Monday, May 16, 2011

तलाक-तलाक-तलाक

तलाक-तलाक-तलाक

‘कभी न सुधरने वाले रिश्तों’ को आधार बनाकर हिन्दु विवाह कानून में संशोधन के प्रस्ताव को मंजूरी मिल गई। वास्तव में देखा जाये तो यह मंजूरी विघटित होते रिश्तों को जोड़ने के प्रयास के बजाय ऐसे रिश्तों में आई दरार को खाई में परिवर्तित करने में अधिक सहायक है। आशंका यह है कि कहीं यह मंजूरी कोर्ट में लम्बित पड़े केसों को तुरत-फुरत निपटाने का माध्यम तो नहीं।
तलाक एक दुखदायी घटना है। यदि इसकी प्रक्रिया का सरलीकरण होगा तो इनकी संख्या में वृद्धि होगी। और समाज के ऐसे विकृत रूप का निर्माण होगा जहाँ मूल्यों, संस्कारों, सहनशीलता आदि सामाजिक गुणों का अभाव होगा। पाश्चात्य देशों की सरल प्रक्रिया क दुष्परिणाम हम देख ही रहे हैं। ‘संयुक्त परिवार’ विघटित हो ‘एकल परिवार’ मेें परिवर्तित हो गये। अब एकल परिवार से इस ‘एक व्यक्ति परिवार’ के लिए तो नये शब्द की रचना करनी होगी।
बहुत से केसों में देखा गया है कि व्यक्ति क्रोधवश तलाक के निर्णय पर पहुँच जाता है परन्तु तलाक की लम्बी प्रक्रिया के बीच क्रोध शान्त होने पर पुनः समझौते कर लेता है और सुखी जीवन भी व्यतीत करता है। कई बार तलाक की जटिल प्रक्रिया के कारण लोग रिश्ते निभाते-निभाते ताउम्र गुजार देते हैं। परन्तु यह मंजुरी पारिवारिक समस्या को समाधान नहीं बल्कि वयैक्तिक स्वच्छंदता को प्रोत्साहित करती है। ‘विवाह’ महत्वहीन हो मात्र एक प्रमाण-पत्र की भाँति प्रयोग होने लगेगा और ये पंक्तियाँ स्वच्छंद जिंदगी का फलसफा बन जायेंगी कि-
‘‘तू है हरजाई, तो अपना भी यह तौर नहीं
तू नहीं और सही, और नहीं और सही।’’

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