Monday, May 16, 2011

‘माता-पिता बनाम पुरूष-स्त्री’


‘माता-पिता बनाम पुरूष-स्त्री’

मिसेज़ वर्मा चाय बनाने के लिए रसोई घर में गई। तभी उनका बेटा एडमिशन फॉर्म लेकर मेरे पास आया और बोला- ‘दीदी! इस फॉर्म को भरने में मेरी मदद कीजिए प्लीज्।
रोहन मिसेज़ वर्मा का 13 साल का बेटा है और इस वर्ष 9वीं कक्षा में आया है। मिसेज वर्मा उसका एडमिशन दूसरे स्कूल में कराना चाहती हैं। इस नये स्कूल के बच्चे बड़ी-बड़ी गाडियों में आते हैं और जब उनका ड्राइवर गाडी से उतरते समय भागकर उनके लिए गाड़ी की खिड़की खोलता तो मिसेज वर्मा गहरी सांस लेकर उसे कुछ क्षण रोकती और फख़ महसूस करती। वह यह ठान चुकी थी कि उनका बेटा भी इन्हीं अमीरों के साथ पढ़ेगा। आखिर वह भी एक अच्छा सामाजिक स्तर रखती हैं। उनके पिताजी की शहर के बाहर एक छोटी सी गत्ता फैक्ट्री थी। जो अब बंद हो चुकी है। काम अच्छा चल रहा था। पर कुछ दगाबाजों की मारफत फैक्ट्री को भारी नुकसान हुआ और फैक्ट्री बंद हो गयी।
बहराल वर्तमान स्थिति यह है कि मिसेज वर्मा का परिवार मध्यम वर्गीय है जो रईस बनने की ओर प्रयासरत् है। इसी प्रेरणा ने मिसेज वर्मा के विचारों को कुछ इस प्रकार विकसित किया वे सोचने लगी कि बच्चों का दाखिला बड़े लोगों के स्कूल में कराने से, छोटे-छोटे कपड़े पहनने से, आय से अधिक खर्चा करने से, पार्टी-क्लब में जाने से व्यक्ति रईस हो जाता है।
कुछ दिन पूर्व अख़बार में ‘नोवा रिच’ विषय पर एक लेख पढ़ा था। ये वे अमीर होते हैं जो अमीरी की दहलीज पर खडे़ अपना सन्तुलन स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं। एक पल अमीरी दूसरे पल गरीबी के भंवर में फंसे हैं। ये कुछ तो अमीर अपनी हैसियत से होते हैं परन्तु बहुत कुछ अमीर अपने शब्दों (डीगों) से होते हैं। इनकी आकांक्षाओं का सैलाब इन्हें मचलती लहरों में ऊपर-नीचे करता रहता है। शायद ये भावी अमीरों की पहली पीढ़ी है।
ख़ैर! रोहन का एडमिशन फार्म लेकर मैंने पढ़ना शुरू किया। नाम-पता, कक्षा-वर्ग आदि शुरूआती सामान्य जानकारियों को भरवाने के पश्चात् मेरी नज़र एक ऐसे विचित्र बिन्दु पर पड़ी जिसे पढ़कर मैं हँसते-हँसते लोट-पोट हो गई। मेरी हँसी का रूप इतना भयंकर हो गया था कि रोहन कुछ सहम गया और मिसेज वर्मा घबराकर भागी-भागी मेरे पास आई।
वे मेरी हँसी रूकने की प्रतीक्षा नहीं कर सकी और चिल्लाते हुए बोली, ‘‘क्या हुआ मिस तोमर आपको इतनी हँसी क्यों आ रही हैं?’’ (मिस तोमर- सरनेम के साथ मिस या मिसेज लगाकर शब्दों को लटके-झटके के साथ बोलना नोवा रिच का अंदाज है और स्वयं के लिए भी वे ऐसे ही संबोधन पसंद करते हैं।)
परन्तु मैं स्वयं को नियंत्रित नहीं कर पा रही थी और लगातार हँसती जा रही थी। इस भयावह हँसी से वे स्वयं को अपमानित महसूस कर रही थी। शायद इसीलिए इस बार उनके शब्दों में आक्रोश आ गया था। ‘मिस तोमर’ मैं आपकी हँसी का कारण जानना चाहती हूँ। उनके तिलमिलाते चेहरे को देखकर मैंने अपनी भावनाओं को समेटा और एडमिशन फॉर्म उनकी और बढ़ा दिया।
फॉर्म हाथ में लेकर वह बोली- हाँ, एडमिशन फॉर्म है यह। इसमें हँसने वाली क्या बात है?
‘‘बिलकुल-बिलकुल एडमिशन फॉर्म ही है परन्तु बहुत ही है। परन्तु क्या आपने इसे पढ़ा है?’’, मैंने पुनः हल्की सी हँसी के साथ पूछा।
इस पर उन्होंने चिढ़ि नज़रों से मुझे देखते हुए कहा- नहीं, अभी नहीं। पर आप अब पहेलियाँ बुझाना बंद कीजिए और ये बताइये कि आप इतनी बेहूदी हँसी क्यों हँस रही हैं?
