इसांफ माँगती शहादत
जिस देश में शहीदों के परिजनों को इंसाफ पाने के लिए आत्मदाह जैसे कठोर कदम उठाने पडे़ उस देश का भविष्य भला क्या होगा? शहीदों को मेडल देकर, दो भावभीन दिखावटी शब्द बोलकर राजनेता अपनी राह चल देते हैं और पीछे छोड़ जाते हैं बिलखते-तड़पते असहाय परिजन। जब भी सीमा सुरक्षा की बात आती है तब हम नागरिक सीमा पर तैनात जवानों की ओर आशा भरी नज़रों से देखने लगते हैं और उनसे किसी भी प्रकार की चूक हमारे लिए असहनीय है। ये वीर जवान प्रतिक्षण अपने अंत को मस्तक पर सजाये हम देशवासियों की सुरक्षा करते हैं। परन्तु शहीद होने के उपरान्त जब हम आमजन के फर्ज निर्वाह का समय आता है तब हम अज्ञानी व लाचार बन जाते हैं। तब हमें न तो किसी सीमा से सरोकार होता है न ही किसी सुरक्षा से। अफजल जो इस देश के बेटों की हत्या का दोषी है उसकी फाँसी के लिए परिजनों को पुनः शहीद होना पड़ रहा है। कितनी दुखदायी स्थिति है जिसकी फाँसी के लिए सम्पूर्ण देश को एकत्रित हो संसद तक अपनी ललकार सुनानी चाहिये थी उसके लिए इंसाफ व्यक्तिगत संघर्ष हो गया। संदीप उन्नीकृष्णन के चाचा की मृत्यु पर देश की किसी भी संस्था के कंठ से कोई आवाज क्यों नहीं आई? राष्ट्रवाद का राग अलापने वाले किसी दल ने कोई तान संदीप के लिए क्यों नहीं छेड़ी? आखिर क्यों ऐसे देश की सुरक्षा के लिए माँ अपने बेटों का बलिदान दे जहाٕँ के नागरिक, सरकारी तंत्र, राजनेता या कहें कि सम्पूर्ण देश की आत्मा स्वार्थी हो? अभिनेता बनते राजनीतिज्ञ व उद्योगपतियों के सुपुत्रों को क्यों न एक बार देशभक्त जवान बनाया जाये, तब शायद किसी शहीद के गरीब माता-पिता की पीड़ा का अहसास हमारी गंदी राजनीति कर पाये।
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