Thursday, December 27, 2012

अब न्याय नहीं प्रतिशोध चाहिए

हाथों में बैनर, तख़्ती और चार्ट पेपर लिए आक्रोश के साथ बढ़ता जा रहा विकराल कारवाँ। सबके दिलों में धधकती ज्वाला और लबों पर तिलमिलाते अल्फ़ाज़ और इन अल्फ़ाज़ों में निहित प्रश्नों की एक लंबी श्रृंख्ला। आज़ाद भारत के बाद शायद यह दृश्य पहली बार देखने को मिला। मानो सम्पूर्ण देश फिर किसी जंग के लिए एकजुट हो उठ खड़ा हुआ हो। मानो किसी ने देश के ज़मीर पर चोट की हो। मानो निरंकुश सन्नाटे में किसी की चीख हृदय को चीर गई हो। यह एक ऐसा मंजर है जिसे न किसी नेतृत्व की आवश्यकता है और न किसी आह्नान की फिर भी इनके उद्देश्य निश्चित हैं और मंजिल स्पष्ट। यह जंग थी और है औरत के अधिकारों की, परन्तु इस बार इन अधिकारों की श्रेणी में आरक्षण अथवा संपत्ति का अधिकार सम्मिलित नहीं है वरन् यह माँग है सम्मान व सुरक्षा के अधिकार की। 16 दिसंबर को दिल्ली में घटित गैंगरेप की शर्मनाक घटना ने संपूर्ण देश की आत्मा को झकझोर दिया। दरिंदगी की समस्त सीमाओं के परे इस गैंगरेप ने महिलाओं की सुरक्षा एवं उनके सम्मान के प्रति सरकार, न्याय व्यवस्था एवं पुरूष समाज के विचारों पर कई प्रश्न चिह्न आरोपित कर दिये। राजधानी दिल्ली में अगर महिलाओं की सुरक्षा के दावे ठोकने वाली व्यवस्था पर अपराधी इस कदर तमाचा मार रहे तो अन्य राज्यों से क्या अपेक्षा की जाए! ए. सी. ऑफिस में विराजमान आलाकमान कितने गंभीर हैं सड़क की वास्तविकता के प्रति? क्या व्यवस्था परिवर्तन बलिदान के बिना अपेक्षित नहीं है? क्या इसके लिए किसी न किसी की बलि दी जानी इतनी आवश्यक है? और इस बलि के पश्चात् संवेदनशीलता के प्रमाण एवं न्याय प्राप्ति की क्या गारंटी है? शायद कुछ भी नहीं। निष्ठुर व्यवस्था से किसी भी संवेदना अथवा दया की आशा करना मूर्खता है। यह शिकायत मात्र व्यवस्था से ही नही है। हमारा समाज भी अभी तक इसी संकीर्ण मानसिकता के अधीन जीवन यापन कर रहा है। जहाँ एक ओर भ्रूण हत्या, दहेज-हत्या, ऑनर किलिंग जैसे अपराध मानव जाति को शर्मसार कर रहे है वहीं दूसरी ओर बलात्कार जैसे निर्मम कुकृत्य पशु जाति को गौरवान्वित कर रहे हैं कि वे मानव नहीं है। इस घटना के प्रति उद्वेलित जनाक्रोश प्रथम दृष्टया सिद्ध करता है कि इंसानियत जीवित है। समाज संवेदनहीनता का समर्थक नही है और हम एक जीवित समाज में विचरण कर रहे है। परन्तु यह भ्रम टूटते अधिक समय नहीं लगा। जब सारा देश इस द्रवित कर देने वाली घटना से उबल रहा है उस समय भी कुछ या कहे बहुत से ऐसे निर्लज उदाहरण समाज में व्याप्त हैं जो इस प्रकार की शर्मनाक घटनाओं के लिए महिलाओं को ही दोषी ठहरा स्वयं को दोषियों के पक्षधर सिद्ध कर रहे हैं। फेसबुक पर एक ऐसे ही प्रोफाइल की सोच ने यह विचारने पर बाधित कर दिया कि इस देशव्यापी प्रदर्शन के मूल मेें कितनी ईमानदारी, सच्चाई, मानवीय मूल्य या संवेदनशीलता निहित हैं? कहीं यह सब भेड चाल तो नहीं? या मात्र एक दिखावा? या कहे कि ऐसे प्रदर्शनों में टीवी चैनलों व समाचार-पत्रों में