प्रश्नचिन्ह स्वयं में एक प्रतिप्रश्न समाहित किये हुए है कि ‘जॉब के लिए जायें क्यों?’ स्कूल से कॉलिज तक के सफर की आवश्यकता, उद्देश्य एवं अन्तिम लक्ष्य जीविकोपार्जन हेतु रोजगार प्राप्त करना है। परन्तु वर्तमान परिस्थितियाँ इसी बिन्दु पर निराशा व अंधकारमय भविष्य के दर्शन कराती है। परिणाम स्वरूप बेराजगारों के बढ़ते आपराधिक रिकार्ड, कुण्ठा एवं आत्महत्याओं के ग्राफ में वृद्धि। किसी भी देश की ताकत एवं गुरूर उस देश की युवाशक्ति होता है परन्तु भारतवर्ष की युवाशक्ति को यह कैसी दिशा प्राप्त हो रही है? इस समस्या का समाधान क्या है? वास्तव में नासूर बनती जा रही, इस समस्या का समाधान नितांत आवश्यक भी है। ऐसा नही है कि यह अविनाशी समस्या है। गांधी जी की शिक्षा नीतियाँ इस संदर्भ में पुनः हमारा ध्यानाकर्षित करती हैं। जी हाँ, गांधी जी की ‘बेसिक शिक्षा’ जो आधुनिक परिस्थितियों में भी अपनी सार्थकता प्रमाणित करती है। मात्र आवश्यकता है समकालीन परिस्थितियों के अनुरूप सामंजस्य स्थापित करते हुए उसका अनुसरण करने की। यह शिक्षा ‘स्वः रोजगार’ की अवधारणा पर आधारित है। भारतीय युवा पीढ़ी में चमत्कृत प्रतिभा एवं गुण है जिनसे वह स्वयं भी अनभिज्ञ है। माता-पिता एवं गुरूजनों को युवाओं के भीतर स्थिति इस स्पार्क को पॉजीटिव दिशा प्रदान करते हुए, उन्हें स्वः रोजगार के लिए प्रेरित करना चाहिये। परजीवी एवं पराश्रित बनाने वाले मानसिकता को तिलांजलि देते हुए उनमें विश्वास उत्पन्न करना चाहिये कि वे न केवल अपने लिए अपितु दूसरों के लिए भी रोजगार उत्पादित करें। यह वक्तव्य कुछ लोगों को यह कहने का अवसर अवश्य प्रदान करता है कि ‘कहना आसान है और करना मुश्किल’। परन्तु एक सत्य यह भी है कि आत्मविश्वास के धरातल पर सफलता की इमारत खड़ी करना कठिन भी नहीं है। बढ़ते कदमों को साथ अवश्य प्राप्त होता है परन्तु यह निर्णय उन कदमों का होता है कि वह किस मंजिल की ओर अग्रसर है। दृढ़ संकल्प एवं एकाग्रता आपके एवं मंजिल के मध्य की दूरी को कम कर देते हैं। आत्मनिर्भरता की यह लौ न केवल बेरोजगारी की समस्या का निवारण करेगी वरन् देश की उन्नति में भी सहायक सिद्ध होगी।

Wednesday, September 14, 2011

आत्मसम्मान से समझौता क्यों?


कहते हैं कि अति हर चीज की बुरी होती है। ‘अति का भला न बोलना, अति का भला न चुप’। जिस प्रकार वाचालता अर्थ का अनर्थ करने के लिए पर्याप्त है, उसी प्रकार चुप रहने की अतिवादिता विपक्ष को दुष्टता का साहस प्रदान करती है और आमन्त्रित करती है विपत्तियों को। शायद यह दुस्साहस इसी अति का परिणाम है। आप सोच रहे होंगे कि आखिर यह किस ‘अति’ की भूमिका बाँधी जा रही है। दरअसल पिछले कुछ दिनों में इंटरनेट पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व सोनिया गाँधी के चित्रों का भद्दा प्रदर्शन अब चरम सीमा पर पहुँच गया है। और न केवल मनमोहन सिंह के साथ अपितु बाबा रामदेव, लालकृष्ण आडवानी, दिग्विजय सिंह इत्यादि नेताओं के साथ श्रीमती गाँधी के चित्रों के अतिक्रमण ने कई प्रश्न खड़े कर दिये हैं- (1) सम्पूर्ण भारत में किसी भी अन्य महिला राजनेता के चित्रों का ऐसा घर्णित प्रदर्शन नहीं किया जाता। तो सोनिया गाँधी ही क्यों? (2) क्या इसका कारण उनका विदेशी मूल का होना है? (3) इस प्रकार का कुत्सित कृत्य यदि आम लड़की के चित्र के साथ किये जाने पर दंड का प्रावधान है तो सोनिया गाँधी के चित्र के साथ इस प्रकार का भर्त्सनीय अभ्यास करने वाला सजा का हकदार क्यों नहीं है? (4) और सर्वाधिक महत्वपूर्ण, किसी विधवा महिला का इस प्रकार किया जा रहा अपमान महिला समाज की संवेदनशीलता को क्यों व्यथित नहीं कर रहा है? कहाँ है महिला आयोग?
ये मात्र प्रश्न नहीं हैं। वस्तुतः वे गम्भीर विषय हैं जो एक महिला के मान-सम्मान की उड़ती धज्जियों पर बुद्धिजीवी वर्ग की गम्भीरता, सुझाव व समाधान की अपेक्षा करते हैं। महिलाओं के अधिकारों की रक्षा की बात बड़े जोरो-शोरो से की जाती है, उसके आत्मसम्मान को संरक्षण दिये जाने पर बड़ी-बड़ी बहस होती हैं। कभी कानून की पोथियाँ पढ़ी जाती है तो कभी आन्दोलन चलाये जाते हैं। वहीं दूसरी ओर देश की सर्वाधिक सशक्त महिला के चरित्र को चाय की चुस्कियों के बीच पल भर में दागदार कर दिया जाता है। किसी भी महिला के लिए उसके चरित्र को कलंकित करना, उसके जीवित अस्तित्व को अग्नि समाधि देने के तुल्य है। उसकी ईमानदारी, उसकी निष्ठा व उसकी प्रतिष्ठा पर प्रश्नचिन्ह आरोपित करने जैसा है। ऐसे में चिन्तनीय विषय यह है कि जब दुनिया की इतनी प्रभावशाली महिला की प्रतिष्ठा असुरक्षित है तो आम महिलाओं की सुरक्षा की आशा तो अर्थहीन है। समाचार-पत्रों व टीवी चैनलों पर प्रतिदिन प्रकाशित व प्रसारित होने वाले समाचार महिलाओं पर होते अत्याचारों व अपराधों की कहानी कहते हैं। 21वीं सदी की महिला ‘अबला’ शब्द की उपमा से स्वयं को मुक्त नहीं कर सकी है। घरेलू हिंसा से बाह्य समाज तक खिंचती चोटियाँ, नील पड़े बदन, चीर हरण, कैरोसिन की जलन और सांसों की घुटन, पर कोई नहीं हल। पिता से भाई तक का छिछला होता भरोसा औरत को अन्ततः निर्बलता को स्वीकार करने के लिए बाध्य करता है।
एक अन्य प्रश्न जो मेरे मन को कचोटता है कि क्यों नहीं स्वयं सोनिया गाँधी इस प्रकार के चित्रों में होती वृद्धि पर विराम लगाने हेतु कोई कदम उठाती? उन्हें इसकी सूचना नहीं है, यह मानना तो असंभव है। क्या उनके लिए यह कोई गम्भीर समस्या नहीं है? यदि नही तो होनी चाहिए क्योंकि उनका एक सजग कदम प्रत्येक भारतीय महिला के आत्मसम्मान की रक्षा हेतु बुलंद होती आवाज के लिए प्रेरणा स्रोत होगा। हर लड़की अपने साथ हुए दुर्व्यवहार के विरूद्ध दृढ़तापूर्वक विरोध कर न्याय प्राप्त करने का हौसला प्राप्त कर सकेगी। और इस प्रकार की  प्रत्येक दूषित मानसिकता का मनोबल क्षीण हो सकेगा।
यह दुर्भाग्य है कि भारत में महत्तम महिलाएँ अपने साथ हुए दुर्व्यवहार व अत्याचार का रोना घर की चार दीवारी के भीतर कर, आसूँओं को पी जाती हैं। इस लाचारगी को वे अपनी नियति मानती हैं। परन्तु सोनिया गाँधी इस भाग्यवादिता का प्रतीक कैसे हो सकती हैं? और अगर वे इस व्यवहार को अपनी नियति स्वीकारती हैं अथवा इस विषय की उपेक्षा करती हैं तो उनका यह कृत्य भारतवर्ष की महिलाओं को निराश कर यह अवधारणा विकसित करने हेतु पर्याप्त है कि ‘‘अगर सोनिया गाँधी सरीखी सशक्त हस्ती अपने वजूद की लड़ाई लड़ने में असमर्थ है तो हम गरीब, असहाय व आम महिलाओं की क्या बिसात?’’ और साथ ही इस प्रकार की विकृत गतिविधियों को निरंकुशता का सानिध्य प्राप्त हो जायेगा। अतः सोनिया गाँधी की यह नैतिक जिम्मेदारी भी है कि वे इस प्रकार की दूषित सर्जनात्मकता पर अंकुश लगाये। और एक ठोस व कठोर कदम उठाते हुए आधी आबादी के लिए प्रतिमान स्थापित करें।

Friday, August 26, 2011

‘‘बंद दरवाजे’’


आज मॉर्निग वॉक करते हुए राव साहब कुछ चिन्तित लग रहे थे। उनकी चिन्ता को देखकर शर्मा जी ने पूछा, ‘‘क्या बात है राव साहब आज बड़े परेशान दिखाई दे रहे हैं? सब कुशल मंगल तो है ना?’’
राव साहब ने कहा, ‘‘ क्या बतायें शर्मा जी बेटा विलायत से पढ़कर आया है और अब इतनी अच्छी सरकारी नौकरी भी है। धन-धान्य की कोई कमी नहीं है। न ही कोई लालच ही है। फिर भी एक योग्य बहु नहीं मिल रही है।’’
‘‘बस इतनी सी बात। रूकिये जरा।’’ पास ही व्यायाम करते चौधरी साहब को बुलाते हुए, ‘‘और चौधरी जी सब ठीक-ठाक?’’
‘‘हाँ जी सब बढ़िया। आप सुनाईये शर्मा जी।’’
‘‘चौधरी जी ये राव साहब हैं, हमारे परिचित और रिटायर्ड इंजीनियर। आपकी बेटियाँ क्या कर रही हैं आजकल?’’
‘‘बस पढ़ाई पूरी हो गई और सरकारी नौकरी भी लग गई।’’
‘‘तो क्या कोई लड़का-वड़का देखा बिटिया के लिए?’’
‘‘क्या बतायें शर्मा जी कोई योग्य लड़का मिलता ही नहीं।’’
‘‘हा-हा-हा। यह तो वही बात हो गई कि बगल में छोरा शहर में ढ़िंढ़ोरा। राव साहब का बेटा विलायत से पढ़ाई करके आया है और अब पिता के ही नक्शो कदम पर सरकारी इंजीनियर है। आप लोग आपस में बात कर लीजिए मैं जरा आगे तक हो आऊँ।’’
15 मिनट बाद वापस लौटे शर्मा जी को राव साहब अकेले बैठे दिखाई दिये। ‘‘क्या हुआ राव साहब? कुछ बात जमी?’’
‘‘आप भी कमाल करते हैं शर्माजी। कहाँ फँसा कर चले गये थे हमें? निःसन्देह चौधरी साहब की बेटियाँ बहुत योग्य व सुशील हैं, पर है तो तीन बेटियाँ ही। मैं ऐसे घर में अपने बेटे की शादी कैसे कर दूँ जहाँ आगे कोई परिवार नहीं? इन बंद दरवाजों पर मैं ही क्यों सर पटकूँ।’’ यह कहकर नाराज राव जी आगे बढ़ गये।
आवाक् खड़े शर्मा जी पर जैसे घड़ों पानी पड़ गया हो। इस सोच के परे भला कैसे किसी को समझाया जा सकता है? आज भी स्वतंत्र होते मस्तिष्क की जड़ें दकियानूसित की बेड़ियों से जकड़ी हैं जिसमें योग्यता घुटनों के बल तरसाई आँखों से अपने लिए इंसाफ की फरियाद कर रही है।

