शर्मिंदा होती मानवता
नैतिक पतन का भला इससे तुच्छ उदाहरण क्या हो सकता है कि एक व्यक्ति ने अपने अजन्मे बच्चे को बेचने के लिए अख़बार में विज्ञापन दिया? बच्चे जो ईश्वरीय वरदान है उन्हें भी व्यापार का माध्यम बना दिया। पहले माता-पिता स्वयं भूखे रहकर, गर्मी-सर्दी के थपेडे़ सहकर बच्चों का पालन-पोषण करते थे। वे स्वयं प्राकृतिक-कृत्रिम विपदाओं को सहते परन्तु बच्चों को किसी भी मुसीबत का लेश मात्र भी छू नहीं पाता। बहुत से समाचारों में गरीबी की मार झेल रहे परिवार आत्महत्या कर लेते हैं परन्तु इस गरीबी से उबरने के लिए बच्चे का इस प्रकार दिया गया सार्वजनिक विज्ञापन निःसन्देह मानव जाति को शर्मसार कर रहा है। जानवर भी अपने बच्चे की रक्षा के लिए जान की बाजी लगा देते हैं परन्तु इस मानव को देखिये जिसने पहले बच्चे को चोरी-छिपे बेचा और अब इतना निर्लज हो गया है कि उसका सार्वजनिक व्यापार कर रहा है। मानव जाति का स्तर इतना गिरता जा रहा है कि किराये की कोख के व्यापार आरम्भ हो गया। और कितना हम अपनी इंसानियत को शर्मिंदा करेंगें? यह घटना मानव को जानवरों की भी श्रेणी से बाहर उन दैत्यों की श्रृंखला में जोड़ती है जो अपनी भूख शांत करने के लिए अपने ही बच्चों को खा जाते हैं। भौतिक उन्नति की दौड़ में हमारा लालच इस प्रकार फल-फूल गया है कि नैतिक पतन के शीर्ष पर हम खड़े हो गये हैं। इतिहास साक्षी है कि मानव का नैतिक मूल्यों के पतन की और बढ़ता प्रत्येक कदम मानव जाति के विनाश का सूचक है।
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