अपनी तस्वीर देखने का माध्यम? फेसबुक के उस प्रोफाइल ने एक बात तो पूर्णतः स्पष्ट कर दी कि घटना भले ही कितनी भी जघन्य हो जाए परन्तु वह राक्षस प्रवृत्ति को परिवर्तित या शर्मसार नहीं कर सकती। जहाँ बलात्कार पीड़िता की दर्दनाक सच्चाई आँसू लाने के लिए पर्याप्त हैं, वहीं कुछ लोगों की सोच यह भी है कि अगर शेर (पुरूष) की गुफा में बकरियाँ (महिलाएँ) जाकर नाचेंगी तो यही होगा। कितना घिनौना एवं घटिया वक्तव्य है यह! प्रश्न यह है कि ऐसे कृत्यों को अंजाम देने वालों को क्या कहा जाए- शेर या कुत्ता? और क्या महिलाएँ बकरियाँ अर्थात् जानवर हैं? क्या यह विचारधारा शिक्षित समाज के अशिक्षित मस्तिष्क की नहीं है? इस वक्तव्य से एक बात तो सिद्ध हो जाती है कि पुरूष प्रधान समाज में महिलाओं से सम्मान की अपेक्षा तो दूर की बात है इंसानियत की अपेक्षा भी नहीं की जा सकती। जब उनके लिए महिला का वजूद जानवर तुल्य है तो भला एक जानवर सम्मान का हकदार कैसे हो सकता है? वह तो दुत्कार के भाग्य का स्वामी है। परन्तु दयनीय स्थिति यह है कि जानवर को भी दिन में एक बार प्रेमपूर्वक पुचकार दिया जाता है और बलात्कार जैसे जघन्य कृत्यों से भी वह सुरक्षित है परन्तु दुर्भाग्यशाली महिला जाति इस स्तर पर भी हार जाती है। यह किसी एक व्यक्ति के विचार नहीं है। इस प्रकार के न जाने कितने विचार हमारे आसपास हमें मानव होने पर शर्मसार कर रहे हैं। शर्मिंदा करने वाले शब्दों का अकाल सा पड़ जाता है जब दिल्ली में हुई इस दर्दनाक बलात्कार की घटना के दो दिन बाद के एक समाचार-पत्र के एक पृष्ठ पर एक राज्य के एक ही क्षेत्र में बलात्कार की नौ घटनाएँ पढ़ने के लिए मिलती हैं। राष्ट्रीय शर्म का विषय है कि एक बेटी के लिए तो न्याय की गुहार अभी न्यायव्यवस्था को जगा भी न सकी थी कि कई और बेटियाँ अपनी सिसकियों में ही दम तोड़ गई। ज़रा सोचिए देशव्यापी आंदोलन की चीखें तो इस राक्षस प्रवृत्ति को व्यत्थित कर न सकी और जब देश शान्त भाव से अपने-अपने घरों में सपने बुन रहा होता है तब इन प्रवृत्ति की तिलमिलाहट किस सीमा तक क्रूर होती होगी? इसके प्रमाण दिल्ली की उस पीड़िता के देह पर प्रदर्शित हो रहे हैं? तो क्या यह आंदोलन क्षणभंगुर है या तत्कालिक परिस्थितियों का दिखावा? यह जनसैलाब शायद न्याय व्यवस्था के कुछ पृष्ठ तो परिवर्तित कर दे परन्तु समाज में व्याप्त उस सोच को कैसे परिवर्तित किया जाए जो इन अशोभनीय घटनाओं की जननी है? क्या कोई अंत है इन सबका? कैसे लगेगा अंकुश इन सब पर? कैसे सुरक्षित अनुभव करें माँ-बेटी-बहन स्वयं को? क्या कभी ऐसा देश भारत देश हो सकेगा जब महिलाएँ अपने श्वास की ध्वनि से इसलिए न घबराए कि अगर किसी पुरूष ने उस ध्वनि को स्पर्श किया तो वह अपना वजूद खो देंगी? क्या कभी माता-पिता बेटी के जन्म पर निर्भय हो खुशियाँ मना सकेंगे? क्या कभी इस देश के महिलाएँ गर्व से कह सकेंगी कि हम उस देश की बेटियाँ हैं जहाँ हमें न केवल देवी के रूप में पूजा जाता है वरन् वास्तव में उस पूजा की सार्थकता प्रासंगिक है? क्या यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि ऐसी घटनाओं से फिर कभी यह देश लज्जित नहीं होगा? ऐसी घटनाओं पर लगाम लगाने के लिए किसी भी देश की कानून व्यवस्था का सख्त होना अति आवश्यक है। बलात्कार और ऐसी ही क्रूरता से लिप्त एसिड केस, ऐसी घटनाएँ हत्या से भी कहीं अधिक संगीन अपराध है। हत्या व्यक्ति को एक बार मारती है परन्तु ये घटनाएँ न केवल भुक्तभोगी को वरन् उससे सम्बन्धित प्रत्येक रिश्ते को हर पल मारती हैं और जीवन भर मारती हैं। प्रत्येक क्षण होती इस जीवित-मृत्यु की सजा मात्र सात वर्ष पर्याप्त नहीं है। देखा जाए तो मृत्युदंड भी इस अपराध के सम्मुख तुच्छ प्रतीत होता है। कई ऐसे देश हैं जहाँ इस प्रकार की घटनाओं की सजा स्वरूप अपराधी को नपुंसक बना दिया जाता है। शायद यह सजा उसे उसके अपराध का अहसास तो दिला सके परन्तु अगर भुक्तभोगी की सिसकियों से पूछा जाए तो वह कभी इस सजा को उस खौफ के लिए पर्याप्त नहीं मानेगी जो उसके मन में घर कर जाता है। उस अविश्वास को इस सजा से कभी नहीं पुनः प्राप्त कर सकेगी जो समाज के प्रति उसके मस्तिष्क में समा जाता है। उस दर्द की भरपाई यह सजा कभी नहीं कर पाएगी जो उसके कोमल अंगों को मिला है। और इस सजा की तसल्ली उसके आत्मविश्वास के लिए कभी पर्याप्त नहीं हो पाएगी। इस प्रकार के अपराध पर अंकुश लगाने के लिए सिर्फ तालिबानी तरीके ही कारगार साबित हो सकते हैं। ऐसे अपराधियों को ज़मीन में आधा दबाकर पत्थरों से मारा जाना चाहिए जिससे प्रत्येक पत्थर इस प्रकार की मंशा रखने वालों तक की रूह को कँपा सके। जिससे कोई भी दुष्ट विचार उत्पन्न होने से पहले ही अपने अंजाम को सोचने पर मजबूर हो सके। सच पूछिए तो महिलाओं को संविधान में लिखित अधिकारों में संपत्ति के अधिकार देने से पूर्व सम्मान का अधिकार दिया जाना चाहिए। उन्हें सुरक्षा के अधिकार की आवश्यकता है। खुली हवा में स्वतंत्रतापूर्वक निर्भिक हो मुस्कराने के अधिकार की आवश्यकता है। अगर ये अधिकार उन्हें प्राप्त हो जाए तो असमानता स्वतः समाप्त हो जाएगी। लैंगिक असमानता का प्रश्न अस्तित्वहीन हो जाएगा। इसके लिए आवश्यकता है मानसिक स्तर की परिधि को विस्तृत करने की। संकीर्णता को समाप्त कर स्वतंत्र सोच के विकास की। अकेली महिला को देखकर जो आकर्षण पुरूष महसूस करते हैं उसके पल्लवित होने से पूर्व उस महिला के स्थान पर अपने घर की महिला को रखकर विचार करें। क्या आप अपने परिजनों के साथ किसी प्रकार का अशुभ होने की कल्पना करना चाहेंगे? यदि नहीं, तो त्याग दीजिए प्रत्येक उस विचार को जो दूसरों के घर की बेटियों के प्रति उमड़ता है। वैचारिक शुद्धता एवं पवित्रता ही इस समस्या का समाधान हो सकती है। ऐसे में परिवार की जिम्मेदारी है कि वे बच्चों में अच्छे संस्कार और अच्छी संस्कृति का विकास करे। उन्हें प्रत्येक जाति (स्त्री व पुरूष) का सम्मान करने की शिक्षा दें। नैतिक मूल्यों का हृास किसी भी समाज के अंत का संकेत है और वर्तमान परिस्थितियाँ भारत के संदर्भ में वास्तव में चिन्तनीय हैं।