Friday, August 12, 2011

उच्च शिक्षा और दो टके की नौकरी


काफी दिनों से ये चर्चे सुन रही थी। परन्तु विश्वास अत्यंत कठिन था कि ऐसा कैसे हो सकता है? फिर सोचा कि हथकंगन को आरसी क्या और पढ़े लिखे को फारसी क्या? इसी तर्ज पर मैं निकल पड़ी वास्तविक अनुभव की चाह में। सोचा कि किसी की पीड़ा का अहसास तभी हो सकता है, जब स्वयं उस पीड़ा से दो-चार हुआ जाये। और यही सोचते हुए मैंने अपनी तैयारियाँ आरम्भ कर दी।
इस सफर का आगाज हुआ मेरठ शहर के एक प्रतिष्ठित विद्यालयों से। एक समाचार-पत्र के माध्यम से ज्ञात हुआ कि उस स्कूल में शिक्षकों की रिक्तियाँ हैं। मैंने अपने मिशन के तहत अपना प्रोफाइल और रिज्यूम तैयार किया। स्कूल में प्रवेश करते ही, रिज्यूम जमा करने और इंटरव्यू कराने का कोई विशेष प्रबंध दिखाई नहीं दिया। एडमिशन कार्य के मध्य ही इंटरव्यू होगा, यह जानकारी वहाँ बैठे किसी सज्जन से प्राप्त हुई। मैं प्रातः 9ः30 से 12ः55 तक इंटरव्यू प्रारम्भ होने की प्रतीक्षा करती रही। इस बीच बच्चों के एडमिशन के लिए तड़पते-बिलखते-झगड़ते लाचार अभिभावक देखे। मासूम बच्चे जो पिता का पायजामा मुठ्ठी में भींचे उनके साथ-साथ खिंचे जा रहे थे। उन्हें शायद इस बात का इल्म तक न था कि इन बड़ी-बड़ी बातों व संघर्ष से एक छोटा सा परिणाम निकलकर आयेगा कि उनको दाखिला मिल गया। और फिर शुरू होगा बच्चों का असली संघर्ष। कुछ दुर्भाग्यशाली ऐसे बच्चे भी थे जिनके अभिभावक निराश लौटने के लिए मजबूर थे। उनके उड़ते-उड़ते संवाद सुनने को मिले, ‘‘यहाँ तो पैसा या एप्रोच चल रही है। कोई है क्या आपके जानने वाला?’’
खैर! बात इंटरव्यू की चल रही थी। 12ः55 बजे सभी आवेदकों को प्रधानाचार्य कक्ष के बाहर एकत्रित होने का आदेश प्राप्त हुआ। इंतजार के बीच चर्चाएँ शुरू हुई। ‘‘फलाँ स्कूल की स्थिति तो बहुत खराब है। कुछ भी नहीं देते वे लोग। हर जगह रिश्वत का बोलबाला है। सरकारी शिक्षक बनना है तो 15 लाख तैयार रखो भई।’’ वगैराह-वगैराह।
मुझे इंटरव्यू के लिए बुलाया गया। ‘‘तू तो बहुत पढ़ ली बेटी। तीन बार एम. ए., नेट, और थ्रो आउट फर्स्ट। तेरा तो हो ही जाना है। पर बेटी तू लेगी क्या?’’, प्रिंसिपल ने पूछा।
सर मेरा अकैडमिक प्रोफाइल आप देख ही चुके हैं और मैं जानती हूँ कि आप लोग ज्यादा सैलरी भी नहीं देते। फिर भी कम से कम 5000 रू की तो मैं आशा करती ही हूँ। मैंने कहा।
बेटी मैं मैनेजमेंट से बात करूँगा, पर हमारे यहाँ इतना देते नहीं है। यह कहते हुए प्रिंसिपल ने मेरा रिज्यूम लौटा दिया।
यही अनुभव दो-तीन अन्य स्कूलों के साथ भी रहा। कहीं से पुनः बुलावा नहीं आया। आज यह लेख लिखने से पूर्व आखिरी स्कूल में आवेदन करते हुए मैंने अपना अनुसंधान समाप्त किया। शायद इससे अधिक अपमान सहन करने की मेरी क्षमता ने घुटने टेक दिये।
प्रातः 10 बजे से अपने नम्बर की प्रतीक्षा करते-करते 12ः30 बजे मुझे इंटरव्यू कक्ष में बुलाया गया। मुझसे शिक्षण का अनुभव पूछा गया। उनके प्रत्येक प्रश्न पर मैं खरी उतरी। बताना चाहूँगी कि यह इंटरव्यू मैंने खड़े-खडे़ दिया। अन्तिम संवाद इस प्रकार थे-
‘‘मैडम आपको पहले ही बता देना चाहंेगे कि हम 2000 रू से ज्यादा नहीं देंगे।’, इंटरव्यूअर ने कहा।
‘‘सर मैं ऐपॉइन्टमैन्ट नहीं चाहती परन्तु एक सुझाव अवश्य देना चाहूँगी। हालांकि आप मुझसे पद व उम्र दोनो में बड़े हैं और मेरा इस प्रकार आपको सुझाव देना शायद गलत................’’
‘‘नहीं-नहीं, कोई बात नहीं आप बताइये’’, इटंरव्यूअर ने कहा।
सर हमारे माता-पिता ने अपनी जीवन की गाढ़ी कमाई को हमारी शिक्षा पर पानी की भांति बहा दिया और हमें अपने पैरों पर खड़े होने योग्य बनाया। प्लीज आप इतनी सैलरी पर ऐपॉइन्ट करके हमारे माता-पिता और हमारी शिक्षा को अपमानित मत कीजिए। सैलरी का स्तर इतना मत गिराइये कि हमें अपने माता-पिता को 2000 रू देते हुए शर्मिंदगी महसूस हो। हमारी आँखें झुक जायें कि आपने हमारी शिक्षा पर व्यर्थ ही खर्च किया क्योंकि उसके बदले हम आपको 2000 रू से अधिक नहीं दे सकते। एक अनपढ़ मजदूर भी महीने के अंत में 2000 रूपये से ज्यादा अपने परिवार की हथेली पर रखता है। इस प्रकार 2000 रू में रखे गये शिक्षक, शिक्षा को क्या स्तर प्रदान करेंगें? क्या वे अपने कार्य के प्रति समर्पित रह सकेंगें?
यह कहकर मैं वापस आ गई और अपनी डिग्रियों के पुलिंदें को निहारते हुए सोच में डूब गई, ‘‘हम बेरोजगार है या लाचार हैं? अगर 2000 रू की सैलरी स्वीकार करते हैं तो बेरोजगारी का तगमा तो हट जायेगा परन्तु क्या वास्तव में हमें रोजगार प्राप्त हुआ? यह हमारी शिक्षा की कमी है या...........................
विषय बहुत गम्भीर है। मात्र एक लेख लिखने के लिये किये गये इस अनुभव ने मुझे झंकझोर दिया। जरा सोचिये उन परेशान चेहरों के विषय में जिन्हें इन नौकरियों की सख्त आवश्यकता है, जिनके घरों में भूख से बिलखते बच्चे रोज दरवाजे पर इस आस में ताकते रहते हैं कि शायद आज उनके पिता उनकी भूख का कोई प्रबंध कर पायें हो। दिन भर की मेहनत के उपरांत महीने के अंत में उनकी हथेली निहारती होगी उन 2000 रूपयों को.................

Tuesday, July 19, 2011

‘‘एक फूल दो माली’’


‘भ्रष्टाचार’ की पल-पल खुलती पोल ने न केवल बड़ी-बड़ी सियासी ताकतों को बेनकाब किया अपितु लोकतंत्र की जड़ों को भी हिलाया दिया। वास्तविकता सामने आना और इस अशुद्ध चरित्र के विरूद्ध कोई कार्रवाई होना, दोनों अलग-अलग बातंे हैं। यथा इस फेर में न पड़ते हुए भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता के सशक्तिकरण व उसके द्वारा उठाये गये कदमों की बात करते हैं।
भ्रष्टाचार के विरूद्ध छेड़ी गई दो मुहिमों ने संप्रग सरकार की रातों की नींद व दिनों के चैन का हरण कर लिया। अन्ना हजारे का अध्याय अभी समाप्त भी नहीं हुआ था कि बाबा रामदेव ने जो सियासी भूचाल लाया उसने कई प्रश्नों को स्थायित्व दिया। अन्ना हजारे व बाबा रामदेव दोनों एक ही मंजिल के लिए सफर कर रहे हैं परन्तु दोनों के मूलभाव भिन्न-भिन्न हैं । एक (अन्ना हजारे) का मार्ग निष्पक्ष, निस्वार्थ व लोकहितकारी प्रतीत होता है। साधु न होते हुए भी साधुत्व के सभी गुण अन्ना हजारे स्वयं में समाहित किये हुए है। वहीं दूसरी ओर राजनीति की दहलीज पर अपनी चाबी का ताला टंागने की चाह रखने वाले बाबा के इस संघर्ष से निजी स्वार्थ की बू आती है। निश्चित रूप से किसी पर किसी भी प्रकार की उंगली उठाने से पूर्व प्रमाणिक साक्ष्य का होना आवश्यक है। अतः इस प्रकरण को भी इस प्रकार समझा जा सकता है-
इस संघर्ष का आरम्भ भ्रष्टाचार की लपटों से पीड़ित जनता पर लोकपाल विधेयक की मलहम से हुआ। अन्ना हजारे ने देश की सम्पूर्ण जनता का नेतृत्व करते हुए संप्रग सरकार से लोकपाल विधेयक पारित करने की मांग की। यह मुद्दा गर्म जोशी से चल ही रहा था कि अचानक बाबा रामदेव को भ्रष्टाचार रूपी दैत्य से युद्ध करने का जोश आया और वे विशेष सुविधाओं के साथ अपने योग-कम-अनशन पर बैठ गये रामलीला मैदान में। निश्चित रूप से बाबा ने सटीक व आवश्यक मुद्दों को सरकार के सम्मुख प्रस्तुत किया। परन्तु तुरत-फुरत लिये गये उनके इस निर्णय ने हजारों लोगों के प्राणों को संकट में डाल दिया। बाबा की भक्ति में लीन भक्त बाबा के शब्दों का अनुसरण करते हुए रामलीला मैदान पहुँच गये। प्रायः देखा गया है कि इस प्रकार के किसी भी एकत्रीकरण पर तत्कालीन सरकार किसी न किसी बहाने से गिरफ्तारी का वारंट निकलती ही है। उत्तर प्रदेश में भट्टा पारसौल मामले में राहुल गाँधी, सचिन पायलट आदि की गिरफ्तारी राजनीति में चूहा-बिल्ली के इस खेल का प्रमाण है। बाबा की गिरफ्तारी या बाबा के विरूद्ध किसी भी प्रकार की कार्रवाही निश्चित थी। यूपी सरकार हो या कोई अन्य सभी का प्रायः कदम यही होता है। बाबा जानते थे इस प्रकार की गतिविधि पर उन्हें प्राप्त जनसमर्थन का परिणाम हंगामा होगा और उस हंगामे को नियन्त्रित करने के लिए लाठी चार्ज और...........
परिणामतः बाबा के प्रति बढ़ी श्रृद्धा एवं सहानुभूति। पूर्व नियोजित यह सम्पूर्ण प्रकरण बिल्कुल उसी तर्ज पर चला जिसकी कल्पना बाबा ने की थी। इसका शिकार हुई निर्दोष व भोली जनता। बाबा जनता के विश्वास पर राजनीति की रोटियाँ सेंकने की कला भली-भांति जानते हैं और वे सफल भी हुए।
बाबा ने इतने विशाल आयोजन में जनता के लिए किसी रक्षात्मतक रणनीति की योजना क्यांे नहीं बनाई? विशाल भीड़ को बाबा ने अपनी जिम्मेदारी पर एकत्रित किया था जिसे निभाने में वे पूर्णतः असफल रहे। इस प्रकरण में एक प्रश्न बार-बार उठाया गया कि मासूम जनता पर लाठीचार्ज क्यूँ किया गया? इसका उत्तर प्रमाण के साथ बहुत सरल है- किसी न किसी को तो पिटना था- या तो पुलिस पिटती या जनता। हाल ही में मेरठ बिजली बम्बा पर हुए दंगों में जनता ने पुलिस को दौड़ा-दौड़ाकर पीटा। सर्वविदित है जिसका लाठी उसी की भैंस। जनता यदि साधन सम्पन्न स्थिति में होती तो निश्चित रूप से पुलिस को पीटती। पर क्या पुलिस वाले किसी के पिता किसी के भाई नहीं हैं? बाबा की अंध भक्ति ने लोगों की विचारणीय क्षमता को सम्मोहित किया हुआ है। वह दूरदर्शी हुए बिना वर्तमान के मोह को जीना चाहते हैं और बाबा का अंधानुसरण कर रहे हैं। विचारणीय है कि अन्ना हजारे के समर्थन में उतरा बॉलीवुड व अन्य बुद्धिजीवी वर्ग बाबा की राजनीतिक भूख को पहले ही भांप गये। यही कारण रहा कि इनमें से किसी ने भी बाबा के अनशन का समर्थन नहीं किया। स्मरणीय है कि कुछ वर्षों पूर्व बाबा ने राजनीति में आने की अपनी इच्छा व्यक्त की थी और तभी से बाबा किसी न किसी राजनीतिक बयानबाजी के लिए सुर्खियों में रहे हैं। आखिर साधु को राजनीति के इस चस्के का क्या अर्थ है? साधु तो निःस्वार्थ भाव से जनकल्याण के लिए समर्पित होते हैं। यह कैसा समर्पण है?
दिग्विजय सिंह द्वारा बाबा रामदेव के योग का नामकरण ‘योग उद्योग’ काफी सार्थक प्रतीत होता है। यह योग उद्योग नहीं तो और क्या है? बाबा से योग सीखाने के लिए अग्रिम पंक्तियों में बैठने का टिकट रू 25000 और पीछे बैठे लाचार गरीब जनता। योग को बढ़ावा देने वाले बाबा का यह पक्षपाती व्यवहार समझ से परे है। इस उद्योग ने बाबा को अरबपति साधु बना दिया। साधु को सम्पत्ति संग्रह की शिक्षा किस धर्मशास्त्र में दी जाती है, यह शोध का विषय है। व्यक्तिगत हैलीकॉप्टर, एसी युक्त भवन- ये कैसे साधु?
भ्रष्टाचार के विरूद्ध या कहें संप्रग सरकार के विरूद्ध आरम्भ की गई इस मुहिम में बाबा की राजनीतिक मंशा को उनके एक और कृत्य ने प्रमाणित किया। अनशन आरम्भ करते ही उन्होंने अन्ना हजारे की उपेक्षा की। जब दोनांे की लक्ष्य एक ही था और मार्ग भी समानान्तर थे तो क्यों नहीं बाबा ने अन्ना हजारे की जंग का समर्थन कर इस संघर्ष को मजबूती प्रदान की। अतिआत्मविश्वास के वशीभूत रामदेव ने इस संघर्ष को दिशाहीन कर दिया। एक ही उद्देश्य की पूर्ति की जिजीविषा के बावजूद देश की जनता अन्ना हजारे और रामदेव, दो धाराओं में बँट गई। फेसबुक पर आते अपडेट के अध्ययन से ज्ञात हुआ बहुत से लोग दिग्भ्रमित हो भ्रष्टचार को भूल अन्ना समर्थन और बाबा की आलोचना के चक्रव्यूह में उलझ कर रह गये हैं। और मुख्य मकसद से भटक गये। बाबा ने इस मुहिम को कमजोर कर दिया।
इस प्रकरण में नाटकीय मोड़ तब आया जब बाबा को स्त्रीवेश में देखा गया। बाबा ने अनशन गाँधीवादी नीतियों का अनुसरण करते हुए प्रारम्भ किया था। परन्तु सच कहें तो बाबा ने गाँधी जी की नीतियों का घोर अपमान किया। सभी देशभक्तों ने आजादी की जंग में लाठियाँ खाई। लाला लाजपत राय अंग्रेजों की लाठी की चोट के कारण वीरगति को प्राप्त हुए। उन सार्थक व अचूक नीतियों के अनुसरण का ढ़िढ़ोंरा पीटने वाले साधु बाबा जान बचाकर भागे स्त्रीवेश में? कितना शर्मनाक व अपमानजनक है यह सब। निश्चित रूप से उस दिन स्वतंत्रता सेनानियों व वीर देश भक्तों की आत्मा रोई होगी। बाबा ने जान बचाने के लिए महिलाओं का संरक्षण प्राप्त किया। यह कैसी वीरता थी? कैसे दृढ़ संकल्प था? क्या इन महिलाओं के भरोसे बाबा ने अनशन आरम्भ किया था?
इसके पश्चात् बाबा ने पुनः जनता के कंधों पर बंदूक चलाने की रणनीति बनाई। 11000 लोगों की फौज जो भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़ने के लिए तैयार की जायेगी। समझ में नहीं आता कि बाबा यह सब ना समझी में कर रहे हैं या जानबूझकर देश की जनता को ‘देसी आतंकवाद’ का पाठ पढ़ा रहे हैं। क्या इस प्रकार की भड़काऊ रणनीति देश में कानून व्यवस्था को चरमराने के लिये पर्याप्त नहीं है? निश्चित रूप से है। वास्तव में बाबा स्वार्थपूर्ति के जनून में आत्मनियत्रण व विवेक को खो चुके हैं। गाँधी-नेहरू के देश में हिंसा के उपदेश, सम्पूर्ण विश्व में भारत के वीरों की किरकिरी करा रहे हैं। भोली कहे जाने वाली जनता यदि ऐसे उपदेशों का अनुसरण करती है तो कड़े शब्दों में कहा जाये, तो निश्चित रूप से वह भोली नहीं बेवकूफ है।
कुछ सीमाएँ बाबा ने लाँघी और कुछ पोल बाबा की स्वतः खुल गई। योग द्वारा 200 वर्षों तक जीने का दावा करने वाले बाबा 6 दिन अनशन करने में सफल न हो सके। फिर कर दिया बाबा ने योग का अपमान। विश्व भर में योग सेंटर चला रूपया कमाने वाले बाबा ने योग पर प्रश्नचिन्ह आरोपित कर दिया। विश्व में भारतीय योग का प्रचार-प्रसार कर सम्मान दिलाने वाले ने ही भारतीय योग को शर्मिंदा कर दिया।
वर्तमान परिस्थितियाँ यह है कि बाबा ने मौन धारण कर लिया। यह एक सरल माध्यम है। बाबा जानते है कि जब भी वे मुँह खोलेंगे उनसे कुछ न कुछ अंटशंट बोला जायेगा। वे पहले ही अपनी बहुत सी पोल खोल चुके है। कहा भी जाता है ‘जो मुँह खोले सो राज बोले’। बाकि रहस्य उद्घटित न हो इसके लिए बाबा का मौन रहना ही उचित है।
इस सम्पूर्ण घटनाक्रम में विपक्ष व मीडिया दोनों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। विपक्ष ने राजनीतिक दाँवपेंचों की सभी पोथियाँ खोल दी। आरोप-प्रत्यारोप राजनीति की पुरानी परम्परा है। परन्तु क्या इसकी कोई सीमा निधारित नहीं होनी चाहिए? इस परम्परा का पालन करना कोई विवशता नहीं, मात्र राजनीतिक लाभ के लिए देश को बाँटना कहाँ तक उचित है? क्या निजस्वार्थ देशहित से बड़ा हो चला है?
मीडिया का रामदेव कवरेज इसके दायित्वबोध को संदिग्ध करता है। बड़ौत में जैन मुनि प्रभसागर के साथ हुए अत्याचार का मीडिया कवरेज नाममात्र के लिए था। एक मुनि की वर्षों की तपस्या भंग कर दी गई। उनकी आस्था, उनके सम्मान को खण्डित किया गया और मीडिया चुप। क्यों मीडिया ने इस प्रकरण पर विशेषांक नहीं निकाले? क्या मीडिया वास्तव में बाबा की व्यक्तिगत सम्पत्ति हो गया है? किंकर्तव्यविमुढ़ता की इस चरमावस्था ने यह सोचने के लिए बाध्य कर दिया है कि आखिर हमारे लिए देश कितना महत्वपूर्ण है? इस पीढ़ी को उपहारस्वरूप मिली आजादी को क्या चंद लोगों के सुपूर्द कर देना समझदारी है? इस वैचारिक गुलामी से आजादी पाना बहुत जटिल है। देश की जनता को विवेक को जाग्रत करने की आवश्यकता है। सोचिये, समझिये और विचारिये अन्यथा आपके मस्तिष्क पर किसी और का राज होगा।

