Friday, May 8, 2020

लाॅकडाउन


ऐसा भी समय होता है क्या? ये तो कभी सोचा भी न था। हम तो हम, हमसे पहली पीढ़ी ने भी ये सब कभी नही देखा होगा। पर हाँ, हमारे बच्चे आगे आने वाली पीढ़ियों को ये किस्से अवश्य सुनाएंगे। कुछ मजे़दार बनाकर, कुछ भयभीत कर, कुछ करूणामय अंदाज़ में। भावी पीढ़ी के लिए एक मज़ेदार मसालायुक्त, रात के लिए नानी-दादी की कहानियाँ बनेंगी। और यूँ शुरू हो जाएगा इक नया युग और परिवर्तित हो जाएंगी ये कहानियाँ। पहले किस्से राजा महाराजाओं के हुआ करते थे। और फिर चली आज़ादी की कहानियाँ। कम्प्यूटर युग में यह स्वरूप और बदला और फिर आया लाॅकडाउन...........। एक भयंकर महामारी, कोरोना जिसने सम्पूर्ण विश्व में हाहाकार मचा दिया, के उपचार हेतु लोगों का स्वतः एवं शासनादेशानुसार घरों में रहना है लाॅकडाउन।
कहा जाता है कि लगभग सौ वर्षों में कोई न कोई महामारी अवश्य फैलती है। 13वीं शताब्दी में ब्लैक डैथ, 15वीं शताब्दी में कोकोलिज़ली, 16वी शताब्दी में प्लेग, 17वीं शताब्दी में पुनः प्लेग, 18वीं शताब्दी में फ्लू, 19वीं शताब्दी में पोलियो, स्पेनिश फ्लू एवं एशियन फ्लू, 20वीं शताब्दी में स्वाइन फ्लू, इबोला, जीका और अब कोरोना। कदाचित यह इसलिए क्योंकि इसके माध्यम से प्रकृति पृथ्वी की रक्षा करती है। उसे स्वच्छ करती है। संतुलन स्थापित करती है। मानव की अतिमहत्त्वकांक्षाओं को आइना दिखा नियंत्रित करती है। सफलता, कामयाबी, मुनाफ़ा, ऊँचाई, लालच सबके खेल में मानो प्रकृति ने ‘स्टैच्यु’ बोल दिया हो।

परन्तु इस खेल में आनन्द आ रहा है। हालांकि कुछ लोगों को खेल खेलना नही भाता है, परन्तु इस खेल को खेलने के लिए कई परिवार वास्तव में तड़प गए थे। ‘ज़िदगी में सबकुछ है पर सुकून नहीं’, ‘पैसा है, पर परिवार नही’ ऐसे अनेक वाक्य हमारे जीवन में निराशा भरने लगे थेे। चाह कर भी कोई इस भंवर से बाहर नही आ पा रहा था। पर देखो ना! यह पृथ्वी हमारी माँ है और माँ बच्चों की अनकही पीड़ा को सुन लेती है। हमारी इसी पुकार को सुन, दे दिया इसने हमें ज़िंदगी का सुकुन। सुकुन परिवार के साथ घंटों टीवी देखने का, लूडो, कैरम, ताश, शतरंज, अंताक्षरी खेलने का, दुःख-सुख की बात करने का, यूँ ही बेवजह लड़ने का झगड़ने का, घंटों सोने का, विभिन्न व्यंजनों का, फ़ोन पर एक-दूसरे की ख़ैरियत पूछने का, हँसी-मजाक और खिलखिलाहट का। इसी सुकून चाह थी ना?

