नस्लवाद और भारतीय
‘‘हमें नमस्कार करो मोंटी। तुम अंग्रेजी नहीं बोल सकते मूर्ख भारतीय। मुझे यह हिन्दी में ही बोलना होगा।’’
सिडनी में न्यू साउथ वेल्स के खिलाफ अभ्यास मैच के दौरान भारतीय मूल के अंग्रेज क्रिकेटर मोंटी पनेसर पर आस्ट्रेलियन दर्शकों द्वारा की गई उपर्युक्त टिप्पणी।
‘हे कमऑन, गिव मी ट्रॉफी’
आस्ट्रेलियन कप्तान रिकी पोंटिग के इन शब्दों के पश्चात् अपना उत्साह जताने के लिए डेमियन मार्टिन का बी0 सी0 सी0 आई0 अध्यक्ष के कंधे पर हाथ रखकर उन्हें मंच से हटाना।
ब्रिटेन के लोकप्रिय रीयलिटी टी0 वी0 शो ‘सेलिब्रिटी बिग ब्रदर’ में अन्य प्रतिभागियों द्वारा शिल्पा शेट्टी पर की गई नस्लवादी टिप्प्णी।
भारत के सम्मानीय व्यक्तियों व सेलिब्रिटियों की एयरपोर्ट पर की गई अनावश्यक चेकिंग।
वर्तमान में, उच्च योग्यता प्राप्त करने के पश्चात् सम्मानित व्यक्तियों द्वारा किये गये ये निम्न स्तरीय कृत्य न केवल विदेशी संस्कृति पर प्रश्नचिन्ह आरोपित करते हैं अपितु विदेशों में ‘भारतीयों की दयनीय स्थिति व उनके सम्मान’ को चर्चा का विषय बनाते हैं। सभ्य समाज के अंश कहलाने जाने वाले ये अंग असभ्यता की वो मिसाल पेश कर रहंे हैं जो इन्हंे सदैव विवादस्पद क्षेत्र में खड़े होने के लिये बाध्य करती है।
21 वीं सदी में प्रवेश करने के बाद भी, क्यों आज का इंसान जातिवाद जैसी व्याधियों से मुक्त नहीं हो पा रहा है? विश्व मेें अपनी योग्यता का लोहा मनवाने वाले भारतीयों को सम्मान की दृष्टि से क्यों नहीं देखा जाता? क्यों आज भी हमंे अपनी स्थिति मजबूत करने के लिये गिड़गिड़ाना पड़ता है?
यदि सभी पहलूओें पर गम्भीरता से विचार करें तो कारण स्पष्ट है कि यह कहीं ना कहीं हमारी ही कमजोरियों का परिणाम है।
भारतीय अपने सरल स्वभाव के कारण अपनी परम्पराओं को निभाते हुये दूसरों को स्वयं से अधिक महत्व देते हैं व दूसरों को सन्तुष्ट करते-करते अपने आत्मसम्मान को खो देते हैं। हमें अपनी सीमाओं को ज्ञान नहीं है। शान्ति की बात करतें हैं तो वह इस हद तक पहुँच जाती है कि अन्य उसे कायरता समझने लगते हैं। सच्चाई की बात करें तो मूर्खता समझने लगते हैं। परन्तु सच यह है कि ‘’अति का भला ना बोलना, अति की भली न चुप’’।
अन्याय सहने वाला भी उतना ही दोषी होता है जितना अन्याय करने वाला। क्यों हम अपने विरूद्ध हुये अन्याय का विरोध करने में असमर्थ हैं? क्या हम यह सब सहने के आदि हो गये हैं या प्रगतिशील देश में भौतिकता की होड़ में हम आत्मसम्मान के तथ्य को नकार रहे हैं या हम वास्तव में कायर हो गये हैं?
‘‘शरद पवांर ने भारतीय सभ्यता को जिंदा रखते हुए इस मुद्दे को तूल न देने के लिये कहा’’, ’’शाहरूख खान ने इस मुद्दे को तूल न देने के लिये कहा’’ जैसी पंक्तियाँ असभ्य व्यक्तियों की हिम्मत को बढ़ावा देने के लिये पर्याप्त है।
इसी प्रकार शिल्पा शेट्टी ने भी ‘‘मैं गलत थी। मैंने दुर्व्यहार को नस्लभेद समझ लिया’’ जैसे ब्यान देकर नस्लवाद को विरोध करने वाले प्रतिनिधियों व स्वयं को मजाक का पात्र बना दिया। इनके इस व्यवहार की ठेस सहने वाले किस भरोसे के साथ इस दुर्व्यवहार के खिलाफ आवाज उठायें? शिल्पा शेट्टी, शाहरूख खान व शरद पवांर का यह बदला हुआ रूप उन्हंे (शिल्पा शेट्टी, शाहरूख खान, शरद पवांर व अन्य भारतीयों को) सन्देह के घेरे में खड़ा कर रहा है कि कहीं यह सब पैसा व झूठी लोकप्रियता पाने के लिये किया गया दिखावा तो नहीं। ‘‘नाम नहीं बदनाम सही, नाम तो हुआ’’ जैसी धारणा फिल्म जगत में सामान्य बात है। पर क्या मात्र स्वार्थ सिद्धि के लिये भारतीय मर्यादा को ताक पर रखना न्यायोचित है? राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी, मदर टेरेसा, जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गाँधी, लाल बहादुर शास्त्री आदि अनेकों महान विभूतियों की भाँति क्यों वर्तमान पीढ़ी अपनी श्रेष्ठता का परिचय देने में असमर्थ है?
शायद, जीवन मूल्यों को महत्वहीन कर सफलता प्राप्ति का यह उपाय अत्यधिक सरल है।
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