Sunday, August 26, 2012

बेटी बचाओ अभियान में जोड़ें एक नया अध्याय


कितना तड़पी होगी वो! क्या वो इसका मतलब भी समझती होगी? मानसिक एवं शारीरिक रूप से शोषित होती यह बच्ची, जब माँ बनने के अर्थ को समझ आने की अवस्था में होगी, तब उस सुंदर अहसास से परे घृणित भाव से भरी होगी और घिरी होगी प्रश्नों के जंजाल में कि क्यों उसके माता-पिता ने ही उसके विश्वास को तार-तार किया? क्यों नहीं कर पाये वे उसकी रक्षा? क्यों ईश्वर उसकी किस्मत लिखते समय इतना निष्ठुर हो गया? कहाँ रहा नौ महीने ‘लड़कियों का रक्षक समाज’? क्या उसकी पीड़ा की चीख़ किसी के कानों में नहीं पड़ी? क्या इतने दिन किसी की दृष्टि उसके उभारों से प्रश्न न कर सकी? क्या किसी के मन में उसके लिए करूणा नहीं उमड़ी? यहाँ तक कि उसके अपने माँ-बाप के मन में भी नही! वह तेरह वर्ष की उम्र में एक बच्ची की माँ बन गई। अभी तो वह खुद माँ की गोद में सिर रख दुलार के हाथ की प्रतीक्षा कर रही थी कि स्वयं उसकी गोद से किलकारियों की आवाजें आने लगी! कौन है इसका जिम्मेदार? वे जो उसके संरक्षक हैं या वह जो अपने हसरतें पूरी कर चला गया? क्या एक बार भी उन बाल अंगों पर तरस नहीं आया उसे? अब क्या? क्या अब उस मासूम को उन हाथों की कठपुतली बनने के लिए छोड़ देना चाहिये? क्या उनके साथ उसका व उसकी बच्ची का भविष्य सुरक्षित है? क्या गारंटी है कि भविष्य में वह बच्ची व उसकी बच्ची उन संरक्षकों के लिए कमाई का साधन नहीं बनेगी? क्या आयेगा कोई उन दोनों की रक्षा के लिए? और इन सबके साथ-साथ एक अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्न-चिन्हः आखि़र कब तक चलेंगी ये कहानियाँ? और कितनी लम्बी होगी यह कतार? ज़रा कचौटिये अपनी मृत भावनाओं को, शायद कोई हल निकल आये और बचपन की मीठी यादें ज़हरीले भाग्य से मुक्त हो जायें।

Thursday, May 10, 2012

लील गये दर्शक, ‘पाठक’


