Wednesday, June 29, 2011

सैंया बने भैया


मेरठ के आरती-नितीश प्रकरण ने रिश्तों की एक नई परिभाषा की व्युत्पत्ति की। रिश्ता, सात्विक भावनाओं व निश्छलता का। आरती ने सत्य के आँचल की छांव में अपने और विनीत के सम्बन्ध को नितीश के सम्मुख स्वीकार किया और नितिश ने भी सन्तुलित व्यक्तित्व का परिचय देते हुए आरती के साथ एक नवीन पवित्र रिश्ते की डोर बाँधी। समाजशास्त्री इस नव-परिवर्तन को स्वीकार न कर सामाजिक कुप्रभाव की संभावनाएँ व्यक्त कर रहे हैं। परन्तु पिछले कुछ आंकडों का विश्लेषण करने पर ऑनर किलिंग की बढ़ती घटनाओं का यह समाधान तलाशने की बाध्यता ऑनर किलिंग के जनकों ने ही उत्पन्न की है। बेटियों को शिक्षित कर उन्हंे प्रत्येक अधिकार प्रदान करने की रीत में एक कड़ी अभी भी टूटी हुई है, उन्हंे अपने योग्य जीवन साथी के चयन की स्वतंत्रता। यही कारण है कि आरती को माता-पिता की आज्ञा का अनुसरण करते हुए नितीश का हमसफर बनने के लिए विवश होना पड़ा। परन्तु क्या इस मजबूरी के रिश्ते का बोझ वे दोनों जीवन पर्यन्त ढो पाते? क्या एक-दूसरे के प्रति निष्ठा व सम्पर्ण की आस्था उनमें उत्पन्न हो पाती? ऐसी परिस्थितियों में नितिश का यह निर्णय एक मिसाल है। उसके सुलझे मस्तिष्क व व्यापक सोच का स्वागत किया जाना चाहिए। और अभिभावकों को विचारना चाहिए कि वर्तमान में तलाक, हत्या, भाग जाना, ऑनर किलिंग जैसी बढ़ती घटनाआंे में वृद्धि न हो इसके लिए बच्चों के मित्र बन उनके करियर के साथ-साथ विवाह सरीखे विषयों पर भी खुलकर बात करें और उनमें स्वयं के हित-अहित पर मनन करने की योग्यता विकसित करें। साथ ही अभिभावकों को भी व्यवहारगत जड़ता का त्याग करते हुए बच्चों के सही निर्णयों को सहर्ष स्वीकार कर शुष्क सम्बन्धों को जीवन्त करने का प्रयास करना चाहिए। परिवर्तन ही संसार का नियम है और पारस्परिक सामंजस्य इस नवीन परिवर्तन को एक सार्थक परिणाम प्रदान कर सकता है।

Tuesday, June 7, 2011

‘‘स्पीक अप पेरेंट्स’’


‘‘स्पीक अप पेरेंट्स’’

एक 15 वर्षीय बच्चे ने जब स्पीक एशिया की तारीफों के कसीदें पढ़ने आरम्भ किये तो बहुत आश्चर्य हुआ। वह न केवल स्पीक एशिया के फरॉड होने की अफवाओं का सिरे से खण्डन कर रहा था अपितु इसके लाभ के लुभावने प्रलोभन भी दे रहा था। स्पीक एशिया फरॉड है अथवा नहीं, इससे परे इसकी दुष्प्रभावी, लालची हवाएँ अधिक खतरनाक हैं। यह युवाओं में अधिक धनार्जन का लोभ भर उन्हें पथभ्रष्ट कर रही है। माया की मीठी चाश्नी इतनी गूढ़ है कि आस-पास की सभी वस्तुओं को स्वयं में समा उनका भक्षण कर रही है। पैसा कमाने का यह शॉर्ट कट युवाओं को उनके करियर व पढ़ाई से तो विमुख कर ही रहा है, साथ ही इस अनापेक्षित धन से युवा विलासी भी होता जा रहा है। इस उपलब्ध धन ने उन्हें पार्टीज, बांड के शौक और मौजमस्ती के जीवन की ओर प्रेरित करना आरम्भ कर दिया है। अब वे माता-पिता को उल्टा जवाब देने में संकुचाते नहीं और आत्मनिर्भरता के अतिआत्मविश्वास के कारण अपने निर्णय स्वयं लेने के लिए ढ़ीठ भी हो रहे हैं। समस्या वास्तव में गम्भीर है। जीवन के प्रति गम्भीरता समाप्त हो रही है। मूल्यों का हृास हो रहा है। कम्पनी धोखेबाज है या नहीं से अधिक चुनौतीपूर्ण कम्पनी द्वारा समाज विशेषतः युवाओं को असुरक्षित, दिशाहीन व अंधकारमय भविष्य की गर्त में धकेला जाना है। अभिभावकों की सचेतता अति आवश्यक है। सम्भालिए बच्चों को।