अब आप कहेंगे व्यापार में हानि, भूख और पानी, दैनिक ज़रूरतें और होती मौतें कहाँ वह सुकून देती हैं। वास्तव में दुःखद एवं कष्टदायी है यह सब। परन्तु जिस प्रकार हर सिक्के के दो पहलू होते हैं, उसी प्रकार जो परिस्थितियाँ हमारे हाथ में नही हैं, तो क्यों न इसी में सुख की अनुभूति की जाए। आशावादी हो, जो बुरा नही हुआ उसके लिए ईश्वर का धन्यवाद किया जाए। व्यक्ति की वर्षाें से चल रही दिनचार्य से इतर जब कुछ होता है, तो वह कष्टदायी तो लगता ही है। परिणामस्वरूप दुःख एवं अवसाद की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। दुःख स्वभाविक है। मानवीय प्रकृति एवं अनुभूति है। परन्तु अवसाद विशेष अवस्था है। दुःख की चरम सीमा है। दुःख कष्ट का अहसास कराता है एवं उसका हल तलाशने की प्रेरणा देता है। अवसाद नकारात्मकता सृजित करता है। समस्याओं को गहराता है और अनजाने भंवर में फँसाता है। दुःख, सुख के महत्त्व को समझाता है और अवसाद विचार शून्य कर देता है। अतः दुःख को अनुभूत अवश्य करना चाहिए। यह त्रुटियों को सुधारने के अवसर प्रदान करता है। यह अभिप्ररित करता है, यह विचारने के लिए कि जो घटना अथवा अवस्था व्यक्ति के नियंत्रण से बाहर है, जिन्हें वह परिवर्तित करने में असमर्थ है, उनके लिए दुःख को अत्यधिक आत्मसात् न कर किसी अन्य मार्ग की ओर अग्रसरित होना चाहिए। और यदि उन समस्याओं के हल उपलब्ध हैं, तो दुःख का वजूद बेमानी है। अतः हल होने और न होने दोनों ही स्थितियों में व्यक्ति को कष्टानुसार दुःख को अनुभव तो अवश्य करना चाहिए, परन्तु उन परिथितियों को हावी होने का अवसर प्रदान कर अवसादग्रस्त नही होना चाहिए।

कोरोना की समस्या ने बहुत से घरों में अवसाद की स्थिति उत्पन्न कर दी है। लोग कुंठित हो हिंसा के लिए प्रेरित एवं बाध्य हो रहे हैं। विचित्र समस्या है। कभी व्यक्ति समय की कमी एवं परिवार का सान्निध्य न मिल पाने के कारण खिन्न रहता है, तो कभी प्रचूर समय भारी लगने लगता है और परिवार का साथ अप्रिय। दरअसल कारण समय और परिवार न होकर, यकायक हुए परिवर्तन की अस्वीकृति है। अभिलाषी एवं महत्त्वकांक्षी मस्तिष्क में अनपेक्षित परिस्थितियों ने ‘केमिकल लोचा’ कर दिया। ऐसा समय अकल्पिनीय था। इसकी तो कोई योजना ही नहीं बनाई गई थी। वरन् इसने अनेक योजनाओं की गति ही बाधित कर दी। इन समस्त परिवर्तनों को मानव मस्तिष्क अचानक से सुचारू रूप से प्रबन्धित नही कर पा रहा है। परिणामतः हिंसा एवं अवसाद।

इन परिस्थितियों का सामना करने वाले मनुष्य को समस्त चिंताओं को विस्मृत कर नवीन परिस्थितियों के लिए छोटी-छोटी योजनाएं तैयार करनी चाहिए। छोटी एवं निश्चित समयान्तराल की योजनाएं। चाहे-अनचाहे अभी घर परिवार के साथ ही रहना है, तो क्यों न वह समय हँसी-खुशी, प्रसन्नता के साथ बिताया जाए। लाॅकडाउन के प्रत्येक सुखद दिन की एक छोटी-सी योजना। साथ ही लाॅकडाउन समाप्त होने पर परिवर्तित हुई समस्त परिस्थितियों के लिए तैयार रहने की छोटी-सी योजना। हालांकि यह सभी कुछ अपूर्वानुमेय है, इसीलिए योजना का लघु होना आवश्यक है। अन्यथा फिर कोई अप्रत्याशित घटना अवसाद का सबब बन सकती है। बहुत अधिक सोचना सही नही है। जीवन के प्रत्येक क्षण को जी भरकर जिया जाए।