समाचार-पत्र के प्रथम पृष्ठ की सूचनाओं पर यथासंभव प्रतिक्रिया करने के पश्चात् जैसे ही दूसरे पृष्ठ की ओर रूख किया तो झटके के साथ अखबार बंद हो गया और मुँह से निकला...............आ..........ऊ.........च। यह आऊच तो सामने बैठे श्रीमान् का ध्यान उस पृष्ठ से हटाने के लिए था जिसे खोलते ही पाठक शर्मींदा हो जाये। श्रीमान् तो मान बैठे कि हमें हो शारीरिक क्षति हुई है, पर कैसे बतायंे, यह तो मानसिक आघात था। ऐसे झटके हर शरीफ़ को आजकल के अख़बार खोलते ही लगते हैं। हर दूसरे या तीसरे पृष्ठ पर ऐसी तस्वीरें चस्पा की जाती हैं, जिन्हंे देखकर आँखें शर्म से झूक जायें। टी0वी0, इंटरनेट पर वही तस्वीरें अगर बच्चे देखें तो निश्चित रूप से अश्लील तस्वीरें देखने के जुर्म में माता-पिता से मार खायेंगे। इसी परेशानी का हल शायद हमारे आधुनिक कहे जाने वाले समाचार-पत्रों ने निकाल दिया और माता-पिता व बच्चों के लिए सार्वजनिक रूप से गर्म मसाला परोस दिया। देखो और लज्जा त्यागो। हुआ भी यही कुछ दिनों तक तो हमने अखबार के पन्ने संभल-संभल कर खोलना शुरू किया, पर आखिर कब तक यह सब किया जा सकता था? बहरहाल हम ही बेशर्म हो गये। बच्चों के सम्मुख तो यह शर्म खुल गई है बस कुछ चिर-परिचित ऐसे हैं जिनके के लिए अभी कुछ और अभ्यास की आवश्यकता है। कुछ अख़बारों ने तो इसे परम्परा बना दिया है। मानो सांस्कृतिक प्रतीक हो गई हैं ये तस्वीरें। अखबार खोला और पाश्चात्य संस्कृति की दर्शन कराती नग्न देवियाँ निर्लज मुद्राओं में आपके सम्मुख प्रस्तुत हो गई। स्थिति यह है कि हमारे समाचार-पत्रों के ‘पाठक कम दर्शक ज्यादा’ हो गये हैं। समाचार-पत्रों को हमने अपनी नेक सलाह बिलकुल मुफ्त देनी चाही। पर यही गलती हो गई। बाजार के चार नये प्रत्यय समझकर हम अपना सा मुँह लेकर लौटे। यह मार्केटिंग का युग है। यहाँ वही छापा जाता है जो बिकता है और इसमें हमारा क्या दोष आप लोग पढ़ना ही....... मतलब देखना ही यह चाहते हो। आप देखना बंद कर दो, हम छापना बंद कर देंगे। बात तो कुछ हद तक सही है। पत्रकारिता दुकानदारी जो हो गई है। पर उलझन यह है कि कोठे पर बैठी तवायफ कहती है कि मैं पेट के लिए ज़िस्म बेचती हूँ, खरीदने वाले हैं इसलिए बिकती हूँ। मेरी मजबूरी ने मुझे कुलटा बना दिया पर वो शरीफ़ कैसे जिनके शौक ने मुझे यहाँ पहुँचा दिया? तो क्या वास्तव में हम पाठक समाचार-पत्रों को यह दिशा प्रदान कर रहे हैं? या समाचार-पत्रों ने नग्नता रूपी चरस की लत से पाठकों को दर्शक बना दिया! निश्चित परिणाम निकालना अत्यन्त कठिन है परन्तु एक बात स्पष्ट है कि दोनांे ही कारण सामाजिक विकृति को बढ़वा अवश्य दे रहे हैं।

