Tuesday, May 31, 2011

पिछले दरवाजे की एन्ट्री


पिछले दरवाजे की एन्ट्री

जब भी किसी घोटाले या आपराधिक मामलों में किसी जनप्रतिनिधि की संलिप्तता पाई जाती है तो एक प्रश्न मतदाताओं की जुबाँ को सी देता है- ‘‘आखिर इन्हें चुनने वाला कौन है?’’ एक सीमा तक देखा जाये तो प्रश्न सार्थक भी है। आखिरकार लोकतंत्र में मतदान के अधिकार का प्रयोग कर इन्हें अपना रहनुमा हम खुद ही बनाते हैं। परन्तु वहीं दूसरी ओर एक विवशता इस प्रश्न के उत्तर में मतदाताओं को संरक्षण प्रदान करती है कि जब सारी ही मछलियाँ सड़ी हो तो अन्य कोई विकल्प ही कहाँ रह जाता है? इस मरूस्थल में सींचने हेतु कोई वृक्ष है ही कहाँ? विवशता व बाध्यता के अधीन जनता-जनार्दन को इन्हीं में से किसी का चयन करना ही पड़ता है। विस्मित कर देने वाला तथ्य यह है कि सम्पूर्ण भूमण्डल पर 6000 घराने पिछले कई वर्षाें से शासन कर रहे हैं। बाप से बेटे को राजनीति पीढ़ी दर पीढ़ी विरासत में मिलती जा रही है। बूढ़े शेर शिकार करने में इतने पारंगत हो चुके हैं कि वे किसी अन्य को स्थापित होने का अवसर ही प्रदान नहीं करते। ऐसी स्थिति में युवा पीढ़ी किस प्रकार प्रतिनिधित्व का बीड़ा उठाये? राज्य सभा व लोक सभा दोनांे में कुल मिलाकर लगभग 145 सांसद ऐसे हैं जो अरबपति हैं। जिनका चयन राजनीतिक पार्टियाँ स्वहित हेतु करती हैं। क्या वातानुकूलित कमरों में विराजमान लोग गरीब की धूप में जलती चमड़ी की जलन को महसूस कर सकते हैं? क्या महीने के अंत में घर चलाने के लिए आम आदमी की चेहरे की शिकन व तनाव को समझ सकते हैं? क्यों उतारा जाता है ऐसे व्यापारियों को राजनीति के अखाड़े में। राजनीति जनसेवा का क्षेत्र है व्यापार का नहीं। माननीय मनमोहन सिंह जी असम प्रदेश से संसद तक का सफर तय करते हैं जहाँ के क्षेत्र से वे पूर्णतः अनभिज्ञ थे और लतीफा यह है कि आम जनता भी इन्हें नहीं जानती थी। पत्रकारिता जगत ने इसे बैकडोर एन्ट्री की संज्ञा दी। राजनीति में इस प्रकार की बैकडोर एन्ट्री से आम जनता भला किस प्रकार लाभान्वित हो सकती है? वास्तव में अब देश को एक गरीब, समझदार, कर्तव्यनिष्ठ व ईमानदार प्रतिनिधि की आवश्यकता है जो वास्तव में इस गम्भीर व संवेदनशील दायित्व का गरिमापूर्ण ढं़ग से निर्वाह करने में सक्षम हो।

Saturday, May 21, 2011

लुटते बेरोजगार, घी में सरकार


लुटते बेरोजगार, घी में सरकार

लम्बी-लम्बी लाइनों में धक्का-मुक्की होते अभ्यर्थी, मूर्छित होती लड़कियाँ और भड़कते छात्र। कुछ ऐसी सी ही स्थिति है केंद्रीय शिक्षक दक्षता परीक्षा (सी. टी. ई. टी.) के फॉर्म के लिए जदोजहद कर रहे बी. एड. बेरोजगारांे की। वे सुबह जल्दी आकर लाइन में लग जाते हैं। इसके बावजूद कब नम्बर आयेगा, कोई ख़बर नहीं। कई बार तो नम्बर आते ही मुँह पर बैंक की खिड़की बंद हो जाती है और अगले दिन पुनः यही कार्यक्रम। कभी फॉर्म खत्म हो जाते हैं तो कभी बैंक का लंच टाइम हो जाता है। परन्तु हमारे इन लाचार बेरोजगारों को न तो लंच की अनुमति है और न इनके लिए कोई समय सीमा है। इनका यह स्थिर सफर हाथ में फॉर्म की उपलब्धी के साथ समाप्त होता है। फॉर्म प्राप्त करने के पश्चात प्रसन्नचित चेहरे इस प्रकार की भाव देते हैं मानो उन्हें नौकरी ही मिल गई हो। शायद यह उनके स्वयं को तसल्ली देने का माध्यम है क्योंकि सत्य तो यह है कि यह फॉर्म उनके आगामी संघर्ष की पहली सीढ़ी है।
कुछ अभ्यर्थी इस टेस्ट की वास्तविकता से अनभिज्ञ हैं। परन्तु फिर भी वे फॉम भरने के लिए उत्सुक हैं। क्या करें भेड चाल की आदत सी जो हो गई है। विशिष्ट बी. टी. सी. का दौर आया तो बी. एड. सुरक्षित भविष्य का पर्याय बन गई। बहुत से बेरोजगारों के लिए निःसन्देह यह वरदान साबित भी हुई। परन्तु वर्तमान स्थिति तो अब बी. एड. को शादी के लिए दहेज रूप में भी अस्वीकृत करती है। विशिष्ट बीटीसी के समय ससुराल पक्ष को बीएड बहु चाहिये थी। हाय दुभार्ग्य यह निवेश भी डूब गया।
खैर बात थी सीटीईटी और इससे जुड़ी भ्राँतियों की। यह टेस्ट नौकरी की गारण्टी नहीं है अपितु मात्र योग्यता परीक्षण का प्रमाण-पत्र है। परन्तु इसकी अनिवार्यता ने इसे महत्वपूर्ण अवश्य बना दिया है। इस परीक्षा में उत्तीर्ण अभ्यर्थी भविष्य में होने वाली नियुक्तियों के लिए आवेदन करने के योग्य होंगे। एनसीटीई के अनुसार सीटीईटी राज्य स्तरीय शिक्षकों के लिए पात्रता परीक्षा नहीं है। अतः केन्द्र की ही तर्ज पर राज्यों ने भी टीचर एलिजिब्लिटी टेस्ट (टी. ई. टी.) का बिगुल बजा दिया है। सीबीएसई शिक्षा प्रसार विभाग के एक अधिकारी के अनुसार पिछले कुछ दिनों में यूपी में सीटीईटी के डेढ़ लाख से अधिक फॉर्म बिके है।
केन्द्र व राज्यों का यह नया खेल अत्यन्त विचित्र है। अभ्यार्थियों की बेरोजगारी की बेबसी पर जगाई उम्मीद की किरण को भुनाने का निर्लज्ज प्रयास। सीटीईटी आवेदन मात्र केंद्रीय विद्यालयों व सीबीएसई से जुड़े स्कूलों के लिए है जिनकी संख्या बहुत कम है, यह बात अभ्यार्थियों के संज्ञान में नहीं है।
बी. एड. कक्षाओं में दाखिला, प्रवेश परीक्षा के माध्यम से होता है तो क्यांे सरकार बार-बार टेस्ट का प्रोपगंेडा रच लाचार बेरोजगारों का उपहास कर रही है? या यूँ कहें कि नौकरी के सुनहरे सपने दिखाकर स्वयं की जेबें गरम कर रहीं हैं। यह टेस्ट उन शिक्षकों के लिए भी अनिवार्य है जिनकी इण्टरमीडिएट सात वर्ष से पूर्व की है। वर्षों से शिक्षण कर रहे शिक्षक अब यदि टी. ई. टी. परीक्षा को उत्तीर्ण न कर पाते तो क्या वे अपनी वर्षाें की नौकरी से हाथ धो बैठेंगे? ऐसी स्थिति में राज्य सरकार का इन शिक्षकों के प्रति क्या निर्णय होगा? इसकी व्याख्या राज्य सरकार ने नहीं की है। राज्य सरकार के अनुसार सात वर्ष पूर्व पाठ्यक्रम परिवर्तन के कारण इन शिक्षकों के लिए यह टेस्ट उत्तीर्ण करना अनिवार्य है। कितना दुःखदायी है कि सरकार शिक्षकों के वर्षांे के शिक्षण अनुभव को इतनी निष्ठुरता से चुनौती दे रही है! वस्तुतः ऐसा तो नहीं है कि पाठ्यक्रम परिवर्तन के पश्चात् शिक्षकों ने विद्यार्थियों को नवीन पाठ्यक्रम से पढ़ाना बंद कर दिया हो और उन्हें पुराने पाठ्यक्रम से पढ़ने के लिए बाध्य कर रहे हों। जब ऐसी स्थिति है ही नहीं तब इस टेस्ट की क्या आवश्यकता है? मात्र मुद्रा संग्रहण के लिए? टेस्ट उत्तीर्ण करने के पश्चात छः माह की ट्रेनिंग भी अनिवार्य है। क्या सरकार वास्तव में नियुक्तियाँ करना चाहती है? या चुनावी पिच तैयार कर वोट बैंक पढ़ाने का प्रयास कर रही है, यह बात समझ से परे है। चिन्तनीय है यह स्थिति कि बार-बार टेस्ट, फॉर्म और लाचार बेरोजगारों का धन सरकारी तंत्र की जेबों में और बेरोजगार अंततः एक लुटा हुआ बेरोजगार!

Thursday, May 19, 2011

अन्यायपूर्ण अधिग्रहण


अन्यायपूर्ण अधिग्रहण

साल भर की मेहनत के बाद हमारे अन्नदाताओं को बाकी दिन गुजारने के लिए ‘ऊँट के मुँह में जीरे भर’ मेहनताना मिलता है। वो भी कभी लाठियाँ खाकर तो कभी गोलियाँ खाकर। कभी किसानों को गन्ने की वाजिब दाम के लिए लड़ना पड़ता है तो कभी अपनी जमीन के लिए। जो जमीन उन्हें-हमें अन्न प्रदान कर रही है उसे विकास के नाम पर उनसे कोड़ियों के दाम में छीना जा रहा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की भूमि खेती के लिए सर्वाधिक उपजाऊ जमीन मानी जाती है। विकास के नाम पर उसकी उपजाऊ क्षमता को व्यर्थ करना कहाँ कि बुद्धिमत्ता है? आजादी के समय 75 फीसदी उत्पादकों को जी डी पी का लगभग 61 फीसदी दिया जाता था आज 64 फीसदी उत्पादकों को 17 फीसदी मिलता है। आप ही बताइये क्या यह किसानों के प्रति अन्याय नहीं है? जो लोग हमारे लिए अन्न का उत्पादन करते हैं उनके हक की लड़ाई पर राजनेता वोट की राजनीति कर रहे हैं और अपने लाभ की रोटियाँ सेंक रहे हैं। वास्तव में किसानों का हित इनमें से कोई नहीं चाहता। क्या नोट बनाने की मशीनें (व्यापारी वर्ग) रोटियों का उत्पादन कर सकती हैं? भूमि अधिग्रहण कानून जोकि 116 साल पहले (1894) में बनाया गया था वर्तमान परिस्थितियों में प्रासंगिक नहीं है। परन्तु फिर भी वर्षाें से इस कानून से गरीब किसानों को प्रताड़ित किया जा रहा है। भारत में 80 प्रतिशत किसान ऐसे हैं जो 4 हेक्टेयर से भी कम भूमि के मालिक हैं और मुफलिसी में जीवन यापन कर रहे हैं। 1975 से अब तक 8 बार कृषि आयोग भूमि अधिग्रहण कानून की नवीन संस्तुतियाँ प्रस्तुत कर चुका है जिसमें किसानों के पुनर्वास सम्बन्धी सुझाव दिये गये। दुर्भाग्य से अभी तक इस प्रस्ताव को पारित नहीं किया गया। वर्तमान में भूमि अधिग्रहण कानून-2007 प्रस्तावित है। आशा करते हैं कि इसमें पूंजीपति हित की अपेक्षा किसानहित को प्राथमिकता दी जाये। जब किसी किसान की भूमि अधिग्रहित की जाती है तो मुआवजा कब्जे के तारीख से तय होता है। सरकारी महरबानी यह है कि सरकार कभी किसान को कब्जे की स्पष्ट तारीख से अवगत नहीं कराती और जब मुआवजा देना होता है तो पुरानी तारीखों से कब्जा प्रदर्शित कर किसान को ठगती है। शर्मनाक है कि भांखड़ा नांगल बाँध के लिए अधिग्रहित भूमि के किसान मालिकों को आज तक मुआवजा प्राप्त नहीं हुआ है। भूमि अधिग्रहण मसलों में किसान मुख्यतः दलाल की भूमिका निभाती है। यह किसानों से औने-पौने भाव जमीन खरीद बड़े मुनाफे से बिल्डरों को बेच देती है। किसानों में रोष इसी बात का है कि जिस जमीन के लिए उन्हें 1100रू प्रति मीटर दिये गये हैं वही जमीन सरकार ने बिल्डरों को 1 लाख 30 हजार रूपयों में बेची है। उसमें भी मुआवजे की राशि किसानों को 10 प्रतिशत कमीशन देने के बाद प्राप्त होती है। शहरीकरण और विकास के नाम पर किसानों को बेघर किया जा रहा है परन्तु क्या कृषि का विकास उन्नति की सीढ़ी नही है? क्या तेल, पेट्रोल के पश्चात् कृषि प्रधान देश अब खाद्यानों का भी आयात करेगा? स्थिति तो कुछ ऐसी ही है।

Monday, May 16, 2011

‘माता-पिता बनाम पुरूष-स्त्री’


‘माता-पिता बनाम पुरूष-स्त्री’

