Monday, May 16, 2011
आँखंे ‘गर हो जायें पराई’
आँखंे ‘गर हो जायें पराई’
मैं उसके खेल को दूर से निहार रही थी और बीच-बीच में मिसेज शर्मा की बातों का जवाब भी दे रही थी। परन्तु मिसेज शर्मा की बातों से ज्यादा मेरा ध्यान उस खेल पर था जो मेरी छः साल की मासूम बेटी ‘अनुभूति’ मिसेज शर्मा की हमउम्र बेटी ‘महक’ के साथ खेल रही थी। मुझे आज उसका खेल उन सामान्य खेलों से भिन्न लग रहा था जो वह रोज़ खेलती थी। सामान्यतः मैं कभी इतनी केन्द्रित होकर उस पर नज़र नहीं रखती थी परन्तु शायद कुछ दिनों से उसके व्यवहार में आये परिवर्तन के कारण मैं उसका कुछ ज्यादा ही ध्यान रखने लगी थी।
उसका खेल बडा ही विचित्र था। उसने एक काले रंग की पट्टी महक की आखांे पर बाँध दी। फिर उसके सामने अपने पेंसिल बॉक्स से पेंसिल निकालकर पूछा, ‘‘ये क्या है?’’ महक ने उत्सुकता से झटपट आँखों से पट्टी हटाई और बोली, ‘‘कितनी सुन्दर पेंसिल है!’’ अनुभूति को जैसे इस उत्तर से कोई सरोकार ही नहीं था। वह कुछ और उत्तर चाहती थी इसलिए उसने महक को दो पल घूरा और गुस्से से बोली, ‘‘तुमने पट्टी क्यों खोल दी? आँखों पर पट्टी बाँधकर बताओ ये क्या है?’’ वह उठी और दोबारा उसने महक की आँखों पर वह पट्टी बाँध दी। फिर कलर बॉक्स से लाल रंग निकालकर पूछा, ‘‘ये कौन सा कलर है?’’ इस बार महक ने अंदाजा लगाया और बोली, ‘‘ब्लैक’’। नो, दिस इज़ रेड। अनुभूति चिल्लायी।
अनुभूति छोटी-छोटी बातों पर इस तरह से कभी नहीं झुझलाती थी। शान्त व सहयोगी स्वभाव की वह कुछ दिनों से किसी उलझन में लग रही थी। उलझन की इसी अवस्था में उसने फिर सफेद रंग उठाकर पूछा, ‘‘विच कलर इज़ दिस?’’ महक ने इस बार थोड़ा समय लगाया और फिर बोली- ब्लैक। अनुभूति के चेहरे की शिकन बढ़ने लगी और उसने महक के आँखों की पट्टी खोल दी और कहा- ये पट्टी मेरी आँखों पर बाँधों। उसे देखकर लगा कि वो कुछ ऐसे प्रश्नों के उत्तर चाहती है जो सामान्य नहीं हैं।
खै़र! आँखों पर पट्टी बँधते ही उसने महक के पूछने से पहले ही अपनी नन्ही-नन्ही उंगलियों को पंेसिल बॉक्स पर धीरे-धीरे घुमाया और स्पर्श से कुछ जानने की कोशिश की। इसी बीच महक ने उससे पूछा- विच कलर इज़ दिस? लेकिन उसने उसका कोई जवाब नहीं दिया। और अपनी धुन में मगन पेंसिल बॉक्स और कलर बॉक्स को बार-बार छूकर अलग-अलग पहचानने की कोशिश वह करती रही। महक ने फिर उससे अपना प्रश्न दोहराया परन्तु इस बार भी उत्तर न पाकर वह अनुभूति के व्यवहार से नाराज हो गई और अपने पापा व भाई जो मिसेज शर्मा के ही साथ आये थे, उनके पास चली गई। अनुभूति को इस बात का अहसास तक नहीं हुआ और वह अब भी अलग-अलग रंग उठाकर उसका अंदाजा लगाने की कोशिश कर रही थी और कभी स्पर्श के माध्यम से चीजों को पहचाने की।
