ऑनर किलिंग
पंजाब के तरनतास में युगल के प्रेम विवाह के बाद लड़की वालों ने लड़के वालों के घर में घुसकर अपनी लड़की और उसके ससुराल के अन्य सदस्यों की हत्या कर दी।
अप्रैल 2010 में झारखण्ड की रहने वाली जर्नलिस्ट निरूपमा पाठक को दूसरी जाति के लड़के से प्रेम करने की कीमत जान देकर चुकानी पडी।
मार्च 2010 में हरियाणा के भिवानी स्थित तालू गाँव में एक ही गोत्र में प्रेम-विवाह करने पर लड़के के भाई की गोली मारकर हत्या कर दी।
ऐसी कितनी ही घटनाओं से लाल रहता है हमारा ‘आज’ का अखबार। पिछले कुछ दिनों से इस प्रकार की हिंसक घटनाओं में आश्चर्यजनक रूप से वृद्धि हुई है। यह एक विशेष परिस्थिति में किया गया अपराध है और इसका नामकरण कर नाम दिया गया है- ‘ऑनर किलिंग’। अर्थात ‘सम्मान के लिए हत्या’। माता-पिता, भाई या रिश्तेदार जाति, धर्म या गोत्र के नाम पर प्रेम करने वाले युगल की हत्या कर देते है। ऐसा करके वे गुनहगारों की किसी श्रेणी में न आकर समाज के उस तबके में सम्मानीय स्थान पाते हैं जो इस प्रकार की सोच के धरातल पर जड़ है। इसे ‘सम्मान के लिए किये गये महान बलिदान’ की संज्ञा भी दी जाती है। आश्चर्य की बात यह है कि हमारा समाज इसका (ऑनर किलिंग का) कट्टर समर्थक भी है।
आखिर यह किसका विरोध है? प्रेम का? या विजातीय प्रेम का? पहले यह स्पष्ट किया जाना अति आवश्यक है। 21 वीं सदी में उन्नति व प्रगति की गति बहुत तीव्र है और इस गति से यह विश्व भरपूर आनन्द उठाते हुए लाभान्वित भी हो रहा है। सबसे आगे निकलने की इस दौड़ में जाति-धर्म जैसे संकुचित दायरों को कब पार कर लिया गया, पता ही नहीं चला। आज सभी जाति-धर्म के लोग एक साथ मिल बाँटकर काम करते हैं, अपने सुख-दुख बाँटते हैं, सहर्ष विचार विमर्श करते हैं और इसी प्रकार दिनचर्या का निर्वाह हो जाता है। पहले की तुलना में आज जाति विषयक समस्या बहुत ही कम है। यह एक शुभ संकेत है।
परन्तु पिछले कुछ दिनों से अचानक एक तूफान पुनः समाज में विभाजन स्थापित करने का प्रयास कर रहा है। पुनः लोगों को सीमित कर रहा है उन्हीं के निजी दायरे में। ऑनर किलिंग नाम के इस तूफान ने पुनः लोगों को उनकी जातियाँ याद दिला दी और फिर समाज अपनी-अपनी जातियों के झण्डे उठाये ऊँच-नीच के विष का पान करने लगा।
ऑनर किलिंग के कारणों की निष्पक्ष चर्चा की जानी अति आवश्यक है। इसका पहला कारण है-सगोत्री विवाह जिसके विरोध में खाप पंचायत विभिन्न फरमान जारी करती है। जिनका अन्ततः परिणाम प्रेमी युगल की हत्या ही है। सगोत्री विवाह अर्थात विवाह योग्य लड़के-लड़की का गोत्र समान होना। सामाजिक मान्यताओं के अनुसार समान गोत्र होने पर उन दोनों का रिश्ता भाई-बहन का होता है। यह तथ्य काफी हद तक सही है। यदि सगोत्र विवाहों को मान्यता दे दी जायेगी तो सामाजिक मर्यादाएँ विखंडित हो जायेंगी। भाई-बहन के रिश्ते की पवित्रता संदेहग्रस्त हो जायेगी। एक ही गाँव या क्षेत्र में रहते हुए जो परिवार निर्भय होकर सामाजिक व्यवहार का आदान-प्रदान करते हैं, वे बातचीत करते हुए भी कतराने लगेंगे। विचार बदलने से रीतियाँ बदलती हैं और सगोत्र विवाह की रीति का विरोध भाई-बहन के रिश्ते को संरक्षण प्रदान करता है।
परन्तु इन बातों से परे सर्वप्रमुख बात है हत्या की। कारण चाहे कुछ भी हो, क्या हत्या उसका एकमात्र समाधान है? नहीं, बिलकुल नहीं। दुनिया के किसी भी संविधान या नीति शास्त्र में हत्या को स्वीकृति नहीं दी गई है। फिर क्यांे इसे एकमात्र हल माना जा रहा है? इस समस्या का कोई अन्य समाधान भी हो सकता है। उनका सामाजिक बहिष्कार किया जा सकता है। परन्तु हत्या! यह निश्चित रूप से महापाप है।
ऑनर किलिंग का दूसरा और निरर्थक कारण है- प्रेम विवाह। वास्तव में देखा जाये तो यह कारण किसी सीमा तक सगोत्री विवाह के ‘प्रेम विवाह’ शब्द को भी स्वयं में समाहित किये हुए है।
प्रेम विवाह अर्थात वह विवाह जिसमें बालिग युवक-युवती अपने विवेक का प्रयोग करते हुए अपनी पसंद के जीवन साथी का चयन करते हैं। आधुनिक समाज में शिक्षा का प्रसार होने के कारण प्रत्येक व्यक्ति के विवेक, सोचने-समझने की क्षमता का विकास हुआ है। आज महिलाएँ अंतरिक्ष में अपना परचम फैला रही हैं। उन्हें अपने अधिकार और कर्तव्यों का ज्ञान है। समाज भी उन्हें शिक्षित होने और अपना करियर चुनने की स्वतत्रंता प्रदान करता है। परन्तु फिर भी ‘विवाह’ एक ऐसा बिन्दु है जिस पर अभी भी सामाजिक सोच संकुचित है और ऑनर किलिंग जैसे परिणाम दे रही है।
वास्तव में यह विरोध प्रेम-विवाह का भी नहीं है। यह विरोध है स्त्री के अपने अधिकारों के प्रयोग का। स्त्री को सभी प्रकार की स्वतंत्रता है सिवाय अपनी पसंद से वर चुनने के। आज भी वह माता-पिता की पसंद के खूँटे से बँधने के लिए बाध्य है। और जैसे ही इस बाध्यता का विरोध होता है, परिणाम-ऑनर किलिंग। आखिर क्यों माता-पिता अपनी बेटी के इस निर्णय पर भरोसा नहीं कर पाते? वे उसके हर निर्णय का समर्थन अपने संस्कारों की दुहाई देते हुए करते हैं। उन्हें अपने दिये संस्कारों पर भरोसा है कि वह जो निर्णय लेगी वह सही ही होगा। परन्तु जैसे ही बात विवाह की आती है तो ‘वही ढ़ाक के तीन पात’।
आखिर कब तक इस भरोसे के अभाव में ये हत्याएँ होती रहेंगी? कब स्त्री को पूर्णतः आत्मनिर्भर माना जायेगा? कब वह अपनी स्वतंत्र उड़ान भर सकेगी? आखिर कब?
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