मिसेज़ वर्मा चाय बनाने के लिए रसोई घर में गई। तभी उनका बेटा एडमिशन फॉर्म लेकर मेरे पास आया और बोला- ‘दीदी! इस फॉर्म को भरने में मेरी मदद कीजिए प्लीज्।
रोहन मिसेज़ वर्मा का 13 साल का बेटा है और इस वर्ष 9वीं कक्षा में आया है। मिसेज वर्मा उसका एडमिशन दूसरे स्कूल में कराना चाहती हैं। इस नये स्कूल के बच्चे बड़ी-बड़ी गाडियों में आते हैं और जब उनका ड्राइवर गाडी से उतरते समय भागकर उनके लिए गाड़ी की खिड़की खोलता तो मिसेज वर्मा गहरी सांस लेकर उसे कुछ क्षण रोकती और फख़ महसूस करती। वह यह ठान चुकी थी कि उनका बेटा भी इन्हीं अमीरों के साथ पढ़ेगा। आखिर वह भी एक अच्छा सामाजिक स्तर रखती हैं। उनके पिताजी की शहर के बाहर एक छोटी सी गत्ता फैक्ट्री थी। जो अब बंद हो चुकी है। काम अच्छा चल रहा था। पर कुछ दगाबाजों की मारफत फैक्ट्री को भारी नुकसान हुआ और फैक्ट्री बंद हो गयी।
बहराल वर्तमान स्थिति यह है कि मिसेज वर्मा का परिवार मध्यम वर्गीय है जो रईस बनने की ओर प्रयासरत् है। इसी प्रेरणा ने मिसेज वर्मा के विचारों को कुछ इस प्रकार विकसित किया वे सोचने लगी कि बच्चों का दाखिला बड़े लोगों के स्कूल में कराने से, छोटे-छोटे कपड़े पहनने से, आय से अधिक खर्चा करने से, पार्टी-क्लब में जाने से व्यक्ति रईस हो जाता है।
कुछ दिन पूर्व अख़बार में ‘नोवा रिच’ विषय पर एक लेख पढ़ा था। ये वे अमीर होते हैं जो अमीरी की दहलीज पर खडे़ अपना सन्तुलन स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं। एक पल अमीरी दूसरे पल गरीबी के भंवर में फंसे हैं। ये कुछ तो अमीर अपनी हैसियत से होते हैं परन्तु बहुत कुछ अमीर अपने शब्दों (डीगों) से होते हैं। इनकी आकांक्षाओं का सैलाब इन्हें मचलती लहरों में ऊपर-नीचे करता रहता है। शायद ये भावी अमीरों की पहली पीढ़ी है।
ख़ैर! रोहन का एडमिशन फार्म लेकर मैंने पढ़ना शुरू किया। नाम-पता, कक्षा-वर्ग आदि शुरूआती सामान्य जानकारियों को भरवाने के पश्चात् मेरी नज़र एक ऐसे विचित्र बिन्दु पर पड़ी जिसे पढ़कर मैं हँसते-हँसते लोट-पोट हो गई। मेरी हँसी का रूप इतना भयंकर हो गया था कि रोहन कुछ सहम गया और मिसेज वर्मा घबराकर भागी-भागी मेरे पास आई।
वे मेरी हँसी रूकने की प्रतीक्षा नहीं कर सकी और चिल्लाते हुए बोली, ‘‘क्या हुआ मिस तोमर आपको इतनी हँसी क्यों आ रही हैं?’’ (मिस तोमर- सरनेम के साथ मिस या मिसेज लगाकर शब्दों को लटके-झटके के साथ बोलना नोवा रिच का अंदाज है और स्वयं के लिए भी वे ऐसे ही संबोधन पसंद करते हैं।)
परन्तु मैं स्वयं को नियंत्रित नहीं कर पा रही थी और लगातार हँसती जा रही थी। इस भयावह हँसी से वे स्वयं को अपमानित महसूस कर रही थी। शायद इसीलिए इस बार उनके शब्दों में आक्रोश आ गया था। ‘मिस तोमर’ मैं आपकी हँसी का कारण जानना चाहती हूँ। उनके तिलमिलाते चेहरे को देखकर मैंने अपनी भावनाओं को समेटा और एडमिशन फॉर्म उनकी और बढ़ा दिया।
फॉर्म हाथ में लेकर वह बोली- हाँ, एडमिशन फॉर्म है यह। इसमें हँसने वाली क्या बात है?
‘‘बिलकुल-बिलकुल एडमिशन फॉर्म ही है परन्तु बहुत ही है। परन्तु क्या आपने इसे पढ़ा है?’’, मैंने पुनः हल्की सी हँसी के साथ पूछा।
इस पर उन्होंने चिढ़ि नज़रों से मुझे देखते हुए कहा- नहीं, अभी नहीं। पर आप अब पहेलियाँ बुझाना बंद कीजिए और ये बताइये कि आप इतनी बेहूदी हँसी क्यों हँस रही हैं?
उनके ‘बेहूदे’ शब्द का प्रयोग मुझे अवश्य ही चुभा परन्तु वह सही भी थी। मेरी हँसी ने सभ्यता की सीमा तो लाँघी ही थी। कोई व्यक्ति आपके घर में बैठकर उपहासनीय हँसी हँसे और आपको सम्मिलित न करे तो निश्चित रूप से शालीनता के विरूद्ध है। अतः मैं अपनी सभ्यता व शालीनता का परिचय देते हुए उनसे क्षमा माँगी और स्पष्ट करते हुए कहा कि आप इस फॉर्म का पाँचवाँ व छँटा बिन्दु देखिए। बहुत ही विचित्र प्रश्न है? पाँचवें बिन्दु में माँ का नाम व लिंग तथा छटंे बिन्दु में पिता का नाम व लिंग पूछा है।
यह देखकर उनके चेहरे पर एक भ्रमित सी मुस्कुराहट आ गई। उन्हंे इन बिन्दुओं पर हँसी तो आ रही थी परन्तु वे यह नहीं समझ पा रही थी कि इस प्रकार माता-पिता का लिंग पूछने का क्या तात्पर्य है? इसलिए उन्होंने बात को घुमाते हुए कहा- ओह! इतना बड़ा स्कूल और इतनी सिली मिस्टेक। इस प्रकार माता-पिता का लिंग पूछने का क्या मतलब? यह तो अन्डरस्टुड है, माँ फीमेल और पिता मेल होंगे। मैं प्रिंसीपल से इसकी शिकायत जरूर करूँगी। और.............................
रूकिये मिसेज वर्मा इस एडमिशन फॉर्म में कोई गलती नहीं है। मैंने उनकी बात बीच में ही काटते हुए कहा।
जी हाँ। यह बिलकुल सही प्रश्न है और आधुनिक परिवेश में प्रासंगिक भी है। आपने समलैंगिगकता के विषय में तो सुना ही होगा। सैक्शन 377 के अन्तर्गत इसे कानून वैध माना गया है। अब चूंकि यह वैध है तो बच्चों के एडमिशन फॉर्म में माता-पिता के लिंग के बिन्दु होना तो जायज है ही। यह बताना तो आवश्यक हो ही जाता है ना माता पुरूष है या स्त्री? पिता पुरूष है या स्त्री?
कैसी विडम्बना है कि पहले जिसे बीमारी माना जाता था आज वह कानून वैध सिद्ध हो गया है। इन्सान और कितना प्रकृति विरोधी होगा? प्रकृति के नियमों को ताक पर रखकर समाज को यह किस दिशा में ले जाया जा रहा है? जब किसी प्रस्ताव को कानूनी जामा पहना दिया जाता है तो समाज में उसके प्रसार की गति तीव्र हो जाती है। क्या सरकार ने इस प्रस्ताव के परिणामों को ध्यान में रखा था? अभी तक पुरूष द्वारा स्त्री शोषण के केस दर्ज किये जाते थे। लेकिन इस प्रकार तो पुरूष द्वारा पुरूष और स्त्री द्वारा स्त्री शोषण के केसों की संख्या में वृद्धि हो जायेगी। और कानूनी जटिलताएँ भी बढ़ जायेंगी। अब तक जहाँ एक लड़का-लड़की साथ दिखाई देते तो सामाजिक सोच की दिशा मात्र प्रेमी-प्रेमिका वाली होती थी वहीं अब तो दो पुरूष व दो महिलाओं का साथ चलना भी दुश्वार हो जायेगा। और बाल-मन तो इससे कितना भ्रमित होगा यह तो किसी ने सोचा ही नहीं।
मेरी सोच के बादलों के बीच बिजली की कड़क जैसी आवाज ने मुझे वापस विचारशून्यता की सूखी धरती पर लाकर खडा कर दिया। मिसेज वर्मा बोली- ओह! ऐसा है। खै़र हमें इससे क्या मतलब? आप ये एडमिशन फॉर्म भरने में रोहन की मदद कर दीजिए प्लीज। यह कहकर वे रसोई में चाय लाने चली गई। और मैं ’हमें इससे क्या मतलब’ संवाद की गूँज के बीच रोहन का फॉर्म भरवाने लगी।

लादेन की मौत पर रुदन क्यांे?


लादेन की मौत पर रुदन क्यांे?

लादेन की मौत पर विश्व भर से मिली-जुली प्रतिक्रियाएँ प्राप्त हो रही हैं। कहीं लोग आतंक के इस बादशाह की मौत पर उल्लासित है तो कहीं इस मौत पर शोक व्यक्त किया जा रहा है। प्रथम सर्वविदित पक्ष तो यह है कि लादेन का अंत सम्पूर्ण आतंकवाद के अंत का पर्याय नहीं है। परन्तु यह भी सत्य है कि यह आतंकवाद को दी गई एक खुली चुनौती अवश्य है। सम्पूर्ण विश्व आतंकवाद से प्रताड़ित है और इससे मुक्ति भी पाना चाहता है तो ऐसे में आतंकवाद के पर्यायवाची अर्थात लादेन की मौत का शोक मनाने वाले ये कौन लोग हैं? यह अमेरिका का विरोध है अथवा आतंकवाद का समर्थन? लादेन को मारने के संदर्भ में अमेरिका की जो कुछ भी मंशा रही हो परन्तु यह भी सर्वमान्य तथ्य है कि आतंकवाद विश्व शान्ति व समृद्धि की राह में रोड़ा है और चैन व अमन की जिंदगी हेतु इसका अंत अति आवश्यक है। वस्तुतः लादेन की मौत का राजनीतिकरण कर पाकिस्तान स्वयं को पाक साफ सिद्ध करने के लिए प्रयासरत् है। यही कारण है कि वह इस खूखांर आतंकी की मौत को भावनात्मक पक्ष से जोड़कर स्वयं के बचाव का मार्ग तलाश रहा है। आतंकवाद मात्र अमेरिका का शत्रु नहीं है। यह उस प्रत्येक व्यक्ति की वेदना है जो सुख व शान्ति से जीवन यापन करना चाहता हैं। अतः सम्पूर्ण विश्व को निष्पक्ष भाव से एकजुट हो अमेरिका की बहादुरी का स्वागत करना चाहिए।

घटती दूरियाँ बढ़ते फ़ासले


घटती दूरियाँ बढ़ते फ़ासले

पिछले आधे घण्टे से राहुल की मम्मी उसे खाने के लिए बुलाती-बुलाती उकता गई, पर राहुल है कि उसका ‘मम्मी एक मिनट-दो मिनट’ का राग ही समाप्त नहीं हो रहा है। दरअसल राहुल पिछले चार घण्टों से अपने इन्टरनेट दोस्तों के साथ चैट करने में व्यस्त है। वह इन दोस्तों के साथ इतना मशरूफ है कि घर में कौन आया-कौन गया, इसकी उसे कोई ख़बर नहीं। दसवीं कक्षा में अच्छे अंकों से प्राप्त सफलता के लिए बधाई देने दूसरे शहर से आये उसके प्रिय अंकल के लिए भी बामुश्किल वह दस मिनट ही निकाल पाया।
ये है चैटिंग का चाव। अनजाने लोगों से चटपटी बातों के तड़के ने घरों में होने वाले गम्भीर संवादों की अर्थी निकाल दी है। एक परिवार के भिन्न-भिन्न सदस्यों द्वारा इन्टरनेट पर निर्मित अनजाने परिवारों ने एकल परिवार को भी एकाकी कर दिया है। इन्टरनेट चैट करने वाले चैटिंग करते हुए एक-दूसरे की समस्या का निवारण तो बहुत गम्भीरता से करते हैं परन्तु उनके स्वयं के परिजनों की आह का उन्हें कोई ज्ञान नहीं होता है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स ने रास्तों की दूरियाँ तो निश्चित रूप से सिमेट दी हैं परन्तु दिलों के फ़ासले बहुत बढ़ा दिये हैं। सात समंदर पार बैठे उन दोस्तों का ‘सलाम’ बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है, जिन्हें न तो कभी देखा है और शायद न ही कभी देखंेगे परन्तु अपने से बड़ों को की जाने वाली ‘नमस्ते’ की परम्परा कहीं दम तोड़ रही है। इन्टरनेट के दोस्तों का एक-एक शब्द इतना मूल्यवान हो गया है कि उनके किसी भी प्रश्न का उत्तर दिये बिना अगला श्वास शरीर त्यागने के लिए राजी नहीं है। परन्तु वहीं दूसरी ओर चैटिंग के दौरान माँ द्वारा सिर पर फेरे जाने वाला हाथ और पिता के चिन्तनीय घरेलू मुद्दे व्यर्थ प्रतीत होते हैं तथा मनोरंजन के क्रम को बाधित करते हैं।
पारिवारिक बन्धन संवादों से मजबूत व घनिष्ठ होते हैं। इसी से संवेदनाओं का संचार होता है, अपनत्व का अहसास होता है। परन्तु चैटिंग संस्कृति ने इन सभी भावनाओं की हत्या कर एक नये समाज का निर्माण किया है- क्षणिक रिश्तों का सुविधाजनक समाज। जब तक किसी से चैट करने में रसानुभूति हो तब तक की जाये और जब मिचवास आने लगे तो ‘तू नहीं कोई और सही’। कोई बन्धन नहीं मात्र स्वच्छंदता। स्वतंत्रता से स्वच्छंदता की मानसिकता ने ‘निभाव’ के अस्तित्व को खतरे में डाल दिया है। पहले प्रत्येक रिश्ते को पारिवारिक-सामाजिक समायोजन के द्वारा निभाया जाता था। लोक-लाज, सामाजिक मान्यताओं को सम्मान व प्राथमिकता दी जाती थी परन्तु आज समाज व्यक्तिवादी हो गया है। आत्महित के सुरूर ने लोकहित की परम्परा का उपहास करना प्रारम्भ कर दिया है। क्या ‘आत्मवाद’ किसी समाज की बुनियाद हो सकता है?
वर्तमान में एक गम्भीर व्याधि ने इन्टरनेट प्रयोगकर्त्ताओं को जकड़ा हुआ है। वह है-चैटिंग की आदत जो अब आदत से सनक में परिवर्तित होती जा रही है। यदि कोई व्यक्ति चैटिंग की लत का शिकार हो जाये तो भीड़ में भी अकेलेपन के थपेड़े उसका शोषण करते रहते हैं। उसके मुख की लालिमा समाप्त हो जाती है और विचारों के भंवर में उलझा वह व्यक्ति बाह्य रूप से मानसिक रोगी प्रतीत होने लगता है। ऐसे व्यक्ति अक्सर स्वयं मंें ही डूबे दिखाई पड़ते हैं। उनके चेहरे पर पड़ी तनाव की झुर्रियाँ उनके विचलित मन की कहानी कहती हैं। वास्तविक दुनियाँ इनसे बेगानी होती है।
निःसन्देह इन्टरनेट चैटिंग ने सम्पूर्ण विश्व को एक की-बोर्ड में समाहित कर दिया है परन्तु दूर के रिश्ते निभाते-निभाते अपने कब दूर हो गये इसका अहसास किया जाना भी आवश्यक है। परिवार को जीवित रखने के लिए परिवार को समय का उपहार दिया जाना बहुत जरूरी है। अन्यथा वैश्विक परिवार के संसार में व्यक्तिगत परिवार विलुप्त हो जायेंगें।