Tuesday, July 12, 2011

डेल्ही बेली


लगान, तारे जमीं पर, रंग दे बसंती, 3-इडिएटस जैसी फिल्मों का निर्माण कर आमिर खान ने फिल्म विषयों को एक विस्तृत आयाम प्रदान किया। इन विषयों की पृष्ठभूमि वे समस्याएँ थी जिनसे हम अक्सर दो-चार होते है परन्तु निजी जीवन की व्यस्तताओं एवं आवश्यकतापूर्ति की जद्दोजहद में इनकी अवहेलना कर जाते हैं। आमिर खान ने न केवल इन विषयों की प्रस्तति से जनसाधारण को सामाजिक दायित्वों के प्रति सजग किया अपितु इसी प्रकार की बहुतेरी विद्रूपताओं हेतु शान्तिपूर्ण ढं़ग से समाधान प्राप्ति का मार्गदर्शन भी किया। गाँधीवादी सत्याग्रह को जीवंत करता कैंडल मार्च रूपी समाधान आज सम्पूर्ण भारत में विरोध प्रदर्शन का अचूक यंत्र बन गया है। निःसन्देह आमिर खान की यह प्रयोगधर्मिता समाजोपयोगी निर्देशन के अपने उद्देश्य को प्राप्त कर पाई है।
इसी क्रम में अपेक्षित डेल्ही बेली का निर्माण समझ से परे रहा। यह फिल्म क्या संदेश देना चाहती थी? या इसमें प्रयुक्त भाषा को आमिर खान समाज के किस वर्ग को दिनचर्या के अनिवार्य अंग के रूप में भेंट करना चाहते थे? इन प्रश्नों के उत्तर-प्राप्ति में मैं असमर्थ रही। यदि मान भी लिया जाये कि यह मनोरंजन आधारित फिल्म थी, तो मनोरंजन का क्षेत्र इतना संकीर्ण व स्तर इतना निम्न कैसे हो गया? मनोरंजन चार्ली चैपलन द्वारा भी किया जाता था और यह कहने में कोई कंजूसी नही की जानी चाहिए कि वह ‘बेमिसाल’ था।
फिल्म निर्देशन एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है। यह समाज का पथ प्रदर्शन करती है। समाज की जड़ांे में ऐसे विषयों का अकूत भण्डार है जिन्हें समाज स्वीकार करने में भयभीत होता है परन्तु उनका समाधान चाहता है। इसका मुख्य कारण नेतृत्व क्षमता का अभाव है। फिल्म निर्माता, लेखक, पत्रकार इत्यादि वे अघोषित नेता हैं जो समाज को दिशा प्रदान करते हैं। यह दिशा प्रभावोत्पादक व सकारात्मक परिणाम प्रस्तुत करने में समर्थ हो, यह संकल्प लिया जाना आवश्यक है।

Wednesday, June 29, 2011

सैंया बने भैया


मेरठ के आरती-नितीश प्रकरण ने रिश्तों की एक नई परिभाषा की व्युत्पत्ति की। रिश्ता, सात्विक भावनाओं व निश्छलता का। आरती ने सत्य के आँचल की छांव में अपने और विनीत के सम्बन्ध को नितीश के सम्मुख स्वीकार किया और नितिश ने भी सन्तुलित व्यक्तित्व का परिचय देते हुए आरती के साथ एक नवीन पवित्र रिश्ते की डोर बाँधी। समाजशास्त्री इस नव-परिवर्तन को स्वीकार न कर सामाजिक कुप्रभाव की संभावनाएँ व्यक्त कर रहे हैं। परन्तु पिछले कुछ आंकडों का विश्लेषण करने पर ऑनर किलिंग की बढ़ती घटनाओं का यह समाधान तलाशने की बाध्यता ऑनर किलिंग के जनकों ने ही उत्पन्न की है। बेटियों को शिक्षित कर उन्हंे प्रत्येक अधिकार प्रदान करने की रीत में एक कड़ी अभी भी टूटी हुई है, उन्हंे अपने योग्य जीवन साथी के चयन की स्वतंत्रता। यही कारण है कि आरती को माता-पिता की आज्ञा का अनुसरण करते हुए नितीश का हमसफर बनने के लिए विवश होना पड़ा। परन्तु क्या इस मजबूरी के रिश्ते का बोझ वे दोनों जीवन पर्यन्त ढो पाते? क्या एक-दूसरे के प्रति निष्ठा व सम्पर्ण की आस्था उनमें उत्पन्न हो पाती? ऐसी परिस्थितियों में नितिश का यह निर्णय एक मिसाल है। उसके सुलझे मस्तिष्क व व्यापक सोच का स्वागत किया जाना चाहिए। और अभिभावकों को विचारना चाहिए कि वर्तमान में तलाक, हत्या, भाग जाना, ऑनर किलिंग जैसी बढ़ती घटनाआंे में वृद्धि न हो इसके लिए बच्चों के मित्र बन उनके करियर के साथ-साथ विवाह सरीखे विषयों पर भी खुलकर बात करें और उनमें स्वयं के हित-अहित पर मनन करने की योग्यता विकसित करें। साथ ही अभिभावकों को भी व्यवहारगत जड़ता का त्याग करते हुए बच्चों के सही निर्णयों को सहर्ष स्वीकार कर शुष्क सम्बन्धों को जीवन्त करने का प्रयास करना चाहिए। परिवर्तन ही संसार का नियम है और पारस्परिक सामंजस्य इस नवीन परिवर्तन को एक सार्थक परिणाम प्रदान कर सकता है।

Tuesday, June 7, 2011

‘‘स्पीक अप पेरेंट्स’’


‘‘स्पीक अप पेरेंट्स’’

एक 15 वर्षीय बच्चे ने जब स्पीक एशिया की तारीफों के कसीदें पढ़ने आरम्भ किये तो बहुत आश्चर्य हुआ। वह न केवल स्पीक एशिया के फरॉड होने की अफवाओं का सिरे से खण्डन कर रहा था अपितु इसके लाभ के लुभावने प्रलोभन भी दे रहा था। स्पीक एशिया फरॉड है अथवा नहीं, इससे परे इसकी दुष्प्रभावी, लालची हवाएँ अधिक खतरनाक हैं। यह युवाओं में अधिक धनार्जन का लोभ भर उन्हें पथभ्रष्ट कर रही है। माया की मीठी चाश्नी इतनी गूढ़ है कि आस-पास की सभी वस्तुओं को स्वयं में समा उनका भक्षण कर रही है। पैसा कमाने का यह शॉर्ट कट युवाओं को उनके करियर व पढ़ाई से तो विमुख कर ही रहा है, साथ ही इस अनापेक्षित धन से युवा विलासी भी होता जा रहा है। इस उपलब्ध धन ने उन्हें पार्टीज, बांड के शौक और मौजमस्ती के जीवन की ओर प्रेरित करना आरम्भ कर दिया है। अब वे माता-पिता को उल्टा जवाब देने में संकुचाते नहीं और आत्मनिर्भरता के अतिआत्मविश्वास के कारण अपने निर्णय स्वयं लेने के लिए ढ़ीठ भी हो रहे हैं। समस्या वास्तव में गम्भीर है। जीवन के प्रति गम्भीरता समाप्त हो रही है। मूल्यों का हृास हो रहा है। कम्पनी धोखेबाज है या नहीं से अधिक चुनौतीपूर्ण कम्पनी द्वारा समाज विशेषतः युवाओं को असुरक्षित, दिशाहीन व अंधकारमय भविष्य की गर्त में धकेला जाना है। अभिभावकों की सचेतता अति आवश्यक है। सम्भालिए बच्चों को।

Saturday, June 4, 2011

‘कमेला नहीं हटेगा’


‘कमेला नहीं हटेगा’

पिछले कुछ महीनों से कमेला विस्थापन के लिए विभिन्न प्रकार से हाहाकार मची हुई है। इस संघर्ष में विभिन्न कुर्बानियाँ भी दी गई। बड़ौत के जैन मुनि की तपस्या भंग हुई, बंद के दौरान करोड़ों का घाटा हुआ, आमजन को विभिन्न मुसीबतों का सामना करना पड़ा परन्तु परिणाम ‘सिफ़र’। वस्तुतः इस सम्पूर्ण संघर्ष की ढुलमुल सफलता-असफलता के कारण निरन्तरता की कमी, कुशल नेतृत्व, दृढ़ता व संगठन का अभाव है। इस मुहीम ने भी अन्ना हजारे जैसी सफलता के सपने संजोये परन्तु समस्या क्षेत्रीय होने के कारण उन सपनों को पर नहीं मिल सके। भ्रष्टाचार की त्रास्दी विश्वव्यापी है, जिस पर सम्पूर्ण विश्व की आँखें छलकती हैं। परन्तु कमेले के प्रति सीमित वर्ग ही गम्भीर व संघर्षरत् है। इस रेतीली बुनियाद पर सफलता की मजबूत इमारत की कल्पना का अस्तित्व संकटग्रस्त प्रतीत होता है। दूसरा पहलू यह भी है कि जनता स्वयं अपने विचारों में स्पष्ट नहीं है कि वह कमेले का विस्थापन चाहती है अथवा कमेले का समाप्त अस्तित्व? स्पष्टतः कमेला बिना जानवरों के नहीं चल सकता। पशुपालक व्यक्तिगत लाभ हेतु कमेले के जानवर बेचते हैं। यहाँ तक कि दुधारू जानवर जो अस्थायी रूप से दुग्ध उत्पादित करने में अक्षम हैं, घरों में बढ़ती जानवरों की संख्या देखते हुए पशुपालक उन्हें कमेले को बेच लाभार्जित करते हैं। वस्तुतः कमेला ऐसा पशुपालकों द्वारा पोषित व संचालित किया जा रहा है। फिर कमेले विरोध का यह ढ़ोंग क्यों? तीसरा मुद्दा कमेले के विस्थापन से सम्बन्धित है। निःसन्देह वर्षों से स्थापित किसी व्यवस्था का स्थान परिवर्तन सरल नहीं है, परन्तु यह असम्भव हो ऐसा भी नहीं है। दिल्ली क्लोथ मील बसापत बढ़ने से रिहायशी क्षेत्र के मध्य आ गई थी। मील मालिक ने मील को अच्छे मुनाफे से बेच आबादी से दूर अन्य स्थान पर स्वयं को पुनः स्थापित किया। तो कमेला क्यों नहीं? कमेले की दुर्गंध व इसके कारण होने वाली असहनीय व्याधियों से ग्रसित परिवारों का जीवन व्यापारियों के लाभ के सम्मुख महत्वहीन कैसे हो सकता है? सरकारी चुप्पी भ्रष्टाचार की एक और शब्दविहीन कहानी कह रही है।