उनके ‘बेहूदे’ शब्द का प्रयोग मुझे अवश्य ही चुभा परन्तु वह सही भी थी। मेरी हँसी ने सभ्यता की सीमा तो लाँघी ही थी। कोई व्यक्ति आपके घर में बैठकर उपहासनीय हँसी हँसे और आपको सम्मिलित न करे तो निश्चित रूप से शालीनता के विरूद्ध है। अतः मैं अपनी सभ्यता व शालीनता का परिचय देते हुए उनसे क्षमा माँगी और स्पष्ट करते हुए कहा कि आप इस फॉर्म का पाँचवाँ व छँटा बिन्दु देखिए। बहुत ही विचित्र प्रश्न है? पाँचवें बिन्दु में माँ का नाम व लिंग तथा छटंे बिन्दु में पिता का नाम व लिंग पूछा है।
यह देखकर उनके चेहरे पर एक भ्रमित सी मुस्कुराहट आ गई। उन्हंे इन बिन्दुओं पर हँसी तो आ रही थी परन्तु वे यह नहीं समझ पा रही थी कि इस प्रकार माता-पिता का लिंग पूछने का क्या तात्पर्य है? इसलिए उन्होंने बात को घुमाते हुए कहा- ओह! इतना बड़ा स्कूल और इतनी सिली मिस्टेक। इस प्रकार माता-पिता का लिंग पूछने का क्या मतलब? यह तो अन्डरस्टुड है, माँ फीमेल और पिता मेल होंगे। मैं प्रिंसीपल से इसकी शिकायत जरूर करूँगी। और.............................
रूकिये मिसेज वर्मा इस एडमिशन फॉर्म में कोई गलती नहीं है। मैंने उनकी बात बीच में ही काटते हुए कहा।
जी हाँ। यह बिलकुल सही प्रश्न है और आधुनिक परिवेश में प्रासंगिक भी है। आपने समलैंगिगकता के विषय में तो सुना ही होगा। सैक्शन 377 के अन्तर्गत इसे कानून वैध माना गया है। अब चूंकि यह वैध है तो बच्चों के एडमिशन फॉर्म में माता-पिता के लिंग के बिन्दु होना तो जायज है ही। यह बताना तो आवश्यक हो ही जाता है ना माता पुरूष है या स्त्री? पिता पुरूष है या स्त्री?
कैसी विडम्बना है कि पहले जिसे बीमारी माना जाता था आज वह कानून वैध सिद्ध हो गया है। इन्सान और कितना प्रकृति विरोधी होगा? प्रकृति के नियमों को ताक पर रखकर समाज को यह किस दिशा में ले जाया जा रहा है? जब किसी प्रस्ताव को कानूनी जामा पहना दिया जाता है तो समाज में उसके प्रसार की गति तीव्र हो जाती है। क्या सरकार ने इस प्रस्ताव के परिणामों को ध्यान में रखा था? अभी तक पुरूष द्वारा स्त्री शोषण के केस दर्ज किये जाते थे। लेकिन इस प्रकार तो पुरूष द्वारा पुरूष और स्त्री द्वारा स्त्री शोषण के केसों की संख्या में वृद्धि हो जायेगी। और कानूनी जटिलताएँ भी बढ़ जायेंगी। अब तक जहाँ एक लड़का-लड़की साथ दिखाई देते तो सामाजिक सोच की दिशा मात्र प्रेमी-प्रेमिका वाली होती थी वहीं अब तो दो पुरूष व दो महिलाओं का साथ चलना भी दुश्वार हो जायेगा। और बाल-मन तो इससे कितना भ्रमित होगा यह तो किसी ने सोचा ही नहीं।
मेरी सोच के बादलों के बीच बिजली की कड़क जैसी आवाज ने मुझे वापस विचारशून्यता की सूखी धरती पर लाकर खडा कर दिया। मिसेज वर्मा बोली- ओह! ऐसा है। खै़र हमें इससे क्या मतलब? आप ये एडमिशन फॉर्म भरने में रोहन की मदद कर दीजिए प्लीज। यह कहकर वे रसोई में चाय लाने चली गई। और मैं ’हमें इससे क्या मतलब’ संवाद की गूँज के बीच रोहन का फॉर्म भरवाने लगी।

2 comments:

  1. एक असमंजस जेहन में हुआ.. जब मैंने एक ही कहानी दो तरीके से पढ़ी... एक लेखिका के ब्लॉग से दूसरी सम्मानित समाचार पत्र "जनवाणी" के पेपर एडिशन से... दोनों में जो फर्क दिखाई देता है वो शायद लेखिका और अखबार का फर्क है.. या यूँ कहे कि फर्क है व्यापार और भावनाओं का. यद्यपि उद्देश्य दोनों का एक है फिर भी इस प्रकार के अंतर की वजह से ही शायद सामाजिक मूल्य और मानव जीवन दो अलग अलग रास्तों पर जाते दिखाई देते हैं...

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  2. काश ये कमेन्ट समाचार पत्र के संपादक को भी मिल पाता.

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