माँ


माँ

‘माँ’ छोटा सा शब्द परन्तु बिलकुल अनमोल। इस छोटे से शब्द में कितने भाव, कितनी आत्मीयता, कितनी ममता निहित है। दुनिया में किसी भी रिश्ते से बड़ा व गहरा रिश्ता होता है माँ का रिश्ता। इस रिश्ते का सौन्दर्य इसकी मौन भाषा में विद्यमान है। माँ को अपने बच्चे के भाव, उसके दुःख-दर्द, प्रेम, स्नेह, क्रोध, प्रसन्नता का अहसास करने के लिए किसी शब्द की आवश्यकता नहीं होती। वह बच्चे के स्पर्श, उसकी गंध, उसकी कुलमुलाहट और उसके भावों से उसकी सभी भावनाओं को समझ लेती है। सच कहें तो एक सुन्दर अहसास है माँ। ईश्वर से बढ़कर अप्रतिम रचना, जो अतुलनीय है, पूजनीय है, अविस्मरणीय है। जिसके बिना बच्चे के संस्कार अधुरे हैं, जिसके बिना उसका विकास दुर्गम है। उसकी गोद के सुकून के सम्मुख स्वर्ग भी तुच्छ है। उसका प्यार भरा स्पर्श सुरक्षा की भावना का संचार करता है। वह प्रेरणा देती है, समर्थन करती है और मार्गदर्शन करती है। वह एकल काया सभी कुछ व्यवस्थित रखती है। प्रत्येक जिम्मेदारी को अपने जीवन का अभिन्न अंग मानती है। और वह भी बिना किसी स्वार्थ के, बिना किसी संकोच अथवा प्रतिफल की चाह के। वह कभी रूकती नहीं है। निरन्तर कार्यरत रहती है। अथाह सहनशक्ति की स्वामिनी वह सदा संतुष्ट रहती है। कभी शिकायत नहीं करती। वह मात्र अपने परिवार के लिए नहीं जीती वरन् उसे समाज की भी चिन्ता है। इसलिए सभी सामाजिक दायित्वों का भी निर्वाह करती है। कितनी ऊर्जावान रचना है यह। चाहे थककर चूर हो परन्तु बच्चे की एक आह पर अनापक्षित ऊर्जा से सराबोर हो बच्चे के लिए तड़प उठती है। एक अद्भुत कृति जिसके समतुल्य संसार में अन्य कुछ भी नहीं है। आज आठ मई, मदरस डे के अवसर पर सभी माँओं को नमन। धन्यवाद शब्द आपकी तपस्या के सम्मुख अर्थहीन व महत्वहीन है। बस ईश्वर से आपके लिए दुआ करते हैं और आपको कोटि-कोटि नमन करते हैं।

वाह री पुलिस


वाह री पुलिस

ये कैसी फिज़ा मेरे शहर ही हो रही है,
अपना साया भी अब ख़ौफज़दा करता है।
वैसे तो ये सिलसिला सदियों पुराना है परन्तु कुछ महीनों से बढ़ती आवृति ने शहरवासियों में असुरक्षा के भाव को सींचा है। यह बढ़ती आवृति है उन अपराधों की जो छोटी-मोटी चोरियों से लेकर जघन्य हत्याकांड तक के रूप में प्रतिदिन समाचार-पत्र व टी. वी. चैनलों में घुसपैठ किये हुए है। बात शीर्ष नेता अमरपाल की हत्या की हो, सूर्य पैलेस में लूट की हो, सड़कों पर छिनते पर्सों की हो, लड़कियांे से होती बदसलूकी की हो या कॉलेज हॉस्टलों में होती मारपिटाई की हो, ये सभी घटनाएँ पुलिस प्रशासन की ढ़ीली पड़ती पकड़ व निरर्थक होते वजूद को प्रदर्शित करती है। पुलिस पहरेदार है समाज की, रक्षक है जन-जन की परन्तु यदि ये रक्षक अपने दायित्वों से विमुख होने लगे तो निःसन्देह भक्षकों का तांडव प्रारम्भ हो ही जाना है। पुलिस भर्ती के समय रट्टु तोते मियाँ की भांति शपथ ग्रहण तो कर लेते हैं परन्तु उन शब्दों की भाव, अर्थ व दायित्व बोध से अनजान हैं। ऐसा लगता है कि पुलिस प्रशासन रोटी किसी और की खाता है और सेवा किसी और को प्रदान कर रहा है। किसी शहरवासी को सुरक्षा का अहसास नहीं है, हाँ लकिन चोर-डाकू-लुटेरे बखूबी फल-फूल रहे हैं अर्थात बिंदास चाँदी हो रही है इनकी। उम्दा सुरक्षा घेरे में बहतरीन माल-पानी। शाबास!

‘‘लूट का नया स्वरूप’’

‘‘लूट का नया स्वरूप’’

मुरारीपुरम स्थित फ्लोरा डेल्स स्कूल में ग्रेजुएशन पार्टी का आयोजन किया गया। इस पार्टी में यूकेजी के बच्चों ने ब्लैक गाउन व कैप पहन कर उपाधि प्राप्त की। निःसंदेह बाह्य रूप से देखने पर यह सब अत्यन्त उत्साही व सुखदायी प्रतीत होता है। परन्तु इसका एक दूसरा पहलू यह भी है कि विश्वविद्यालयी स्तर पर दी जाने वाली उपाधि हेतु पहने जाने वाले गाउन व कैप की गरीमा का किस प्रकार उपहास किया जा रहा है? यह गाउन व कैप डिग्री धारकों के सम्मान का प्रतीक है, इनको छोटे बच्चों को पहनाकर उच्च डिग्री धारियों के समतुल्य दिखाना कितना औचित्यपूर्ण है? इस गाउन व कैप को पहनने का स्वपन लिए बच्चे पूर्ण क्षमता से मेहनत करते हुए शिक्षा ग्रहण करते हैं। यदि यह गाउन उनकी शिक्षा के अग्रिम स्तर पर ही उन्हें पहना दिया जायेगा तो उनके लिए ये दो सम्मानीय वस्त्र महत्वहीन हो जायेंगे। इनके प्रति आकर्षण ही समाप्त हो जायेगा। साथ ही एक विचारणीय पहलू इन दोनो वस्त्रों के माध्यम से आरम्भ किये जा रहे नये व्यापार का भी है। स्कूल गाउन व कैप के लिए अभिभावकों को बाध्य कर किराया वसूलते हैं। शनैः-शनैः यह परम्परा प्रत्येक स्कूल में आरम्भ हो जायेगी और स्कूल मालिकों को कमाई का एक नया क्षेत्र मिल जायेगा। आरम्भिक स्तर पर ही इस परम्परा को रोकने की आवश्यकता है। अभिभावक विचार करें कि स्कूलों द्वारा बढ़ाई गयी फीस के मसलों के साथ-साथ इस प्रकार की जा रही अवैध लुटाई भी उन्हें ही आर्थिक व मानसिक हानि पहुँचा रही है।

युवा अपनी जिम्मेदारी समझें


युवा अपनी जिम्मेदारी समझें

बरेली में भर्ती के दौरान चला मौत का तांडव निःसन्देह प्रशासनिक बदइंतजामी को प्रमाणित करता है। ऐसी दुर्घटनाओं की पुनरावर्ती पुलिस प्रशासन के आम जनता के प्रति गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार को भी सिद्ध करती है। बेरोजगारी की मार से तड़पते युवा का दर्द भर्ती के लिए उमड़ा हुजूम भली-भाँति प्रदर्शित कर रहा है। लाचार व आशातीत शिक्षित युवा नौकरी की चाह में जान पर खेल रहा है। कितनी दयनीय स्थिति में भारत का भविष्य अपने सपने तलाश रहा है!
इस घटना के लिए जितना पुलिस प्रशासन जिम्मेदार है उतना ही धैयेहीन, उदंड़ और परजीवी युवा भी। कहीं भी किसी भी प्रकार के आयोजन में प्रत्येक नागरिक अतिथि स्वरूप सम्मिलित होना चाहता है। यहाँ तक कि अपने नागरिक होने के उत्तरदायित्वों को भी नहीं निभाता। संयमित दिनचर्या की तिलांजलि हम बहुत पहले ही दे चुके हैं और जब इसके परिणाम इस प्रकार की भीष्ण घटनाओं के रूप में आने लगे हैं तो पूर्ववत् जिम्मेदारियों का दोषारोपण प्रारम्भ हो जाता है। ट्रेन की छत पर यात्रा करना कानूनी व सुरक्षा दोनो दृष्टि से वर्जित व घातक है। असंयमी होने के कारण उत्पन्न उपद्रव की बात तो बाद में करें पहले तो युवाओं से यह पूछा जाये कि वापसी के समय भी बसों की छत पर खड़ा होने वालों के साथ यदि पुनः कोई दुर्घटना होती है तो उसके लिए भी क्या पुलिस प्रशासन जिम्मेदार होगा? क्या युवाओं की अपने प्रति कोई समझ या सतर्कता नहीं है? अतिआत्मविश्वास व युवा होने का घमण्ड इनके साथ हुए हादसों के लिए इन्हें ही दोषी ठहराता है। यदि देश का प्रत्येक नागरिक अपने नागरिक होने के धर्म का निर्वाह करना सीख जाये तो किसी भी प्रकार की अप्रिय घटना से बचा जा सकता है।

उचित सुझाव

उचित सुझाव

मुख्य चुनाव आयुक्त एस. वाई. कुरैशी ने राजनीति में अपराध के आरोपियों के चुनाव लड़ने पर पूरी तरह से रोक लगाने का सुझाव प्रस्तुत किया। उनका यह सुझाव वास्तव में सरहानीय है। जनता द्वारा वोट करते समय सर्वाधिक दुविधा एक योग्य उम्मीदवार के चयन में होती है। अपराधिक छवि वाले उम्मीदवार अपनी दबंगई का लाभ उठाते हुए चुनावी परिणाम का रूख मोड़ देते हैं। यदि इन उम्मीदवारों को राजनीति की बिसात का मोहरा नहीं बनने दिये जाये तो निःसन्देह आम जनता का राजनीति में विश्वास सबल होगा। उनकी लोकतंत्र में रूचि व आस्था बढ़ेगी। साथ ही अच्छे व योग्य नागरिकों को इस क्षेत्र में जन-कल्याण के सुअवसर प्राप्त होंगे। अब देखना ये है कि इस छटनी रूपी तलवार की धार को हमारे राजनेता कितना तीक्ष्ण रहने देते हैं? क्या इस प्रकार की प्रक्रिया इन्हंे स्वीकार्य होगी? और इस प्रक्रिया के पश्चात् कितने सज्जन व योग्य नागरिकों को देश सेवा के लिए विस्तार मिलेगा? भ्रष्टाचार की त्रास्दी से त्रस्त जनता को कुरैशी जी ने उम्मीद की किरण तो दिखा दी है परन्तु यह कब तक अपने अस्तित्व को बचा पायेगी यह कहना अत्यन्त कठिन है। इससे पूर्व भी कई बार उम्मीदवारों की योग्यता पर प्रश्नचिन्ह आरोपित होते रहे हैं परन्तु ढ़ाक के वही तीन पात। परिणाम शून्य। भला कोई अपनी सोने का अण्डा देने वाली मुर्गी को क्यों काटेगा?

तलाक-तलाक-तलाक

तलाक-तलाक-तलाक

‘कभी न सुधरने वाले रिश्तों’ को आधार बनाकर हिन्दु विवाह कानून में संशोधन के प्रस्ताव को मंजूरी मिल गई। वास्तव में देखा जाये तो यह मंजूरी विघटित होते रिश्तों को जोड़ने के प्रयास के बजाय ऐसे रिश्तों में आई दरार को खाई में परिवर्तित करने में अधिक सहायक है। आशंका यह है कि कहीं यह मंजूरी कोर्ट में लम्बित पड़े केसों को तुरत-फुरत निपटाने का माध्यम तो नहीं।
तलाक एक दुखदायी घटना है। यदि इसकी प्रक्रिया का सरलीकरण होगा तो इनकी संख्या में वृद्धि होगी। और समाज के ऐसे विकृत रूप का निर्माण होगा जहाँ मूल्यों, संस्कारों, सहनशीलता आदि सामाजिक गुणों का अभाव होगा। पाश्चात्य देशों की सरल प्रक्रिया क दुष्परिणाम हम देख ही रहे हैं। ‘संयुक्त परिवार’ विघटित हो ‘एकल परिवार’ मेें परिवर्तित हो गये। अब एकल परिवार से इस ‘एक व्यक्ति परिवार’ के लिए तो नये शब्द की रचना करनी होगी।
बहुत से केसों में देखा गया है कि व्यक्ति क्रोधवश तलाक के निर्णय पर पहुँच जाता है परन्तु तलाक की लम्बी प्रक्रिया के बीच क्रोध शान्त होने पर पुनः समझौते कर लेता है और सुखी जीवन भी व्यतीत करता है। कई बार तलाक की जटिल प्रक्रिया के कारण लोग रिश्ते निभाते-निभाते ताउम्र गुजार देते हैं। परन्तु यह मंजुरी पारिवारिक समस्या को समाधान नहीं बल्कि वयैक्तिक स्वच्छंदता को प्रोत्साहित करती है। ‘विवाह’ महत्वहीन हो मात्र एक प्रमाण-पत्र की भाँति प्रयोग होने लगेगा और ये पंक्तियाँ स्वच्छंद जिंदगी का फलसफा बन जायेंगी कि-
‘‘तू है हरजाई, तो अपना भी यह तौर नहीं
तू नहीं और सही, और नहीं और सही।’’

‘‘टिकैत काँड’’

‘‘टिकैत काँड’’

‘‘सिसौली गाँव काँड’’ या कहें ‘‘टिकैत काँड’’, यह घटनाक्रम आत्मसंयम की कमी का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण बनकर उभरा है। टिकैत के एक ब्यान ने न जाने कितनी जाने दाँव पर लगा दी। यह सही है कि इस घटना से लोगों का टिकैत के प्रति भरपूर प्यार देखने को मिला है परन्तु क्या टिकैत लोगों के भरोसे को कायम रख पाये?
टिकैत अपने राजनीति करियर में अपनी ब्यानबाजी के लिए शुरू से ही सुर्खियों में रहे हैं। शायद उनकी इसी हिम्मत के कारण लोग उन्हें अपना नेता स्वीकार करते हैं। परन्तु क्या एक नेता की पहचान मात्र उग्र ब्यानबाजी ही है या इस प्रकार की ब्यानबाजी मात्र विश्वासमत प्राप्त करने का साधन है?
टिकैत की मुख्यमंत्री के खिलाफ की गई टिप्पणी ने भले ही समाज के एक तबके में उल्लास भर दिया है। परन्तु क्या इस प्रकार की टिप्पणी ‘भारतीय संविधान’ को गाली देने के समान नहीं है? जो व्यक्ति अपनी योग्यता के बल पर उस पद को सुशोभित कर रहा है जहाँ वह एक पूरे राज्य की जनता का प्रतिनिधि है, जनता जनार्दन के द्वारा चयनित है, उस व्यक्ति के खिलाफ अशोभनीय शब्दों का प्रयोग उस राज्य की जनता की भावनाओं के आघात पहुँचाने जैसा है। यह सही है कि हमारे संविधान ने हमें ‘‘सार्वजनिक स्थानों पर बैठक कर अपने विचार प्रस्तुत करने’’ का अधिकार दिया है परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि हम कहीं भी खड़े होकर ‘‘भारत मुुर्दाबाद’’ के नारे ही लगाने शुरू कर दें।
नेता जनता का पथ प्रदर्शन होता है। जैसे नेता कहता है वैसा ही भोली जनता मान लेती है। अतः यह नेता की जिम्मेदारी होती है कि वह अपनी जनता का सही मार्ग दर्शन करें न कि समाज में बटँवारा करने जैसे उग्र शब्दों का प्रयोग कर जनता का भडकाये व खुद को बचाने के लिए भी भोली जनता को ही हथियार बनाकर राजनीति का गंदा खेल खेले।
भारत के प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह अपने देश के संविधान का, अपने नेताओं का व अपने देश की जनता का सम्मान करें और समाज में एकरूपता लाने का प्रयास करें।

