Tuesday, July 12, 2011

डेल्ही बेली


लगान, तारे जमीं पर, रंग दे बसंती, 3-इडिएटस जैसी फिल्मों का निर्माण कर आमिर खान ने फिल्म विषयों को एक विस्तृत आयाम प्रदान किया। इन विषयों की पृष्ठभूमि वे समस्याएँ थी जिनसे हम अक्सर दो-चार होते है परन्तु निजी जीवन की व्यस्तताओं एवं आवश्यकतापूर्ति की जद्दोजहद में इनकी अवहेलना कर जाते हैं। आमिर खान ने न केवल इन विषयों की प्रस्तति से जनसाधारण को सामाजिक दायित्वों के प्रति सजग किया अपितु इसी प्रकार की बहुतेरी विद्रूपताओं हेतु शान्तिपूर्ण ढं़ग से समाधान प्राप्ति का मार्गदर्शन भी किया। गाँधीवादी सत्याग्रह को जीवंत करता कैंडल मार्च रूपी समाधान आज सम्पूर्ण भारत में विरोध प्रदर्शन का अचूक यंत्र बन गया है। निःसन्देह आमिर खान की यह प्रयोगधर्मिता समाजोपयोगी निर्देशन के अपने उद्देश्य को प्राप्त कर पाई है।
इसी क्रम में अपेक्षित डेल्ही बेली का निर्माण समझ से परे रहा। यह फिल्म क्या संदेश देना चाहती थी? या इसमें प्रयुक्त भाषा को आमिर खान समाज के किस वर्ग को दिनचर्या के अनिवार्य अंग के रूप में भेंट करना चाहते थे? इन प्रश्नों के उत्तर-प्राप्ति में मैं असमर्थ रही। यदि मान भी लिया जाये कि यह मनोरंजन आधारित फिल्म थी, तो मनोरंजन का क्षेत्र इतना संकीर्ण व स्तर इतना निम्न कैसे हो गया? मनोरंजन चार्ली चैपलन द्वारा भी किया जाता था और यह कहने में कोई कंजूसी नही की जानी चाहिए कि वह ‘बेमिसाल’ था।
फिल्म निर्देशन एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है। यह समाज का पथ प्रदर्शन करती है। समाज की जड़ांे में ऐसे विषयों का अकूत भण्डार है जिन्हें समाज स्वीकार करने में भयभीत होता है परन्तु उनका समाधान चाहता है। इसका मुख्य कारण नेतृत्व क्षमता का अभाव है। फिल्म निर्माता, लेखक, पत्रकार इत्यादि वे अघोषित नेता हैं जो समाज को दिशा प्रदान करते हैं। यह दिशा प्रभावोत्पादक व सकारात्मक परिणाम प्रस्तुत करने में समर्थ हो, यह संकल्प लिया जाना आवश्यक है।

1 comment:

  1. हमारे समय और समाज पर एक व्यंग्य की तरह 'देल्ही बेली' का आगाज होता है लेकिन तमाम कसावट के बावजूद उसका ट्रीटमेंट देखकर रोना आता है कि वह बात किस समाज की बात कर रहा है। शुरूआत और अंत दोनों में वह हमें परेशान करने लगती है कि आखिर निर्दैशक दिखाना क्या चाहता है? आमिर को उस रूप में देखना अखरता भी है क्योंकि वह उनका स्वाभाविक रूप नहीं है लेकिन वह फिल्म का हिस्सा भी नहीं है। फिल्म पर बहुत कुछ कहा जा चुका है इसलिए इसके कुछ नए पहलुओं पर भी सोचा जाए। गालियों के अतिरिक्त भी उसमें कुछ है भी कि नहीं...
    कुछ बातें गौर करने लायक है - यह फिल्म प्रेम को वह नए रूप में देखती और स्वीकारती है। और वह असहज भी नहीं लगता। शादीशुदा लड़की अपने पति के सामने अपने पुरूष मित्र के साथ है।
    1. फिल्म कला, संस्कृति और संगीत पर एक जबरदस्त टिप्पणी है। छत का टूटना और उसमें एक कलाकार के पाँव का फंसना बहुत कुछ कह जाता है। हालांकि वह सांकेतिक अधिक है।
    2. तमाम प्रतिकूल परिस्थियों में भी इसके पात्र जीवन को जीते चलते है, उसे घसिटते नहीं। तमाम छल-छद्म के बावजूद वे इंसान बने रहते है। मकान मालिक का अपने किराएदार को अस्पताल ले जाने और यह कहना कि तुम होते तो तुम भी यही करते, और उस पर सहनायक की खामोशी हमारे समाज के बदलाव को चिह्नित करती है।
    शेष फिर...

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