Saturday, June 4, 2011

‘कमेला नहीं हटेगा’


‘कमेला नहीं हटेगा’

पिछले कुछ महीनों से कमेला विस्थापन के लिए विभिन्न प्रकार से हाहाकार मची हुई है। इस संघर्ष में विभिन्न कुर्बानियाँ भी दी गई। बड़ौत के जैन मुनि की तपस्या भंग हुई, बंद के दौरान करोड़ों का घाटा हुआ, आमजन को विभिन्न मुसीबतों का सामना करना पड़ा परन्तु परिणाम ‘सिफ़र’। वस्तुतः इस सम्पूर्ण संघर्ष की ढुलमुल सफलता-असफलता के कारण निरन्तरता की कमी, कुशल नेतृत्व, दृढ़ता व संगठन का अभाव है। इस मुहीम ने भी अन्ना हजारे जैसी सफलता के सपने संजोये परन्तु समस्या क्षेत्रीय होने के कारण उन सपनों को पर नहीं मिल सके। भ्रष्टाचार की त्रास्दी विश्वव्यापी है, जिस पर सम्पूर्ण विश्व की आँखें छलकती हैं। परन्तु कमेले के प्रति सीमित वर्ग ही गम्भीर व संघर्षरत् है। इस रेतीली बुनियाद पर सफलता की मजबूत इमारत की कल्पना का अस्तित्व संकटग्रस्त प्रतीत होता है। दूसरा पहलू यह भी है कि जनता स्वयं अपने विचारों में स्पष्ट नहीं है कि वह कमेले का विस्थापन चाहती है अथवा कमेले का समाप्त अस्तित्व? स्पष्टतः कमेला बिना जानवरों के नहीं चल सकता। पशुपालक व्यक्तिगत लाभ हेतु कमेले के जानवर बेचते हैं। यहाँ तक कि दुधारू जानवर जो अस्थायी रूप से दुग्ध उत्पादित करने में अक्षम हैं, घरों में बढ़ती जानवरों की संख्या देखते हुए पशुपालक उन्हें कमेले को बेच लाभार्जित करते हैं। वस्तुतः कमेला ऐसा पशुपालकों द्वारा पोषित व संचालित किया जा रहा है। फिर कमेले विरोध का यह ढ़ोंग क्यों? तीसरा मुद्दा कमेले के विस्थापन से सम्बन्धित है। निःसन्देह वर्षों से स्थापित किसी व्यवस्था का स्थान परिवर्तन सरल नहीं है, परन्तु यह असम्भव हो ऐसा भी नहीं है। दिल्ली क्लोथ मील बसापत बढ़ने से रिहायशी क्षेत्र के मध्य आ गई थी। मील मालिक ने मील को अच्छे मुनाफे से बेच आबादी से दूर अन्य स्थान पर स्वयं को पुनः स्थापित किया। तो कमेला क्यों नहीं? कमेले की दुर्गंध व इसके कारण होने वाली असहनीय व्याधियों से ग्रसित परिवारों का जीवन व्यापारियों के लाभ के सम्मुख महत्वहीन कैसे हो सकता है? सरकारी चुप्पी भ्रष्टाचार की एक और शब्दविहीन कहानी कह रही है।

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