सुनिये नेता जी

सुनिये नेता जी

मुम्बई पुलिस ने बाल ठाकरे के पोते के बार पर छापा मार नौ युवतियों को मुक्त कराया। जनहित का राग अलापने वाले, प्रदेश के रक्षक बनने वाले बाल ठाकरे के लाडले ये किन संस्कारों का अनुसरण कर रहे हैं। समाज की ठेकेदारी करने वाले राजनेता पारिवारिक जिम्मेदारी निभाने में कितने असफल हैं? इनके चश्मोचिरागों के कर्म ओहदे के गुरूर व संरक्षण के कारण पथ भ्रष्ट रहते हैं। जनता नेता जी की संतान परन्तु इनकी संतानों से परेशान। सत्ता का अहंकार, अधिनायकवादी प्रवृत्ति व राजनीति का अतिक्रमण त्रस्त कर रहा है आमजन को। नेता जी जनता अब इतनी भोली भी नहीं कि सही दिशा का आंकलन न कर सके। प्रदेश का मार्गदर्शन करने से पूर्व घरेलू मार्गदर्शक बनिये और बेचारी जनता को अपने लालों के प्रकोप से बचाइये। उन्हें सार्थक लक्ष्य दीजिये।

गलत निर्णय

गलत निर्णय

चौ. चरण सिंह विवि. ने एक ही वर्ष में दो अलग-अलग कोर्सो की डिग्री को मान्यता देने का निर्णय लिया। यह निर्णय वर्तमान में जितना लुभावना प्रतीत हो रहा है इसके दूरगामी परिणाम उतने ही कष्टकारी होगें। एक ही वर्ष में दो अलग-अलग कोर्सों में किये गये परिश्रम का सुखद परिणाम पाने की चाह में विद्यार्थी सहर्ष इस निर्णय का स्वागत तो कर रहे हैं परन्तु इसके आगामी परिणाम के प्रति जागरूक नहीं है। यह निर्णय विवि स्तर पर है। यू. जी. सी. की नियमावली में इस प्रकार डिग्री प्राप्ति का कोई प्रावधान नहीं है। अब प्राप्त मान्यता के आधार पर जब ये विद्यार्थी नौकरी की तलाश में अपनी राह तलाशेगें तब प्रश्नों व सन्देह के चक्रव्यूह से ये घिरे हांेगे। इसी विवि में घटित उत्तरपुस्तिका मूल्यांकन घोटाले की प्राप्त चिन्हित अंकतालिका विद्यार्थियों को हर पल लज्जित करती है। पुनः विवि विद्यार्थियों के साथ यह खिलवाड़ क्यों कर रहा है? भारतीय शिक्षा तंत्र के पल-पल बदलते नियमों ने पहले ही विद्यार्थियों के भविष्य को काली कोठरी में धकेल रखा है। एन. सी. टी. ई. ने 2009 तक शिक्षा शास्त्र में एम. ए. करने वाले विद्यार्थियों को एम. एड. के समकक्ष मानने वाले अपने बनाये नियम को स्वतः ही रद्द कर दिया। एम. एड. होने की चाह में 2009 में दस हजार से अधिक विद्यार्थियों ने एम. ए. शिक्षा शास्त्र में दाखिला लिया जो अब एक व्यर्थ की डिग्री के तुल्य हो गई है। इस बेपेंदी के लोटे रूपी शिक्षा-तंत्र में विद्यार्थी कोई भी निर्णय बहुत सोच समझकर लें।

शर्मिंदा होती मानवता

शर्मिंदा होती मानवता

नैतिक पतन का भला इससे तुच्छ उदाहरण क्या हो सकता है कि एक व्यक्ति ने अपने अजन्मे बच्चे को बेचने के लिए अख़बार में विज्ञापन दिया? बच्चे जो ईश्वरीय वरदान है उन्हें भी व्यापार का माध्यम बना दिया। पहले माता-पिता स्वयं भूखे रहकर, गर्मी-सर्दी के थपेडे़ सहकर बच्चों का पालन-पोषण करते थे। वे स्वयं प्राकृतिक-कृत्रिम विपदाओं को सहते परन्तु बच्चों को किसी भी मुसीबत का लेश मात्र भी छू नहीं पाता। बहुत से समाचारों में गरीबी की मार झेल रहे परिवार आत्महत्या कर लेते हैं परन्तु इस गरीबी से उबरने के लिए बच्चे का इस प्रकार दिया गया सार्वजनिक विज्ञापन निःसन्देह मानव जाति को शर्मसार कर रहा है। जानवर भी अपने बच्चे की रक्षा के लिए जान की बाजी लगा देते हैं परन्तु इस मानव को देखिये जिसने पहले बच्चे को चोरी-छिपे बेचा और अब इतना निर्लज हो गया है कि उसका सार्वजनिक व्यापार कर रहा है। मानव जाति का स्तर इतना गिरता जा रहा है कि किराये की कोख के व्यापार आरम्भ हो गया। और कितना हम अपनी इंसानियत को शर्मिंदा करेंगें? यह घटना मानव को जानवरों की भी श्रेणी से बाहर उन दैत्यों की श्रृंखला में जोड़ती है जो अपनी भूख शांत करने के लिए अपने ही बच्चों को खा जाते हैं। भौतिक उन्नति की दौड़ में हमारा लालच इस प्रकार फल-फूल गया है कि नैतिक पतन के शीर्ष पर हम खड़े हो गये हैं। इतिहास साक्षी है कि मानव का नैतिक मूल्यों के पतन की और बढ़ता प्रत्येक कदम मानव जाति के विनाश का सूचक है।

रिश्तों में जासूसी ?

रिश्तों में जासूसी ?

पति-पत्नी के रिश्ते की मजबूत डोर का आधार यदि ‘जासूसी’ होने लगे, तो भला ऐसा रिश्ता कितने दिनों तक अस्तित्व में रह पायेगा? जिस कार्य को करने से पहले ही शंकाएं मन को घेर लें, ऐसे कार्य की असफलता की जड़ें तो पहले ही मजबूत हो जाती हैं। रिश्तों में बढ़ते अविश्वास ने एकल परिवारवाद को जन्म दिया और अब यह एकल तत्व भी अपना वजूद तलाश रहा है। जासूसी एजेंसियाँ अपनी दुकान चलाने के लिए निराधार आशंकाएं उत्पन्न कर परिवारों में शक का बीज बो रही हैं। सहनशीलता के हृास ने पति-पत्नी को घर की निष्ठुर दीवार के रूप खड़ा कर दिया है, जो साथ रहकर मकान का निर्माण तो कर रही हैं, परन्तु घर होने का अहसास प्रदान नहीं कर सकती। संयुक्त होते हुए भी तन्हाई की बू प्रतिक्षण मष्तिष्क में उथल-पुथल मचाए रहती है। माता-पिता के झगड़ों से सहमे बच्चे दीवार के कोनो में चिपके हर ऊँची आवाज पर सिसकियाँ लेते हैं। ऐसे में ये जासूसी शब्द अविश्वास की खाई को और अधिक गहराता है। आखिर कैसे कोई हाड़-माँस का बना तीसरा शरीर किसी रिश्ते की सफलता की गारंटी हो सकता है? मानवीय भूल यदि उससे हुई तो? यदि खुशहाल परिवार का निर्माण करना है तो यान्त्रिक व कृत्रिम दुनिया को अस्वीकृत कर संवेदनाओं और भावनाओं के संसार में प्रवेश करना होगा और त्याग, सहनशीलता व समर्पण के सितारों से इसे सजाना होगा।

राजनीतिक चेतना की आवश्यकता

राजनीतिक चेतना की आवश्यकता

सपा के एक सम्मानीय नेता जी ने अपनी पुत्री का विवाह सहारनपुर जिले के प्रतिष्ठित परिवार में किया और कहा, ‘‘जिसने अपनी बेटी दे दी उसने सब कुछ दे दिया’’। नेता जी के लिए पुत्री-दान सर्वस्व दान के समतुल्य हो गया। गौरतलब है कि यह हमारे वही नेता जी हैं जिन्होंने निठारी जैसे विभत्स कांड के लिए कहा था, ‘‘ये सब छोटी-मोटी घटनाएँ तो होती रहती हैं’’। जिस कांड के आरोपी को प्रत्येक अदालत फांसी की सजा मुकरर कर रही है वह कांड नेता जी के लिए छोटी-मोटी घटना था। दूसरों की बच्चियों की निमर्म हत्या नेता जी के लिए अर्थहीन है और स्वयं की पुत्री का मोह उनके शब्दों के अर्थ परिवर्तित कर रहा है। क्या दोगला चरित्र नेताओं की नियती बन गया है? ये संवेदनाओं की अर्थी पर भी वोट की राजनीति करने से भी नहीं चूकते। इनकी आम जनता से अपील है कि यदि वे चुनाव जीत जाते हैं तो उपहार स्वरूप जनता के लिए बाइपास का निर्माण करायेंगे। समझ से परे है यह बात कि आम जनता के घावों पर नमक का पैर रखने वाले ये नेता किस आशा से वोट के हाथ फैलाते हैं? शायद यह हम आमजन की ही शॉर्ट टर्म मैमरी की समस्या है जो एक नासूर के दर्द को दूसरे नासूर की स्वीकृति प्रदान कर कम करने की प्रवृति के आदि हो गये हैं। आखिर कब जागेगी जनता की राजनीतिक चेतना? और कब उठेगा इनके विरूद्ध एक ठोस व सटीक कदम?

नववर्ष के संकल्प

नववर्ष के संकल्प

नववर्ष के आगमन के विचार मात्र से ही नवीन कल्पनाएँ व आशाएँ आनन्दित करने लगती हैं। आगामी वर्ष के लिए नित्य नये संकल्प मन को उत्साहित करते हैं। हम नये वर्ष में स्वयं में यह परिवर्तन लायंेगे, इस प्रकार उन्नति की सीढ़ियाँ चढ़ेंगे, इस प्रकार की दिनचर्या अपनायेगें इत्यादि। अथवा नववर्ष का स्वागत रात्रि में धूम मचाकर करेंगे, ये पार्टी, वो उल्लास-हा हुल्ला इत्यादि। निःसन्देह खुशियाँ मनाना या स्वागत करना गलत नहीं है। परन्तु इस सम्पूर्ण विचार-श्रृंखला में एक सर्वनाम की प्रधानता है- ‘हम’। जो कुछ करना है अपने लिए, जो अच्छा हो हमारे लिए, खुशियाँ-उन्नति हमारी हो। क्यों हमारे संकल्पों का आदि-अंत ‘हम’ की परिक्रमा करता है? क्यों हमारे संकल्प ‘निजस्वार्थ’ की सीमा-रेखा के परे ‘परहित’ के द्वार पर दस्तक नहीं दे पाते? यदि हमारे संकल्पों की दिशा पर्यावरण के प्रति जागरूकता व सचेतता लाने हेतु प्रयास करना, गरीबी उन्मूलन हेतु नवीन योजनाओं का निर्माण करना, शिक्षा को सर्वयापी करने हेतु प्रण लेना, भ्रष्टाचार व अत्याचार के विरूद्ध आवाज उठाना इत्यादि हो और इन संकल्पों में से कोई एक भी, आंशिक रूप से ही सही क्रियान्वित हो तो निश्चित रूप से ‘संकल्प’ शब्द की सार्थकता आनन्दित हो उठेगी। ये संकल्प ‘हम’ शब्द से ही जुड़े है परन्तु परोक्ष रूप से। इनकी धारा प्रत्यक्ष लाभ की दिशा से विपरीत है परन्तु अन्ततः लाभान्वित ‘हम’ ही है। ‘लाभ’ सदा ‘आर्थिक’ हो यह आवश्यक नहीं है। आन्तरिक व आत्मिक प्रसन्नता वास्तविक लाभ के पर्याय है। आत्मकल्याण की भावना से परे जब मानव जनकल्याण की संवेदनाओं की नदी में डुबकी लगाने लगेगा तब ‘कठोते में गंगा’ आ जायेगी और हमारी गंगा माँ भी उस पवित्र धारा में बह रहे पापों (गंदगी) से मुक्त हो जायेगी।

