Tuesday, May 31, 2011

पिछले दरवाजे की एन्ट्री


पिछले दरवाजे की एन्ट्री

जब भी किसी घोटाले या आपराधिक मामलों में किसी जनप्रतिनिधि की संलिप्तता पाई जाती है तो एक प्रश्न मतदाताओं की जुबाँ को सी देता है- ‘‘आखिर इन्हें चुनने वाला कौन है?’’ एक सीमा तक देखा जाये तो प्रश्न सार्थक भी है। आखिरकार लोकतंत्र में मतदान के अधिकार का प्रयोग कर इन्हें अपना रहनुमा हम खुद ही बनाते हैं। परन्तु वहीं दूसरी ओर एक विवशता इस प्रश्न के उत्तर में मतदाताओं को संरक्षण प्रदान करती है कि जब सारी ही मछलियाँ सड़ी हो तो अन्य कोई विकल्प ही कहाँ रह जाता है? इस मरूस्थल में सींचने हेतु कोई वृक्ष है ही कहाँ? विवशता व बाध्यता के अधीन जनता-जनार्दन को इन्हीं में से किसी का चयन करना ही पड़ता है। विस्मित कर देने वाला तथ्य यह है कि सम्पूर्ण भूमण्डल पर 6000 घराने पिछले कई वर्षाें से शासन कर रहे हैं। बाप से बेटे को राजनीति पीढ़ी दर पीढ़ी विरासत में मिलती जा रही है। बूढ़े शेर शिकार करने में इतने पारंगत हो चुके हैं कि वे किसी अन्य को स्थापित होने का अवसर ही प्रदान नहीं करते। ऐसी स्थिति में युवा पीढ़ी किस प्रकार प्रतिनिधित्व का बीड़ा उठाये? राज्य सभा व लोक सभा दोनांे में कुल मिलाकर लगभग 145 सांसद ऐसे हैं जो अरबपति हैं। जिनका चयन राजनीतिक पार्टियाँ स्वहित हेतु करती हैं। क्या वातानुकूलित कमरों में विराजमान लोग गरीब की धूप में जलती चमड़ी की जलन को महसूस कर सकते हैं? क्या महीने के अंत में घर चलाने के लिए आम आदमी की चेहरे की शिकन व तनाव को समझ सकते हैं? क्यों उतारा जाता है ऐसे व्यापारियों को राजनीति के अखाड़े में। राजनीति जनसेवा का क्षेत्र है व्यापार का नहीं। माननीय मनमोहन सिंह जी असम प्रदेश से संसद तक का सफर तय करते हैं जहाँ के क्षेत्र से वे पूर्णतः अनभिज्ञ थे और लतीफा यह है कि आम जनता भी इन्हें नहीं जानती थी। पत्रकारिता जगत ने इसे बैकडोर एन्ट्री की संज्ञा दी। राजनीति में इस प्रकार की बैकडोर एन्ट्री से आम जनता भला किस प्रकार लाभान्वित हो सकती है? वास्तव में अब देश को एक गरीब, समझदार, कर्तव्यनिष्ठ व ईमानदार प्रतिनिधि की आवश्यकता है जो वास्तव में इस गम्भीर व संवेदनशील दायित्व का गरिमापूर्ण ढं़ग से निर्वाह करने में सक्षम हो।

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