Tuesday, May 31, 2011

पिछले दरवाजे की एन्ट्री


पिछले दरवाजे की एन्ट्री

जब भी किसी घोटाले या आपराधिक मामलों में किसी जनप्रतिनिधि की संलिप्तता पाई जाती है तो एक प्रश्न मतदाताओं की जुबाँ को सी देता है- ‘‘आखिर इन्हें चुनने वाला कौन है?’’ एक सीमा तक देखा जाये तो प्रश्न सार्थक भी है। आखिरकार लोकतंत्र में मतदान के अधिकार का प्रयोग कर इन्हें अपना रहनुमा हम खुद ही बनाते हैं। परन्तु वहीं दूसरी ओर एक विवशता इस प्रश्न के उत्तर में मतदाताओं को संरक्षण प्रदान करती है कि जब सारी ही मछलियाँ सड़ी हो तो अन्य कोई विकल्प ही कहाँ रह जाता है? इस मरूस्थल में सींचने हेतु कोई वृक्ष है ही कहाँ? विवशता व बाध्यता के अधीन जनता-जनार्दन को इन्हीं में से किसी का चयन करना ही पड़ता है। विस्मित कर देने वाला तथ्य यह है कि सम्पूर्ण भूमण्डल पर 6000 घराने पिछले कई वर्षाें से शासन कर रहे हैं। बाप से बेटे को राजनीति पीढ़ी दर पीढ़ी विरासत में मिलती जा रही है। बूढ़े शेर शिकार करने में इतने पारंगत हो चुके हैं कि वे किसी अन्य को स्थापित होने का अवसर ही प्रदान नहीं करते। ऐसी स्थिति में युवा पीढ़ी किस प्रकार प्रतिनिधित्व का बीड़ा उठाये? राज्य सभा व लोक सभा दोनांे में कुल मिलाकर लगभग 145 सांसद ऐसे हैं जो अरबपति हैं। जिनका चयन राजनीतिक पार्टियाँ स्वहित हेतु करती हैं। क्या वातानुकूलित कमरों में विराजमान लोग गरीब की धूप में जलती चमड़ी की जलन को महसूस कर सकते हैं? क्या महीने के अंत में घर चलाने के लिए आम आदमी की चेहरे की शिकन व तनाव को समझ सकते हैं? क्यों उतारा जाता है ऐसे व्यापारियों को राजनीति के अखाड़े में। राजनीति जनसेवा का क्षेत्र है व्यापार का नहीं। माननीय मनमोहन सिंह जी असम प्रदेश से संसद तक का सफर तय करते हैं जहाँ के क्षेत्र से वे पूर्णतः अनभिज्ञ थे और लतीफा यह है कि आम जनता भी इन्हें नहीं जानती थी। पत्रकारिता जगत ने इसे बैकडोर एन्ट्री की संज्ञा दी। राजनीति में इस प्रकार की बैकडोर एन्ट्री से आम जनता भला किस प्रकार लाभान्वित हो सकती है? वास्तव में अब देश को एक गरीब, समझदार, कर्तव्यनिष्ठ व ईमानदार प्रतिनिधि की आवश्यकता है जो वास्तव में इस गम्भीर व संवेदनशील दायित्व का गरिमापूर्ण ढं़ग से निर्वाह करने में सक्षम हो।

Saturday, May 21, 2011

लुटते बेरोजगार, घी में सरकार


लुटते बेरोजगार, घी में सरकार

लम्बी-लम्बी लाइनों में धक्का-मुक्की होते अभ्यर्थी, मूर्छित होती लड़कियाँ और भड़कते छात्र। कुछ ऐसी सी ही स्थिति है केंद्रीय शिक्षक दक्षता परीक्षा (सी. टी. ई. टी.) के फॉर्म के लिए जदोजहद कर रहे बी. एड. बेरोजगारांे की। वे सुबह जल्दी आकर लाइन में लग जाते हैं। इसके बावजूद कब नम्बर आयेगा, कोई ख़बर नहीं। कई बार तो नम्बर आते ही मुँह पर बैंक की खिड़की बंद हो जाती है और अगले दिन पुनः यही कार्यक्रम। कभी फॉर्म खत्म हो जाते हैं तो कभी बैंक का लंच टाइम हो जाता है। परन्तु हमारे इन लाचार बेरोजगारों को न तो लंच की अनुमति है और न इनके लिए कोई समय सीमा है। इनका यह स्थिर सफर हाथ में फॉर्म की उपलब्धी के साथ समाप्त होता है। फॉर्म प्राप्त करने के पश्चात प्रसन्नचित चेहरे इस प्रकार की भाव देते हैं मानो उन्हें नौकरी ही मिल गई हो। शायद यह उनके स्वयं को तसल्ली देने का माध्यम है क्योंकि सत्य तो यह है कि यह फॉर्म उनके आगामी संघर्ष की पहली सीढ़ी है।
कुछ अभ्यर्थी इस टेस्ट की वास्तविकता से अनभिज्ञ हैं। परन्तु फिर भी वे फॉम भरने के लिए उत्सुक हैं। क्या करें भेड चाल की आदत सी जो हो गई है। विशिष्ट बी. टी. सी. का दौर आया तो बी. एड. सुरक्षित भविष्य का पर्याय बन गई। बहुत से बेरोजगारों के लिए निःसन्देह यह वरदान साबित भी हुई। परन्तु वर्तमान स्थिति तो अब बी. एड. को शादी के लिए दहेज रूप में भी अस्वीकृत करती है। विशिष्ट बीटीसी के समय ससुराल पक्ष को बीएड बहु चाहिये थी। हाय दुभार्ग्य यह निवेश भी डूब गया।
खैर बात थी सीटीईटी और इससे जुड़ी भ्राँतियों की। यह टेस्ट नौकरी की गारण्टी नहीं है अपितु मात्र योग्यता परीक्षण का प्रमाण-पत्र है। परन्तु इसकी अनिवार्यता ने इसे महत्वपूर्ण अवश्य बना दिया है। इस परीक्षा में उत्तीर्ण अभ्यर्थी भविष्य में होने वाली नियुक्तियों के लिए आवेदन करने के योग्य होंगे। एनसीटीई के अनुसार सीटीईटी राज्य स्तरीय शिक्षकों के लिए पात्रता परीक्षा नहीं है। अतः केन्द्र की ही तर्ज पर राज्यों ने भी टीचर एलिजिब्लिटी टेस्ट (टी. ई. टी.) का बिगुल बजा दिया है। सीबीएसई शिक्षा प्रसार विभाग के एक अधिकारी के अनुसार पिछले कुछ दिनों में यूपी में सीटीईटी के डेढ़ लाख से अधिक फॉर्म बिके है।
केन्द्र व राज्यों का यह नया खेल अत्यन्त विचित्र है। अभ्यार्थियों की बेरोजगारी की बेबसी पर जगाई उम्मीद की किरण को भुनाने का निर्लज्ज प्रयास। सीटीईटी आवेदन मात्र केंद्रीय विद्यालयों व सीबीएसई से जुड़े स्कूलों के लिए है जिनकी संख्या बहुत कम है, यह बात अभ्यार्थियों के संज्ञान में नहीं है।
बी. एड. कक्षाओं में दाखिला, प्रवेश परीक्षा के माध्यम से होता है तो क्यांे सरकार बार-बार टेस्ट का प्रोपगंेडा रच लाचार बेरोजगारों का उपहास कर रही है? या यूँ कहें कि नौकरी के सुनहरे सपने दिखाकर स्वयं की जेबें गरम कर रहीं हैं। यह टेस्ट उन शिक्षकों के लिए भी अनिवार्य है जिनकी इण्टरमीडिएट सात वर्ष से पूर्व की है। वर्षों से शिक्षण कर रहे शिक्षक अब यदि टी. ई. टी. परीक्षा को उत्तीर्ण न कर पाते तो क्या वे अपनी वर्षाें की नौकरी से हाथ धो बैठेंगे? ऐसी स्थिति में राज्य सरकार का इन शिक्षकों के प्रति क्या निर्णय होगा? इसकी व्याख्या राज्य सरकार ने नहीं की है। राज्य सरकार के अनुसार सात वर्ष पूर्व पाठ्यक्रम परिवर्तन के कारण इन शिक्षकों के लिए यह टेस्ट उत्तीर्ण करना अनिवार्य है। कितना दुःखदायी है कि सरकार शिक्षकों के वर्षांे के शिक्षण अनुभव को इतनी निष्ठुरता से चुनौती दे रही है! वस्तुतः ऐसा तो नहीं है कि पाठ्यक्रम परिवर्तन के पश्चात् शिक्षकों ने विद्यार्थियों को नवीन पाठ्यक्रम से पढ़ाना बंद कर दिया हो और उन्हें पुराने पाठ्यक्रम से पढ़ने के लिए बाध्य कर रहे हों। जब ऐसी स्थिति है ही नहीं तब इस टेस्ट की क्या आवश्यकता है? मात्र मुद्रा संग्रहण के लिए? टेस्ट उत्तीर्ण करने के पश्चात छः माह की ट्रेनिंग भी अनिवार्य है। क्या सरकार वास्तव में नियुक्तियाँ करना चाहती है? या चुनावी पिच तैयार कर वोट बैंक पढ़ाने का प्रयास कर रही है, यह बात समझ से परे है। चिन्तनीय है यह स्थिति कि बार-बार टेस्ट, फॉर्म और लाचार बेरोजगारों का धन सरकारी तंत्र की जेबों में और बेरोजगार अंततः एक लुटा हुआ बेरोजगार!

Thursday, May 19, 2011

अन्यायपूर्ण अधिग्रहण


अन्यायपूर्ण अधिग्रहण

साल भर की मेहनत के बाद हमारे अन्नदाताओं को बाकी दिन गुजारने के लिए ‘ऊँट के मुँह में जीरे भर’ मेहनताना मिलता है। वो भी कभी लाठियाँ खाकर तो कभी गोलियाँ खाकर। कभी किसानों को गन्ने की वाजिब दाम के लिए लड़ना पड़ता है तो कभी अपनी जमीन के लिए। जो जमीन उन्हें-हमें अन्न प्रदान कर रही है उसे विकास के नाम पर उनसे कोड़ियों के दाम में छीना जा रहा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की भूमि खेती के लिए सर्वाधिक उपजाऊ जमीन मानी जाती है। विकास के नाम पर उसकी उपजाऊ क्षमता को व्यर्थ करना कहाँ कि बुद्धिमत्ता है? आजादी के समय 75 फीसदी उत्पादकों को जी डी पी का लगभग 61 फीसदी दिया जाता था आज 64 फीसदी उत्पादकों को 17 फीसदी मिलता है। आप ही बताइये क्या यह किसानों के प्रति अन्याय नहीं है? जो लोग हमारे लिए अन्न का उत्पादन करते हैं उनके हक की लड़ाई पर राजनेता वोट की राजनीति कर रहे हैं और अपने लाभ की रोटियाँ सेंक रहे हैं। वास्तव में किसानों का हित इनमें से कोई नहीं चाहता। क्या नोट बनाने की मशीनें (व्यापारी वर्ग) रोटियों का उत्पादन कर सकती हैं? भूमि अधिग्रहण कानून जोकि 116 साल पहले (1894) में बनाया गया था वर्तमान परिस्थितियों में प्रासंगिक नहीं है। परन्तु फिर भी वर्षाें से इस कानून से गरीब किसानों को प्रताड़ित किया जा रहा है। भारत में 80 प्रतिशत किसान ऐसे हैं जो 4 हेक्टेयर से भी कम भूमि के मालिक हैं और मुफलिसी में जीवन यापन कर रहे हैं। 1975 से अब तक 8 बार कृषि आयोग भूमि अधिग्रहण कानून की नवीन संस्तुतियाँ प्रस्तुत कर चुका है जिसमें किसानों के पुनर्वास सम्बन्धी सुझाव दिये गये। दुर्भाग्य से अभी तक इस प्रस्ताव को पारित नहीं किया गया। वर्तमान में भूमि अधिग्रहण कानून-2007 प्रस्तावित है। आशा करते हैं कि इसमें पूंजीपति हित की अपेक्षा किसानहित को प्राथमिकता दी जाये। जब किसी किसान की भूमि अधिग्रहित की जाती है तो मुआवजा कब्जे के तारीख से तय होता है। सरकारी महरबानी यह है कि सरकार कभी किसान को कब्जे की स्पष्ट तारीख से अवगत नहीं कराती और जब मुआवजा देना होता है तो पुरानी तारीखों से कब्जा प्रदर्शित कर किसान को ठगती है। शर्मनाक है कि भांखड़ा नांगल बाँध के लिए अधिग्रहित भूमि के किसान मालिकों को आज तक मुआवजा प्राप्त नहीं हुआ है। भूमि अधिग्रहण मसलों में किसान मुख्यतः दलाल की भूमिका निभाती है। यह किसानों से औने-पौने भाव जमीन खरीद बड़े मुनाफे से बिल्डरों को बेच देती है। किसानों में रोष इसी बात का है कि जिस जमीन के लिए उन्हें 1100रू प्रति मीटर दिये गये हैं वही जमीन सरकार ने बिल्डरों को 1 लाख 30 हजार रूपयों में बेची है। उसमें भी मुआवजे की राशि किसानों को 10 प्रतिशत कमीशन देने के बाद प्राप्त होती है। शहरीकरण और विकास के नाम पर किसानों को बेघर किया जा रहा है परन्तु क्या कृषि का विकास उन्नति की सीढ़ी नही है? क्या तेल, पेट्रोल के पश्चात् कृषि प्रधान देश अब खाद्यानों का भी आयात करेगा? स्थिति तो कुछ ऐसी ही है।

Monday, May 16, 2011

‘माता-पिता बनाम पुरूष-स्त्री’


‘माता-पिता बनाम पुरूष-स्त्री’