ऑनर किलिंग

ऑनर किलिंग

 पंजाब के तरनतास में युगल के प्रेम विवाह के बाद लड़की वालों ने लड़के वालों के घर में घुसकर अपनी लड़की और उसके ससुराल के अन्य सदस्यों की हत्या कर दी।
 अप्रैल 2010 में झारखण्ड की रहने वाली जर्नलिस्ट निरूपमा पाठक को दूसरी जाति के लड़के से प्रेम करने की कीमत जान देकर चुकानी पडी।
 मार्च 2010 में हरियाणा के भिवानी स्थित तालू गाँव में एक ही गोत्र में प्रेम-विवाह करने पर लड़के के भाई की गोली मारकर हत्या कर दी।
ऐसी कितनी ही घटनाओं से लाल रहता है हमारा ‘आज’ का अखबार। पिछले कुछ दिनों से इस प्रकार की हिंसक घटनाओं में आश्चर्यजनक रूप से वृद्धि हुई है। यह एक विशेष परिस्थिति में किया गया अपराध है और इसका नामकरण कर नाम दिया गया है- ‘ऑनर किलिंग’। अर्थात ‘सम्मान के लिए हत्या’। माता-पिता, भाई या रिश्तेदार जाति, धर्म या गोत्र के नाम पर प्रेम करने वाले युगल की हत्या कर देते है। ऐसा करके वे गुनहगारों की किसी श्रेणी में न आकर समाज के उस तबके में सम्मानीय स्थान पाते हैं जो इस प्रकार की सोच के धरातल पर जड़ है। इसे ‘सम्मान के लिए किये गये महान बलिदान’ की संज्ञा भी दी जाती है। आश्चर्य की बात यह है कि हमारा समाज इसका (ऑनर किलिंग का) कट्टर समर्थक भी है।
आखिर यह किसका विरोध है? प्रेम का? या विजातीय प्रेम का? पहले यह स्पष्ट किया जाना अति आवश्यक है। 21 वीं सदी में उन्नति व प्रगति की गति बहुत तीव्र है और इस गति से यह विश्व भरपूर आनन्द उठाते हुए लाभान्वित भी हो रहा है। सबसे आगे निकलने की इस दौड़ में जाति-धर्म जैसे संकुचित दायरों को कब पार कर लिया गया, पता ही नहीं चला। आज सभी जाति-धर्म के लोग एक साथ मिल बाँटकर काम करते हैं, अपने सुख-दुख बाँटते हैं, सहर्ष विचार विमर्श करते हैं और इसी प्रकार दिनचर्या का निर्वाह हो जाता है। पहले की तुलना में आज जाति विषयक समस्या बहुत ही कम है। यह एक शुभ संकेत है।
परन्तु पिछले कुछ दिनों से अचानक एक तूफान पुनः समाज में विभाजन स्थापित करने का प्रयास कर रहा है। पुनः लोगों को सीमित कर रहा है उन्हीं के निजी दायरे में। ऑनर किलिंग नाम के इस तूफान ने पुनः लोगों को उनकी जातियाँ याद दिला दी और फिर समाज अपनी-अपनी जातियों के झण्डे उठाये ऊँच-नीच के विष का पान करने लगा।
ऑनर किलिंग के कारणों की निष्पक्ष चर्चा की जानी अति आवश्यक है। इसका पहला कारण है-सगोत्री विवाह जिसके विरोध में खाप पंचायत विभिन्न फरमान जारी करती है। जिनका अन्ततः परिणाम प्रेमी युगल की हत्या ही है। सगोत्री विवाह अर्थात विवाह योग्य लड़के-लड़की का गोत्र समान होना। सामाजिक मान्यताओं के अनुसार समान गोत्र होने पर उन दोनों का रिश्ता भाई-बहन का होता है। यह तथ्य काफी हद तक सही है। यदि सगोत्र विवाहों को मान्यता दे दी जायेगी तो सामाजिक मर्यादाएँ विखंडित हो जायेंगी। भाई-बहन के रिश्ते की पवित्रता संदेहग्रस्त हो जायेगी। एक ही गाँव या क्षेत्र में रहते हुए जो परिवार निर्भय होकर सामाजिक व्यवहार का आदान-प्रदान करते हैं, वे बातचीत करते हुए भी कतराने लगेंगे। विचार बदलने से रीतियाँ बदलती हैं और सगोत्र विवाह की रीति का विरोध भाई-बहन के रिश्ते को संरक्षण प्रदान करता है।
परन्तु इन बातों से परे सर्वप्रमुख बात है हत्या की। कारण चाहे कुछ भी हो, क्या हत्या उसका एकमात्र समाधान है? नहीं, बिलकुल नहीं। दुनिया के किसी भी संविधान या नीति शास्त्र में हत्या को स्वीकृति नहीं दी गई है। फिर क्यांे इसे एकमात्र हल माना जा रहा है? इस समस्या का कोई अन्य समाधान भी हो सकता है। उनका सामाजिक बहिष्कार किया जा सकता है। परन्तु हत्या! यह निश्चित रूप से महापाप है।
ऑनर किलिंग का दूसरा और निरर्थक कारण है- प्रेम विवाह। वास्तव में देखा जाये तो यह कारण किसी सीमा तक सगोत्री विवाह के ‘प्रेम विवाह’ शब्द को भी स्वयं में समाहित किये हुए है।
प्रेम विवाह अर्थात वह विवाह जिसमें बालिग युवक-युवती अपने विवेक का प्रयोग करते हुए अपनी पसंद के जीवन साथी का चयन करते हैं। आधुनिक समाज में शिक्षा का प्रसार होने के कारण प्रत्येक व्यक्ति के विवेक, सोचने-समझने की क्षमता का विकास हुआ है। आज महिलाएँ अंतरिक्ष में अपना परचम फैला रही हैं। उन्हें अपने अधिकार और कर्तव्यों का ज्ञान है। समाज भी उन्हें शिक्षित होने और अपना करियर चुनने की स्वतत्रंता प्रदान करता है। परन्तु फिर भी ‘विवाह’ एक ऐसा बिन्दु है जिस पर अभी भी सामाजिक सोच संकुचित है और ऑनर किलिंग जैसे परिणाम दे रही है।
वास्तव में यह विरोध प्रेम-विवाह का भी नहीं है। यह विरोध है स्त्री के अपने अधिकारों के प्रयोग का। स्त्री को सभी प्रकार की स्वतंत्रता है सिवाय अपनी पसंद से वर चुनने के। आज भी वह माता-पिता की पसंद के खूँटे से बँधने के लिए बाध्य है। और जैसे ही इस बाध्यता का विरोध होता है, परिणाम-ऑनर किलिंग। आखिर क्यों माता-पिता अपनी बेटी के इस निर्णय पर भरोसा नहीं कर पाते? वे उसके हर निर्णय का समर्थन अपने संस्कारों की दुहाई देते हुए करते हैं। उन्हें अपने दिये संस्कारों पर भरोसा है कि वह जो निर्णय लेगी वह सही ही होगा। परन्तु जैसे ही बात विवाह की आती है तो ‘वही ढ़ाक के तीन पात’।
आखिर कब तक इस भरोसे के अभाव में ये हत्याएँ होती रहेंगी? कब स्त्री को पूर्णतः आत्मनिर्भर माना जायेगा? कब वह अपनी स्वतंत्र उड़ान भर सकेगी? आखिर कब?

नस्लवाद और भारतीय

नस्लवाद और भारतीय

‘‘हमें नमस्कार करो मोंटी। तुम अंग्रेजी नहीं बोल सकते मूर्ख भारतीय। मुझे यह हिन्दी में ही बोलना होगा।’’
सिडनी में न्यू साउथ वेल्स के खिलाफ अभ्यास मैच के दौरान भारतीय मूल के अंग्रेज क्रिकेटर मोंटी पनेसर पर आस्ट्रेलियन दर्शकों द्वारा की गई उपर्युक्त टिप्पणी।
‘हे कमऑन, गिव मी ट्रॉफी’
आस्ट्रेलियन कप्तान रिकी पोंटिग के इन शब्दों के पश्चात् अपना उत्साह जताने के लिए डेमियन मार्टिन का बी0 सी0 सी0 आई0 अध्यक्ष के कंधे पर हाथ रखकर उन्हें मंच से हटाना।
ब्रिटेन के लोकप्रिय रीयलिटी टी0 वी0 शो ‘सेलिब्रिटी बिग ब्रदर’ में अन्य प्रतिभागियों द्वारा शिल्पा शेट्टी पर की गई नस्लवादी टिप्प्णी।
भारत के सम्मानीय व्यक्तियों व सेलिब्रिटियों की एयरपोर्ट पर की गई अनावश्यक चेकिंग।
वर्तमान में, उच्च योग्यता प्राप्त करने के पश्चात् सम्मानित व्यक्तियों द्वारा किये गये ये निम्न स्तरीय कृत्य न केवल विदेशी संस्कृति पर प्रश्नचिन्ह आरोपित करते हैं अपितु विदेशों में ‘भारतीयों की दयनीय स्थिति व उनके सम्मान’ को चर्चा का विषय बनाते हैं। सभ्य समाज के अंश कहलाने जाने वाले ये अंग असभ्यता की वो मिसाल पेश कर रहंे हैं जो इन्हंे सदैव विवादस्पद क्षेत्र में खड़े होने के लिये बाध्य करती है।
21 वीं सदी में प्रवेश करने के बाद भी, क्यों आज का इंसान जातिवाद जैसी व्याधियों से मुक्त नहीं हो पा रहा है? विश्व मेें अपनी योग्यता का लोहा मनवाने वाले भारतीयों को सम्मान की दृष्टि से क्यों नहीं देखा जाता? क्यों आज भी हमंे अपनी स्थिति मजबूत करने के लिये गिड़गिड़ाना पड़ता है?
यदि सभी पहलूओें पर गम्भीरता से विचार करें तो कारण स्पष्ट है कि यह कहीं ना कहीं हमारी ही कमजोरियों का परिणाम है।
भारतीय अपने सरल स्वभाव के कारण अपनी परम्पराओं को निभाते हुये दूसरों को स्वयं से अधिक महत्व देते हैं व दूसरों को सन्तुष्ट करते-करते अपने आत्मसम्मान को खो देते हैं। हमें अपनी सीमाओं को ज्ञान नहीं है। शान्ति की बात करतें हैं तो वह इस हद तक पहुँच जाती है कि अन्य उसे कायरता समझने लगते हैं। सच्चाई की बात करें तो मूर्खता समझने लगते हैं। परन्तु सच यह है कि ‘’अति का भला ना बोलना, अति की भली न चुप’’।
अन्याय सहने वाला भी उतना ही दोषी होता है जितना अन्याय करने वाला। क्यों हम अपने विरूद्ध हुये अन्याय का विरोध करने में असमर्थ हैं? क्या हम यह सब सहने के आदि हो गये हैं या प्रगतिशील देश में भौतिकता की होड़ में हम आत्मसम्मान के तथ्य को नकार रहे हैं या हम वास्तव में कायर हो गये हैं?
‘‘शरद पवांर ने भारतीय सभ्यता को जिंदा रखते हुए इस मुद्दे को तूल न देने के लिये कहा’’, ’’शाहरूख खान ने इस मुद्दे को तूल न देने के लिये कहा’’ जैसी पंक्तियाँ असभ्य व्यक्तियों की हिम्मत को बढ़ावा देने के लिये पर्याप्त है।
इसी प्रकार शिल्पा शेट्टी ने भी ‘‘मैं गलत थी। मैंने दुर्व्यहार को नस्लभेद समझ लिया’’ जैसे ब्यान देकर नस्लवाद को विरोध करने वाले प्रतिनिधियों व स्वयं को मजाक का पात्र बना दिया। इनके इस व्यवहार की ठेस सहने वाले किस भरोसे के साथ इस दुर्व्यवहार के खिलाफ आवाज उठायें? शिल्पा शेट्टी, शाहरूख खान व शरद पवांर का यह बदला हुआ रूप उन्हंे (शिल्पा शेट्टी, शाहरूख खान, शरद पवांर व अन्य भारतीयों को) सन्देह के घेरे में खड़ा कर रहा है कि कहीं यह सब पैसा व झूठी लोकप्रियता पाने के लिये किया गया दिखावा तो नहीं। ‘‘नाम नहीं बदनाम सही, नाम तो हुआ’’ जैसी धारणा फिल्म जगत में सामान्य बात है। पर क्या मात्र स्वार्थ सिद्धि के लिये भारतीय मर्यादा को ताक पर रखना न्यायोचित है? राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी, मदर टेरेसा, जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गाँधी, लाल बहादुर शास्त्री आदि अनेकों महान विभूतियों की भाँति क्यों वर्तमान पीढ़ी अपनी श्रेष्ठता का परिचय देने में असमर्थ है?
शायद, जीवन मूल्यों को महत्वहीन कर सफलता प्राप्ति का यह उपाय अत्यधिक सरल है।

महिला सशक्तिकरण और मीडिया

महिला सशक्तिकरण और मीडिया

महिला सशक्तिकरण, प्रत्येक वर्ष 8 मार्च के आस-पास के दिनों में ये दो शब्द हमारी श्रवणेंद्रियों में सर्वाधिक गुंजायमान् होते हैं। चहुँ ओर गोष्ठियों का आयोजन होने लगता है। द्रोपदी के चीर जैसे लम्बे भाषणों के सामने बैठे कुछ लोग उबासी के कारण बार-बार मुँह खोलते-बंद करते हैं क्योंकि इन भाषणों का सफ़र वीरांगना झाँसी की रानी, इंदिरा गाँधी से आरम्भ होकर वर्तमान दृष्टांत कल्पना चावला, इन्दिरा नूई आदि पर समाप्त हो जाता है। इन भाषणों में महिलाओं को असीम शक्ति की प्रतिमूर्ति के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। सुनकर लगता है कि सर्वाधिक सशक्त मात्र महिलाएँ ही हैं। कितने आनन्दायक व उत्साहित करने वाले क्षण होते है ये 8 मार्च के। अगर नजरों को इन दिनों के भ्रमजाल से बचाते हुए सम्पूर्ण वर्ष के चक्र की यात्रा करायें तो महिला सशक्तिकरण का शोचनीय व भ्रामक स्वरूप हमारे सम्मुख खड़ा उपहासनीय हँसी हँसते हुए हमें लज्जित कर रहा है। सम्पूर्ण वर्ष कान छलनी होते हैं अपमानित होती महिलाओं की चित्कार से। महिला सशक्तिकरण को शर्मिंदा करती हैं घरेलू हिंसा से त्रस्त महिलाएँ। फुटपाथ पर लूट, छेड़खानी, हत्या, बलात्कार की शिकार होती महिलाएँ कहती है कि हम आज भी अबला ही हैं। आखिर ये कौन सी महिलाएँ सशक्त हो रही हैं? उच्च वर्ग की मँहगी कारों में सुशोभित महिलाएँ यदि सशक्तिकरण के नारे लगायंे तो लगता है कि कोई अपमान का तमाचा मार रहा हो। कोई गरीब महिला ‘महिला सशक्तिकरण’ की पहचान बन जाये, यह देखने के लिए वर्षाें प्रतिक्षा करनी पड़ती है तब जाकर कहीं इक्का-दुक्का नाम अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्षरत् रहते हैं। क्योंकि उनके पीछे भागने के लिए न तो किसी मीडिया के पास समय है और न ही वह टी. आर. पी. बढ़ाने का कोई माध्यम है। यदि मीडिया महिला सशक्तिकरण को मिशन बनाकर एक सकारात्मक कदम बढ़ाये तो शायद समर्थन के हाथ पाकर अगला कदम उठाने का हौसला महिलाएँ पा जायें और महिला सशक्तिकरण को कुछ वजूद मिल जाये।

ईश्वर में आस्था

‘‘ईश्वर में विश्वास रखो पर ईश्वर को भी यह विश्वास दिलाओ कि जो वो आपको दे रहा है आप भी उसके योग्य हो।’’
ये पंक्तियाँ ईश्वर में आस्था के सही मायने स्पष्ट कर रही हैं। वास्तव में हम जब भी किसी मुसीबत में होते हैं तो हमारी ईश्वर में आस्था कुछ ज्यादा ही अगाढ़ हो जाती है और ‘भगवान सब ठीक करेंगें’ शब्दों से हम स्वयं को तसल्ली देने लगते हैं। परन्तु ‘ईश्वर हमारी सहायता क्यों करें’ इस प्रश्न पर कभी विचार नहीं करते। ईश्वर ने हम सभी को इस धरती पर कर्म करने के लिए भेजा है। यदि हम अपने इस कर्तव्य का पालन नहीं कर रहे हैं तो क्यों यह उम्मीद लगाते हैं कि ईश्वर हमारी सहायता करे।
‘ईश्वर उन्हीं की सहायता करते हैं जो अपनी सहायता स्वयं करते हैं।’ इस कथन का भाव भी वही है जो उपर्युक्त पंक्ति का। रास्ते रास्तों पर चलने से ही मिलते हैं। समस्याएँ कर्म करने से ही सुलझ सकती है। हाथ पर हाथ रखे ईश्वर के सम्मुख बैठकर घण्टी बजाने से, राम-नाम का अलाप जपने से कोई कार्य सम्पन्न नहीं हो सकता। प्यासा बुझाने के लिए न केवल कुएँ तक जाना आवश्यक है अपितु कुएँ से पानी निकालने की मेहनत करनी भी पड़ती है।
सारांश यह है कि ईश्वर में अपने यकीन को कम न होने दो परन्तु ईश्वर का आपमें विश्वास रहे इसके लिए कर्म करने से कदम पीछे न हटाओ। ईश्वर भक्ति को कर्महीनता का प्रतीक न बनने दो।

