Tuesday, October 25, 2011

मंहगाई में मनायें खुशियों की दिवाली


चहुँ ओर की हाहाकार में त्यौहारों का उल्लास दम तोड़ रहा है। मंहगाई का कुचक्र त्यौहारांे की खुशियों को सिसकियों में परिवर्तित कर रहा है। अमीर-गरीब का स्तरीय विभेदीकरण एक कॉमन (उभयनिष्ठ) सीमा पर आकर बेबस हो गया है। मंहगाई- आर्थिक रूप से विभिन्नता लिए कोई भी जीवन स्तर हो, सभी इसी शब्द से त्रस्त हैं। आखिर कैसे आनन्दित हो त्यौहारों के आगमन पर? यह विचार प्रत्येक उस व्यक्ति को कचोटता होगा जिसके लिए त्यौहार के आगमन की प्रसन्नता का आधार ‘‘पैसा’’ है। पटाखे जलाना, मिठाई खरीदना, घर सजाना, खरीददारी करना, क्या यही एक माध्यम है त्यौहार मनाने का? नहीं! यदि त्यौहार मनाने के वास्तविक स्वरूप को स्वीकार किया जाये तो निःसन्देह इस वर्ष की दिवाली आपको सर्वाधिक आत्मिक प्रसन्नता देगी। मात्र् आवश्यकता है बाहरी आडम्बर व दिखावे-छलावे की दुनिया के स्वयं को विरक्त करने की। आर्थिक प्रतिस्पर्धा को त्यागकर सादगी को अपनाते हुए दीये जलाइये उन घरों में जहाँ त्यौहार पर चूल्हे की ठंडी राख बेबस माँ के आँसूओं और भूख से तड़पते बच्चों की सिसकियों को छुपाती है। पटाखों की गूँज से तीव्र कीजिए उन बच्चों की हँसी की गूँज को जिनकी प्यासी आँखें अपनों के न होने के अहसास से सिहर उठती हैं। दीजिए सहारा उन काँपते हाथों को जिनके कटु अनुभव उनके जीवन की मिठास को कहीं लील गये हैं। अगर इस दिवाली को मनाने को इस ढ़ंग को आप अपनायेंगे तो कभी मंहगाई की मार आपकी दिवाली फीकी नहीं कर सकेगी।

Tuesday, October 4, 2011

बनिये रोजगारदाता

i-next में प्रकाशित रिपोर्ट ‘जॉब के लिए जाएं कहाँ?’, यह प्रश्नचिन्ह स्वयं में एक प्रतिप्रश्न समाहित किये हुए है कि ‘जॉब के लिए जायें क्यों?’ स्कूल से कॉलिज तक के सफर की आवश्यकता, उद्देश्य एवं अन्तिम लक्ष्य जीविकोपार्जन हेतु रोजगार प्राप्त करना है। परन्तु वर्तमान परिस्थितियाँ इसी बिन्दु पर निराशा व अंधकारमय भविष्य के दर्शन कराती है। परिणाम स्वरूप बेराजगारों के बढ़ते आपराधिक रिकार्ड, कुण्ठा एवं आत्महत्याओं के ग्राफ में वृद्धि। किसी भी देश की ताकत एवं गुरूर उस देश की युवाशक्ति होता है परन्तु भारतवर्ष की युवाशक्ति को यह कैसी दिशा प्राप्त हो रही है? इस समस्या का समाधान क्या है? वास्तव में नासूर बनती जा रही, इस समस्या का समाधान नितांत आवश्यक भी है। ऐसा नही है कि यह अविनाशी समस्या है। गांधी जी की शिक्षा नीतियाँ इस संदर्भ में पुनः हमारा ध्यानाकर्षित करती हैं। जी हाँ, गांधी जी की ‘बेसिक शिक्षा’ जो आधुनिक परिस्थितियों में भी अपनी सार्थकता प्रमाणित करती है। मात्र आवश्यकता है समकालीन परिस्थितियों के अनुरूप सामंजस्य स्थापित करते हुए उसका अनुसरण करने की। यह शिक्षा ‘स्वः रोजगार’ की अवधारणा पर आधारित है। भारतीय युवा पीढ़ी में चमत्कृत प्रतिभा एवं गुण है जिनसे वह स्वयं भी अनभिज्ञ है। माता-पिता एवं गुरूजनों को युवाओं के भीतर स्थिति इस स्पार्क को पॉजीटिव दिशा प्रदान करते हुए, उन्हें स्वः रोजगार के लिए प्रेरित करना चाहिये। परजीवी एवं पराश्रित बनाने वाले मानसिकता को तिलांजलि देते हुए उनमें विश्वास उत्पन्न करना चाहिये कि वे न केवल अपने लिए अपितु दूसरों के लिए भी रोजगार उत्पादित करें। यह वक्तव्य कुछ लोगों को यह कहने का अवसर अवश्य प्रदान करता है कि ‘कहना आसान है और करना मुश्किल’। परन्तु एक सत्य यह भी है कि आत्मविश्वास के धरातल पर सफलता की इमारत खड़ी करना कठिन भी नहीं है। बढ़ते कदमों को साथ अवश्य प्राप्त होता है परन्तु यह निर्णय उन कदमों का होता है कि वह किस मंजिल की ओर अग्रसर है। दृढ़ संकल्प एवं एकाग्रता आपके एवं मंजिल के मध्य की दूरी को कम कर देते हैं। आत्मनिर्भरता की यह लौ न केवल बेरोजगारी की समस्या का निवारण करेगी वरन् देश की उन्नति में भी सहायक सिद्ध होगी।