मिसेज़ वर्मा चाय बनाने के लिए रसोई घर में गई। तभी उनका बेटा एडमिशन फॉर्म लेकर मेरे पास आया और बोला- ‘दीदी! इस फॉर्म को भरने में मेरी मदद कीजिए प्लीज्।
रोहन मिसेज़ वर्मा का 13 साल का बेटा है और इस वर्ष 9वीं कक्षा में आया है। मिसेज वर्मा उसका एडमिशन दूसरे स्कूल में कराना चाहती हैं। इस नये स्कूल के बच्चे बड़ी-बड़ी गाडियों में आते हैं और जब उनका ड्राइवर गाडी से उतरते समय भागकर उनके लिए गाड़ी की खिड़की खोलता तो मिसेज वर्मा गहरी सांस लेकर उसे कुछ क्षण रोकती और फख़ महसूस करती। वह यह ठान चुकी थी कि उनका बेटा भी इन्हीं अमीरों के साथ पढ़ेगा। आखिर वह भी एक अच्छा सामाजिक स्तर रखती हैं। उनके पिताजी की शहर के बाहर एक छोटी सी गत्ता फैक्ट्री थी। जो अब बंद हो चुकी है। काम अच्छा चल रहा था। पर कुछ दगाबाजों की मारफत फैक्ट्री को भारी नुकसान हुआ और फैक्ट्री बंद हो गयी।
बहराल वर्तमान स्थिति यह है कि मिसेज वर्मा का परिवार मध्यम वर्गीय है जो रईस बनने की ओर प्रयासरत् है। इसी प्रेरणा ने मिसेज वर्मा के विचारों को कुछ इस प्रकार विकसित किया वे सोचने लगी कि बच्चों का दाखिला बड़े लोगों के स्कूल में कराने से, छोटे-छोटे कपड़े पहनने से, आय से अधिक खर्चा करने से, पार्टी-क्लब में जाने से व्यक्ति रईस हो जाता है।
कुछ दिन पूर्व अख़बार में ‘नोवा रिच’ विषय पर एक लेख पढ़ा था। ये वे अमीर होते हैं जो अमीरी की दहलीज पर खडे़ अपना सन्तुलन स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं। एक पल अमीरी दूसरे पल गरीबी के भंवर में फंसे हैं। ये कुछ तो अमीर अपनी हैसियत से होते हैं परन्तु बहुत कुछ अमीर अपने शब्दों (डीगों) से होते हैं। इनकी आकांक्षाओं का सैलाब इन्हें मचलती लहरों में ऊपर-नीचे करता रहता है। शायद ये भावी अमीरों की पहली पीढ़ी है।
ख़ैर! रोहन का एडमिशन फार्म लेकर मैंने पढ़ना शुरू किया। नाम-पता, कक्षा-वर्ग आदि शुरूआती सामान्य जानकारियों को भरवाने के पश्चात् मेरी नज़र एक ऐसे विचित्र बिन्दु पर पड़ी जिसे पढ़कर मैं हँसते-हँसते लोट-पोट हो गई। मेरी हँसी का रूप इतना भयंकर हो गया था कि रोहन कुछ सहम गया और मिसेज वर्मा घबराकर भागी-भागी मेरे पास आई।
वे मेरी हँसी रूकने की प्रतीक्षा नहीं कर सकी और चिल्लाते हुए बोली, ‘‘क्या हुआ मिस तोमर आपको इतनी हँसी क्यों आ रही हैं?’’ (मिस तोमर- सरनेम के साथ मिस या मिसेज लगाकर शब्दों को लटके-झटके के साथ बोलना नोवा रिच का अंदाज है और स्वयं के लिए भी वे ऐसे ही संबोधन पसंद करते हैं।)
परन्तु मैं स्वयं को नियंत्रित नहीं कर पा रही थी और लगातार हँसती जा रही थी। इस भयावह हँसी से वे स्वयं को अपमानित महसूस कर रही थी। शायद इसीलिए इस बार उनके शब्दों में आक्रोश आ गया था। ‘मिस तोमर’ मैं आपकी हँसी का कारण जानना चाहती हूँ। उनके तिलमिलाते चेहरे को देखकर मैंने अपनी भावनाओं को समेटा और एडमिशन फॉर्म उनकी और बढ़ा दिया।
फॉर्म हाथ में लेकर वह बोली- हाँ, एडमिशन फॉर्म है यह। इसमें हँसने वाली क्या बात है?
‘‘बिलकुल-बिलकुल एडमिशन फॉर्म ही है परन्तु बहुत ही है। परन्तु क्या आपने इसे पढ़ा है?’’, मैंने पुनः हल्की सी हँसी के साथ पूछा।
इस पर उन्होंने चिढ़ि नज़रों से मुझे देखते हुए कहा- नहीं, अभी नहीं। पर आप अब पहेलियाँ बुझाना बंद कीजिए और ये बताइये कि आप इतनी बेहूदी हँसी क्यों हँस रही हैं?
उनके ‘बेहूदे’ शब्द का प्रयोग मुझे अवश्य ही चुभा परन्तु वह सही भी थी। मेरी हँसी ने सभ्यता की सीमा तो लाँघी ही थी। कोई व्यक्ति आपके घर में बैठकर उपहासनीय हँसी हँसे और आपको सम्मिलित न करे तो निश्चित रूप से शालीनता के विरूद्ध है। अतः मैं अपनी सभ्यता व शालीनता का परिचय देते हुए उनसे क्षमा माँगी और स्पष्ट करते हुए कहा कि आप इस फॉर्म का पाँचवाँ व छँटा बिन्दु देखिए। बहुत ही विचित्र प्रश्न है? पाँचवें बिन्दु में माँ का नाम व लिंग तथा छटंे बिन्दु में पिता का नाम व लिंग पूछा है।
यह देखकर उनके चेहरे पर एक भ्रमित सी मुस्कुराहट आ गई। उन्हंे इन बिन्दुओं पर हँसी तो आ रही थी परन्तु वे यह नहीं समझ पा रही थी कि इस प्रकार माता-पिता का लिंग पूछने का क्या तात्पर्य है? इसलिए उन्होंने बात को घुमाते हुए कहा- ओह! इतना बड़ा स्कूल और इतनी सिली मिस्टेक। इस प्रकार माता-पिता का लिंग पूछने का क्या मतलब? यह तो अन्डरस्टुड है, माँ फीमेल और पिता मेल होंगे। मैं प्रिंसीपल से इसकी शिकायत जरूर करूँगी। और.............................
रूकिये मिसेज वर्मा इस एडमिशन फॉर्म में कोई गलती नहीं है। मैंने उनकी बात बीच में ही काटते हुए कहा।
जी हाँ। यह बिलकुल सही प्रश्न है और आधुनिक परिवेश में प्रासंगिक भी है। आपने समलैंगिगकता के विषय में तो सुना ही होगा। सैक्शन 377 के अन्तर्गत इसे कानून वैध माना गया है। अब चूंकि यह वैध है तो बच्चों के एडमिशन फॉर्म में माता-पिता के लिंग के बिन्दु होना तो जायज है ही। यह बताना तो आवश्यक हो ही जाता है ना माता पुरूष है या स्त्री? पिता पुरूष है या स्त्री?
कैसी विडम्बना है कि पहले जिसे बीमारी माना जाता था आज वह कानून वैध सिद्ध हो गया है। इन्सान और कितना प्रकृति विरोधी होगा? प्रकृति के नियमों को ताक पर रखकर समाज को यह किस दिशा में ले जाया जा रहा है? जब किसी प्रस्ताव को कानूनी जामा पहना दिया जाता है तो समाज में उसके प्रसार की गति तीव्र हो जाती है। क्या सरकार ने इस प्रस्ताव के परिणामों को ध्यान में रखा था? अभी तक पुरूष द्वारा स्त्री शोषण के केस दर्ज किये जाते थे। लेकिन इस प्रकार तो पुरूष द्वारा पुरूष और स्त्री द्वारा स्त्री शोषण के केसों की संख्या में वृद्धि हो जायेगी। और कानूनी जटिलताएँ भी बढ़ जायेंगी। अब तक जहाँ एक लड़का-लड़की साथ दिखाई देते तो सामाजिक सोच की दिशा मात्र प्रेमी-प्रेमिका वाली होती थी वहीं अब तो दो पुरूष व दो महिलाओं का साथ चलना भी दुश्वार हो जायेगा। और बाल-मन तो इससे कितना भ्रमित होगा यह तो किसी ने सोचा ही नहीं।
मेरी सोच के बादलों के बीच बिजली की कड़क जैसी आवाज ने मुझे वापस विचारशून्यता की सूखी धरती पर लाकर खडा कर दिया। मिसेज वर्मा बोली- ओह! ऐसा है। खै़र हमें इससे क्या मतलब? आप ये एडमिशन फॉर्म भरने में रोहन की मदद कर दीजिए प्लीज। यह कहकर वे रसोई में चाय लाने चली गई। और मैं ’हमें इससे क्या मतलब’ संवाद की गूँज के बीच रोहन का फॉर्म भरवाने लगी।

लादेन की मौत पर रुदन क्यांे?


लादेन की मौत पर रुदन क्यांे?

लादेन की मौत पर विश्व भर से मिली-जुली प्रतिक्रियाएँ प्राप्त हो रही हैं। कहीं लोग आतंक के इस बादशाह की मौत पर उल्लासित है तो कहीं इस मौत पर शोक व्यक्त किया जा रहा है। प्रथम सर्वविदित पक्ष तो यह है कि लादेन का अंत सम्पूर्ण आतंकवाद के अंत का पर्याय नहीं है। परन्तु यह भी सत्य है कि यह आतंकवाद को दी गई एक खुली चुनौती अवश्य है। सम्पूर्ण विश्व आतंकवाद से प्रताड़ित है और इससे मुक्ति भी पाना चाहता है तो ऐसे में आतंकवाद के पर्यायवाची अर्थात लादेन की मौत का शोक मनाने वाले ये कौन लोग हैं? यह अमेरिका का विरोध है अथवा आतंकवाद का समर्थन? लादेन को मारने के संदर्भ में अमेरिका की जो कुछ भी मंशा रही हो परन्तु यह भी सर्वमान्य तथ्य है कि आतंकवाद विश्व शान्ति व समृद्धि की राह में रोड़ा है और चैन व अमन की जिंदगी हेतु इसका अंत अति आवश्यक है। वस्तुतः लादेन की मौत का राजनीतिकरण कर पाकिस्तान स्वयं को पाक साफ सिद्ध करने के लिए प्रयासरत् है। यही कारण है कि वह इस खूखांर आतंकी की मौत को भावनात्मक पक्ष से जोड़कर स्वयं के बचाव का मार्ग तलाश रहा है। आतंकवाद मात्र अमेरिका का शत्रु नहीं है। यह उस प्रत्येक व्यक्ति की वेदना है जो सुख व शान्ति से जीवन यापन करना चाहता हैं। अतः सम्पूर्ण विश्व को निष्पक्ष भाव से एकजुट हो अमेरिका की बहादुरी का स्वागत करना चाहिए।

घटती दूरियाँ बढ़ते फ़ासले


घटती दूरियाँ बढ़ते फ़ासले

पिछले आधे घण्टे से राहुल की मम्मी उसे खाने के लिए बुलाती-बुलाती उकता गई, पर राहुल है कि उसका ‘मम्मी एक मिनट-दो मिनट’ का राग ही समाप्त नहीं हो रहा है। दरअसल राहुल पिछले चार घण्टों से अपने इन्टरनेट दोस्तों के साथ चैट करने में व्यस्त है। वह इन दोस्तों के साथ इतना मशरूफ है कि घर में कौन आया-कौन गया, इसकी उसे कोई ख़बर नहीं। दसवीं कक्षा में अच्छे अंकों से प्राप्त सफलता के लिए बधाई देने दूसरे शहर से आये उसके प्रिय अंकल के लिए भी बामुश्किल वह दस मिनट ही निकाल पाया।
ये है चैटिंग का चाव। अनजाने लोगों से चटपटी बातों के तड़के ने घरों में होने वाले गम्भीर संवादों की अर्थी निकाल दी है। एक परिवार के भिन्न-भिन्न सदस्यों द्वारा इन्टरनेट पर निर्मित अनजाने परिवारों ने एकल परिवार को भी एकाकी कर दिया है। इन्टरनेट चैट करने वाले चैटिंग करते हुए एक-दूसरे की समस्या का निवारण तो बहुत गम्भीरता से करते हैं परन्तु उनके स्वयं के परिजनों की आह का उन्हें कोई ज्ञान नहीं होता है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स ने रास्तों की दूरियाँ तो निश्चित रूप से सिमेट दी हैं परन्तु दिलों के फ़ासले बहुत बढ़ा दिये हैं। सात समंदर पार बैठे उन दोस्तों का ‘सलाम’ बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है, जिन्हें न तो कभी देखा है और शायद न ही कभी देखंेगे परन्तु अपने से बड़ों को की जाने वाली ‘नमस्ते’ की परम्परा कहीं दम तोड़ रही है। इन्टरनेट के दोस्तों का एक-एक शब्द इतना मूल्यवान हो गया है कि उनके किसी भी प्रश्न का उत्तर दिये बिना अगला श्वास शरीर त्यागने के लिए राजी नहीं है। परन्तु वहीं दूसरी ओर चैटिंग के दौरान माँ द्वारा सिर पर फेरे जाने वाला हाथ और पिता के चिन्तनीय घरेलू मुद्दे व्यर्थ प्रतीत होते हैं तथा मनोरंजन के क्रम को बाधित करते हैं।
पारिवारिक बन्धन संवादों से मजबूत व घनिष्ठ होते हैं। इसी से संवेदनाओं का संचार होता है, अपनत्व का अहसास होता है। परन्तु चैटिंग संस्कृति ने इन सभी भावनाओं की हत्या कर एक नये समाज का निर्माण किया है- क्षणिक रिश्तों का सुविधाजनक समाज। जब तक किसी से चैट करने में रसानुभूति हो तब तक की जाये और जब मिचवास आने लगे तो ‘तू नहीं कोई और सही’। कोई बन्धन नहीं मात्र स्वच्छंदता। स्वतंत्रता से स्वच्छंदता की मानसिकता ने ‘निभाव’ के अस्तित्व को खतरे में डाल दिया है। पहले प्रत्येक रिश्ते को पारिवारिक-सामाजिक समायोजन के द्वारा निभाया जाता था। लोक-लाज, सामाजिक मान्यताओं को सम्मान व प्राथमिकता दी जाती थी परन्तु आज समाज व्यक्तिवादी हो गया है। आत्महित के सुरूर ने लोकहित की परम्परा का उपहास करना प्रारम्भ कर दिया है। क्या ‘आत्मवाद’ किसी समाज की बुनियाद हो सकता है?
वर्तमान में एक गम्भीर व्याधि ने इन्टरनेट प्रयोगकर्त्ताओं को जकड़ा हुआ है। वह है-चैटिंग की आदत जो अब आदत से सनक में परिवर्तित होती जा रही है। यदि कोई व्यक्ति चैटिंग की लत का शिकार हो जाये तो भीड़ में भी अकेलेपन के थपेड़े उसका शोषण करते रहते हैं। उसके मुख की लालिमा समाप्त हो जाती है और विचारों के भंवर में उलझा वह व्यक्ति बाह्य रूप से मानसिक रोगी प्रतीत होने लगता है। ऐसे व्यक्ति अक्सर स्वयं मंें ही डूबे दिखाई पड़ते हैं। उनके चेहरे पर पड़ी तनाव की झुर्रियाँ उनके विचलित मन की कहानी कहती हैं। वास्तविक दुनियाँ इनसे बेगानी होती है।
निःसन्देह इन्टरनेट चैटिंग ने सम्पूर्ण विश्व को एक की-बोर्ड में समाहित कर दिया है परन्तु दूर के रिश्ते निभाते-निभाते अपने कब दूर हो गये इसका अहसास किया जाना भी आवश्यक है। परिवार को जीवित रखने के लिए परिवार को समय का उपहार दिया जाना बहुत जरूरी है। अन्यथा वैश्विक परिवार के संसार में व्यक्तिगत परिवार विलुप्त हो जायेंगें।