इसांफ माँगती शहादत

इसांफ माँगती शहादत

जिस देश में शहीदों के परिजनों को इंसाफ पाने के लिए आत्मदाह जैसे कठोर कदम उठाने पडे़ उस देश का भविष्य भला क्या होगा? शहीदों को मेडल देकर, दो भावभीन दिखावटी शब्द बोलकर राजनेता अपनी राह चल देते हैं और पीछे छोड़ जाते हैं बिलखते-तड़पते असहाय परिजन। जब भी सीमा सुरक्षा की बात आती है तब हम नागरिक सीमा पर तैनात जवानों की ओर आशा भरी नज़रों से देखने लगते हैं और उनसे किसी भी प्रकार की चूक हमारे लिए असहनीय है। ये वीर जवान प्रतिक्षण अपने अंत को मस्तक पर सजाये हम देशवासियों की सुरक्षा करते हैं। परन्तु शहीद होने के उपरान्त जब हम आमजन के फर्ज निर्वाह का समय आता है तब हम अज्ञानी व लाचार बन जाते हैं। तब हमें न तो किसी सीमा से सरोकार होता है न ही किसी सुरक्षा से। अफजल जो इस देश के बेटों की हत्या का दोषी है उसकी फाँसी के लिए परिजनों को पुनः शहीद होना पड़ रहा है। कितनी दुखदायी स्थिति है जिसकी फाँसी के लिए सम्पूर्ण देश को एकत्रित हो संसद तक अपनी ललकार सुनानी चाहिये थी उसके लिए इंसाफ व्यक्तिगत संघर्ष हो गया। संदीप उन्नीकृष्णन के चाचा की मृत्यु पर देश की किसी भी संस्था के कंठ से कोई आवाज क्यों नहीं आई? राष्ट्रवाद का राग अलापने वाले किसी दल ने कोई तान संदीप के लिए क्यों नहीं छेड़ी? आखिर क्यों ऐसे देश की सुरक्षा के लिए माँ अपने बेटों का बलिदान दे जहाٕँ के नागरिक, सरकारी तंत्र, राजनेता या कहें कि सम्पूर्ण देश की आत्मा स्वार्थी हो? अभिनेता बनते राजनीतिज्ञ व उद्योगपतियों के सुपुत्रों को क्यों न एक बार देशभक्त जवान बनाया जाये, तब शायद किसी शहीद के गरीब माता-पिता की पीड़ा का अहसास हमारी गंदी राजनीति कर पाये।

ऑनर किलिंग

ऑनर किलिंग

पिछले कुछ दिनों से ‘ऑनर किलिंग’ की घटनाओं में आश्चर्यजनक रूप से वृद्धि हुई है। लगभग प्रतिदिन कोई न कोई युगल ऑनर किलिंग का शिकार हो रहा है। ऐसा नहीं है कि ऑनर किलिंग की घटनाएँ पहले नहीं होती थी परन्तु आज इन घटनाओं पर समाचार-पत्र व चैनलों के अतिश्योक्तियुक्त प्रस्तुतीकरण ने इसे अनावश्यक रूप से बढ़ावा दिया है।
इस प्रकार की घटनाओं के प्रस्तुतीकरण की प्रभावात्मकता इतनी गहन है कि माता-पिता व बुजुर्ग वर्ग के सम्मान से अब यह अहंकार का विषय बन गया है। प्रेमी युगलों की हत्याओं की संख्या में वृद्धि का कारण इसी अहंकार की सन्तुष्टी की लालसा है। वहीं दूसरी ओर प्रेमी युगलों द्वारा आत्महत्याआंे का कारण चहुँ ओर ऑनर किलिंग का व्याप्त भय है।
क्या ऑनर किलिंग वास्तव मेें न्यायोचित है? ‘धर्मनिरपेक्ष राज्य’ कहे जाने वाले भारतवर्ष में जात-बिरादरी के नाम पर ये कैसा आपराधिक वातावरण बनता जा रहा है? बिरादरी के नाम पर होने वाली पंचायतें ऑनर किलिंग का जहर समाज में भर कैसे मानवाधिकार कानून का उपहास कर रही हैं?
मीडिया को इस अपराध को रोकने के लिए अपने दायित्वों का अहसास करना चाहिए और निस्वार्थ भाव (टी. आर. पी. का लोभ छोड़) से घटनाओं का न्यायपूर्ण प्रस्तुतीकरण करना चाहिए। साथ ही अस्वीकृत व असफल प्रेम के प्रस्तुतीकरण की पुनरावृत्ति को बढ़ावा न देकर स्वीकृत व सफल प्रेम के प्रशंसनीय उदाहरण प्रस्तुत करने चाहिए।

होली का संदेश

होली का संदेश

हरे-लाल-पीले-नीले रंगों की रंगबिरंगी होली जीवन के रंगों को तब और भी अधिक चटक कर देती है जब दिलों के मैल होली के रंगीन पानी में कहीं खो जाते हैं। इस त्यौहार की रंग लगाकर गले लगाने की परम्परा हृदय स्पर्श के साथ मधुर भावनाओं का संचार करती हैं। परन्तु इस पावन उत्सव की पवित्रता को कुछ लोग अपनी अंध-मस्ती के जोश से दूषित करने का प्रयास भी करते हैं। होली से कई दिन पूर्व ही राह चलते लोगों पर रंगों से भरे गुब्बारे फेंकना उनको तो आनन्दित कर देता है परन्तु उस राहजन की बढ़ी हुई मुश्किलों से इन मस्तानों को कोई सरोकार नहीं होता। होली के दिन भी किसी-किसी के दिलों के मैल इतने जिद्दी हो जाते है कि उस पर प्रेम के डिटेरजेंट भी फेल हो जाते है। दाग फिर भी रह जाते हैं और ये दाग अच्छे भी नहीं होते। और बार-बार दूरियों का अहसास कराते हैं। दुर्भावनाआंे के भरा मन भला क्या ईश वंदना करता होगा? क्या ईश्वर ऐसी प्रार्थना स्वीकार करते होगें? प्रत्येक त्यौहार सद्भावना, सहभागिता, आत्मीयता, प्रेम, अपनत्व एवं जनकल्याण के संदेश को लेकर आता है। यदि हम उस त्यौहार के संदेश को ही ना समझ पाये तो क्या औचित्य है त्यौहार मनाने का?

एक नज़र इधर भी....................

एक नज़र इधर भी....................

पिछले कुछ महीनों से सोशल नेटवर्किंग साइट्स का आर्मी व सी. आर. पी. एफ. के जवानों में क्रेज बढ़ता जा है। वे अति उत्साह के साथ इन साइट्स पर सक्रिय हैं। यदि इन जवानों का प्रोफाइल व फोटोज देखें तो यह सक्रियता एक चिन्ता का विषय बन जाती है। इनके प्रोफाइल व स्क्रेप्स का अध्ययन कर बहुत ही सरलता से इनकी महत्वाकांक्षा के स्तर को परखा जा सकता है। आत्मप्रदर्शन की चाह में कुछ जवानों ने तो आर्मी में प्रयोग किये जाने वाले हथियारों, विभिन्न मुद्राओं व वेशभूषाओं में स्वंय की, स्थानीय क्षेत्रों व यहां तक की बंकरस की फोटो भी अपलोड की हुई हैं। ये जवान नियमित रूप से सोशल नेटवर्किंग साइट्स का प्रयोग कर रहे हैं।
वास्तव में देखा जाये तो देश की सुरक्षा से जुड़े ये व्यक्ति व क्षेत्र गोपनीयता की सीमा के भीतर होने चाहिए। इनकी पहचान सार्वजनिक नहीं होनी चाहिए। इस प्रकार अति उत्साह व दिखावे की भावनाओं के वशीभूत होकर ये जवान आतंकियों को अपने मानसिक स्तर व शक्तियों की पहचान व परख करने का खुला न्यौता दे रहे हैं। इनकी बढ़ती सामाजिकता का पूर्ण लाभ आतंकियों को मिलेगा। वे इनसे सम्पर्क कर इन्हें बहला-फुसला सकते हैं। साइट्स पर सक्रिय कुछ जवान चैटिंग के भी बहुत शौकीन हैं। इनके ये मिजाज न केवल इनकी व इनके साथियों की अपितु सम्पूर्ण देश की सुरक्षा को खतरे में डाल रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि आर्मी वालों को मनोरंजन का अधिकार नहीं है परन्तु यदि यह मनोरंजन देश की सुरक्षा पर प्रश्न चिन्ह आरोपित करने लगे तो सचेतता आवश्यक हो जाती है।

‘‘बेटियों का जन्म खुशियों का हकदार’’

‘‘बेटियों का जन्म खुशियों का हकदार’’

बेटी के जन्म पर खुशियाँ, पढ़कर ऐसा लगा मानो किसी ने उपहास स्वरूप अख़बार में ये ख़बर दी हो। परन्तु पूरी ख़बर पढ़कर अत्यन्त प्रसन्नता हुई कि पुरूष प्रधानता का दायरा सिमट रहा है और बेटियों के जन्म को भी उस खुशी का सानिध्य प्रदान किया जा रहा है जिसके हकदार अभी तक केवल बेटे थे। बागपत-शामली जैसे ग्रामीण क्षेत्र से इस नयी विचारधारा के बहाव में यदि कुछ अन्य परिवार और सम्मिलित हो जाये तो भू्रण हत्या जैसे कुकृत्यों का काल निश्चित रूप से निकट होगा और बिगड़ता स्त्री-पुरूष लिंगानुपात संतुलित हो, प्रकृति के नियम को वजूद प्रदान करेगा। बागपत-शामली के इन परिवारांे ने ग्रामीण क्षेत्र की रूढ़िवादी परम्पराओं का हवाला दे बेटियों का दुख मनाने वालों के लिए एक मिसाल कायम की है कि विस्तृत सोच किसी निश्चित परिवेश की बपौती नहीं होती। शहरवासी प्रदत सुविधाओं का दुरूपयोग कर रहे हैं और ग्रामीण ईश्वरीय देन का सम्मान करते हुए स्वागत कर रहे हैं। वास्तव में ये परिवार बधाई के पात्र हैं। सभी बेटियाँ इन्हें तहे दिल से धन्यवाद देती हैं।

बच्चों द्वारा आत्महत्या के कारण

बच्चों द्वारा आत्महत्या के कारण

निरन्तर प्राप्त होने वाले बच्चों द्वारा आत्महत्या के समाचार ‘बच्चों द्वारा आत्महत्या’ को शोध का विषय बना रहे हैं। ये समाचार सोचने के लिए बाध्य कर रहे हैं कि क्यों आज बच्चों की भावनात्मक दृढ़ता शिथिल हो रही है। माता-पिता की डाँट हो या परीक्षा-परिणाम या कोई अन्य मामूली कारण- बच्चों को अपनी जीवन-लीला समाप्त करने के लिए उद्दीपक का कार्य कर रहा हैं। आखिर यह किसकी कमजोरी है- बच्चों की? जो आधुनिक परिवेश में अतिमहत्वकांक्षा का शिकार हो रहे हैं या माता-पिता की? जो बच्चों के जीवन के अनमोल क्षणों में उन्हें एकाकीपन का अहसास करा रहे हैं। जेनरेशन-गैप का राग अलापते-अलापते आज यह अन्तराल नियति बनता जा रहा है। अभिभावकों व बच्चों ने इसे जीवन का अभिन्न अंग मान लिया है और वैचारिक विविधता को पीढ़ीगत-शत्रुता में परिवर्तित कर दिया है। जबकि वास्तव में देखा जाये तो इन शब्दों का अस्तित्व हर पीढ़ी में मौजूद है और ये वैचारिक मतभेद भी चिरकाल से चलते आ रहे हैं। आवश्यकता है इन शब्दों के जाल से बाहर निकलकर वास्तविक कारण जानने की। अभिभावकों को बच्चों से मित्रता कर उन्हें समझते हुए अपना वह समय देने की जिसे वे पार्टी इत्यादि में व्यतीत करने में रसानुभव करते हैं। बच्चों को अपने प्रेम, अपनत्व, सुरक्षा व बड़प्पन का अहसास दिलाने की। उनके खट्टे-मीठे क्षणों में उनका सिर अपनी गोद में रख यह कहने की ‘ कोई बात नहीं बच्चे, हम हैं ना सदा तुम्हारे साथ।’ तब यकीनन बच्चों की भावनात्मक दुर्बलता की जड़ें अभिभावकों के प्रेम की बुनियाद में अपना अस्तित्व तलाशेंगी।

असुरक्षित विद्याभवन

असुरक्षित विद्याभवन

टीचर इज लाइक ए कैंडिल! ये कैंडिल अब विद्यार्थियों के मार्गदर्शक के रूप में नहीं अपितु विद्यार्थियों के भविष्य को खाक करने व शोषक के रूप में अपनी विशिष्ट भूमिका निभा रही है। शहर के एक नामी पब्लिक स्कूल में ग्यारहवीं की छात्रा के साथ गुरू द्वारा किया गया अभद्र व अश्लील व्यवहार गुरूओं की शरण व मार्गदर्शन की विश्वसनीयता को संदेह के घेरे में खड़ा कर रहा है। विद्या के मंदिर में उपासक रूपी विद्यार्थियों के साथ किये जा रहे इस प्रकार का घृणित कृत्य पुजारी रूपी अध्यापकों की चारित्रिक व शैक्षिक योग्यताओं पर प्रश्न चिन्ह लगा रहे हैं। वस्तुतः पथभ्रष्ट हो रहे हैं इस प्रकार के शिक्षक जो शिक्षा को व्यापार बनाये हुए हैं। भोग-विलास की भावनाओं से लिप्त इनका स्तर दिन-प्रतिदिन गिरता ही जा रहा है। शारीरिक दंड़, ट्यूशन के लिए बाध्य करना इत्यादि से गिरते-गिरते अब कुटिल दृष्टि व चरित्रहीनता का चोला भी पहन लिया। कितनी शर्मनाक स्थिति है! स्कूल-कॉलेज के बाहर पुलिस खड़ा कर, गुण्डा दमन दल बनाकर प्रशासन अपनी बाह्यय जिम्मेेदारी से तो निवृत्त हो गया परन्तु आन्तरिक सुरक्षा का आधार क्या हो? यह किस प्रकार प्राप्त होगी? इस छात्रा के अभिभावक व स्वयं छात्रा का सशक्त हो उठाया गया पुलिस रिपोर्ट करने का कदम निःसन्देंह सरहानीय है परन्तु इस प्रकार के निकृष्ट कर्माें की न जाने कितनी छात्राएँ चुपचाप शिकार हो रही हैं। उनकी सिसकियों की आहट किसी तक नहीं पहुँचती। आखिर क्यों विद्यालय प्रशासन आन्तरिक सुरक्षा के प्रश्न पर निर्लज्ज हो जाता है? वास्तव में इन मामलों को व्यक्तिगत समस्या मानकर संगठित न होने के कारण हार का सामना करना पड़ता है। यदि सभी अभिभावक एकत्र हो इस प्रकार की घटनाओं का विरोध करें तो अवश्य ही हमारी बच्चियाँ किसी भी प्रकार के शोषण का शिकार होने से बच जायेंगी।