अनुभूति मानसिक रोगी या किसी बीमारी से ग्रस्त नहीं थी। वस्तुतः ऐसा उसके साथ तब से हो रहा था जब से वह उस नेत्रहीन बच्चे से मिली थी जो हमें नेत्र-अस्पताल में मिला था। उस दिन हम नेत्रदान करने के लिए नेत्र-अस्पताल गये थे। वहीं हम उस नेत्रहीन बच्चे से मिले। अनूभूति उसकी आँखों को, उसके व्यवहार को और उसकी पर-निर्भरता को बहुत ध्यान से देख रही थी। वह बहुत समझदार, जिज्ञासु और बहुत भावुक लड़की है इसलिए शायद उसने उसे देखते ही प्रश्नों की झड़ी लगा दी।
मम्मी भैया की आँखें ऐसी क्यों हैं? इनको पकड़कर क्यों ले जा रहे हैं? मैं इन्हें देख रही हूँ फिर भी ये मुझे क्यों नही देख रहे हैं? ये देखकर क्यों नहीं चल रहे हैं? क्यों चीजों से टकरा जाते हैं? और भी न जाने क्या-क्या?
मैंने पूरी कोशिश की कि अपने उत्तरों से उसे संतुष्ट कर सकूँ। पर मुझे यह भी अहसास हो रहा था कि शायद वह पूर्णतः सन्तुष्ट नहीं हो पा रही थी। उसने फिर पूछा कि हम यहाँ क्यों आये हैं? मैंने बताया कि नेत्रदान करने के लिए। नेत्रदान से सम्बन्धित उसके प्रश्नों की झड़ी ने फिर मुझे घेर लिया। परन्तु इस बार उसके प्रश्न मेरे नेत्रदान के फैसले को सहयोग कर रहे थे। वो मासूम जैसे मेरे फैसले से खुश हो।
उस दिन नेत्रदान करके हम घर आ गये। परन्तु अनूभूति हर पल उस बच्चे की पीड़ा का अहसास करने का प्रयास करने लगी थी। यह खेल भी उसी प्रयास का ही एक हिस्सा था।
थोड़ी देर बाद मिसेज शर्मा परिवार और हम सभी खाने की मेज पर साथ बैठे खाना खाते हुए गपशप कर रहे थे। हमारी गपशप के बीच में एक प्रश्न ने हम सभी का ध्यान उसकी ओर मोड़ दिया।
अंकल क्या आपने आईज़ डोनेट की हैं? उसके इस सवाल पर चंद क्षणों का सन्नाटा छा गया परन्तु फिर अचानक मिस्टर शर्मा हँसने लगे और बोले, ‘‘बेटा क्या आप जानते हो कि आई डोनेशन क्या होता है?’’
‘‘हाँ, मैं जानती हूँ। मम्मी ने मुझे बताया था कि जो लोग देख नहीं पाते उनको, जो लोग मर जाते हैं उनकी आँखें लगा देते हैं और वे लोग फिर से देखने लगते हैं।’’, अनुभूति ने समझाते हुए कहा।
‘‘आप तो बहुत समझदार हो बेटा। लेकिन मैंने तो अपनी आईज़ डोनेट नहीं की।’’ मिस्टर शर्मा ने से कहा।
‘‘क्यों? क्यों नहीं की आपने अपनी आईज़ डोनेट?’’, अनुभूति ने आश्चर्य से पूछा।
मिस्टर शर्मा व्यंगात्मक लहजे से बोले, ‘‘वो इसलिए बेटा, कहीं ऐसा न हो कि मरने के बाद आईज़ डोनेट करने पर मैं अगले जन्म में अंधा पैदा होऊँ।’’
और पापा मैं तो अपनी आँखें कभी डोनेट नहीं करूँगा। मैं नहीं चाहता कि मरने के बाद मेरी खूबसूरती में कोई कमी आये। मिस्टर शर्मा की बातें समाप्त होते ही तुरन्त उनके बेटे ने कहा।
उन दोनों के ये संवाद सुनकर मैं आवाक् रह गई। मुझे लगा शायद बच्ची को बहकाकर शान्त करने के लिए वे ऐसा कह रहे हैं। मैंने तुरन्त उनसे पूछा, ‘‘भाई साहब क्या आप वाकई ऐसा सोचते हैं?’’
