Monday, May 16, 2011

रिश्तों में जासूसी ?

रिश्तों में जासूसी ?

पति-पत्नी के रिश्ते की मजबूत डोर का आधार यदि ‘जासूसी’ होने लगे, तो भला ऐसा रिश्ता कितने दिनों तक अस्तित्व में रह पायेगा? जिस कार्य को करने से पहले ही शंकाएं मन को घेर लें, ऐसे कार्य की असफलता की जड़ें तो पहले ही मजबूत हो जाती हैं। रिश्तों में बढ़ते अविश्वास ने एकल परिवारवाद को जन्म दिया और अब यह एकल तत्व भी अपना वजूद तलाश रहा है। जासूसी एजेंसियाँ अपनी दुकान चलाने के लिए निराधार आशंकाएं उत्पन्न कर परिवारों में शक का बीज बो रही हैं। सहनशीलता के हृास ने पति-पत्नी को घर की निष्ठुर दीवार के रूप खड़ा कर दिया है, जो साथ रहकर मकान का निर्माण तो कर रही हैं, परन्तु घर होने का अहसास प्रदान नहीं कर सकती। संयुक्त होते हुए भी तन्हाई की बू प्रतिक्षण मष्तिष्क में उथल-पुथल मचाए रहती है। माता-पिता के झगड़ों से सहमे बच्चे दीवार के कोनो में चिपके हर ऊँची आवाज पर सिसकियाँ लेते हैं। ऐसे में ये जासूसी शब्द अविश्वास की खाई को और अधिक गहराता है। आखिर कैसे कोई हाड़-माँस का बना तीसरा शरीर किसी रिश्ते की सफलता की गारंटी हो सकता है? मानवीय भूल यदि उससे हुई तो? यदि खुशहाल परिवार का निर्माण करना है तो यान्त्रिक व कृत्रिम दुनिया को अस्वीकृत कर संवेदनाओं और भावनाओं के संसार में प्रवेश करना होगा और त्याग, सहनशीलता व समर्पण के सितारों से इसे सजाना होगा।

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