अपराध, समाज और पत्रकारिता

अपराध, समाज और पत्रकारिता
वर्तमान मानव-समाज अनेक जटिल समस्याओं से गुजर रहा है। इन समस्याओं में अपराध प्रमुख है। मानव-सभ्यता के विकास के साथ-ही-साथ अपराधों की मात्रा मंे निरन्तर वृद्धि होती जा रही है। अपराधों की मात्रा में निरन्तर वृद्धि के कारण ही ऐसा प्रतीत होता है कि आधुनिक सभ्य समाज में अपराध के सामाजिकरण की प्रक्रिया गतिशील है। यदि सामाजिक व्यवस्था सुदृढ़ है, आर्थिक सम्पन्नता है, पारस्परिक सद्भाव है, सांस्कृतिक जागरूकता है और समाज में प्रेम, दया, करूणा आदि मानवीय गुणों को महत्व दिया जाता है तो अपराध की घटनाएँ कम होंगी। इसके विपरीत सामाजिक, अव्यवस्था, विपन्नता और सांस्कृतिक चेतना शून्य समाज मंे अपराध बढ़ेंगे। अतः यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि समाज में शान्ति और व्यवस्था बनाए रखने और आपराधिक प्रवृŸिायों पर अंकुश रखने के लिए एक व्यवस्थित, सुसंस्कृत और जागरूक सामाजिक संरचना बहुत ही आवश्यक है।
प्रेस की भूमिका इस मामले में बहुत महत्व रखती है। एक जिम्मेदार प्रेस अपने समाचारों की प्रस्तुति से समाज में सद्गुणों को बढ़ावा देता है और लोगों में जागरूकता फैलाता है। विकासशील लोकतान्त्रिक देशों में प्रेस का महत्व इसीलिए बहुत अधिक माना जाता है। यही कारण है कि पुराने मनीषियों ने पत्रकारिता का उद्देश्य और संकल्प सामाजिक योगक्षेम माना है। यद्यपि प्रेस सही अर्थाें मेें सामाजिक दर्पण की भूमिका निभाता है फिर भी इसको अपनी इस भूमिका के निर्वाह मेें सामाजिक जिम्मेदारियांे के आदर्श को सम्मुख रखना चाहिए। आदर्श पत्रकारिता अतीत के परिप्रेक्ष्य में वर्तमान पीढ़ी को भविष्य के लिए तैयार करती है। वर्तमान समस्याओं के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डालकर वर्तमान पीढ़ी को उन पर सोचने, समझने एवं समाधान प्रस्तुत करने के लिए अनुप्रेरित करती है। पत्र-पत्रिकाओं की निर्भीक वाणी न्यायसंगत सामाजिक-व्यवस्था की स्थापना में सहायक हो सकती है, अन्यायी-अपराधी-भ्रष्टाचारी को कठघरे के पीछे खड़ा कर सकती है, जन-सामान्य को समुचित दिशा-निर्देश और प्रशिक्षण दे सकती है तथा जन-जागृति एवं दायित्वबोध के गुरूतर दायित्व का निर्वाह कर सकती है।
वहीं दूसरी ओर आज पत्रकारिता के उद्देश्य और लक्ष्य बदल रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि आज पत्रकारिता मिशन न रहकर पेशे में बदल चुकी है। मात्र नवीनतम सत्य सूचनाओं की पकड़ के लिए सनसनीखेज ख़बर को और भी तीव्र रंग देकर प्रकाशित करते हैं। इसके लिए आपराधिक घटनाआंे का चयन किया जाता है।
आज पाठकों के लिए भी रोमांच उत्पन्न करने वाली खबरें होती है-‘आपराधिक ख़बरें। सभी आयु-वर्ग व सभी जाति-धर्मों के लोग, अमीर-गरीब सभी इन ख़बरों को उत्सुकता व रूचि के साथ पढ़ते हैं। ऐसा नहीं है कि समाज में आपराधिक प्रवृति का संचार हो रहा है इसलिए लोग इन ख़बरों को पढ़ने में रूचि रखते हैं अपितु ये ख़बरें समाज को उनके आस-पास हो रहे अपराधों से सचेत करती हैं। अपराधी आपराधिक घटनाओं को किस प्रकार अंजाम देते हैं, किस क्षेत्र-मौहल्ले में अपराध बढ़ रहा है, अपराध का स्वरूप क्या है, यहाँ तक कि इन अपराधों से स्वयं की रक्षा किस प्रकार की जा सकती है- इन सभी प्रश्नों के उत्तर मिलते हैं ‘अपराध पत्रकारिता से’। अपराध पत्रकारिता के समाज पर सकारात्मक प्रभाव अग्रलिखित हैं-
1ण् अपराध पत्रकारिता समाज में जागरूकता लाने का सशक्त माध्यम है।
2ण् अपराध की ख़बरों का प्रकाशन सरकारों के भ्रष्ट-तंत्र पर अंकुश लगाता है।
3ण् सामाजिक सचेतता लाने में अपराध पत्रकारिता महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
4ण् विभिन्न प्रकार से हो रहे अपराधों से बचाव के उपायों का ज्ञान अपराध पत्रकारिता के माध्यम से होता है।
5ण् अपराध के तरीकों की पूर्व जानकारी होने से बचाव हेतु मानसिक मजबूती प्राप्त होती है।
परन्तु प्रश्न यह उठता है कि क्या अपराध पत्रकारिता अपने वास्तविक उद्देश्य को प्राप्त कर रही है? क्या अपराध पत्रकारिता के नकारात्मक प्रभाव सकारात्मक प्रभावों पर भारी नहीं पड़ रहे हैं? क्यों अपराध पत्रकारिता समाज को सही दिशा प्रदान करने में असफल हो रही है? अपराध पत्रकारिता की अतिश्योक्ति समाज को सच से दूर कर पथभ्रष्ट नहीं कर रही है? इन प्रश्नों के उत्तर अपराध पत्रकारिता के समाज पर पड़ने वाले अग्रलिखित नकारात्मक प्रभावों का विश्लेषण कर समझा जा सकता है-
1ण् समाचार-पत्रों की अविवेकपूर्ण अपराध रिपोर्टिंग के कारण समाज अपराध करने की ओर उन्मुख हो रहा है।
2ण् आपराधिक घटनाओं के प्रकाशन से सामाजिक अविश्वास में वृद्धि हो रही है।
3ण् आपराधिक घटनाओं के बढ़ा-चढ़ाकर किये गये प्रस्तुतीकरण के कारण आपराधिक रिपोर्टिंग की विश्वसनीयता घट रही है।
4ण् आपराधिक की घटनाओं की रिपोर्टिंग के कारण समाज में भय बढ़ रहा है।
5ण् आपराधिक घटनाआंे को समाचार पत्र-पत्रिकाओं में पढ़कर बच्चें अपराध की ओर उन्मुख हो रहे हैं जिससे बाल-अपराधियों की संख्या में वृद्धि हो रही है।
6ण् आपराधिक घटनाओं के अतिश्योक्तिपूर्ण प्रस्तुतीकरण के कारण समाज में नकारात्मक सोच का प्रसार हो रहा है।
7ण् सनसनीखेज, खून-खराबे युक्त व नकरात्मक तत्व वाली ख़बर पर किये जाने वाले असन्तुलित कथनों से समाज भ्रमित होता है।
8ण् आपराधिक ख़बरों में अपराधी को हीरों की भाँति प्रस्तुत किया जाता है जिसके कारण किशोरों व युवाओं में अपराधियों के प्रति गरिमा का भाव बढ़ रहा है।
9ण् अपराध रिपोर्टिंग से समाज में यह संदेश जा रहा है कि शीघ्र कामयाबी प्राप्त करने के लिये अपराध, अपराधियों का संरक्षण शार्टकट रास्ता है।
10ण् ‘कानून एवं दण्ड़ की प्रक्रिया एवं संस्थानों का नियंत्रण कम होने के कारण दण्ड़ का भय कम हुआ है।’ इस प्रकार की भावना के विकास में पत्रकारिता की अहम भूमिका है।
11ण् अपराधी को हीरों की भाँति प्रस्तुत करने से अपराधियों में इस प्रकार की प्रसिद्धि प्राप्त करने की चाह बहुत बढ़ जाती है परिणामस्वरूप अपराधों की संख्या में वृद्धि होना।
12ण् अपराधियों को अपराध की नवीन तकनीकियों का ज्ञान हो जाता है। जिससे वे नई-नई रणनीतियाँ बनाते हैं। जैसे- सफेद अपराध जैसे नकली सामान बनाने का गोरख़धन्धा। जब कोई अपराधी पकड़ा जाता है और ये समाचार अख़बार में प्रकाशित होता है इससे वह अपराधी तो जेल चला जाता है परन्तु जन्म दे जाता है अपने जैसे कई नक्कलों को जो उस समाचार को पढ़कर नया आईडिया लेते है।
13ण् समाचार पत्र अपराध के उपरान्त ही ख़बर को प्रकाशित कर अपराधी को सावधान कर देते हैं। अपराधी ख़बरों के माध्यम से सावधान होकर पुलिस की गिरफ्त में आने से बचता रहता है।
14ण् बच्चे अपराध की घटनाओं को पढ़कर विभिन्न प्रकार की जिज्ञासायें रखते हैं जिनका यदि सही समाधान नहीं दिया जाये तो वे भटक सकते हैं।
15ण् यदि किसी जाति या धर्म विशेष के व्यक्ति के साथ घटना घटी तो उस जाति या धर्म से सम्बन्धित लोग उसका बदला लेने के लिये एक बार फिर से अपराध करते हैं और इसका सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है विद्यार्थी या उस आयु के लोगों पर क्योंकि उनकी सोच उतनी परिपक्व नहीं होती और वे समाचार पढ़कर उसके बारे में तुरन्त निर्णय ले लेते हैं।
16ण् मीडिया द्वारा की जा रही आपराधिक घटनाओं की रिपोर्टिंग के कारण समाज का स्तर गिर रहा है।
17ण् मनोचिकित्सकों के अनुसार भाई द्वारा भाई की हत्या, बेटे द्वारा पिता की हत्या, पति द्वारा पत्नी की हत्या आदि जैसे अपराध अपराध न होकर ‘असुरक्षा’ की भावना की तीव्र प्रतिक्रिया का परिणाम है जिसमें वह सोचता है कि ‘उसके परिवार का क्या? और वह अपनों को मार के खुद भी मरने का प्रयास करता है।’
यह एक ऐसा अपराध है जो घर से शुरू होता है और घर के माहौल में ही पनपता है और धीरे-धीरे समाज में फैल जाता है। यह तो हुई एक वारदात की बात परन्तु जब अगले दिन यह ख़बर मिर्च-मसाला के साथ अख़बारों में प्रकाशित होती है तो जन्म होता है वैसी ही मनोदशा से गुजर रहे और नये अपराधियों का जिन्हें लगता है कि हत्या करने वाला इन्सान सही था।
मीडिया में बढ़ रहे उपभोक्तावाद व प्रतिस्पर्धा ने गैर जिम्मेदाराना रिपोर्टिंग को जन्म दिया है। परिणामस्वरूप मीडिया अपने वास्तविक उद्देश्यों से विमुख हो स्वःहित की अन्धी दौड़ में दौड़े जा रही है। पत्रकारिता मात्र पेशा न होकर एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है, समाज के प्रति जवाबदेही है। इसका उद्देश्य समाज को सच्चाई का आईना दिखाकर जन-हित की रक्षा करना है। अतः आज मीडिया को आवश्यकता है अपने दायित्वों का ईमानदारी व जिम्मदारी से निर्वाह करने की और लोभ-लालच का परित्याग कर जन-हित के प्रति समपर्ण की भावना से इस पेशे की उपयोगिता व सार्थकता सिद्ध करने की।

अपील

अपील
बिहार में एक महिला ने विधायक के शोषण से व्यथित होकर उसकी चाकू से गोदकर हत्या कर दी। जरा सोचिये क्या मनोस्थिति रही होगी उस महिला की जो सार्वजनिक रूप से हत्यारिन बनने के लिए बाध्य हो गई? कितनी कुण्ठित, कितनी निराश, हतोत्साहित, असहाय व लाचार रही होगी वह। और जब निराशाओं पर विजय प्राप्त करनी चाही जो उस रोष ने लहु में ऐसा उबाल लाया कि परिणाम विभत्स रूप में सामने आया। वस्तुतः देखा जाये तो यह संकेत है स्त्रियों के सब्र के बाँध के टूटने की कगार पर होने का। पिछले कुछ महीनों से जिस प्रकार महिला अपराध व अत्याचार का ग्राफ बुलंदियों को छू रहा है और न्याय प्रक्रिया व सुरक्षा स्तर में गिरावट आ रही है तो यह गुबार कोई ना कोई रोद्र रूप लेगा ही। निसंदेह जब पापों की पराकाष्ठा होती है तो कोई ना कोई अप्रिया घटना घटित होती ही है। लडकियों के अपहरण, बलात्कार, छेडछाड़ को आखि़र कब तक सहन किया जाये? सुरक्षा की दृष्टि न तो घर पर टिकती है और न ही समाज पर। आखि़र जाये तो जाये कहाँ? क्या महिला समाज का अंग नहीं है? यदि है जो वह सम्मान व सुरक्षा के अधिकार से वंचित क्यों है? सहनशीलता मात्र स्त्री धर्म क्यों है? पुरूष अपनी बहन की सुरक्षा में तो जान की बाजी लगाने के लिए तैयार है परन्तु दूसरों की बहनों पर नज़रों में फेर कैसे आ जाता है? कृपया जवाब दीजिए, हमें सुरक्षा का संरक्षण कब और कैसे प्राप्त होगा? कब हमें मानसिक स्वतंत्रता का आनन्द व सुकून प्राप्त होगा? आखि़र कब?