माँ


माँ

‘माँ’ छोटा सा शब्द परन्तु बिलकुल अनमोल। इस छोटे से शब्द में कितने भाव, कितनी आत्मीयता, कितनी ममता निहित है। दुनिया में किसी भी रिश्ते से बड़ा व गहरा रिश्ता होता है माँ का रिश्ता। इस रिश्ते का सौन्दर्य इसकी मौन भाषा में विद्यमान है। माँ को अपने बच्चे के भाव, उसके दुःख-दर्द, प्रेम, स्नेह, क्रोध, प्रसन्नता का अहसास करने के लिए किसी शब्द की आवश्यकता नहीं होती। वह बच्चे के स्पर्श, उसकी गंध, उसकी कुलमुलाहट और उसके भावों से उसकी सभी भावनाओं को समझ लेती है। सच कहें तो एक सुन्दर अहसास है माँ। ईश्वर से बढ़कर अप्रतिम रचना, जो अतुलनीय है, पूजनीय है, अविस्मरणीय है। जिसके बिना बच्चे के संस्कार अधुरे हैं, जिसके बिना उसका विकास दुर्गम है। उसकी गोद के सुकून के सम्मुख स्वर्ग भी तुच्छ है। उसका प्यार भरा स्पर्श सुरक्षा की भावना का संचार करता है। वह प्रेरणा देती है, समर्थन करती है और मार्गदर्शन करती है। वह एकल काया सभी कुछ व्यवस्थित रखती है। प्रत्येक जिम्मेदारी को अपने जीवन का अभिन्न अंग मानती है। और वह भी बिना किसी स्वार्थ के, बिना किसी संकोच अथवा प्रतिफल की चाह के। वह कभी रूकती नहीं है। निरन्तर कार्यरत रहती है। अथाह सहनशक्ति की स्वामिनी वह सदा संतुष्ट रहती है। कभी शिकायत नहीं करती। वह मात्र अपने परिवार के लिए नहीं जीती वरन् उसे समाज की भी चिन्ता है। इसलिए सभी सामाजिक दायित्वों का भी निर्वाह करती है। कितनी ऊर्जावान रचना है यह। चाहे थककर चूर हो परन्तु बच्चे की एक आह पर अनापक्षित ऊर्जा से सराबोर हो बच्चे के लिए तड़प उठती है। एक अद्भुत कृति जिसके समतुल्य संसार में अन्य कुछ भी नहीं है। आज आठ मई, मदरस डे के अवसर पर सभी माँओं को नमन। धन्यवाद शब्द आपकी तपस्या के सम्मुख अर्थहीन व महत्वहीन है। बस ईश्वर से आपके लिए दुआ करते हैं और आपको कोटि-कोटि नमन करते हैं।

वाह री पुलिस


वाह री पुलिस

ये कैसी फिज़ा मेरे शहर ही हो रही है,
अपना साया भी अब ख़ौफज़दा करता है।
वैसे तो ये सिलसिला सदियों पुराना है परन्तु कुछ महीनों से बढ़ती आवृति ने शहरवासियों में असुरक्षा के भाव को सींचा है। यह बढ़ती आवृति है उन अपराधों की जो छोटी-मोटी चोरियों से लेकर जघन्य हत्याकांड तक के रूप में प्रतिदिन समाचार-पत्र व टी. वी. चैनलों में घुसपैठ किये हुए है। बात शीर्ष नेता अमरपाल की हत्या की हो, सूर्य पैलेस में लूट की हो, सड़कों पर छिनते पर्सों की हो, लड़कियांे से होती बदसलूकी की हो या कॉलेज हॉस्टलों में होती मारपिटाई की हो, ये सभी घटनाएँ पुलिस प्रशासन की ढ़ीली पड़ती पकड़ व निरर्थक होते वजूद को प्रदर्शित करती है। पुलिस पहरेदार है समाज की, रक्षक है जन-जन की परन्तु यदि ये रक्षक अपने दायित्वों से विमुख होने लगे तो निःसन्देह भक्षकों का तांडव प्रारम्भ हो ही जाना है। पुलिस भर्ती के समय रट्टु तोते मियाँ की भांति शपथ ग्रहण तो कर लेते हैं परन्तु उन शब्दों की भाव, अर्थ व दायित्व बोध से अनजान हैं। ऐसा लगता है कि पुलिस प्रशासन रोटी किसी और की खाता है और सेवा किसी और को प्रदान कर रहा है। किसी शहरवासी को सुरक्षा का अहसास नहीं है, हाँ लकिन चोर-डाकू-लुटेरे बखूबी फल-फूल रहे हैं अर्थात बिंदास चाँदी हो रही है इनकी। उम्दा सुरक्षा घेरे में बहतरीन माल-पानी। शाबास!

‘‘लूट का नया स्वरूप’’

‘‘लूट का नया स्वरूप’’

मुरारीपुरम स्थित फ्लोरा डेल्स स्कूल में ग्रेजुएशन पार्टी का आयोजन किया गया। इस पार्टी में यूकेजी के बच्चों ने ब्लैक गाउन व कैप पहन कर उपाधि प्राप्त की। निःसंदेह बाह्य रूप से देखने पर यह सब अत्यन्त उत्साही व सुखदायी प्रतीत होता है। परन्तु इसका एक दूसरा पहलू यह भी है कि विश्वविद्यालयी स्तर पर दी जाने वाली उपाधि हेतु पहने जाने वाले गाउन व कैप की गरीमा का किस प्रकार उपहास किया जा रहा है? यह गाउन व कैप डिग्री धारकों के सम्मान का प्रतीक है, इनको छोटे बच्चों को पहनाकर उच्च डिग्री धारियों के समतुल्य दिखाना कितना औचित्यपूर्ण है? इस गाउन व कैप को पहनने का स्वपन लिए बच्चे पूर्ण क्षमता से मेहनत करते हुए शिक्षा ग्रहण करते हैं। यदि यह गाउन उनकी शिक्षा के अग्रिम स्तर पर ही उन्हें पहना दिया जायेगा तो उनके लिए ये दो सम्मानीय वस्त्र महत्वहीन हो जायेंगे। इनके प्रति आकर्षण ही समाप्त हो जायेगा। साथ ही एक विचारणीय पहलू इन दोनो वस्त्रों के माध्यम से आरम्भ किये जा रहे नये व्यापार का भी है। स्कूल गाउन व कैप के लिए अभिभावकों को बाध्य कर किराया वसूलते हैं। शनैः-शनैः यह परम्परा प्रत्येक स्कूल में आरम्भ हो जायेगी और स्कूल मालिकों को कमाई का एक नया क्षेत्र मिल जायेगा। आरम्भिक स्तर पर ही इस परम्परा को रोकने की आवश्यकता है। अभिभावक विचार करें कि स्कूलों द्वारा बढ़ाई गयी फीस के मसलों के साथ-साथ इस प्रकार की जा रही अवैध लुटाई भी उन्हें ही आर्थिक व मानसिक हानि पहुँचा रही है।

युवा अपनी जिम्मेदारी समझें


युवा अपनी जिम्मेदारी समझें

बरेली में भर्ती के दौरान चला मौत का तांडव निःसन्देह प्रशासनिक बदइंतजामी को प्रमाणित करता है। ऐसी दुर्घटनाओं की पुनरावर्ती पुलिस प्रशासन के आम जनता के प्रति गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार को भी सिद्ध करती है। बेरोजगारी की मार से तड़पते युवा का दर्द भर्ती के लिए उमड़ा हुजूम भली-भाँति प्रदर्शित कर रहा है। लाचार व आशातीत शिक्षित युवा नौकरी की चाह में जान पर खेल रहा है। कितनी दयनीय स्थिति में भारत का भविष्य अपने सपने तलाश रहा है!
इस घटना के लिए जितना पुलिस प्रशासन जिम्मेदार है उतना ही धैयेहीन, उदंड़ और परजीवी युवा भी। कहीं भी किसी भी प्रकार के आयोजन में प्रत्येक नागरिक अतिथि स्वरूप सम्मिलित होना चाहता है। यहाँ तक कि अपने नागरिक होने के उत्तरदायित्वों को भी नहीं निभाता। संयमित दिनचर्या की तिलांजलि हम बहुत पहले ही दे चुके हैं और जब इसके परिणाम इस प्रकार की भीष्ण घटनाओं के रूप में आने लगे हैं तो पूर्ववत् जिम्मेदारियों का दोषारोपण प्रारम्भ हो जाता है। ट्रेन की छत पर यात्रा करना कानूनी व सुरक्षा दोनो दृष्टि से वर्जित व घातक है। असंयमी होने के कारण उत्पन्न उपद्रव की बात तो बाद में करें पहले तो युवाओं से यह पूछा जाये कि वापसी के समय भी बसों की छत पर खड़ा होने वालों के साथ यदि पुनः कोई दुर्घटना होती है तो उसके लिए भी क्या पुलिस प्रशासन जिम्मेदार होगा? क्या युवाओं की अपने प्रति कोई समझ या सतर्कता नहीं है? अतिआत्मविश्वास व युवा होने का घमण्ड इनके साथ हुए हादसों के लिए इन्हें ही दोषी ठहराता है। यदि देश का प्रत्येक नागरिक अपने नागरिक होने के धर्म का निर्वाह करना सीख जाये तो किसी भी प्रकार की अप्रिय घटना से बचा जा सकता है।

उचित सुझाव

उचित सुझाव

मुख्य चुनाव आयुक्त एस. वाई. कुरैशी ने राजनीति में अपराध के आरोपियों के चुनाव लड़ने पर पूरी तरह से रोक लगाने का सुझाव प्रस्तुत किया। उनका यह सुझाव वास्तव में सरहानीय है। जनता द्वारा वोट करते समय सर्वाधिक दुविधा एक योग्य उम्मीदवार के चयन में होती है। अपराधिक छवि वाले उम्मीदवार अपनी दबंगई का लाभ उठाते हुए चुनावी परिणाम का रूख मोड़ देते हैं। यदि इन उम्मीदवारों को राजनीति की बिसात का मोहरा नहीं बनने दिये जाये तो निःसन्देह आम जनता का राजनीति में विश्वास सबल होगा। उनकी लोकतंत्र में रूचि व आस्था बढ़ेगी। साथ ही अच्छे व योग्य नागरिकों को इस क्षेत्र में जन-कल्याण के सुअवसर प्राप्त होंगे। अब देखना ये है कि इस छटनी रूपी तलवार की धार को हमारे राजनेता कितना तीक्ष्ण रहने देते हैं? क्या इस प्रकार की प्रक्रिया इन्हंे स्वीकार्य होगी? और इस प्रक्रिया के पश्चात् कितने सज्जन व योग्य नागरिकों को देश सेवा के लिए विस्तार मिलेगा? भ्रष्टाचार की त्रास्दी से त्रस्त जनता को कुरैशी जी ने उम्मीद की किरण तो दिखा दी है परन्तु यह कब तक अपने अस्तित्व को बचा पायेगी यह कहना अत्यन्त कठिन है। इससे पूर्व भी कई बार उम्मीदवारों की योग्यता पर प्रश्नचिन्ह आरोपित होते रहे हैं परन्तु ढ़ाक के वही तीन पात। परिणाम शून्य। भला कोई अपनी सोने का अण्डा देने वाली मुर्गी को क्यों काटेगा?

तलाक-तलाक-तलाक

तलाक-तलाक-तलाक

‘कभी न सुधरने वाले रिश्तों’ को आधार बनाकर हिन्दु विवाह कानून में संशोधन के प्रस्ताव को मंजूरी मिल गई। वास्तव में देखा जाये तो यह मंजूरी विघटित होते रिश्तों को जोड़ने के प्रयास के बजाय ऐसे रिश्तों में आई दरार को खाई में परिवर्तित करने में अधिक सहायक है। आशंका यह है कि कहीं यह मंजूरी कोर्ट में लम्बित पड़े केसों को तुरत-फुरत निपटाने का माध्यम तो नहीं।
तलाक एक दुखदायी घटना है। यदि इसकी प्रक्रिया का सरलीकरण होगा तो इनकी संख्या में वृद्धि होगी। और समाज के ऐसे विकृत रूप का निर्माण होगा जहाँ मूल्यों, संस्कारों, सहनशीलता आदि सामाजिक गुणों का अभाव होगा। पाश्चात्य देशों की सरल प्रक्रिया क दुष्परिणाम हम देख ही रहे हैं। ‘संयुक्त परिवार’ विघटित हो ‘एकल परिवार’ मेें परिवर्तित हो गये। अब एकल परिवार से इस ‘एक व्यक्ति परिवार’ के लिए तो नये शब्द की रचना करनी होगी।
बहुत से केसों में देखा गया है कि व्यक्ति क्रोधवश तलाक के निर्णय पर पहुँच जाता है परन्तु तलाक की लम्बी प्रक्रिया के बीच क्रोध शान्त होने पर पुनः समझौते कर लेता है और सुखी जीवन भी व्यतीत करता है। कई बार तलाक की जटिल प्रक्रिया के कारण लोग रिश्ते निभाते-निभाते ताउम्र गुजार देते हैं। परन्तु यह मंजुरी पारिवारिक समस्या को समाधान नहीं बल्कि वयैक्तिक स्वच्छंदता को प्रोत्साहित करती है। ‘विवाह’ महत्वहीन हो मात्र एक प्रमाण-पत्र की भाँति प्रयोग होने लगेगा और ये पंक्तियाँ स्वच्छंद जिंदगी का फलसफा बन जायेंगी कि-
‘‘तू है हरजाई, तो अपना भी यह तौर नहीं
तू नहीं और सही, और नहीं और सही।’’

‘‘टिकैत काँड’’

‘‘टिकैत काँड’’