Thursday, April 26, 2012

ना कोंसो अब हमें

i-next में उठाये गये प्रश्न ‘तो क्या लड़कियां ही हैं रेप की जिम्मेदार?’ के मुख्य दो कारण हैं- एक, कि यह प्रश्न वास्तव में जानना चाहता है कि रेप का वास्तविक कारण है क्या? दूसरा, इस प्रकार की शर्मनाक एवं दुखद घटनाओं के प्रति आने वाले वे असंवेदनशील संवाद जो उच्च पदों पर विराजमान शिरोमणियों के मुख से प्रकट हुए। डिप्टी कमिश्नर, डीजीपी, दिल्ली पुलिस कमिश्नर, सीएम दिल्ली एवं दिल्ली पुलिस, सभी के अनुसार लड़कियां अपने साथ हुई किसी भी दुर्घटना के लिए स्वतः जिम्मेदार है। किसी के अनुसार लड़कियों का पहनावा दोषी है तो किसी के अनुसार असमय उनका असुरक्षित यात्रा अथवा नौकरी करना। कितनी विचित्र स्थिति है कि एसी आफिस में बैठने वाले अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ने के लिए ‘चोरी और ऊपर से सीना जोरी’ कर रहे है! पुलिस एवं सरकार की पहली जिम्मेदारी देश के प्रत्येक नागरिक को सुरक्षा के भाव का अहसास कराना है। ऐसे में ये उल्टी नसीहत उन्हें नागरिकों द्वारा कष्ट प्रदान न किये जाने का आदेश दे रही है। उन्नति की दौड़ में अपेक्षाओं से अधिक परिणाम प्रस्तुत कर अपने वजूद का लौहा मनाने वाली महिलाओं को सुरक्षा के नाम पर कैसे घर बैठकर आलू-गोभी काटने का हुक्म सुनाया जा सकता है? और इस प्रकार कैद महिलाओं की आन्तरिक सुरक्षा की क्या गारंटी? 15 मार्च 2012 को अमर उजाला में प्रकाशित समाचार ‘ नौ साल की उम्र में पहला एबार्शन’ लड़कियों की घरेलु सुरक्षा पर प्रश्नचिन्ह आरोपित करने के साथ-साथ दी जाने वाली नसीहतों को शर्मिंदा भी करता है। नाबालिकों के साथ आये दिन होने वाले दुर्व्यवहारों के लिए हमारे इन आलाकमानों के पास क्या नसीहत है? ऑफिस में बैठकर सुझावों एवं सलाहों के भँवरों में आम आदमी की सोच को गुमराह करने से बेहतर है एक सटीक रणनीति का निर्माण किया जाए और एक ऐसा समाधान प्रस्तुत किया जाये जिससे वास्तव में लड़कियों को सुरक्षित संरक्षण प्राप्त हो सके और वे अपने सपनों का आकाश पा सकें।

Saturday, February 4, 2012

मँहगाई डायन बच्चे खात है.........




‘‘सखी सैंया तो खूब कमात हैं, मँहगाई डायन खाए जात है’’। पीपली लाइव फिल्म का यह गीत वर्तमान निर्मम मँहगाई व सरकारी नीतियों पर तीखा व्यंग्य है। इन पंक्तियों को माध्यम बना बहुत से लेखकों ने विभिन्न समस्याओं की आलोचना की एवं जनजागरूकता का प्रयास किया। मँहगाई की काली छाया के प्रकोप से भयभीत एक नवीन विचारधारा हमारे समाज में विसरित हो रही है। ‘हम दो हमारा एक’ की नई सोच। नई पौध एक बच्चे की समर्थक है। उनके अनुसार भावी जीवन अत्यन्त जटिल है और उन परिस्थितियों की कल्पना ही उन्हें भयभीत कर देती है। वर्तमान परिस्थितियों में ही दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना अत्यन्त कठिन हो गया है। ऐसे में दो बच्चों का खर्चा वहन करना सरल नहीं है। इसका एक कारण यह भी है कि वे एक बच्चे की परवरिश में सम्पूर्ण ध्यान केन्द्रित करना चाहते हैं। चौबीस घण्टे वे बच्चे के रहन-सहन एवं रख-रखाव पर अपनी नज़र रख सकते हैं। निःसन्देह इस निर्णय में नई पीढ़ी की सोच सकारात्मक एवं समाज हितवादी है। ‘एक बच्चा नीति’ का अनुसरण कर चीनी का बढ़ती जनसंख्या पर नियन्त्रण करने का प्रयास अभी तक जारी है। भारत की बढ़ती जनसंख्या भी चिंता का विषय है। ऐेसे में नई पीढ़ी यह निर्णय समझारी का प्रतीक है, सरहानीय है। बहरहाल देखना यह है नई पीढ़ी एवं उनके पूर्वजों के मध्य इस विषय पर चलने वाले वैचारिक संघर्ष में कौन विजयी होता है? परन्तु सार तो यही है कि ‘मँहगाई डायन’ ने अब बच्चों को भी खाना शुरू कर दिया है।