यह सब उन लोगों के लिए फिर भी बहुत सरल है, जो घर बैठे सुविधा सम्पन्न होते हुए भी अकारण ही कुंठित हो रहे हैं। विचार विशेषतः उन लोगों के लिए करना आवश्यक है, जो विकट परिस्थितियों से गुजर रहे हैं। जो भूख-बीमारी एवं मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित हो संघर्षरत् है। जिनके लिए खुश रहने का सुझाव, उनका उपहास करने जैसा है। उनकी सहायता के यथासंभव प्रयास सरकार भी कर रही है एवं आमजन से भी अपेक्षित हैं। परन्तु हमारे देश में यह संख्या अत्यधिक विशाल है। वस्तुतः भारत के लिए यह एक चुनौतीस्वरूप है। न केवल सरकार के लिए एक चुनौती वरन् प्रत्येक भारतीय के लिए मानवतावादी होना सिद्ध करने की चुनौती। और भारतीय परम्पराओं एवं संस्कृति में इस प्रकार का मानवतावादी व्यवहार सदैव प्रशंसनीय रहा है।

इसी के साथ सभी को कृतज्ञ होना चाहिए समस्त कोरोना प्रहरियों एवं योद्धाओं का, जो अपना जीवन संकट में डाल देशभक्ति को इस रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। सेना के वीर जवानों की भांति ही ये सभी लोग भी सलाम के पात्र हैं। वंदनीय हैं। साथ ही वे महिलाएं जो कभी न समाप्त होने वाली ड्यूटी और अधिक निष्ठा से घर के समस्त व्यक्तियों को प्रसन्न रखने के लिए कर रही हैं, उनका अभिवादन एवं सहयोग किया जाना भी आवश्यक है।

कोरोना एक जंग है, जिसे सभी को साथ में मिलकर जीतना है। साथ ही यह एक नये युग का जनक भी है। इस जंग के उपरान्त जीवन जीने के सलीके बदल जाएंगे। जीवन के प्रति नज़रिया बदल जाएगा। लोभ-लालच, रूपया-पैसा सभी की परिभाषाएं एवं प्राथमिकताएं बदल जाएंगे। हम सभी को उन परिवर्तनों के लिए मानसिक रूप से तैयार रहना चाहिए, जिससे फिर किसी यकायक परिवर्तन से अवसादग्रस्त होने से बचा जा सके।


मैं हूँ कोरोना

मैं कोरोना हूँ उफऱ् कोविड-19। आजकल सुबह उठने से रात को सोने तक बस मेरा ही जिक्र और मेरी ही चर्चा है। ऐसा लग रहा है कि लोग कुछ ज़्यादा ही मुझसे प्यार करने लगे हैं। मैं विदेशी हूँ, यह तो सभी जानते हैं और विदेश्िायों के प्रति आकर्षण भी स्वभाविक है। वस्तुतः इसीलिए इतना प्रेम और स्नेह मुझे मिल रहा है। हालांकि कुछ लोग मुझे पसंद नही कर रहे और धीरे-धीरे उनकी तादाद भी बढ़ती जा रही है। पर मैं दूसरों की पसंद की परवाह नही करता।

मैं चीन से आया हूँ। यद्यपि चाइनीज माल की कोर्इ गारंटी नही है, किन्तु मेरी गारंटी पूरी-पूरी है कि यदि आप थोड़े से भी कमजोर मेरे सामने रहे, तो बस लोगों की यादों में ही रह जाएंगे। मैं प्रभावशाली हूँ, उच्छृंखल हूँ। इसका प्रमाण मैं कर्इ देशों में दे चुका हूँ। इसके बावजूद कर्इ लोग मेरा उपहास उड़ा रहे हैं। मुझ पर लतीफ़े बना रहे हैं। बिल्कुल भी गम्भीरता ही नही है।

अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मेरे वजूद की चुनौती को स्वीकारा गया है। मेरा नाम इतने उच्च स्तर पर भी प्रख्यात (कुख्यात) हो गया है। फिर भी कुछ लोग मेरे अस्ितत्व से घबरा नही रहे हैं। बस यही तो कोफ़्त है मुझे। यही तो नही भा रहा। जिन कारणों एवं उद्देश्यों से मेरा जन्म हुआ है, ऐसे लोग मुझे उन्हें पूर्ण करने का अवसर प्रदान कर रहे हैं। इनके इस सहयोग का बहुत आभारी हूँ मैं। इनकी यह निभ्र्ाीकता मुझे उकसाती है। मुझे प्रेरित करती है अपना प्रभुत्व, अपना खौफ़ कायम रखने के लिए।

अब देखो! ये इनकी नादानी कहूँ या अपनी खु़शकिस्मती कि मेरे संदेह होने मात्र् से ये लोग अस्पतालों से भाग रहे हैं। विचित्र मूर्खता है। बीमार होने पर इलाज कराया जाता है या अस्पतालों से भाग दूसरों को भी संक्रमित किया जाता है! इसमें कौन-सी बुद्धिमानी है, मेरी समझ से परे है। इन इंसानों को समझना मुझे समझने से भी अध्िाक जटिल है। मुझे दोष देते हैं कि मैं अनियंत्रित हो सबको परेशान कर रहा हूँ और स्वयं ‘मूविंग बम’ बने घूम रहे हैं। मैंने तो मौका दिया है मुझसे पीछा छुड़ाने का। बैठो घर पर। बचे रहो मुझसे। पर ये तो इंसान है ना! लोभी, आरामप्रस्त, स्वाथ्र्ाी....... घर बैठने का अवसर दिया, तो चल दिए पिकनिक मनाने। अब यदि मैं तुम्हारा आलिंगन करता हूँ, तो दोषी तो तुम स्वयं हो।

तुम इंसानों को तो मुझे धन्यवाद देना चाहिए कि विश्वपटल पर मैंने सबको संगठित कर दिया है। विभ्िान्न प्रकार की लड़ाइयाँ, खींचातानी, अध्िाकार-कर्तव्य सब बेमानी हो गए। ‘जान है तो जहान है’, बस यही बात सबको समझाने में मेरा महत्त्वपूर्ण योगदान है। एक बात तो पूर्णतः स्पष्ट हो गर्इ है कि सभी प्रलोभन ‘जीवन’ के रहते ही औचित्यपूर्ण है। जीवन ही नही तो क्या मायने इन ‘ख़्वाहिशों’ के?

पर इस पर भी कुछ लोग हैं जिनका जीवन-दर्शन बहुत अद्भुत है। उन्हें अपने व्यापार में हानि की बहुत चिंता है। वे निरंतर प्रयासर्त है, इस संकट की घड़ी में अपने व्यापार को बचाने एवं बढ़ाने के लिए। इसके लिए वे अपने प्राणों की आहुति देने एवं दूसरों के प्राणों की भी आहुति देने से संकुचाते नही हैं। ऐसे कर्मठ लोग मुझेे बहुत पि्रय हैं। उनकी अज्ञानता मेरी वाहक है। मेरी चहेती ‘टूरिस्ट गाइड’। मुझे सर्वव्यापी करने में सहायक।