‘‘सिसौली गाँव काँड’’ या कहें ‘‘टिकैत काँड’’, यह घटनाक्रम आत्मसंयम की कमी का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण बनकर उभरा है। टिकैत के एक ब्यान ने न जाने कितनी जाने दाँव पर लगा दी। यह सही है कि इस घटना से लोगों का टिकैत के प्रति भरपूर प्यार देखने को मिला है परन्तु क्या टिकैत लोगों के भरोसे को कायम रख पाये?
टिकैत अपने राजनीति करियर में अपनी ब्यानबाजी के लिए शुरू से ही सुर्खियों में रहे हैं। शायद उनकी इसी हिम्मत के कारण लोग उन्हें अपना नेता स्वीकार करते हैं। परन्तु क्या एक नेता की पहचान मात्र उग्र ब्यानबाजी ही है या इस प्रकार की ब्यानबाजी मात्र विश्वासमत प्राप्त करने का साधन है?
टिकैत की मुख्यमंत्री के खिलाफ की गई टिप्पणी ने भले ही समाज के एक तबके में उल्लास भर दिया है। परन्तु क्या इस प्रकार की टिप्पणी ‘भारतीय संविधान’ को गाली देने के समान नहीं है? जो व्यक्ति अपनी योग्यता के बल पर उस पद को सुशोभित कर रहा है जहाँ वह एक पूरे राज्य की जनता का प्रतिनिधि है, जनता जनार्दन के द्वारा चयनित है, उस व्यक्ति के खिलाफ अशोभनीय शब्दों का प्रयोग उस राज्य की जनता की भावनाओं के आघात पहुँचाने जैसा है। यह सही है कि हमारे संविधान ने हमें ‘‘सार्वजनिक स्थानों पर बैठक कर अपने विचार प्रस्तुत करने’’ का अधिकार दिया है परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि हम कहीं भी खड़े होकर ‘‘भारत मुुर्दाबाद’’ के नारे ही लगाने शुरू कर दें।
नेता जनता का पथ प्रदर्शन होता है। जैसे नेता कहता है वैसा ही भोली जनता मान लेती है। अतः यह नेता की जिम्मेदारी होती है कि वह अपनी जनता का सही मार्ग दर्शन करें न कि समाज में बटँवारा करने जैसे उग्र शब्दों का प्रयोग कर जनता का भडकाये व खुद को बचाने के लिए भी भोली जनता को ही हथियार बनाकर राजनीति का गंदा खेल खेले।
भारत के प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह अपने देश के संविधान का, अपने नेताओं का व अपने देश की जनता का सम्मान करें और समाज में एकरूपता लाने का प्रयास करें।

सुनिये नेता जी

सुनिये नेता जी

मुम्बई पुलिस ने बाल ठाकरे के पोते के बार पर छापा मार नौ युवतियों को मुक्त कराया। जनहित का राग अलापने वाले, प्रदेश के रक्षक बनने वाले बाल ठाकरे के लाडले ये किन संस्कारों का अनुसरण कर रहे हैं। समाज की ठेकेदारी करने वाले राजनेता पारिवारिक जिम्मेदारी निभाने में कितने असफल हैं? इनके चश्मोचिरागों के कर्म ओहदे के गुरूर व संरक्षण के कारण पथ भ्रष्ट रहते हैं। जनता नेता जी की संतान परन्तु इनकी संतानों से परेशान। सत्ता का अहंकार, अधिनायकवादी प्रवृत्ति व राजनीति का अतिक्रमण त्रस्त कर रहा है आमजन को। नेता जी जनता अब इतनी भोली भी नहीं कि सही दिशा का आंकलन न कर सके। प्रदेश का मार्गदर्शन करने से पूर्व घरेलू मार्गदर्शक बनिये और बेचारी जनता को अपने लालों के प्रकोप से बचाइये। उन्हें सार्थक लक्ष्य दीजिये।

गलत निर्णय

गलत निर्णय

चौ. चरण सिंह विवि. ने एक ही वर्ष में दो अलग-अलग कोर्सो की डिग्री को मान्यता देने का निर्णय लिया। यह निर्णय वर्तमान में जितना लुभावना प्रतीत हो रहा है इसके दूरगामी परिणाम उतने ही कष्टकारी होगें। एक ही वर्ष में दो अलग-अलग कोर्सों में किये गये परिश्रम का सुखद परिणाम पाने की चाह में विद्यार्थी सहर्ष इस निर्णय का स्वागत तो कर रहे हैं परन्तु इसके आगामी परिणाम के प्रति जागरूक नहीं है। यह निर्णय विवि स्तर पर है। यू. जी. सी. की नियमावली में इस प्रकार डिग्री प्राप्ति का कोई प्रावधान नहीं है। अब प्राप्त मान्यता के आधार पर जब ये विद्यार्थी नौकरी की तलाश में अपनी राह तलाशेगें तब प्रश्नों व सन्देह के चक्रव्यूह से ये घिरे हांेगे। इसी विवि में घटित उत्तरपुस्तिका मूल्यांकन घोटाले की प्राप्त चिन्हित अंकतालिका विद्यार्थियों को हर पल लज्जित करती है। पुनः विवि विद्यार्थियों के साथ यह खिलवाड़ क्यों कर रहा है? भारतीय शिक्षा तंत्र के पल-पल बदलते नियमों ने पहले ही विद्यार्थियों के भविष्य को काली कोठरी में धकेल रखा है। एन. सी. टी. ई. ने 2009 तक शिक्षा शास्त्र में एम. ए. करने वाले विद्यार्थियों को एम. एड. के समकक्ष मानने वाले अपने बनाये नियम को स्वतः ही रद्द कर दिया। एम. एड. होने की चाह में 2009 में दस हजार से अधिक विद्यार्थियों ने एम. ए. शिक्षा शास्त्र में दाखिला लिया जो अब एक व्यर्थ की डिग्री के तुल्य हो गई है। इस बेपेंदी के लोटे रूपी शिक्षा-तंत्र में विद्यार्थी कोई भी निर्णय बहुत सोच समझकर लें।

शर्मिंदा होती मानवता

शर्मिंदा होती मानवता

नैतिक पतन का भला इससे तुच्छ उदाहरण क्या हो सकता है कि एक व्यक्ति ने अपने अजन्मे बच्चे को बेचने के लिए अख़बार में विज्ञापन दिया? बच्चे जो ईश्वरीय वरदान है उन्हें भी व्यापार का माध्यम बना दिया। पहले माता-पिता स्वयं भूखे रहकर, गर्मी-सर्दी के थपेडे़ सहकर बच्चों का पालन-पोषण करते थे। वे स्वयं प्राकृतिक-कृत्रिम विपदाओं को सहते परन्तु बच्चों को किसी भी मुसीबत का लेश मात्र भी छू नहीं पाता। बहुत से समाचारों में गरीबी की मार झेल रहे परिवार आत्महत्या कर लेते हैं परन्तु इस गरीबी से उबरने के लिए बच्चे का इस प्रकार दिया गया सार्वजनिक विज्ञापन निःसन्देह मानव जाति को शर्मसार कर रहा है। जानवर भी अपने बच्चे की रक्षा के लिए जान की बाजी लगा देते हैं परन्तु इस मानव को देखिये जिसने पहले बच्चे को चोरी-छिपे बेचा और अब इतना निर्लज हो गया है कि उसका सार्वजनिक व्यापार कर रहा है। मानव जाति का स्तर इतना गिरता जा रहा है कि किराये की कोख के व्यापार आरम्भ हो गया। और कितना हम अपनी इंसानियत को शर्मिंदा करेंगें? यह घटना मानव को जानवरों की भी श्रेणी से बाहर उन दैत्यों की श्रृंखला में जोड़ती है जो अपनी भूख शांत करने के लिए अपने ही बच्चों को खा जाते हैं। भौतिक उन्नति की दौड़ में हमारा लालच इस प्रकार फल-फूल गया है कि नैतिक पतन के शीर्ष पर हम खड़े हो गये हैं। इतिहास साक्षी है कि मानव का नैतिक मूल्यों के पतन की और बढ़ता प्रत्येक कदम मानव जाति के विनाश का सूचक है।

रिश्तों में जासूसी ?

रिश्तों में जासूसी ?

पति-पत्नी के रिश्ते की मजबूत डोर का आधार यदि ‘जासूसी’ होने लगे, तो भला ऐसा रिश्ता कितने दिनों तक अस्तित्व में रह पायेगा? जिस कार्य को करने से पहले ही शंकाएं मन को घेर लें, ऐसे कार्य की असफलता की जड़ें तो पहले ही मजबूत हो जाती हैं। रिश्तों में बढ़ते अविश्वास ने एकल परिवारवाद को जन्म दिया और अब यह एकल तत्व भी अपना वजूद तलाश रहा है। जासूसी एजेंसियाँ अपनी दुकान चलाने के लिए निराधार आशंकाएं उत्पन्न कर परिवारों में शक का बीज बो रही हैं। सहनशीलता के हृास ने पति-पत्नी को घर की निष्ठुर दीवार के रूप खड़ा कर दिया है, जो साथ रहकर मकान का निर्माण तो कर रही हैं, परन्तु घर होने का अहसास प्रदान नहीं कर सकती। संयुक्त होते हुए भी तन्हाई की बू प्रतिक्षण मष्तिष्क में उथल-पुथल मचाए रहती है। माता-पिता के झगड़ों से सहमे बच्चे दीवार के कोनो में चिपके हर ऊँची आवाज पर सिसकियाँ लेते हैं। ऐसे में ये जासूसी शब्द अविश्वास की खाई को और अधिक गहराता है। आखिर कैसे कोई हाड़-माँस का बना तीसरा शरीर किसी रिश्ते की सफलता की गारंटी हो सकता है? मानवीय भूल यदि उससे हुई तो? यदि खुशहाल परिवार का निर्माण करना है तो यान्त्रिक व कृत्रिम दुनिया को अस्वीकृत कर संवेदनाओं और भावनाओं के संसार में प्रवेश करना होगा और त्याग, सहनशीलता व समर्पण के सितारों से इसे सजाना होगा।

राजनीतिक चेतना की आवश्यकता

राजनीतिक चेतना की आवश्यकता

सपा के एक सम्मानीय नेता जी ने अपनी पुत्री का विवाह सहारनपुर जिले के प्रतिष्ठित परिवार में किया और कहा, ‘‘जिसने अपनी बेटी दे दी उसने सब कुछ दे दिया’’। नेता जी के लिए पुत्री-दान सर्वस्व दान के समतुल्य हो गया। गौरतलब है कि यह हमारे वही नेता जी हैं जिन्होंने निठारी जैसे विभत्स कांड के लिए कहा था, ‘‘ये सब छोटी-मोटी घटनाएँ तो होती रहती हैं’’। जिस कांड के आरोपी को प्रत्येक अदालत फांसी की सजा मुकरर कर रही है वह कांड नेता जी के लिए छोटी-मोटी घटना था। दूसरों की बच्चियों की निमर्म हत्या नेता जी के लिए अर्थहीन है और स्वयं की पुत्री का मोह उनके शब्दों के अर्थ परिवर्तित कर रहा है। क्या दोगला चरित्र नेताओं की नियती बन गया है? ये संवेदनाओं की अर्थी पर भी वोट की राजनीति करने से भी नहीं चूकते। इनकी आम जनता से अपील है कि यदि वे चुनाव जीत जाते हैं तो उपहार स्वरूप जनता के लिए बाइपास का निर्माण करायेंगे। समझ से परे है यह बात कि आम जनता के घावों पर नमक का पैर रखने वाले ये नेता किस आशा से वोट के हाथ फैलाते हैं? शायद यह हम आमजन की ही शॉर्ट टर्म मैमरी की समस्या है जो एक नासूर के दर्द को दूसरे नासूर की स्वीकृति प्रदान कर कम करने की प्रवृति के आदि हो गये हैं। आखिर कब जागेगी जनता की राजनीतिक चेतना? और कब उठेगा इनके विरूद्ध एक ठोस व सटीक कदम?

नववर्ष के संकल्प

नववर्ष के संकल्प

नववर्ष के आगमन के विचार मात्र से ही नवीन कल्पनाएँ व आशाएँ आनन्दित करने लगती हैं। आगामी वर्ष के लिए नित्य नये संकल्प मन को उत्साहित करते हैं। हम नये वर्ष में स्वयं में यह परिवर्तन लायंेगे, इस प्रकार उन्नति की सीढ़ियाँ चढ़ेंगे, इस प्रकार की दिनचर्या अपनायेगें इत्यादि। अथवा नववर्ष का स्वागत रात्रि में धूम मचाकर करेंगे, ये पार्टी, वो उल्लास-हा हुल्ला इत्यादि। निःसन्देह खुशियाँ मनाना या स्वागत करना गलत नहीं है। परन्तु इस सम्पूर्ण विचार-श्रृंखला में एक सर्वनाम की प्रधानता है- ‘हम’। जो कुछ करना है अपने लिए, जो अच्छा हो हमारे लिए, खुशियाँ-उन्नति हमारी हो। क्यों हमारे संकल्पों का आदि-अंत ‘हम’ की परिक्रमा करता है? क्यों हमारे संकल्प ‘निजस्वार्थ’ की सीमा-रेखा के परे ‘परहित’ के द्वार पर दस्तक नहीं दे पाते? यदि हमारे संकल्पों की दिशा पर्यावरण के प्रति जागरूकता व सचेतता लाने हेतु प्रयास करना, गरीबी उन्मूलन हेतु नवीन योजनाओं का निर्माण करना, शिक्षा को सर्वयापी करने हेतु प्रण लेना, भ्रष्टाचार व अत्याचार के विरूद्ध आवाज उठाना इत्यादि हो और इन संकल्पों में से कोई एक भी, आंशिक रूप से ही सही क्रियान्वित हो तो निश्चित रूप से ‘संकल्प’ शब्द की सार्थकता आनन्दित हो उठेगी। ये संकल्प ‘हम’ शब्द से ही जुड़े है परन्तु परोक्ष रूप से। इनकी धारा प्रत्यक्ष लाभ की दिशा से विपरीत है परन्तु अन्ततः लाभान्वित ‘हम’ ही है। ‘लाभ’ सदा ‘आर्थिक’ हो यह आवश्यक नहीं है। आन्तरिक व आत्मिक प्रसन्नता वास्तविक लाभ के पर्याय है। आत्मकल्याण की भावना से परे जब मानव जनकल्याण की संवेदनाओं की नदी में डुबकी लगाने लगेगा तब ‘कठोते में गंगा’ आ जायेगी और हमारी गंगा माँ भी उस पवित्र धारा में बह रहे पापों (गंदगी) से मुक्त हो जायेगी।

