Monday, May 16, 2011

घटती दूरियाँ बढ़ते फ़ासले


घटती दूरियाँ बढ़ते फ़ासले

पिछले आधे घण्टे से राहुल की मम्मी उसे खाने के लिए बुलाती-बुलाती उकता गई, पर राहुल है कि उसका ‘मम्मी एक मिनट-दो मिनट’ का राग ही समाप्त नहीं हो रहा है। दरअसल राहुल पिछले चार घण्टों से अपने इन्टरनेट दोस्तों के साथ चैट करने में व्यस्त है। वह इन दोस्तों के साथ इतना मशरूफ है कि घर में कौन आया-कौन गया, इसकी उसे कोई ख़बर नहीं। दसवीं कक्षा में अच्छे अंकों से प्राप्त सफलता के लिए बधाई देने दूसरे शहर से आये उसके प्रिय अंकल के लिए भी बामुश्किल वह दस मिनट ही निकाल पाया।
ये है चैटिंग का चाव। अनजाने लोगों से चटपटी बातों के तड़के ने घरों में होने वाले गम्भीर संवादों की अर्थी निकाल दी है। एक परिवार के भिन्न-भिन्न सदस्यों द्वारा इन्टरनेट पर निर्मित अनजाने परिवारों ने एकल परिवार को भी एकाकी कर दिया है। इन्टरनेट चैट करने वाले चैटिंग करते हुए एक-दूसरे की समस्या का निवारण तो बहुत गम्भीरता से करते हैं परन्तु उनके स्वयं के परिजनों की आह का उन्हें कोई ज्ञान नहीं होता है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स ने रास्तों की दूरियाँ तो निश्चित रूप से सिमेट दी हैं परन्तु दिलों के फ़ासले बहुत बढ़ा दिये हैं। सात समंदर पार बैठे उन दोस्तों का ‘सलाम’ बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है, जिन्हें न तो कभी देखा है और शायद न ही कभी देखंेगे परन्तु अपने से बड़ों को की जाने वाली ‘नमस्ते’ की परम्परा कहीं दम तोड़ रही है। इन्टरनेट के दोस्तों का एक-एक शब्द इतना मूल्यवान हो गया है कि उनके किसी भी प्रश्न का उत्तर दिये बिना अगला श्वास शरीर त्यागने के लिए राजी नहीं है। परन्तु वहीं दूसरी ओर चैटिंग के दौरान माँ द्वारा सिर पर फेरे जाने वाला हाथ और पिता के चिन्तनीय घरेलू मुद्दे व्यर्थ प्रतीत होते हैं तथा मनोरंजन के क्रम को बाधित करते हैं।
पारिवारिक बन्धन संवादों से मजबूत व घनिष्ठ होते हैं। इसी से संवेदनाओं का संचार होता है, अपनत्व का अहसास होता है। परन्तु चैटिंग संस्कृति ने इन सभी भावनाओं की हत्या कर एक नये समाज का निर्माण किया है- क्षणिक रिश्तों का सुविधाजनक समाज। जब तक किसी से चैट करने में रसानुभूति हो तब तक की जाये और जब मिचवास आने लगे तो ‘तू नहीं कोई और सही’। कोई बन्धन नहीं मात्र स्वच्छंदता। स्वतंत्रता से स्वच्छंदता की मानसिकता ने ‘निभाव’ के अस्तित्व को खतरे में डाल दिया है। पहले प्रत्येक रिश्ते को पारिवारिक-सामाजिक समायोजन के द्वारा निभाया जाता था। लोक-लाज, सामाजिक मान्यताओं को सम्मान व प्राथमिकता दी जाती थी परन्तु आज समाज व्यक्तिवादी हो गया है। आत्महित के सुरूर ने लोकहित की परम्परा का उपहास करना प्रारम्भ कर दिया है। क्या ‘आत्मवाद’ किसी समाज की बुनियाद हो सकता है?
वर्तमान में एक गम्भीर व्याधि ने इन्टरनेट प्रयोगकर्त्ताओं को जकड़ा हुआ है। वह है-चैटिंग की आदत जो अब आदत से सनक में परिवर्तित होती जा रही है। यदि कोई व्यक्ति चैटिंग की लत का शिकार हो जाये तो भीड़ में भी अकेलेपन के थपेड़े उसका शोषण करते रहते हैं। उसके मुख की लालिमा समाप्त हो जाती है और विचारों के भंवर में उलझा वह व्यक्ति बाह्य रूप से मानसिक रोगी प्रतीत होने लगता है। ऐसे व्यक्ति अक्सर स्वयं मंें ही डूबे दिखाई पड़ते हैं। उनके चेहरे पर पड़ी तनाव की झुर्रियाँ उनके विचलित मन की कहानी कहती हैं। वास्तविक दुनियाँ इनसे बेगानी होती है।
निःसन्देह इन्टरनेट चैटिंग ने सम्पूर्ण विश्व को एक की-बोर्ड में समाहित कर दिया है परन्तु दूर के रिश्ते निभाते-निभाते अपने कब दूर हो गये इसका अहसास किया जाना भी आवश्यक है। परिवार को जीवित रखने के लिए परिवार को समय का उपहार दिया जाना बहुत जरूरी है। अन्यथा वैश्विक परिवार के संसार में व्यक्तिगत परिवार विलुप्त हो जायेंगें।

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