Saturday, June 4, 2011

‘कमेला नहीं हटेगा’


‘कमेला नहीं हटेगा’

पिछले कुछ महीनों से कमेला विस्थापन के लिए विभिन्न प्रकार से हाहाकार मची हुई है। इस संघर्ष में विभिन्न कुर्बानियाँ भी दी गई। बड़ौत के जैन मुनि की तपस्या भंग हुई, बंद के दौरान करोड़ों का घाटा हुआ, आमजन को विभिन्न मुसीबतों का सामना करना पड़ा परन्तु परिणाम ‘सिफ़र’। वस्तुतः इस सम्पूर्ण संघर्ष की ढुलमुल सफलता-असफलता के कारण निरन्तरता की कमी, कुशल नेतृत्व, दृढ़ता व संगठन का अभाव है। इस मुहीम ने भी अन्ना हजारे जैसी सफलता के सपने संजोये परन्तु समस्या क्षेत्रीय होने के कारण उन सपनों को पर नहीं मिल सके। भ्रष्टाचार की त्रास्दी विश्वव्यापी है, जिस पर सम्पूर्ण विश्व की आँखें छलकती हैं। परन्तु कमेले के प्रति सीमित वर्ग ही गम्भीर व संघर्षरत् है। इस रेतीली बुनियाद पर सफलता की मजबूत इमारत की कल्पना का अस्तित्व संकटग्रस्त प्रतीत होता है। दूसरा पहलू यह भी है कि जनता स्वयं अपने विचारों में स्पष्ट नहीं है कि वह कमेले का विस्थापन चाहती है अथवा कमेले का समाप्त अस्तित्व? स्पष्टतः कमेला बिना जानवरों के नहीं चल सकता। पशुपालक व्यक्तिगत लाभ हेतु कमेले के जानवर बेचते हैं। यहाँ तक कि दुधारू जानवर जो अस्थायी रूप से दुग्ध उत्पादित करने में अक्षम हैं, घरों में बढ़ती जानवरों की संख्या देखते हुए पशुपालक उन्हें कमेले को बेच लाभार्जित करते हैं। वस्तुतः कमेला ऐसा पशुपालकों द्वारा पोषित व संचालित किया जा रहा है। फिर कमेले विरोध का यह ढ़ोंग क्यों? तीसरा मुद्दा कमेले के विस्थापन से सम्बन्धित है। निःसन्देह वर्षों से स्थापित किसी व्यवस्था का स्थान परिवर्तन सरल नहीं है, परन्तु यह असम्भव हो ऐसा भी नहीं है। दिल्ली क्लोथ मील बसापत बढ़ने से रिहायशी क्षेत्र के मध्य आ गई थी। मील मालिक ने मील को अच्छे मुनाफे से बेच आबादी से दूर अन्य स्थान पर स्वयं को पुनः स्थापित किया। तो कमेला क्यों नहीं? कमेले की दुर्गंध व इसके कारण होने वाली असहनीय व्याधियों से ग्रसित परिवारों का जीवन व्यापारियों के लाभ के सम्मुख महत्वहीन कैसे हो सकता है? सरकारी चुप्पी भ्रष्टाचार की एक और शब्दविहीन कहानी कह रही है।