महिला सशक्तिकरण और मीडिया
महिला सशक्तिकरण, प्रत्येक वर्ष 8 मार्च के आस-पास के दिनों में ये दो शब्द हमारी श्रवणेंद्रियों में सर्वाधिक गुंजायमान् होते हैं। चहुँ ओर गोष्ठियों का आयोजन होने लगता है। द्रोपदी के चीर जैसे लम्बे भाषणों के सामने बैठे कुछ लोग उबासी के कारण बार-बार मुँह खोलते-बंद करते हैं क्योंकि इन भाषणों का सफ़र वीरांगना झाँसी की रानी, इंदिरा गाँधी से आरम्भ होकर वर्तमान दृष्टांत कल्पना चावला, इन्दिरा नूई आदि पर समाप्त हो जाता है। इन भाषणों में महिलाओं को असीम शक्ति की प्रतिमूर्ति के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। सुनकर लगता है कि सर्वाधिक सशक्त मात्र महिलाएँ ही हैं। कितने आनन्दायक व उत्साहित करने वाले क्षण होते है ये 8 मार्च के। अगर नजरों को इन दिनों के भ्रमजाल से बचाते हुए सम्पूर्ण वर्ष के चक्र की यात्रा करायें तो महिला सशक्तिकरण का शोचनीय व भ्रामक स्वरूप हमारे सम्मुख खड़ा उपहासनीय हँसी हँसते हुए हमें लज्जित कर रहा है। सम्पूर्ण वर्ष कान छलनी होते हैं अपमानित होती महिलाओं की चित्कार से। महिला सशक्तिकरण को शर्मिंदा करती हैं घरेलू हिंसा से त्रस्त महिलाएँ। फुटपाथ पर लूट, छेड़खानी, हत्या, बलात्कार की शिकार होती महिलाएँ कहती है कि हम आज भी अबला ही हैं। आखिर ये कौन सी महिलाएँ सशक्त हो रही हैं? उच्च वर्ग की मँहगी कारों में सुशोभित महिलाएँ यदि सशक्तिकरण के नारे लगायंे तो लगता है कि कोई अपमान का तमाचा मार रहा हो। कोई गरीब महिला ‘महिला सशक्तिकरण’ की पहचान बन जाये, यह देखने के लिए वर्षाें प्रतिक्षा करनी पड़ती है तब जाकर कहीं इक्का-दुक्का नाम अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्षरत् रहते हैं। क्योंकि उनके पीछे भागने के लिए न तो किसी मीडिया के पास समय है और न ही वह टी. आर. पी. बढ़ाने का कोई माध्यम है। यदि मीडिया महिला सशक्तिकरण को मिशन बनाकर एक सकारात्मक कदम बढ़ाये तो शायद समर्थन के हाथ पाकर अगला कदम उठाने का हौसला महिलाएँ पा जायें और महिला सशक्तिकरण को कुछ वजूद मिल जाये।
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