अपील
बिहार में एक महिला ने विधायक के शोषण से व्यथित होकर उसकी चाकू से गोदकर हत्या कर दी। जरा सोचिये क्या मनोस्थिति रही होगी उस महिला की जो सार्वजनिक रूप से हत्यारिन बनने के लिए बाध्य हो गई? कितनी कुण्ठित, कितनी निराश, हतोत्साहित, असहाय व लाचार रही होगी वह। और जब निराशाओं पर विजय प्राप्त करनी चाही जो उस रोष ने लहु में ऐसा उबाल लाया कि परिणाम विभत्स रूप में सामने आया। वस्तुतः देखा जाये तो यह संकेत है स्त्रियों के सब्र के बाँध के टूटने की कगार पर होने का। पिछले कुछ महीनों से जिस प्रकार महिला अपराध व अत्याचार का ग्राफ बुलंदियों को छू रहा है और न्याय प्रक्रिया व सुरक्षा स्तर में गिरावट आ रही है तो यह गुबार कोई ना कोई रोद्र रूप लेगा ही। निसंदेह जब पापों की पराकाष्ठा होती है तो कोई ना कोई अप्रिया घटना घटित होती ही है। लडकियों के अपहरण, बलात्कार, छेडछाड़ को आखि़र कब तक सहन किया जाये? सुरक्षा की दृष्टि न तो घर पर टिकती है और न ही समाज पर। आखि़र जाये तो जाये कहाँ? क्या महिला समाज का अंग नहीं है? यदि है जो वह सम्मान व सुरक्षा के अधिकार से वंचित क्यों है? सहनशीलता मात्र स्त्री धर्म क्यों है? पुरूष अपनी बहन की सुरक्षा में तो जान की बाजी लगाने के लिए तैयार है परन्तु दूसरों की बहनों पर नज़रों में फेर कैसे आ जाता है? कृपया जवाब दीजिए, हमें सुरक्षा का संरक्षण कब और कैसे प्राप्त होगा? कब हमें मानसिक स्वतंत्रता का आनन्द व सुकून प्राप्त होगा? आखि़र कब?
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