अहितकारी कट्टरता


अहितकारी कट्टरता
राहुल गांधी के हिंदू कट्टरपंथी संगठनों को खतरनाक बताये जाने वाले वक्तव्य ने सभी हिंदूवादी लोगों की भावनाओं को ठेस पंहुचायी। परन्तु यदि गहतापूवर्क विचार किया जाये तो यह बात कहीं हद तक औचित्यपूर्ण भी है। कट्टरता चाहे धर्म की हो अथवा अधर्म की, कभी हितकारी नहीं हो सकती। नकारात्मक भाव लिए यह शब्द स्वार्थ तत्व से लिप्त होता है। इसी का परिणाम है कि भारत के हिंदूत्व को आजादी के इतने वर्षाें के पश्चात् आतंकवाद के तगमे से संघर्ष करना पड़ रहा है। आजादी का संघर्ष सम्मानीय था, है और रहेगा क्योंकि वह वैचारिक, औचित्यपूर्ण, जनहितवादी व देश के सम्मान के लिए था परन्तु हिंदूत्व का यह संघर्ष जो इस धर्मनिरपेक्ष देश में विभेदीकरण के बीज पल्लवित कर रहा है, निश्चित रूप से आतंकवाद की श्रेणी में सम्मिलित होने की ओर उन्मुख है। राजनीति के स्वाद ने इसके उद्देश्यों को भ्रमित कर दिया है। राष्ट्रवाद का तात्पर्य राष्ट्र के एकीकरण से है जिसमें सभी धर्म, जाति व सम्प्रदाय सम्मिलित हो और देशभक्ति की भावना का प्रतिनिधित्व करें। परन्तु हिंदू कट्टरपंथियों की राष्ट्रवाद की परिभाषा तो धार्मिक संघर्ष को जन्म दे रही है। त्याग, दया अहिंसा, परोपकार के संदेश देने वाले भारत में कट्टरता इन शब्दों की पर्यायवाची कदापि नहीं हो सकती। देश को संगठित करने के लिए वैचारिक तरलता की आवश्यकता है। तभी आदर्श भारत का निर्माण हो सकता है।

फैसला


फैसला
काफी दिनों से चलते आ रहे वाद-विवाद और द्वंद का कल शायद अन्तिम दिन हो। कल मेरे आने वाले कल पर एक ऐसा फैसला लिया जायेगा जो पिछले छः माह से घर में वाद-विवाद का विषय बना हुआ है। देखना ये है कि ये फैसला परम्परागत रूढ़िवादी विचारधारा का समर्थन करते हुए बेटी के भविष्य को दाँव पर लगायेगा या अनावश्यक अहितकारी सामाजिक व मानसिक दबाव के विरूद्ध सशक्त हो बेटी के हित को प्राथमिकता देगा। यही सोचते-सोचते सारी रात खुली आँखों में संशय व भय का अंधकार लिए बीत गई।
अगले दिन सुबह नाश्ते की आवश्यकता किसी को न थी। सभी ड्राइंग रूम में एकत्रित हुए। शान्त, उलझे चहरे टकटकी लगाये पिताजी के मुख की ओर देख रहे थे। सभी के भावों और उत्सुकता को अधिक प्रतिक्षा न कराते हुए पिताजी ने कहा, ‘‘यह फैसला मेरे लिए ऐसा है जैसे किसी बच्चे से कहा जाये कि वो अपनी माँ या पिता में से किसी एक का चयन करे। एक ओर मेरी सामाजिक मर्यादाएँ और परम्पराएँ हैं और दूसरी ओर मेरी बेटी का हित। एक ओर हमारी ही जाति का एक अयोग्य लड़का है और दूसरी ओर गैर-बिरादरी परन्तु बेटी के लिए उसकी पसंद का सर्वोत्तम चयन है, जो उसके सुखद भविष्य की गारंटी भी है। मेरी मान्यताएँ गैर-बिरादरी के चयन से मुझे रोक रही हैं परन्तु बेटी का प्यार, स्नेह ओर सुरक्षित भविष्य मझे उसकी पसंद को अपनी पसंद बनाने के लिए बाध्य कर रहा है। सालों से चली आ रही विचारधारा के विरूद्ध एक नई सोच को अपनाना मेरे लिए वास्तव में कठिन है। परन्तु शायद बेटी का हित और उसकी खुशी ही मेरी प्राथमिकता है। अतः मेरा फैसला उसके फैसले का समर्थन करता है और मैं उसकी पसंद स्वीकार करता हूँ।’’
उनके शब्दों ने मुझे चौंका दिया। सभी की आँखें भर आई और पिताजी ने मुझे गले से लगा लिया।

आँखंे ‘गर हो जायें पराई’


आँखंे ‘गर हो जायें पराई’

मैं उसके खेल को दूर से निहार रही थी और बीच-बीच में मिसेज शर्मा की बातों का जवाब भी दे रही थी। परन्तु मिसेज शर्मा की बातों से ज्यादा मेरा ध्यान उस खेल पर था जो मेरी छः साल की मासूम बेटी ‘अनुभूति’ मिसेज शर्मा की हमउम्र बेटी ‘महक’ के साथ खेल रही थी। मुझे आज उसका खेल उन सामान्य खेलों से भिन्न लग रहा था जो वह रोज़ खेलती थी। सामान्यतः मैं कभी इतनी केन्द्रित होकर उस पर नज़र नहीं रखती थी परन्तु शायद कुछ दिनों से उसके व्यवहार में आये परिवर्तन के कारण मैं उसका कुछ ज्यादा ही ध्यान रखने लगी थी।
उसका खेल बडा ही विचित्र था। उसने एक काले रंग की पट्टी महक की आखांे पर बाँध दी। फिर उसके सामने अपने पेंसिल बॉक्स से पेंसिल निकालकर पूछा, ‘‘ये क्या है?’’ महक ने उत्सुकता से झटपट आँखों से पट्टी हटाई और बोली, ‘‘कितनी सुन्दर पेंसिल है!’’ अनुभूति को जैसे इस उत्तर से कोई सरोकार ही नहीं था। वह कुछ और उत्तर चाहती थी इसलिए उसने महक को दो पल घूरा और गुस्से से बोली, ‘‘तुमने पट्टी क्यों खोल दी? आँखों पर पट्टी बाँधकर बताओ ये क्या है?’’ वह उठी और दोबारा उसने महक की आँखों पर वह पट्टी बाँध दी। फिर कलर बॉक्स से लाल रंग निकालकर पूछा, ‘‘ये कौन सा कलर है?’’ इस बार महक ने अंदाजा लगाया और बोली, ‘‘ब्लैक’’। नो, दिस इज़ रेड। अनुभूति चिल्लायी।
अनुभूति छोटी-छोटी बातों पर इस तरह से कभी नहीं झुझलाती थी। शान्त व सहयोगी स्वभाव की वह कुछ दिनों से किसी उलझन में लग रही थी। उलझन की इसी अवस्था में उसने फिर सफेद रंग उठाकर पूछा, ‘‘विच कलर इज़ दिस?’’ महक ने इस बार थोड़ा समय लगाया और फिर बोली- ब्लैक। अनुभूति के चेहरे की शिकन बढ़ने लगी और उसने महक के आँखों की पट्टी खोल दी और कहा- ये पट्टी मेरी आँखों पर बाँधों। उसे देखकर लगा कि वो कुछ ऐसे प्रश्नों के उत्तर चाहती है जो सामान्य नहीं हैं।
खै़र! आँखों पर पट्टी बँधते ही उसने महक के पूछने से पहले ही अपनी नन्ही-नन्ही उंगलियों को पंेसिल बॉक्स पर धीरे-धीरे घुमाया और स्पर्श से कुछ जानने की कोशिश की। इसी बीच महक ने उससे पूछा- विच कलर इज़ दिस? लेकिन उसने उसका कोई जवाब नहीं दिया। और अपनी धुन में मगन पेंसिल बॉक्स और कलर बॉक्स को बार-बार छूकर अलग-अलग पहचानने की कोशिश वह करती रही। महक ने फिर उससे अपना प्रश्न दोहराया परन्तु इस बार भी उत्तर न पाकर वह अनुभूति के व्यवहार से नाराज हो गई और अपने पापा व भाई जो मिसेज शर्मा के ही साथ आये थे, उनके पास चली गई। अनुभूति को इस बात का अहसास तक नहीं हुआ और वह अब भी अलग-अलग रंग उठाकर उसका अंदाजा लगाने की कोशिश कर रही थी और कभी स्पर्श के माध्यम से चीजों को पहचाने की।
अनुभूति मानसिक रोगी या किसी बीमारी से ग्रस्त नहीं थी। वस्तुतः ऐसा उसके साथ तब से हो रहा था जब से वह उस नेत्रहीन बच्चे से मिली थी जो हमें नेत्र-अस्पताल में मिला था। उस दिन हम नेत्रदान करने के लिए नेत्र-अस्पताल गये थे। वहीं हम उस नेत्रहीन बच्चे से मिले। अनूभूति उसकी आँखों को, उसके व्यवहार को और उसकी पर-निर्भरता को बहुत ध्यान से देख रही थी। वह बहुत समझदार, जिज्ञासु और बहुत भावुक लड़की है इसलिए शायद उसने उसे देखते ही प्रश्नों की झड़ी लगा दी।
मम्मी भैया की आँखें ऐसी क्यों हैं? इनको पकड़कर क्यों ले जा रहे हैं? मैं इन्हें देख रही हूँ फिर भी ये मुझे क्यों नही देख रहे हैं? ये देखकर क्यों नहीं चल रहे हैं? क्यों चीजों से टकरा जाते हैं? और भी न जाने क्या-क्या?
मैंने पूरी कोशिश की कि अपने उत्तरों से उसे संतुष्ट कर सकूँ। पर मुझे यह भी अहसास हो रहा था कि शायद वह पूर्णतः सन्तुष्ट नहीं हो पा रही थी। उसने फिर पूछा कि हम यहाँ क्यों आये हैं? मैंने बताया कि नेत्रदान करने के लिए। नेत्रदान से सम्बन्धित उसके प्रश्नों की झड़ी ने फिर मुझे घेर लिया। परन्तु इस बार उसके प्रश्न मेरे नेत्रदान के फैसले को सहयोग कर रहे थे। वो मासूम जैसे मेरे फैसले से खुश हो।
उस दिन नेत्रदान करके हम घर आ गये। परन्तु अनूभूति हर पल उस बच्चे की पीड़ा का अहसास करने का प्रयास करने लगी थी। यह खेल भी उसी प्रयास का ही एक हिस्सा था।
थोड़ी देर बाद मिसेज शर्मा परिवार और हम सभी खाने की मेज पर साथ बैठे खाना खाते हुए गपशप कर रहे थे। हमारी गपशप के बीच में एक प्रश्न ने हम सभी का ध्यान उसकी ओर मोड़ दिया।
अंकल क्या आपने आईज़ डोनेट की हैं? उसके इस सवाल पर चंद क्षणों का सन्नाटा छा गया परन्तु फिर अचानक मिस्टर शर्मा हँसने लगे और बोले, ‘‘बेटा क्या आप जानते हो कि आई डोनेशन क्या होता है?’’
‘‘हाँ, मैं जानती हूँ। मम्मी ने मुझे बताया था कि जो लोग देख नहीं पाते उनको, जो लोग मर जाते हैं उनकी आँखें लगा देते हैं और वे लोग फिर से देखने लगते हैं।’’, अनुभूति ने समझाते हुए कहा।
‘‘आप तो बहुत समझदार हो बेटा। लेकिन मैंने तो अपनी आईज़ डोनेट नहीं की।’’ मिस्टर शर्मा ने से कहा।
‘‘क्यों? क्यों नहीं की आपने अपनी आईज़ डोनेट?’’, अनुभूति ने आश्चर्य से पूछा।
मिस्टर शर्मा व्यंगात्मक लहजे से बोले, ‘‘वो इसलिए बेटा, कहीं ऐसा न हो कि मरने के बाद आईज़ डोनेट करने पर मैं अगले जन्म में अंधा पैदा होऊँ।’’
और पापा मैं तो अपनी आँखें कभी डोनेट नहीं करूँगा। मैं नहीं चाहता कि मरने के बाद मेरी खूबसूरती में कोई कमी आये। मिस्टर शर्मा की बातें समाप्त होते ही तुरन्त उनके बेटे ने कहा।
उन दोनों के ये संवाद सुनकर मैं आवाक् रह गई। मुझे लगा शायद बच्ची को बहकाकर शान्त करने के लिए वे ऐसा कह रहे हैं। मैंने तुरन्त उनसे पूछा, ‘‘भाई साहब क्या आप वाकई ऐसा सोचते हैं?’’
जी हाँ, बहन जी। ये सच है। मैं अगले जन्म मंे अंधा पैदा नहीं होना चाहता। मिस्टर शर्मा ने कहा।
उनका यह जवाब सुनकर सबसे पहले तो मुझे उनके पढ़े-लिखे अनपढ़ होने का अहसास हुआ। और बहुत दुख भी हुआ कि आज भी हमारा शिक्षित समाज कितना अशिक्षित है। कैसी-कैसी निराधार धारणाएँ उनकी विचारधारा की दिशा निर्देशित करती हैं?
मैंने उन्हंे समझाने की कोशिश की कि भाई साहब! जो लोग किसी दुर्घटना में विकलांग हो जाते है क्या वे सभी विकलांग ही पैदा होते हैं? अगर ऐसा होता तो धीरे-धीरे विकलांगों की तादात इतनी बढ़ जाती कि कोई भी पूर्णतः हष्ट-पुष्ट नहीं होता। और जो शरीर अग्नि में स्वाह होकर पंचतत्वों में विलीन हो जाना है उसकी खुबसूरती या बदसूरती का कोई औचित्य ही नहीं है। हाँ, लेकिन हमारी आँखें यदि किसी को ये खूबसूरत दुनिया दिखाने में सफल हो जाये तो हमारी मौत अवश्य सार्थक हो जायेगी। वैसे भी मरणोपरांत इस मिट्टी रूपी शरीर का कोई वजूद नहीं होता। तो क्यांे न इसे किसी के लिए उपयोगी बना दिया जाये?
डॉक्टर आपकी पूरी आँखें नहीं केवल कॉर्निया का उपयोग करते हैं। और पुनः आँखों में आई-बॉल डालकर पहले जैसा ही रूप दे देते हैं। जिससे आपकी ‘खूबसूरती’ में भी कोई कमी नहीं आती।
यदि हम अपनी आँखें कुछ पल के लिए बंद कर लें तो बैचेन हो उठते हैं। अपनी दुनिया देखने के लिए तड़प उठते हैं। जरा सोचिए उन लोगों के विषय में जिन्हें अपनी सूरत का भी अंदाजा नहीं। अपने बच्चों की शक्ल मालूम नहीं, दुनिया के रंगों का अहसास नहीं। वे सिर्फ स्पर्श की आँखों से दुनिया को समझते हैं। पर क्या कभी स्पर्श आँखों की कमी पूरी कर सकता है?
मेरी बातें शर्मा जी को शायद बोर कर रही थी और वे इस भाषण से मुक्ति चाहते थे। तभी वे बोल उठे, ‘‘अच्छा जी! अब हम चलते हैं। काफी देर हो गई है। इस लजीज खाने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।’’
उन्हें अलविदा कहने के बाद जैसे ही मैं पीछे मुड़ी, अनुभूति जैसे मेरा ही इन्तजार कर रही थी। उसके चेहरे पर दृढ़ भाव थे। उसी गम्भीर दृढ़ता से वह बोली, ‘‘अंकल बहुत गंदे थे ना मम्मी। वे झूठ बोल रहे थे। उनको कुछ नहीं पता। आप प्लीज मेरी आईज़ डोनेट कर दो।’’
उसकी मासूमियत पर मेरी आँखें छलक उठी और मैंने उसे सीने से लगा लिया।