वैसे लोगों को मेरा शुक्रगुज़ार होना चाहिए कि मैं उन्हें विभ्िान्न प्रकार के नवीन ‘आइडियाज़’ दे रहा हूँ। कभी सोचा होगा किसी ने कि ‘वर्क फ्राॅम होम’ जैसा भी कुछ हो सकता है। हालांकि बहुत लोग पहले से ही इसे करते आ रहे हैं, पर क्या इतने बड़े स्तर पर यह सब! कितना अच्छा है ना! क्या तुम इसके फ़ायदे जानते हो? इससे सड़क पर रोज़ सुबह होती परेड एवं भागमभाग से निजात मिली है। जिसके कारण वाहनों का आवागमन कम हुआ है और प्रदूषण का स्तर भी घटा है। और तो और जाने-आने का अनावश्यक खर्च भी बच गया है। आॅफि़स में बिजली-पानी जैसे अनेक व्यय जो कर्मचारियों पर होते हैं, सब कम हो गए हैं। और काम तो हो ही रहे हैं। कर्मचारियों का भी जो समय आने-जाने में बर्बाद होता था, उस समय का सदुपयोग किसी अन्य कार्य को सम्पन्न करने में किया जा सकता है। शारीरिक कष्टों से भी मुक्ित मिल रही है। एक स्वस्थ शरीर में की स्वस्थ मस्ितष्क का निवास होता है। इससे कार्य की गुणवत्ता भी बढ़ती है। कहने का तात्पर्य यह है कि जिन कार्यों को सरलतापूर्वक घर से ही करते हुए इतनी बचत की जा सकती है, तो क्यों न मेरे बाद भी उन कायर्ोें को आगे भी इसी प्रकार किया जाए, जिससे उन बचतों का उपयोग कर और अध्िाक उत्पादन बढ़ाया जा सके।

इंसान को अब अपना नजरिया बदलने का समय आ गया है। इलेक्ट्राॅनिक होती इस दुनिया को बर्बाद होने से बचाने का समय। अब गम्भीर होकर सबको सोचना होगा कि मेरा जन्म क्यों हुआ है? मैं किसी देश की खु़राफ़ात नही हूँ। मैं ‘बदला’ हूँ प्रकृति का। उस प्रकृति का जिसने तुम्हें माँ जैसा दुलार दिया, जिसने तुम्हें आसरा दिया, जीवन दिया, सौन्दर्य दिया, नैसगर्िकता दी। और तुमने क्या किया? बदले में तुमने उसे छलनी कर दिया। अपने स्वार्थ में उसका अंधाधुंध दोहन किया। उसके बनाए जीवों की हत्या की। उस पर जनसंख्या रूपी वजन को बढ़ाया। प्रदूषण से उसका दम घोट दिया। उसे असहनीय कष्ट दिए। पर तुम्हें कभी उसके कष्टों का अहसास तक न हुआ। अति हर चीज की बुरी होती है। मेरे जैसी विभ्िान्न व्याध्िायाँ, उसी अति का परिणाम हैं। मैं प्रकृति के बदले का माध्यम हूँ। प्रकृति अपना बदला विभ्िान्न रूपों में लेती है। कभी बाढ़, कभी भूकंप, कभी सूखा तो कभी अतिवष्र्ाा। ये प्राकृतिक आपदाएं नहीं हैं। यह प्राकृतिक प्रतिशोध है। इंसान को इस प्रतिशोध से डरना चाहिए क्योंकि प्रकृति ने उसे बनाया है, उसने प्रकृति को नही। प्रकृति जब चाहे उसके वजूद को समाप्त कर सकती है। इसलिए इंसान को कभी अपना दायरा नही भूलना चाहिए। यदि वह ऐसा करता है, चाहे किसी भी रूप में ‘अनियंत्रित जनसंख्या हो या प्रदूषण या प्राकृतिक संसाधनांे का दोहन, तब प्रतिशोध के द्योतक के रूप में मेरा जन्म होगा, या मेरे जैसों का जन्म होगा। इन बातों को समझने एवं इनसे सबक लेने का यही उचित समय है। यही समय है अपनी प्रकृति के प्रति अनुगृहीत होने का।

इस कठिन समय पर प्रकृति के महत्त्व को समझते हुए सुरक्ष्िात रहने का प्रयास करें। मुझसे बचना है, तो मेरी इन बातों पर गहनता से विचार करना होगा। कुछ समय बाद, मैं तो चला जाऊँगा, पर जो हृदयविदारक छाप देकर जाऊँगा, उसे याद रखना। यदि मेरी दी गर्इ सीखों की दिशा में उचित प्रयास नही किए गए, तो याद रखना, मैं फिर किसी दूसरे रूप में वापस आऊँगा। भूलना नहीं ‘मैं हूँ कोरोना’।