Monday, January 30, 2012

पचपन और बचपन


पचपन की उम्र का सेहरा पहने मिश्रा जी बगीचे में अकेले बैठे उबासी ले रहे थे। तभी उनका पाँच वर्ष का पौता, करन कुछ टूटे हुए खिलौने लिए भागा-भागा उनके पास आया और चिल्लाते हुए बोला, ‘‘ दादा जी बचाओ-बचाओ दादा जी। मम्मी मेरे खिलौने कबाड़ी वाले को दे रही हैं। ये मेरे खिलौने हैं, मैं नही दूँगा इन्हें।’’ रूआँ सा करन दादा जी के पीछे खुद को छिपाने का असफल प्रयास कर रहा था और खिलौने वाले हाथों को अपनी कमर के पीछे छिपा रहा था।
‘‘क्या हुआ बहू? क्यों ले रही हो इसके खिलौने?’’, दादा जी ने पूछा।
‘‘पिताजी! ये सारे टूटे हुए खिलौने हैं। मैं कह रही हूँ कि इन्हें छोड़ दे, हम इससे भी अच्छे नये खिलौने इसे दिला देंगे। पर ये है कि मानता ही नही। पुराने-टूटे खिलौनों से घर भर रखा है।
करन, बेटा नये खिलौने ले लेना........इन्हंे मम्मी हो दे दो। मैं तुम्हें बिलकुल ऐसे ही नये खिलौने दिला दूँगा।
नहीं दादा जी, मुझे इन्हीं से खेलना है। मैं नहीं दूँगा।
अच्छा बहू, रहने दो। मत दो इसके खिलौने। खेलने दो इन्ही से इसे।
परेशान मम्मी वापस लौट जाती हैं।
अच्छा करन! ज़रा दिखा तो क्या खिलौने हैं तेरे पास, जिनके लिए तू मम्मी से इतना लड़ रहा था।
दिखाऊँ? मासूमियत से पूछते हुए करन ने एक टूटा ट्रक, कुछ तिल्लीनुमा लकड़ी, एक कपड़ा और पतंग का मंज्ज़ा आगे बढ़ा दिया।
दादा जी भी उस सामान को देखकर हैरान थे। परन्तु खिलौनों के प्रति करन का अनुराग देखकर उनकी उन खिलौनों में उत्सुकता बढ़ गई।
करन, इनसे खेलोगे कैसे?
आप खेलोगे दादा जी मेरे साथ?
हाँ-हाँ, क्यों नही! बताओ कैसे खेलना है?
मैं बताता हूँ। पहले तो आप ये स्टिक पकड़ो। अब इन्हें है ना इस ट्रक के चारों कोना पर लगाओ। इन छेदों में इन्हें लगा देते हैं। अब उस मंज्ज़ा से है ना इन स्टिक्स् को बाँधो, नी तो ये गिर जायेंगी। अब ये कपड़ा इन स्टिक्स् पर ऐसे लगा दो। ये बन गया हमारा घर। देखो दादा जी अच्छा है ना? और पता है ये चल भी सकता है।
दादा जी हैरान, करन को देख रहे थे। बच्चों के जो खिलौने हमारे लिए व्यर्थ का सामान होते हैं उन्हें लेकर कितनी कल्पनाएँ उनके संवेदनशील संसार में होती हैं। कैसा अद्भुत सान्निध्य उन सड़क पर ठोकर खाने वाले पत्थरों के प्रति, जो इनकी दुनिया में आकर सुंदर इमारत का रूप धर लेते हैं। ये बच्चें ही तो हैं जो पुरानी निर्जीव चीजों में से भी व्यर्थ का विशेषण हटा, उनके महत्व को बढ़ा देते हैं अन्यथा आज तो जीवित प्राणी भी का अस्तित्व भी अर्थहीन हो चला है। तभी तो पचपन का बचपन को किया गया प्यार लौटाने का समय आता है तो बचपन पचपन से उकता जाता है।
दादा जी के एकाग्रता के तार को करन की आवाज ने झनकारा और ‘चलो दादा जी खेलते हैं’ का सुर उत्पन्न हुआ। और एक बार फिर बचपन-पचपन का खेल प्रारम्भ हो गया।