ऑनर किलिंग

ऑनर किलिंग

 पंजाब के तरनतास में युगल के प्रेम विवाह के बाद लड़की वालों ने लड़के वालों के घर में घुसकर अपनी लड़की और उसके ससुराल के अन्य सदस्यों की हत्या कर दी।
 अप्रैल 2010 में झारखण्ड की रहने वाली जर्नलिस्ट निरूपमा पाठक को दूसरी जाति के लड़के से प्रेम करने की कीमत जान देकर चुकानी पडी।
 मार्च 2010 में हरियाणा के भिवानी स्थित तालू गाँव में एक ही गोत्र में प्रेम-विवाह करने पर लड़के के भाई की गोली मारकर हत्या कर दी।
ऐसी कितनी ही घटनाओं से लाल रहता है हमारा ‘आज’ का अखबार। पिछले कुछ दिनों से इस प्रकार की हिंसक घटनाओं में आश्चर्यजनक रूप से वृद्धि हुई है। यह एक विशेष परिस्थिति में किया गया अपराध है और इसका नामकरण कर नाम दिया गया है- ‘ऑनर किलिंग’। अर्थात ‘सम्मान के लिए हत्या’। माता-पिता, भाई या रिश्तेदार जाति, धर्म या गोत्र के नाम पर प्रेम करने वाले युगल की हत्या कर देते है। ऐसा करके वे गुनहगारों की किसी श्रेणी में न आकर समाज के उस तबके में सम्मानीय स्थान पाते हैं जो इस प्रकार की सोच के धरातल पर जड़ है। इसे ‘सम्मान के लिए किये गये महान बलिदान’ की संज्ञा भी दी जाती है। आश्चर्य की बात यह है कि हमारा समाज इसका (ऑनर किलिंग का) कट्टर समर्थक भी है।
आखिर यह किसका विरोध है? प्रेम का? या विजातीय प्रेम का? पहले यह स्पष्ट किया जाना अति आवश्यक है। 21 वीं सदी में उन्नति व प्रगति की गति बहुत तीव्र है और इस गति से यह विश्व भरपूर आनन्द उठाते हुए लाभान्वित भी हो रहा है। सबसे आगे निकलने की इस दौड़ में जाति-धर्म जैसे संकुचित दायरों को कब पार कर लिया गया, पता ही नहीं चला। आज सभी जाति-धर्म के लोग एक साथ मिल बाँटकर काम करते हैं, अपने सुख-दुख बाँटते हैं, सहर्ष विचार विमर्श करते हैं और इसी प्रकार दिनचर्या का निर्वाह हो जाता है। पहले की तुलना में आज जाति विषयक समस्या बहुत ही कम है। यह एक शुभ संकेत है।
परन्तु पिछले कुछ दिनों से अचानक एक तूफान पुनः समाज में विभाजन स्थापित करने का प्रयास कर रहा है। पुनः लोगों को सीमित कर रहा है उन्हीं के निजी दायरे में। ऑनर किलिंग नाम के इस तूफान ने पुनः लोगों को उनकी जातियाँ याद दिला दी और फिर समाज अपनी-अपनी जातियों के झण्डे उठाये ऊँच-नीच के विष का पान करने लगा।
ऑनर किलिंग के कारणों की निष्पक्ष चर्चा की जानी अति आवश्यक है। इसका पहला कारण है-सगोत्री विवाह जिसके विरोध में खाप पंचायत विभिन्न फरमान जारी करती है। जिनका अन्ततः परिणाम प्रेमी युगल की हत्या ही है। सगोत्री विवाह अर्थात विवाह योग्य लड़के-लड़की का गोत्र समान होना। सामाजिक मान्यताओं के अनुसार समान गोत्र होने पर उन दोनों का रिश्ता भाई-बहन का होता है। यह तथ्य काफी हद तक सही है। यदि सगोत्र विवाहों को मान्यता दे दी जायेगी तो सामाजिक मर्यादाएँ विखंडित हो जायेंगी। भाई-बहन के रिश्ते की पवित्रता संदेहग्रस्त हो जायेगी। एक ही गाँव या क्षेत्र में रहते हुए जो परिवार निर्भय होकर सामाजिक व्यवहार का आदान-प्रदान करते हैं, वे बातचीत करते हुए भी कतराने लगेंगे। विचार बदलने से रीतियाँ बदलती हैं और सगोत्र विवाह की रीति का विरोध भाई-बहन के रिश्ते को संरक्षण प्रदान करता है।
परन्तु इन बातों से परे सर्वप्रमुख बात है हत्या की। कारण चाहे कुछ भी हो, क्या हत्या उसका एकमात्र समाधान है? नहीं, बिलकुल नहीं। दुनिया के किसी भी संविधान या नीति शास्त्र में हत्या को स्वीकृति नहीं दी गई है। फिर क्यांे इसे एकमात्र हल माना जा रहा है? इस समस्या का कोई अन्य समाधान भी हो सकता है। उनका सामाजिक बहिष्कार किया जा सकता है। परन्तु हत्या! यह निश्चित रूप से महापाप है।
ऑनर किलिंग का दूसरा और निरर्थक कारण है- प्रेम विवाह। वास्तव में देखा जाये तो यह कारण किसी सीमा तक सगोत्री विवाह के ‘प्रेम विवाह’ शब्द को भी स्वयं में समाहित किये हुए है।
प्रेम विवाह अर्थात वह विवाह जिसमें बालिग युवक-युवती अपने विवेक का प्रयोग करते हुए अपनी पसंद के जीवन साथी का चयन करते हैं। आधुनिक समाज में शिक्षा का प्रसार होने के कारण प्रत्येक व्यक्ति के विवेक, सोचने-समझने की क्षमता का विकास हुआ है। आज महिलाएँ अंतरिक्ष में अपना परचम फैला रही हैं। उन्हें अपने अधिकार और कर्तव्यों का ज्ञान है। समाज भी उन्हें शिक्षित होने और अपना करियर चुनने की स्वतत्रंता प्रदान करता है। परन्तु फिर भी ‘विवाह’ एक ऐसा बिन्दु है जिस पर अभी भी सामाजिक सोच संकुचित है और ऑनर किलिंग जैसे परिणाम दे रही है।
वास्तव में यह विरोध प्रेम-विवाह का भी नहीं है। यह विरोध है स्त्री के अपने अधिकारों के प्रयोग का। स्त्री को सभी प्रकार की स्वतंत्रता है सिवाय अपनी पसंद से वर चुनने के। आज भी वह माता-पिता की पसंद के खूँटे से बँधने के लिए बाध्य है। और जैसे ही इस बाध्यता का विरोध होता है, परिणाम-ऑनर किलिंग। आखिर क्यों माता-पिता अपनी बेटी के इस निर्णय पर भरोसा नहीं कर पाते? वे उसके हर निर्णय का समर्थन अपने संस्कारों की दुहाई देते हुए करते हैं। उन्हें अपने दिये संस्कारों पर भरोसा है कि वह जो निर्णय लेगी वह सही ही होगा। परन्तु जैसे ही बात विवाह की आती है तो ‘वही ढ़ाक के तीन पात’।
आखिर कब तक इस भरोसे के अभाव में ये हत्याएँ होती रहेंगी? कब स्त्री को पूर्णतः आत्मनिर्भर माना जायेगा? कब वह अपनी स्वतंत्र उड़ान भर सकेगी? आखिर कब?

नस्लवाद और भारतीय

नस्लवाद और भारतीय

‘‘हमें नमस्कार करो मोंटी। तुम अंग्रेजी नहीं बोल सकते मूर्ख भारतीय। मुझे यह हिन्दी में ही बोलना होगा।’’
सिडनी में न्यू साउथ वेल्स के खिलाफ अभ्यास मैच के दौरान भारतीय मूल के अंग्रेज क्रिकेटर मोंटी पनेसर पर आस्ट्रेलियन दर्शकों द्वारा की गई उपर्युक्त टिप्पणी।
‘हे कमऑन, गिव मी ट्रॉफी’
आस्ट्रेलियन कप्तान रिकी पोंटिग के इन शब्दों के पश्चात् अपना उत्साह जताने के लिए डेमियन मार्टिन का बी0 सी0 सी0 आई0 अध्यक्ष के कंधे पर हाथ रखकर उन्हें मंच से हटाना।
ब्रिटेन के लोकप्रिय रीयलिटी टी0 वी0 शो ‘सेलिब्रिटी बिग ब्रदर’ में अन्य प्रतिभागियों द्वारा शिल्पा शेट्टी पर की गई नस्लवादी टिप्प्णी।
भारत के सम्मानीय व्यक्तियों व सेलिब्रिटियों की एयरपोर्ट पर की गई अनावश्यक चेकिंग।
वर्तमान में, उच्च योग्यता प्राप्त करने के पश्चात् सम्मानित व्यक्तियों द्वारा किये गये ये निम्न स्तरीय कृत्य न केवल विदेशी संस्कृति पर प्रश्नचिन्ह आरोपित करते हैं अपितु विदेशों में ‘भारतीयों की दयनीय स्थिति व उनके सम्मान’ को चर्चा का विषय बनाते हैं। सभ्य समाज के अंश कहलाने जाने वाले ये अंग असभ्यता की वो मिसाल पेश कर रहंे हैं जो इन्हंे सदैव विवादस्पद क्षेत्र में खड़े होने के लिये बाध्य करती है।
21 वीं सदी में प्रवेश करने के बाद भी, क्यों आज का इंसान जातिवाद जैसी व्याधियों से मुक्त नहीं हो पा रहा है? विश्व मेें अपनी योग्यता का लोहा मनवाने वाले भारतीयों को सम्मान की दृष्टि से क्यों नहीं देखा जाता? क्यों आज भी हमंे अपनी स्थिति मजबूत करने के लिये गिड़गिड़ाना पड़ता है?
यदि सभी पहलूओें पर गम्भीरता से विचार करें तो कारण स्पष्ट है कि यह कहीं ना कहीं हमारी ही कमजोरियों का परिणाम है।
भारतीय अपने सरल स्वभाव के कारण अपनी परम्पराओं को निभाते हुये दूसरों को स्वयं से अधिक महत्व देते हैं व दूसरों को सन्तुष्ट करते-करते अपने आत्मसम्मान को खो देते हैं। हमें अपनी सीमाओं को ज्ञान नहीं है। शान्ति की बात करतें हैं तो वह इस हद तक पहुँच जाती है कि अन्य उसे कायरता समझने लगते हैं। सच्चाई की बात करें तो मूर्खता समझने लगते हैं। परन्तु सच यह है कि ‘’अति का भला ना बोलना, अति की भली न चुप’’।
अन्याय सहने वाला भी उतना ही दोषी होता है जितना अन्याय करने वाला। क्यों हम अपने विरूद्ध हुये अन्याय का विरोध करने में असमर्थ हैं? क्या हम यह सब सहने के आदि हो गये हैं या प्रगतिशील देश में भौतिकता की होड़ में हम आत्मसम्मान के तथ्य को नकार रहे हैं या हम वास्तव में कायर हो गये हैं?
‘‘शरद पवांर ने भारतीय सभ्यता को जिंदा रखते हुए इस मुद्दे को तूल न देने के लिये कहा’’, ’’शाहरूख खान ने इस मुद्दे को तूल न देने के लिये कहा’’ जैसी पंक्तियाँ असभ्य व्यक्तियों की हिम्मत को बढ़ावा देने के लिये पर्याप्त है।
इसी प्रकार शिल्पा शेट्टी ने भी ‘‘मैं गलत थी। मैंने दुर्व्यहार को नस्लभेद समझ लिया’’ जैसे ब्यान देकर नस्लवाद को विरोध करने वाले प्रतिनिधियों व स्वयं को मजाक का पात्र बना दिया। इनके इस व्यवहार की ठेस सहने वाले किस भरोसे के साथ इस दुर्व्यवहार के खिलाफ आवाज उठायें? शिल्पा शेट्टी, शाहरूख खान व शरद पवांर का यह बदला हुआ रूप उन्हंे (शिल्पा शेट्टी, शाहरूख खान, शरद पवांर व अन्य भारतीयों को) सन्देह के घेरे में खड़ा कर रहा है कि कहीं यह सब पैसा व झूठी लोकप्रियता पाने के लिये किया गया दिखावा तो नहीं। ‘‘नाम नहीं बदनाम सही, नाम तो हुआ’’ जैसी धारणा फिल्म जगत में सामान्य बात है। पर क्या मात्र स्वार्थ सिद्धि के लिये भारतीय मर्यादा को ताक पर रखना न्यायोचित है? राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी, मदर टेरेसा, जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गाँधी, लाल बहादुर शास्त्री आदि अनेकों महान विभूतियों की भाँति क्यों वर्तमान पीढ़ी अपनी श्रेष्ठता का परिचय देने में असमर्थ है?
शायद, जीवन मूल्यों को महत्वहीन कर सफलता प्राप्ति का यह उपाय अत्यधिक सरल है।

महिला सशक्तिकरण और मीडिया

महिला सशक्तिकरण और मीडिया

महिला सशक्तिकरण, प्रत्येक वर्ष 8 मार्च के आस-पास के दिनों में ये दो शब्द हमारी श्रवणेंद्रियों में सर्वाधिक गुंजायमान् होते हैं। चहुँ ओर गोष्ठियों का आयोजन होने लगता है। द्रोपदी के चीर जैसे लम्बे भाषणों के सामने बैठे कुछ लोग उबासी के कारण बार-बार मुँह खोलते-बंद करते हैं क्योंकि इन भाषणों का सफ़र वीरांगना झाँसी की रानी, इंदिरा गाँधी से आरम्भ होकर वर्तमान दृष्टांत कल्पना चावला, इन्दिरा नूई आदि पर समाप्त हो जाता है। इन भाषणों में महिलाओं को असीम शक्ति की प्रतिमूर्ति के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। सुनकर लगता है कि सर्वाधिक सशक्त मात्र महिलाएँ ही हैं। कितने आनन्दायक व उत्साहित करने वाले क्षण होते है ये 8 मार्च के। अगर नजरों को इन दिनों के भ्रमजाल से बचाते हुए सम्पूर्ण वर्ष के चक्र की यात्रा करायें तो महिला सशक्तिकरण का शोचनीय व भ्रामक स्वरूप हमारे सम्मुख खड़ा उपहासनीय हँसी हँसते हुए हमें लज्जित कर रहा है। सम्पूर्ण वर्ष कान छलनी होते हैं अपमानित होती महिलाओं की चित्कार से। महिला सशक्तिकरण को शर्मिंदा करती हैं घरेलू हिंसा से त्रस्त महिलाएँ। फुटपाथ पर लूट, छेड़खानी, हत्या, बलात्कार की शिकार होती महिलाएँ कहती है कि हम आज भी अबला ही हैं। आखिर ये कौन सी महिलाएँ सशक्त हो रही हैं? उच्च वर्ग की मँहगी कारों में सुशोभित महिलाएँ यदि सशक्तिकरण के नारे लगायंे तो लगता है कि कोई अपमान का तमाचा मार रहा हो। कोई गरीब महिला ‘महिला सशक्तिकरण’ की पहचान बन जाये, यह देखने के लिए वर्षाें प्रतिक्षा करनी पड़ती है तब जाकर कहीं इक्का-दुक्का नाम अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्षरत् रहते हैं। क्योंकि उनके पीछे भागने के लिए न तो किसी मीडिया के पास समय है और न ही वह टी. आर. पी. बढ़ाने का कोई माध्यम है। यदि मीडिया महिला सशक्तिकरण को मिशन बनाकर एक सकारात्मक कदम बढ़ाये तो शायद समर्थन के हाथ पाकर अगला कदम उठाने का हौसला महिलाएँ पा जायें और महिला सशक्तिकरण को कुछ वजूद मिल जाये।