जी हाँ, बहन जी। ये सच है। मैं अगले जन्म मंे अंधा पैदा नहीं होना चाहता। मिस्टर शर्मा ने कहा।
उनका यह जवाब सुनकर सबसे पहले तो मुझे उनके पढ़े-लिखे अनपढ़ होने का अहसास हुआ। और बहुत दुख भी हुआ कि आज भी हमारा शिक्षित समाज कितना अशिक्षित है। कैसी-कैसी निराधार धारणाएँ उनकी विचारधारा की दिशा निर्देशित करती हैं?
मैंने उन्हंे समझाने की कोशिश की कि भाई साहब! जो लोग किसी दुर्घटना में विकलांग हो जाते है क्या वे सभी विकलांग ही पैदा होते हैं? अगर ऐसा होता तो धीरे-धीरे विकलांगों की तादात इतनी बढ़ जाती कि कोई भी पूर्णतः हष्ट-पुष्ट नहीं होता। और जो शरीर अग्नि में स्वाह होकर पंचतत्वों में विलीन हो जाना है उसकी खुबसूरती या बदसूरती का कोई औचित्य ही नहीं है। हाँ, लेकिन हमारी आँखें यदि किसी को ये खूबसूरत दुनिया दिखाने में सफल हो जाये तो हमारी मौत अवश्य सार्थक हो जायेगी। वैसे भी मरणोपरांत इस मिट्टी रूपी शरीर का कोई वजूद नहीं होता। तो क्यांे न इसे किसी के लिए उपयोगी बना दिया जाये?
डॉक्टर आपकी पूरी आँखें नहीं केवल कॉर्निया का उपयोग करते हैं। और पुनः आँखों में आई-बॉल डालकर पहले जैसा ही रूप दे देते हैं। जिससे आपकी ‘खूबसूरती’ में भी कोई कमी नहीं आती।
यदि हम अपनी आँखें कुछ पल के लिए बंद कर लें तो बैचेन हो उठते हैं। अपनी दुनिया देखने के लिए तड़प उठते हैं। जरा सोचिए उन लोगों के विषय में जिन्हें अपनी सूरत का भी अंदाजा नहीं। अपने बच्चों की शक्ल मालूम नहीं, दुनिया के रंगों का अहसास नहीं। वे सिर्फ स्पर्श की आँखों से दुनिया को समझते हैं। पर क्या कभी स्पर्श आँखों की कमी पूरी कर सकता है?
मेरी बातें शर्मा जी को शायद बोर कर रही थी और वे इस भाषण से मुक्ति चाहते थे। तभी वे बोल उठे, ‘‘अच्छा जी! अब हम चलते हैं। काफी देर हो गई है। इस लजीज खाने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।’’
उन्हें अलविदा कहने के बाद जैसे ही मैं पीछे मुड़ी, अनुभूति जैसे मेरा ही इन्तजार कर रही थी। उसके चेहरे पर दृढ़ भाव थे। उसी गम्भीर दृढ़ता से वह बोली, ‘‘अंकल बहुत गंदे थे ना मम्मी। वे झूठ बोल रहे थे। उनको कुछ नहीं पता। आप प्लीज मेरी आईज़ डोनेट कर दो।’’
उसकी मासूमियत पर मेरी आँखें छलक उठी और मैंने उसे सीने से लगा लिया।
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